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Incest हाए भैय्या,धीरे से, बहुत मोटा है
#47
ग्रन्थ की यहाँ तक प्रतिकूलता करते हैं कि उसका प्रकाश तक बंद करा देना चाहते हैं। यदि पंडित मोहनलाल विष्णुलाल पंडया अनेक तर्क-वितर्कों से पृथ्वीराज रासो की प्राचीनता का पक्ष-ग्रहण करते हैं तो जोधापुर के मुरादिदान और उदयपुर के श्यामल दास भी उसका विरोधा करने के लिए कटिबध्द दिखलाई पड़ते हैं। थोड़ा समय हुआ कि रायबहादुर पं. गौरीशंकर हीराचन्द ओझा ने भी अपनी प्रबल युक्तियों से इस ग्रन्थ को सर्वथा जाली कहा है। परन्तु, जब हम देखते हैं कि महामहोपाधयाय पं. हरप्रसाद शास्त्राी सन् 1909 से सन् 1913 तक राजपूताने में प्राचीन ऐतिहासिक काव्यों की खोज करके पृथ्वीराज रासो को प्राचीनता की सनद देते हैं तो इस विवर्ध्दित वाद की विचित्राता ही सामने आती है। इन विद्वान् पुरुषों ने अपने-अपने पक्ष के अनुकूल पर्याप्त प्रमाण दिये हैं। इसलिए इस विषय में अब अधिाक लिखना बाहुल्य मात्रा हो। मैंने भी अपने पक्ष की पुष्टि के लिए उद्योग किया है। किन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि मैंने जो कुछ लिखा है, वह निर्विवाद है। हाँ, एक बात ऐसी है जो मेरे विचार के अधिाकतर अनुकूल है। वह यह कि बहुत कुछ तर्क-वितर्क और विवाद होने पर भी किसी ने चन्दबरदाई को सोलहवें शतक का कवि नहीं माना है। विवाद करने वालों ने भी साहित्य के वर्णन के समय उसको बारहवें शतक में ही स्थान दिया है। यदि पृथ्वीराज रासो की प्राचीनता की सत्यता में सन्देह है तो उसको बारहवें शतक में क्यों स्थान अब तक मिलता आता है। मेरा विचार है कि इसके पक्ष में ऐसी सत्यता अवश्य है जो इसको बारहवें शतक का काव्य मानने के लिए बाधय करती है। इसके अतिरिक्त जब तक संदिग्धाता है तब तक उस पद से किसी को कैसे गिराया जा सकता है जो कि चिरकाल से उसे प्राप्त है।

चन्दबरदाई का समसामयिक जगनायक अथवा जगनिक नामक एक ऐसा प्रसिध्द कवि है जिसकी वीरगाथामय रचनाओं का इतना अधिाक प्रचार सर्वसाधाारण में है जितना उस समय की और किसी-कवि-कृति का अब तक नहीं हुआ। इसकी रचनाएँ आज दिन भी उत्तार भारत के अधिाकांश विभागों के हिन्दुओं की सूखी रगों में रक्त-धाारा का प्रवाह करती रहती है। पश्चिमोत्तार प्रान्त के पूर्व और दक्षिण के अंशों में इसके गीतों का अब भी बहुत अधिाक प्रचार है। वर्षाकाल में जिस वीरोन्माद के साथ इस गीति-काव्य का गान ग्रामों के चौपालों और नगरों के जनाकीर्ण स्थानों में होता है, वह किसके हृदय में वीरता का संचार नहीं करता? इसके गीतों में महोबा के राजा के दो प्रधाान वीर आल्हा और ऊदल के वीर कम्र्मों का बड़ा ही ओजमय वर्णन है यद्यपि यह बात बड़ी ही मर्म्म-भेदी है कि इन दोनों वीरों के वीर कम्र्मों की इतिश्री गृहकलह में ही हुई। महोबे के प्रसिध्द शासक परमाल और उस काल के प्रधाान क्षत्रिाय भूपाल पृथ्वीराज का संघर्ष ही गीति-काव्य का प्रधाान विषय है। यह वह संघर्ष था कि जिसका परिणाम पृथ्वीराज का पतन और भारतवर्ष के चिर-सुरक्षित दिल्ली के उस फाटक का भग्न होना था जिसमें प्रवेश करके विजयी * जाति भारत की पुण्य भूमि में आठ सौ वर्ष तक शासन कर सकी। तथापि यह बात गर्व के साथ कही जा सकती है कि जैसा वीर रस का ओजस्वी वर्णन इस गीति काव्य में है हिन्दी साहित्य के एक दो प्रसिध्द ग्रन्थों में ही वैसा मिलता है। यह ओजस्विनी रचना, कुछ काल हुआ, आल्हा खंड के नाम से पुस्तकाकार छप चुकी है, परन्तु बहुत ही परिवर्तित रूप में। उसका मुख्य रूप क्या था, इसकी मीमांसा करना दुस्तर है। जिस रूप में यह पुस्तक हिन्दी-साहित्य के सामने आई है उसके आधाार से इतना ही कहा जा सकता है कि इस कवि का उस काल की साहित्यिक हिन्दी पर, जैसा चाहिए, वैसा अधिाकार नहीं था। प्राप्त रचनाओं के देखने से यह ज्ञात होता है कि उसमें बुन्देलखंडी भाषा का ही बाहुल्य है। हिन्दी भाषा के विकास पर उससे जैसा चाहिए वैसा प्रकाश नहीं पड़ता, विशेषकर इस कारण से कि मौखिक गीति-काव्य होने से समय के साथ उसकी रचना में भी परिवर्तन होता गया है। किन्तु हिन्दी भाषा के आरम्भिक काल में जो परिवर्तन जो संघर्ष यहाँ के विद्वेषपूण्र्ा राजाओं में परस्पर चल रहा था उसका यह ग्रंथ पूर्ण परिचायक है। इसीलिए इस कवि की रचनाओं की चर्चा यहाँ की गई। मैं समझता हूँ कि जितने ग्रामीण गीत हिन्दी भाषा के सर्वसाधाारण में प्रचलित हैं, उनमें जगनायक के आल्हा खंड की प्रधाानता है। उसके देखने से यह अवगत होता है कि सर्वसाधाारण की बोलचाल में भी कैसी ओजपूर्ण रचना हो सकती है। इस उद्देश्य से भी इस कवि की चर्चा आवश्यक ज्ञात हुई। उसकी रचना के कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं-

कूदे लाखन तब हौदा से , औ धारती मैं पहुँचे आइ।

गगरी भर के फूल मँगाओ सो भुरुही को दओ पियाइ।

भांग मिठाई तुरतै दइ दइ , दुहरे घोट अफीमन क्यार।

राती भाती हथिनी करि कै दुहरे ऑंदू दये डराय।

चहुँ ओर घेरे पृथीराज हैं , भुरुही रखि हौ धार्म हमार।

खैंचि सरोही लाखन लीन्ही समुहें गोलगये समियाय।

साँकर फेरै भुरुही दल में , सब दल काट करो खरियान।

जैसे भेड़हा भेड़न पैठे , जैसे सिंह बिड़ारै गाय।

वह गत कीनी लाखन ने , नद्दी बितवै के मैदान।

देवि दाहिनी भइ लाखन को , मुरचा हटौ पिथौरा क्यार।

उस समय युध्दोन्माद का क्या रूप था और किस प्रकार *ों के साथ ही नहीं, हिन्दू राजाओं में भी परस्पर संघर्ष चल रहा था, इस गीतिकाव्य में इसका अच्छा चित्राण है। इसलिए उपयोगिता की ही दृष्टि से नहीं, जातीय दुर्बलताओं का ज्ञान कराने के लिए भी यह ग्रन्थ रक्षणीय और संग्रहणीय है। इन पद्यों की वर्तमान भाषा यह स्पष्टतया बतलाती है कि वह बारहवीं ई. शताब्दी की नहीं है। हमने तेरहवीं शताब्दी तक आरम्भिक काल माना है। इसीलिए हम इस शतक के कुछ कवियों की रचनाएँ लेकर भी यह देखना चाहते हैं कि उन पर भाषा सम्बन्धाी विकास का क्या प्रभाव पड़ा। इस शतक के प्रधाान कवि अनन्यदास, धार्मसूरि, विजयसूरि एवं विनय चन्द्र सूरि जैन हैं। इनमें से अनन्यदास की रचना का कोई उदाहरण नहीं मिला। धार्मसूरि जैन ने जम्बू स्वामी रासा नामक एक ग्रन्थ लिखा है उसके कुछ पद्य ये हैं (रचनाकाल 209 ईस्वी)-

करि सानिधिा सरसत्तिा देवि जीयरै कहाणउँ।

जम्बू स्वामिहिं गुण गहण संखेबि बखाणउँ।

जम्बु दीबि सिरि भरत खित्तिा तिहि नयर पहाणउँ।

राजग्रह नामेण नयर पुहुवी बक्खाणउँ।

राज करइ सेणिय नरिन्द नरखरहं नुसारो।

तासु वट तणय बुध्दिवन्त मति अभय कुमारो।

विजय सेन सूरि ने 'रेवंतगिरि रासा' की रचना की है। (रचनाकाल, 1231 ई‑) कुछ उनके पद्य भी देखिए-

परमेसर तित्थेसरह पय पंकज पणमेवि।

भणि सुरास रेवंतगिरि अम्बकिदिवि सुमिरेवि।

गामा गर पुर वरग गहण सरि वरिसर सुपयेसु।

देवि भूमि दिसि पच्छिमंह मणहर सोरठ देसु।

जिणु तहिं मंडण मंडणउ मर गय मउव् महन्तु।

निर्म्मल सामल सिहिर भर रेहै गिरि रेवन्तु।

तसु मुंहुं दंसणु दस दिसवि देसि दिसन्तर संग।

आबइ भाइ रसाल मण उडुलि रंग तरंग।

विनय चन्द्रसूरि ने नेमनाथ चौपई और एक और ग्रन्थ लिखा है (रचनाकाल 1299 ई.), कुछ उनके पद्य देखिए-

'' बोलइ राजल तउ इह बयणू। नत्थि नेंमबर समवर रयणू A

धारइ तेजु गहगण सलिताउ। गयणि नउग्गइ दिणयर जाउ

सखी भणय सामिणि मन झूरि। दुज्जण तणमनवंछितपूरि '' ।

ऊपर के पद्यों में जो शब्द चिद्दित कर दिये गये हैं, वे प्राकृत अथवा अपभ्रंश के हैं। इससे प्रकट होता है कि तेरहवीं शताब्दी तक अपभ्रंश शब्दों का हिन्दी रचनाओं में अधिाकतर प्रचलन था। अपभ्रंश में नकार के स्थान पर णकार का प्रयोग अधिाकतर देखा जाता है। उल्लिखित पद्यों में भी नकार के स्थान पर णकार का बहुल प्रयोग पाया जाता है।

जैसे तणय, मणहर, मण,गयण, दिणयर, दुज्जण इत्यादि। अपभ्रंश भाषा का यह नियम है कि अकारान्त शब्द के प्रथम और द्वितीया का एक वचन उकारयुक्त होता है। 1इन पद्यों में भी ऐसा प्रयोग मिलता है जैसे देसु, महन्तु, रेवन्तु, तेजु इत्यादि। प्राकृत और अपभ्रंश में शकार और षकार का बिलकुल प्रयोग नहीं होता, उसके स्थान पर सकार प्रयुक्त होता है2। जैसे श्रमण: समणो, शिष्य: सिस्सो। इन पद्यों में भी ऐसा प्रयोग मिलता है। परमेसर, देस, सामल दस, दिवसि, देसि, दिसन्तरु, देसणु इत्यादि। अपभ्रंश का यह नियम है कि अनेक स्थानों में दीर्घ स्वर Ðस्व एवं Ðस्व स्वर दीर्घ हो जाता है। इन पद्यों में बयणू,और रयणू का ऐसा ही प्रयोग है। इनमें जो हिन्दी के शब्द आये हैं जैसे करि, राज कर सारो, तासु, मुँह, दस, आबइ, रंग,बोलइ, धारइ, मन इत्यादि। इसी प्रकार जो संस्कृत के तत्सम शब्द आए हैं, जैसे गुण, राजग्रह, मति, अभय, पंकज, गिरि,सरि, सर, भूमि, रसाल, तरंग, सम, सखी, इत्यादि वे विशेष चिन्तनीय हैं। हिन्दी शब्द यह सूचित कर रहे हैं कि किस प्रकार वे धीरे-धीरे अपभ्रंश भाषा में अधिाकार प्राप्त कर रहे थे। संस्कृत के तत्सम शब्द यह बतलाते हैं कि उस समय प्राकृत नियमों के प्रतिकूल वे हिन्दी भाषा में गृहीत होने लगे थे। इन पद्यों में यह बात विशेष दृष्टि देने योग्य है कि इनमें एक शब्द के विभिन्न प्रयोग मिलते हैं जैसे मन के मण आदि। प्राय: 'न' के स्थान पर णकार का प्रयोग देखा जाता है, जैसे कि ऊपर लिखा जा चुका है, परन्तु न का सर्वथा त्याग भी नहीं है। जैसे नयर नायेण, नेमि इत्यादि।

मैं समझता हूँ, आरम्भिक काल में किस प्रकार अपभ्रंश भाषा परिवर्तित होकर हिन्दी भाषा में परिणत हुई, इसका पर्याप्त उदाहरण दिया जा चुका। उस समय की परिस्थिति के अनुकूल जो सामाजिक और राजनीतिक परिवर्तन हुए, उनका वर्णन भी जितना अपेक्षित था उतना किया गया। आरम्भिक काल में कुछ ऐसे ग्रन्थ भी लिखे गये हैं, जिनका सम्बन्धा वीरगाथाओं से नहीं है, परन्तु प्रथम तो उन ग्रंथों का नाम मात्रा लिया गया है, दूसरे जो ग्रन्थ उपलब्धा हैं वे थोडे हैं और उनकी प्राय: रचनाएँ ऐसी हैं जो उस काल की नहीं, वरन् माधयमिक काल की ज्ञात होती हैं। इसलिए उनका कोई उध्दरण नहीं दिया गया। अन्त में मैंने जैन सूरियों की जो तीन रचनाएँ उध्दाृत की हैं वे वीर-रस की नहीं हैं। तथापि मैंने उनको उपस्थित किया केवल इस उद्देश्य से कि जिसमें यह प्रकट हो सके कि वीर-गाथा सम्बन्धाी रचनाओं में ही नहीं आरम्भिक काल में ओज लाने के लिए प्राकृत और अपभ्रंश शब्दों का प्रयोग किया गया है, अन्य रचनाओं में भी इस प्रकार के प्रयोग मिलते हैं, जो यह बतलाते हैं कि उस काल की वास्तविक भाषा वही थी जो विकसित होकर अपभ्रंश से हिन्दीभाषा के परवर्ती रूप की ओर अग्रसर हो रही थी।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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Messages In This Thread
REसाहित्य - by neerathemall - 01-08-2019, 03:29 AM
RE: हाए भैय्या,धीरे से, बहुत मोटा है - by neerathemall - 01-08-2019, 03:31 AM



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