Thread Rating:
  • 5 Vote(s) - 1.8 Average
  • 1
  • 2
  • 3
  • 4
  • 5
Incest हाए भैय्या,धीरे से, बहुत मोटा है
#48
हिन्दी साहित्य का माधयमिक काल, मेरे विचार से चौदहवीं ईस्वी शताब्दी से प्रारम्भ होता है। इस समय विजयी *ों का अधिाकार उत्तार भारत के अधिाकांश विभागों में हो गया था और दिन-दिन उनकी शक्ति वर्ध्दित हो रही थी। दक्षिण प्रान्त में उन्होंने अपने पाँव बढ़ाये थे और वहाँ भी विजय-श्री उनका साथ दे रही थी। इस समय * विजेता अपने प्रभाव विस्तार के साथ भारतवर्ष की भाषाओं से भी स्नेह करने लगे थे और उन युक्तियाें को ग्रहण कर रहे थे जिनसे उनके राज्य में स्थायिता हो और वे हिन्दुओं के हृदय पर भी अधिाकार कर सकें। इस सूत्रा से अनेक ,., विद्वानों ने हिन्दी भाषा का अधययन किया, क्योंकि वह देश-भाषा थी। *ों में राज्य-प्रसार के साथ अपने धार्म-प्रचार की भी उत्कट इच्छा थी। जहाँ वे राज्य-रक्षण अपनार् कत्ताव्य समझते, वहीं अपने धार्म्म के विस्तार का आयोजन भी बड़े आग्रह के साथ करते। उस समय का इतिहास पढ़ने से यह ज्ञात होता है कि जहाँ विजयी *ों की तलवार एक प्रान्त के बाद भारत के दूसरे प्रान्तों पर अधिाकार कर रही थी, वहीं उनके धार्म-प्रचारक अथवा मुल्ला लोग अपने धार्म की महत्ताा बतला कर हिन्दू जनता को भी अपनी ओर आकर्षित कर रहे थे। यह स्वाभाविक है कि विजित जाति विजयी जाति के आचार-विचार और रहन-सहन की ओर खिंच जाती है। क्योंकि अनेक कार्य-सूत्रा से उनका प्रभाव उनके ऊपर पड़ता रहता है। इस समय बौध्द धार्म का प्राय: भारतवर्ष से लोप हो गया था। बहुतों ने या तो * धार्म स्वीकार कर लिया था या फिर अपने प्राचीन वैदिक धार्म की शरण ले ली थी। कुछ भारतवर्ष को छोड़कर उन देशों को चले गये थे जहाँ पर बौध्द धार्म उस समय भी सुरक्षित और ऊर्ज्जित अवस्था में था। इस समय भारत में दो ही धार्म मुख्यतया विद्यमान थे, उनमें एक विजित हिन्दू जाति का धार्म था और दूसरा विजयी * जाति का। राज-धार्म होने के कारण * धार्म को उन्नति के अनेक साधान प्राप्त थे, अतएव वह प्रतिदिन उन्नत हो रहा था और राजाश्रय के अभाव एवं समुन्नति-पथ में प्रतिबन्धा उपस्थित होने के कारण हिन्दू धार्म दिन-दिन क्षीण हो रहा था। इसके अतिरिक्त विविधा-राज कृपावलंबित प्रलोभन अपना कार्य अलग कर रहे थे। इस समय सूफी सम्प्रदाय के अनेक * फकीरों ने अपना वह राग अलापना प्रारम्भ किया था, जिस पर कुछ हिन्दू बहुत विमुग्धा हुए और अपने वंशगत धार्म को तिलांजलि देकर उस मंत्रा का पाठ किया, जिससे उनको अपने अस्तित्व-लोप का सर्वथा ज्ञान नहीं रहा। ऐसी अवस्था में जहाँ हिन्दुओं की क्षीण शक्ति प्रान्तिक राजा-महाराजाओं के रूप में अपने दिन-दिन धवंस होते छोटे-मोटे राजाओं की रक्षा कर रही थी, वहाँ पुण्यमयी भारत-वसुन्धारा में ऐसे धार्मप्राण आचार्य भी आविर्भूत हुए, जिन्होंने पतनप्राय वैदिक धार्म की बहुत रक्षा की। डॉक्टर ईश्वरी प्रसाद ने बंगाल प्रान्त में सूफियों में धार्म्म प्रचार के विषय में अपने (मेडिबल इंडिया) नामक ग्रंथ में जो कुछ लिखा है, उसमें इस समय का सच्चा चित्रा अंकित है। अभिज्ञता के लिए उसका कुछ अंश मैं यहाँ उध्दाृत करता हूँ। 1

''चौदहवीं शताब्दी बंगाल में * फष्कीरों की क्रियाशीलता के लिए प्रसिध्द थी। पैण्डुआ में अनेक प्रसिध्द और पवित्रा सन्तों का निवास था। इसी कारण इस स्थान का नाम हजशरत पड़2 गया था।

अन्य प्रसिध्द सन्त थे अलाउल हकष् और उनके पुत्रा मूर कष्ुतुबुल-आलम। अलाउल हकष् शेख निजशमुद्दीन औलिया का शिष्य था। बंगाल का हुसेन शाह (1485-1519 ई.) सत्यपीर नामक एक नये पंथ का प्रवर्तक था, जिसका उद्देश्य था हिन्दुओं और *ों को एक कर देना। सत्यपीर एक समस्त शब्द है, जिसमें सत्य संस्कृत का और पीर अरबी भाषा का शब्द है।''3

यह एक प्रान्त की अवस्था का निदर्शन है। अन्य विजित प्रान्तों की भी ऐसी ही दशा थी। उस समय सूफी सिध्दान्त के मानने वाले महात्माओं के द्वारा उनके उद्देश्यों का प्रचुर प्रचार हो रहा था, और वे लोग दृढ़ता के साथ अपनी संस्थाओं का संचालन कर रहे थे। यह धाार्मिक अवस्था की बात हुई, राजनीतिक अवस्था भी उस समय ऐसी ही थी। साम दान दण्ड विभेद से पुष्ट होकर वह भी कार्य-क्षेत्रा में अपने प्रभाव का विस्तार अनेक सूत्राों से कर रही थी। मैं पहले लिख आया हूँ कि जैसा वातावरण होता है साहित्य भी उसी रूप में विकसित होता है। माधयमिक काल

1-3. The fourteenth century was remarkable for the activity of the '. faquirs in Bengal,....There were several saints of reputed sancetity in Pandua, which owing to their presence, came to be called Hazarat....other noted saints were Alaul Haq and his son Nur Qutbul Alam, Alaul Haq was also disciple of Saikh Nizamuddin Aulia, Hussain Shah of Bengal (1493-1519 A. D.) was the founder of a new cult called Satyapir, which aimed at uniting the Hindus and the '.s Satyapir, was compounded of Satya, a Sanskrit word and Pir which is an Arabic word.

के साहित्य में भी यह बात पाई जाती है। चौदहवीं ईस्वी शताब्दी से सत्राहवीं शताब्दी तक * साम्राज्य दिन-दिन शक्तिशाली होता गया। इसके बाद उसका अचानक ऐसा पतन हुआ कि कुछ वर्षों में ही इतिश्री हो गई। यह एक संयोग की बात है कि हिन्दी-संसार के वे कवि और महाकवि जिनसे हिन्दी-भाषा का मुख उज्ज्वल हुआ इसी काल में हुए। इस माधयमिक काल में जैसा सुधाावर्षण हुआ, जैसी रस धाारा बही, जैसे ज्ञानालोक से हिन्दी संसार आलोकित हुआ, जैसा भक्ति-प्रवाह हिन्दी काव्य-क्षेत्रा में प्रवाहित हुआ, जैसे समाज के उच्च कोटि के आदर्श उसको प्राप्त हुए, उसका वर्णन बड़ा ही हृदय-ग्राही और मर्म-स्पर्शी होगा। मैंने इस कार्य्यसिध्दि के लिए ही इस समय की धाार्मिक, राजनीतिक और सामाजिक अवस्थाओं का चित्रा यहाँ पर चित्रिात किया है। अब प्रकृत विषय को लीजिए।

चौदहवें शतक में भी कुछ जैन विद्वानों ने हिन्दी भाषा में कविता की है। इनके अतिरिक्त नल्ल सिंह भाट सिरोहिया ने विजयपाल रासो, शारंगधार नामक कवि ने शारंगधार-पध्दति, हम्मीर काव्य और हम्मीर रासो नामक तीन ग्रंथ बनाये, जिनमें से हम्मीर रासो अधिाक प्रसिध्द है, बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी में जैसे शब्दों से युक्त भाषा लिखी गयी है, उससे इन लोगों की रचनाओं में हिन्दी का स्वरूप विशेष परिमार्जित मिलता है। प्रमाण्ास्वरूप कुछ पद्य नीचे उध्दाृत किये जाते हैं।

कवि शारंगधार (रचनाकाल 1306 ई.)

1. ढोलामारियढिल्लिमहँ मुच्छिउ मेच्छ सरीर।

पुर जज्जल्ला मंत्रिावर चलिय वीर हम्मीर।

चलिअ बीर हम्मीर पाअभर मेंइणि कंपइ।

दिग पग डह अंधाार धाूलि सुरिरह अच्छा इहि।

ग्रंथ-संघपति समरा रासो, कवि अम्बदेव जैन, (रचना काल 1314 ई.)

2. निसि दीवी झलहलहिं जेम उगियो तारायण।

पावल पारुन पामिय बहई वेगि सुखासण।

आगे बाणिहिं संचरए सँघपति सहु देसल।

बुध्दिवंत बहु पुण्यवंत पर कमिहिं सुनिश्चल।

ग्रंथ थूलि भद्र फागु, कवि जिन पर्सिूंरि (रचनाकाल 1320 ई.)

3. अह सोहग सुन्दर रूपवंत गुण मणिभण्डारो।

कंचण जिमि झलकंत कंति संजम सिरिहारो।

थूलिभद्र मणिराव जाम महि अलो बुहन्तउ।

नयर राम पाउलिय मांहि पहुँतउ बिहरंतउ।

ग्रन्थ विजयपाल रासो (रचना काल 1325 ई.) नल्लसिंह भाट सिरोहिया।

4. दश शत वर्ष निराण मास फागुन गुरु ग्यारसि।

पाय-सिध्द बरदान तेग जद्दव कर धाारसि।

जीतिसर्व तुरकान बलख खुरसान सुगजनी।

रूम स्याम अस्फहाँ फ्रंग हवसान सु भजनी।

ईराण तोरि तूराण असि खौसिर बंग ख्रधाार सब।

बलवंड पिंड हिंदुवान हद चढिब बीर बिजयपालसब।

जिस क्रम से कविताओं का उध्दरण किया गया है, उसके देखने से ज्ञात हो जायेगा कि उत्तारोत्तार एक से दूसरी कविता की भाषा का अधिाकतर परिमार्जित रूप है। शारंगधार की रचना में अधिाक मात्राा में अपभ्रंश शब्द हैं। ऐसे शब्द चिद्दित कर दिये गये हैं। उसके बाद की नम्बर 2 और 3 की रचनाओं में इने-गिने शब्द ही अधिाकतर दिखलाई देते हैं। जिससे पता चलता है कि इस शताब्दी की आदि की रचनाओं पर तो अपभ्रंश शब्दों का अवश्य अधिाक प्रभाव है। परन्तु बाद की रचनाओं में उनका प्रभाव उत्तारोत्तार कम होता गया है। यहाँ तक कि अमीर खुसरो की रचनाएँ उनसे सर्वथा मुक्त दिखलाई पड़ती हैं।

अमीर खुसरो इस शताब्दी का सर्वप्रधाान कवि है। यह अनेक भाषाओं का पंडित था। इसके रचे फारसी भाषा के अनेक ग्रंथ हैं। इसकी हिन्दी रचनाएँ बहुमूल्य हैं। वे इतनी प्रांजल और सुन्दर हैं कि उनको देखकर यह आश्चर्य होता है कि पहले-पहल एक * ने किस प्रकार ऐसी परिष्कृत और सुन्दर हिन्दी भाषा लिखी। मैं पहले लिख आया हूँ कि माधयमिक काल में * अनेक उद्देश्यों से हिन्दी भाषा की ओर आकर्षित हो गये थे। ऐसे *ों का अग्र-गण्य मैं अमीर खुसरो को मानता हूँ। इसके पद्यों में जिस प्रकार सुन्दर ब्रजभाषा की रचना का नमूना मिलता है, उसी प्रकार खड़ी बोली की रचना का भी। इस सहृदय कवि की कविताओं को देखकर यह अवगत होता है कि चौदहवीं शताब्दी में भी ब्रजभाषा और खड़ी बोली दोनों की कविताओं का समुचित विकास हो चुका था। परन्तु उसके नमूने अन्य कहीं खोजने पर भी नहीं प्राप्त होते। इसलिए इन भाषाओं की परिमार्जित रचनाओं का आदर्श उपस्थित करने का गौरव इस प्रतिभाशाली कवि को ही प्राप्त है। मैं उनकी दोनों प्रकार की रचनाओं के कुछ उदाहरण नीचे लिखता हूँ। उनको पढ़कर यह बात निश्चित हो सकेगी कि मेरा कथन कहाँ तक युक्ति-संगत है।

1. एक थाल मोती से भरा , सबके सिर पर औंधाा धारा।

चारों ओर वह थाली फिरे , मोती उससे एक न गिरे।

2. आवे तो ऍंधोरी लावे , जावे तो सब सुख ले जावे।

क्या जानूं वह कैसा है , जैसा देखा वैसा है।

3. बात की बात ठठोली की ठठोली।

मरद की गाँठ औरत ने खोली।

4. एक कहानी मैं कहूँ तू सुन ले मेरे पूत।

बिना परों वह उड़ गया , बाँधा गले में सूत।

5. सोभा सदा बढ़ावन हारा , ऑंखिन ते छिन होत न न्यारा।

आये फिर मेरे मनरंजन ऐ सखि साजन ना सखि अंजन।

6. स्यामबरन पीताम्बर काँधो , मुरलीधार नहिं होइ।

बिन मुरली वह नाद करत है , बिरला बूझै कोइ।

7. उज्जल बरन अधाीनतन , एक चित्ता दो धयान।

देखत में तो साधाु है , निपट पाप को खान।

8. एक नार तरवर से उतरी , मा सो जनम न पायो।

बाप को नांव जो वासे पूछयो आधो नाँव बतायो।

आधो नाँव बतायो खुसरो कौन देस की बोली।

बाको नाँव जो पूछयो मैंने अपने नांव न बोली।

9. एक गुनी ने यह गुन कीना हरियल पिंजरे में दे दीना।

देखो जादूगर का हाल डाले हरा निकाले लाल।

इन पद्यों में नम्बर 1 से 4 तक के पद्य ऐसे हैं जो शुध्द खड़ी बोली में लिखे गये हैं, नम्बर 5 और 6 शुध्द ब्रजभाषा के हैं और नम्बर 7 से 9 तक के ऐसे हैं कि जिनमें खड़ी बोलचाल और ब्रजभाषा दोनों का मिश्रण है। मैं समझता हूँ कि इस अन्तर का कारण उस भेद की अनभिज्ञता है जो खड़ी बोली को ब्रजभाषा से अलग करती है। इसके प्रमाण वे पद्य भी हैं जिनमें दोनों भाषाओं का मिश्रण है। उस समय खड़ी बोली या ब्रजभाषा का कोई विवाद नहीं था और न ऐसे नियम प्रचलित थे जो एक को दूसरे से अलग करते। वे हिन्दी भाषा के सब प्रकार के प्रयोगों को एक ही समझते थे। इसलिए इतना सूक्ष्म विचार न कर सके। यह संयोग से ही हो गया है कि कुछ पद्य शुध्द खड़ी बोली के और कुछ ब्रजभाषा के बन गये हैं। उनकी दृष्टि इधार नहीं थी। इस समय जब खड़ी बोलचाल और ब्रजभाषा की धााराएँ अलग-अलग बह रही हैं, उनकी रचनाओं की इस त्राुटि पर चाहे विशेष दृष्टि दी जावे, परन्तु उस समय उन्होंने हिन्दी भाषा सम्बन्धाी जैसी मर्मज्ञता, योग्यता और निपुणता दिखलाई है, वह उल्लेखनीय है। उनके पहले के कवियों की रचनाओं से उनकी रचनाओं में अधिाकतर प्रांजलता है, जो हिन्दी के भण्डार पर उनका प्रशंसनीय अधिाकार प्रकट करती है। उनकी रचनाओं में फारसी और अरबी इत्यादि के शब्द भी आये हैं, परन्तु वे इस सुन्दरता से खपाये गये हैं कि जिसकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है। चन्द बरदाई के समय से ही हिन्दी भाषा में अरबी,फारसी और तुर्की के शब्द गृहीत होने लगे थे और यह सामयिक प्रभाव का फल था। परन्तु जिस सावधाानी और सफाई के साथ उन भाषाओं के शब्दों का प्रयोग इन्होंने किया है, वह अनुकरणीय है। उन भाषाओं के अधिाकतर शब्द अन्य कवियों द्वारा तोड़-मरोड़कर या बिगाड़कर लिखे गये हैं, किन्तु यह कवि प्राय: इन दोषों से मुक्त था। एक विशेषता इनमें यह भी देखी जाती है कि अरबी के बÐों में इन्होंने हिन्दी पद्यों की रचना सफलतापूर्वक की है, साथ ही फारसी के वाक्यों के साथ हिन्दी वाक्यों को अपने एक पद्य में इस उत्तामता से मिलाया है, जो मुग्धा कर देता है। मैं उस पद्य को यहाँ लिखता हूँ। आप लोग भी उसका रस लें-

'' जेहाले मिस्कीं मकुन तग़ाफुलदुराय नैना बनाय बतियाँ।

कि ताबे हिज्रां दारमऐजां न लेहु काहें लगाय छतियाँ।

शबाने हिज्रां न दराज़ चूँ जुल्फ व रोजे वसलत चूँ उम्र कोतह।

सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ ऍंधोरी रतियाँ।

एकाएक अज़दिल दो चश्मे जादू बसद फ़रेबम् बेबुर्द तस्कीं।

किसे पड़ी है जो जा सुनावे पियारे पी को हमारी बतियाँ।

चूँ शमा सोज़ां चूँ ज़र्रा हैरां हमेशा गिरियाँ बइश्क़ ऑंमह।

न नींद नैना न अंग चैना न आप आवें न भेजैं पतियाँ।

बहक्क रोजे विसाल दिलवर दि दाद मारा फ़रेब खुसरों।

सुपीत मन को दुराय राखूँ जो जान पाऊँ पिया की घतियाँ।

इस पद्य का अरबी बÐ है फ़ऊल फ़ेलुन फ़ऊल फ़ेलुन फ़उल फ़ेलुन फष्ऊल फ़ेलुन। पहले दो चरणों में हिन्दी शब्दों का प्रयोग निर्दोष हुआ है यद्यपि वे शुध्द ब्रज भाषा में लिखे गये हैं। केवल 'नैना' का 'ना' दीर्घ कर दिया गया है। किन्तु यह अपभ्रंश और ब्रज भाषा के नियमानुकूल है। शेष पद्यों की भाषा खड़ी हिन्दी की बोलचाल में है। केवल 'रतियाँ', 'बतियाँ', 'पतियाँ', 'घतियाँ' का प्रयोग ही ऐसा है, जो ब्रजभाषा का कहा जा सकता है। उनके इस प्रकार के मिश्रण के सम्बन्धा में मैं अपनी सम्मति प्रकट कर चुका हूँ। हाँ, मात्रिाक छन्दों के नियमों की दृष्टि से खड़ी बोली के पद्य निर्दोष नहीं हैं। अनेक स्थानों पर लघु के स्थान पर गुरु लिखा गया है यद्यपि वहाँ लघु लिखना चाहिए था। जैसे सखी पिया को जो मैं न देखूँ तो कैसे काटूँ ऍंधोरी 'रतियाँ' इस पद्य में 'जो' के स्थान पर 'जु' तो के स्थान पर 'त', कैसे के स्थान पर 'कैस' और ऍंधोरी के स्थान पर'ऍंधोर', पढ़ने से ही छन्द की गति निर्दोष रहेगी। ऐसी ही हिन्दी भाषा के शेष पद्यों की पंक्तियाँ सदोष हैं, परन्तु जब हम वर्तमान काल की उन्नति प्राप्त उर्दू पद्यों को देखते हैं तो उनके इस प्रकार के पद्य-गत हिन्दी भाषा के शब्द-विन्यास को दोषावह नहीं समझते, क्योंकि अरबी बÐों में हिन्दी शब्दों का व्यवहार प्राय: विवश होकर इसी रूप में करना पड़ता है। वरन् कहना यह पड़ता है कि उर्दू कविता के प्रारम्भ होने से 200 वर्ष पहले ही इस प्रणाली का आविर्भाव कर उन्होंने उर्दू संसार के कवियों को उस मार्ग का प्रदर्शन किया जिस पर चलकर ही आज उर्दू पद्य-साहित्य इतना समुन्नत है। इस दृष्टि से उनकी गृहीत प्रणाली एक प्रकार से अभिनन्दनीय ही ज्ञात होती है, निन्दनीय नहीं। खुसरो ने हिन्दुस्तानी भावों का चित्राण करते हुए कुछ ऐसे गीत भी लिखे हैं जो बहुत ही स्वाभाविक हैं। उनमें से एक देखिए-

ड्डसावन का गीतड्ड

अम्मा मेरे बाबा को भेजो जी कि सावन आया।

बेटी तेरा बाबा तो बुङ्ढा री कि सावन आया।

अम्मा मेरे भाई को भेजो जी कि सावन आया।

बेटी तेरा भाई तो बालारी कि सावन आया।

अम्मा मेरे मामूं को भेजो जी कि सावन आया।

बेटी तेरा मामूँ तो बाँकारी कि सावन आया।

दो दोहे भी देखिए, कितने सुन्दर हैं-

1. खुसरो रैनि सुहाग की , जागी पी के संग।

तन मेरो मन पीउ को , दोऊ भये इक रंग।

2. गोरी सोवै सेज पर , मुख पर डारे केस।

चल खुसरो घर आपने , रैनि भई चहुँदेस।

इच्छा न होने पर भी खुसरो की कविता के विषय में इतना अधिाक लिख गया। बात यह है कि खुसरो की विशेषताओं ने ऐसा करने के लिए विवश किया। यदि उन्होंने सबसे पहले बोलचाल की साफ सुथरी चलती हिन्दी का आदर्श उपस्थित किया तो शब्द भी तुले हुए रक्खे। न तो उनको तोड़ा-मरोड़ा, न बदला और न उनके वर्णों को द्वित्ता बनाकर उन्हें संयुक्त शब्दों का रूप दिया। अपनी रचना में भाव भी वे ही भरे जो देश भाषा के अनुकूल थे। प्राकृत शब्दों का प्रयोग भी उनकी रचनाओं में पाया जाता है। परन्तु वे ऐसे हैं जो सर्वथा हिन्दी के रंग में ढले हुए हैं, जैसे पीत, उज्जल और रैन इत्यादि। प्राकृत में शकार के स्थान पर स हो जाता है। इन्होंने भी अपनी रचना में इस नियम का पालन किया है, जैसे 'सोभा', 'स्याम', 'केस', 'देस'इत्यादि। संस्कृत के तत्सम शब्द भी इनकी रचना में हैं परन्तु चुने हुए। हिन्दी आरम्भिक काल से ही इस प्रणाली को ग्रहण करती आई है। यह बात इनके इस प्रकार के प्रयोगों से भी प्रकट होती है। यह उनके कवि-हृदय की विशेषता है कि जो तत्सम शब्द संस्कृत के इनके पद्य में आये हैं, वे कोमल और हिन्दी के तद्भव शब्दों के जोड़ के हैं जैसे सुख, मुरलीधार, रंजन,अधाीन, नाद, धयान, साधाु, पाप इत्यादि। ये सब ऐसी ही विशेषताएँ हैं, जो माधयमिक काल के रचयिताओं में खुसरो को एक विशेष स्थान प्रदान करती हैं। खुसरो का निवास दिल्ली में था। मेरा विचार है कि उसके अथवा मेरठ के आसपास जो बोली उस समय बोली जाती थी, उसी पर दृष्टि रखकर उन्होंने अपनी रचनाएँ कीं। इसीलिए वे अधिाकतर बोलचाल की भाषा के अनुकूल हैं और इसी से उनमें विशेष सफाई आ गई है। उनकी कविता में ब्रजभाषा के कुछ शब्दों और क्रियाओं का प्रयोग भी पाया जाता है। जैसे बढ़ावनहारा, वासे, बनायो, वाको, पूछयो, दुराय, बनाय, बतियाँ इत्यादि। मैं समझता हूँ कि इन शब्दों का व्यवहार आकस्मिक है और इस कारण हो गया है कि उस समय ब्रजभाषा फैल चली थी और उसकी मधाुरता कवि हृदय को अपनी ओर खींचने लगी थी।

अमीर खुसरो का समकालीन एक और मुल्लादाऊद नामक ब्रजभाषा का कवि हुआ। कहा जाता है कि उसने नूरक एवं चन्दा की प्रेम कथा नामक दो हिन्दी पद्य-ग्रन्थों की रचना की, किन्तु ये दोनों ग्रन्थ अप्राप्त-से हैं। इसलिए इसकी रचना की भाषा के विषय में कुछ लिखना असम्भव है। इसके उपरान्त महात्मा गोरखनाथ का हिन्दी साहित्य-क्षेत्रा में दर्शन होता है। हाल में कुछ लोगों ने इनको ग्यारहवीं ई. शताब्दी का कवि लिखा है, किन्तु अधिाकांश सम्मति यही है कि ये चौदहवीं शताब्दी में थे। ये धार्म्माचार्य्य ही नहीं थे, बहुत बड़े साहित्यिक पुरुष भी थे। इन्होंने संस्कृत भाषा में नौ ग्रन्थों की रचना की है, जिनमें से'विवेक-मार्तण्ड', 'योग-चिन्तामणि' आदि प्रकाण्ड ग्रन्थ हैं। इनका आविर्भाव नेपाल अथवा उसकी तराई में हुआ। उन दिनों इन स्थानों में विकृत बौध्द धार्म्म का प्रचार था, जो उस समय नाना कुत्सित विचारों का आधाार बन गया था। इन बातों को देखकर उन्होंने उसका निराकरण करके आर्य्य धार्म्म के उत्थान में बहुत बड़ा कार्य किया। उन्होंने अपने सिध्दान्त के अनुसार शैव धार्म का प्रचार किया, किन्तु परिमार्जित रूप में। उस समय इनका धार्म इतना आद्रित हुआ कि उनकी पूजा देवतों के समान होने लगी। इनका मन्दिर गोरखपुर में अब तक मौजूद है। गोरखपंथ के प्रवर्तक आप ही हैं। इनके अनुयायी अब तक उत्तार भारत में जहाँ-तहाँ पाये जाते हैं। इनकी रचनाओं एवं शब्दों का मर्म समझने के लिए यह आवश्यक है कि उस काल के बौध्द धार्म की अवस्था आप लोगों के सामने उपस्थित की जावे। इस विषय में 'गंगा' नामक मासिक पत्रिाका के प्रवाह 1, तरंग9 में राहुल सांकृत्यायन नामक एक बौध्द विद्वान् ने जो लेख लिखा है उसी का एक अंश मैं यहाँ प्रस्तुत विषय पर प्रकाश डालने के लिए उध्दाृत करता हूँ-

''भारत से बौध्द धार्म का लोप तेरहवीं, चौदहवीं शताब्दी में हुआ। उस समय की स्थिति जानने के लिए कुछ प्राचीन इतिहास जानना आवश्यक है।''

'आठवीं शताब्दी में एक प्रकार से भारत के सभी बौध्द सम्प्रदाय वज्रयान-गर्भित महायान के अनुयायी हो गये थे। बुध्द की सीधाी-सीधाी शिक्षाओं से उनका विश्वास उठ चुका था और वे मनगढ़न्त हजारों लोकोत्तार कथाओं पर मरने लगे थे। बाहर से भिक्षु के कपड़े पहनने पर भी वे भैरवी चक्र के मजे उड़ा रहे थे। बड़े-बड़े विद्वान् और प्रतिभाशाली कवि आधो पागल हो,चौरासी सिध्दों में दाखिल हो, सन्धया-भाषा में निर्गुण गा रहे थे। सातवीं शताब्दी में उड़ीसा के राजा इन्द्रभूति और उसके गुरु सिध्द अनंग, वज्र स्त्रिायों को ही मुक्तिदात्राी प्रज्ञा, पुरुषों को ही मुक्ति का उपाय और शराब को ही अमृत सिध्द करने में अपनी पंडिताई और सिध्दाई खर्च कर रहे थे। आठवीं शताब्दीसे बारहवीं शताब्दी तक का बौध्द धार्म वस्तुत: वज्रयान या भैरवी चक्र का धार्म था। महायान ने ही धाारणीयों और पूजाओं से निर्वाण को सुगम कर दिया था। वज्रयान नेतो उसे एकदम सहज कर दिया। इसीलिए आगे चलकर वज्रयान सहजयान भी कहा जाने लगा।'

''वज्रयान के विद्वान् प्रतिभाशाली कवि, चौरासी सिध्द, विलक्षण प्रकार से रहा करते थे। कोई पनही बनाया करता था,इसलिए उसे पनहिया कहते थे, कोई कम्बल ओढ़े रहता था, इसलिए उसे कमरिया कहते थे, कोई डमरू रखने से डमरुआ कहलाता था, कोई ओखली रखने से ओखरिया आदि। ये लोग शराब में मस्त, खोपड़ी का प्याला लिए श्मशान या विकट जंगलों में रहा करते थे। जन-साधाारण को जितना ही ये फटकारते थे, उतना ही वे इनके पीछे दौड़ते थे। लोग बोधिासत्तव प्रतिमाओं तथा दूसरे देवताओं की भाँति इन सिध्दों को अद्भुत चमत्कारों और दिव्य शक्तियों के धानी समझते थे। ये लोग खुल्लम-खुल्ला स्त्रिायों और शराब का उपभोग करते थे। राजा अपनी कन्याआें तक को इन्हें प्रदान करते थे। ये लोग त्राोटक या hypnotismकी कुछ प्रक्रियाओं से वाक़िफ थे। इसी बल पर अपने भोले-भाले अनुयाइयों को कभी-कभी कोई-कोई चमत्कार दिखा देते थे। कभी हाथ की सफाई तथा श्लेषयुक्त अस्पष्ट वाक्यों से जनता पर अपनी धााक जमाते थे। इन पाँच शताब्दियों में धीरे-धीरे एक तरह से सारी भारतीय जनता इनके चक्कर में पड़कर कामव्यसनी, मद्यप और मूढ़ विश्वासी बन गयी थी।''
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
Like Reply


Messages In This Thread
REसाहित्य - by neerathemall - 01-08-2019, 03:29 AM
RE: हाए भैय्या,धीरे से, बहुत मोटा है - by neerathemall - 01-08-2019, 03:32 AM



Users browsing this thread: 14 Guest(s)