26-07-2019, 05:20 PM
(This post was last modified: 29-11-2020, 12:39 PM by komaalrani. Edited 1 time in total. Edited 1 time in total.)
सावन
बाहर हलकी हलकी बारिश शुरू हो गयी।
सावन का मस्त मौसम था।
……………….
" हे इस खिलौने को ज़रा बरामदे में चलते हैं न , थोड़ा झूला झुलाते है। "
मम्मी बोलीं और मम्मी ने उनकी साडी की एक लीश बना के पहले तो उनकी कमर में फंसाया और फिर जो कॉक और बॉल्स में गाँठ बंधी थी उसमें से डाल के ,आलमोस्ट खींचते हुए बाहर बरामदे में ले आयीं।
जहाँ झूला पड़ा हुआ था।
मन तो झूला झूलने का होता था , लेकिन शहर में आम और नीम के दरख्त घर के बाजू में तो होते नहीं न ही अमराइयाँ ,जहां चार पांच हम उम्र लड़कियां ,भौजाइयां झूले की पेंगों के साथ मस्तियाँ कर सकें ,कजरी की धुन के साथ चिकोटियां काट के भाभियों से बीते रात की कहानियां पूछ सकें।
गाँव तो शहर में आता नहीं ,कहीं बहुत दूर ख़तम हो जाता है।
और अब शादी के बाद एक बार जब मैं गाँव गयी तो देखा अब गाँव में भी गांव नहीं रहा।
रहते तो हम लोग लखनऊ में थे ,लेकिन पास में ही मलीहाबाद के पास काफी बड़े आम के बाग़ थे , पुराना मकान था , और साल में एक दो बार मैं भी चली जाती थी ,ख़ास तौर से सावन में ,... वो घर आज कल की जुबान में फ़ार्म हाउस में तब्दील हो गया था। लेकिन मॉम का निज़ाम अब भी पुराने ज़माने वाला था ,सख्त भी ,मुलायम भी। और मॉम भी अब लखनऊ में भी कहां ,... शाम दिल्ली में तो दिन मुम्बई में ,... पर इस के बावजूद आमों के मौसम में वो अभी भी महीने भर तो गाँव में रहती ही थीं।
तीज में यहां भी क्लब में मेहंदी ,झूला ,गाने होते थे ,लेकिन जैसे बचपन में गुड्डे गुड़िया का खेल खेलते थे न बस वैसे ही गाँव गांव ,एकदम आज के बम्बइया फिल्मों की भोजपुरी ,न वो रस न वो मिठास ,न अपनापन।
चलिए कहाँ की बात कहाँ ले पहुंची।
यहाँ झूला बरामदे में पड़ा था ,बस इनसे कह के चुल्ले पे दो रस्सियां डलवा के ,बीच में एक पीढ़ा सा डाल के, बरामदा खूब लंबा सा था ,इसलिए पेंग मारने की जगह भी ,और आँगन सटा था तो बारिश की फुहार ,पुरवाई ,...
मम्मी ने इसे हैमॉक की तरह करवा दिया ,आते ही। वहां से पूरा घर भी नजर आता था।
बस उसी झूले पे इन्हें चढ़ा दिया।
कमरे से निकलने के पहले इनके हाथ पैर तो खुल ही गए थे लेकिन एक बार फिर जैसे ही इनके हाथों ने रस्सी पकड़ी ,वो फिर बांध दिए गए।
बांधे गए अबकी मेरी ब्रा से
और बांधने वाली मैं थी ,एकदम सख्त गांठे।
और मम्मी उनसे उनकी टाँगे उठवाने में लगीं थी।
" टांग उठा ,और ऊंचा जैसे तेरी माँ बहन उठाती हैं न हाँ वैसे ही ,और ,चौड़ा कर और ,और,... अरे छिनारों ने तुझे टांग फैलाना भी नहीं सिखाया , खुद तो झांटे बाद में आयीं ,टाँगे पहले फैलाना शुरू कर दिया ,... "
मम्मी मेरी इनइमीटेबल मम्मी ,असली प्यारी वाली ,... आज पूरे रंग में थीं।
और उन्होंने टाँगे खूब ऊँची ,चौड़ी कर दिया।
बस मम्मी ने झूले की रस्सी से उन उठी फैली टांगो को बाँध दिया।
और एक्जामिन किया ,... लेकिन अभी भी उन्हें कुछ कमी लगी।
पास पड़े केन के सोफे पर के सारे कुशन वो उठा लायीं ,
और जैसे कोई मरद ,
गौने की रात अपनी नयी नवेली दुल्हन के चूतड़ के नीचे ,बिस्तर पर के सारे तकिये लगा के ऊंचा उठा दे ,जिससे मोटा लौंडा भी वो घचाक से घोट सके ,बिलकुल वैसे।
और अब उनके चूतड़ एकदम हवा में उठे थे , दूर से भी दिख रहे थे।
लेकिन मॉम का काम इससे भी ख़तम नहीं हुआ।
इधर उधर बिना मुझसे कुछ बोले ,वो कुछ ढूंढती रही और उन्हें मिल भी गया।
एक लंबा मोटा सा डंडा ,
बस वो उन्होंने उनके खुले पैरों और झूले की रस्सी से ऐसे बाँध दिया की बस ,
अब वो लाख कोशिश कर लें, पैर उनके ऐसे ही खुले रहने वाले थे।
मैं प्यार से उनके बाल बिगाड़ रही थी ,सहला रही थी।
बाहर हलकी हलकी बारिश शुरू हो गयी।
सावन का मस्त मौसम था।
……………….
" हे इस खिलौने को ज़रा बरामदे में चलते हैं न , थोड़ा झूला झुलाते है। "
मम्मी बोलीं और मम्मी ने उनकी साडी की एक लीश बना के पहले तो उनकी कमर में फंसाया और फिर जो कॉक और बॉल्स में गाँठ बंधी थी उसमें से डाल के ,आलमोस्ट खींचते हुए बाहर बरामदे में ले आयीं।
जहाँ झूला पड़ा हुआ था।
मन तो झूला झूलने का होता था , लेकिन शहर में आम और नीम के दरख्त घर के बाजू में तो होते नहीं न ही अमराइयाँ ,जहां चार पांच हम उम्र लड़कियां ,भौजाइयां झूले की पेंगों के साथ मस्तियाँ कर सकें ,कजरी की धुन के साथ चिकोटियां काट के भाभियों से बीते रात की कहानियां पूछ सकें।
गाँव तो शहर में आता नहीं ,कहीं बहुत दूर ख़तम हो जाता है।
और अब शादी के बाद एक बार जब मैं गाँव गयी तो देखा अब गाँव में भी गांव नहीं रहा।
रहते तो हम लोग लखनऊ में थे ,लेकिन पास में ही मलीहाबाद के पास काफी बड़े आम के बाग़ थे , पुराना मकान था , और साल में एक दो बार मैं भी चली जाती थी ,ख़ास तौर से सावन में ,... वो घर आज कल की जुबान में फ़ार्म हाउस में तब्दील हो गया था। लेकिन मॉम का निज़ाम अब भी पुराने ज़माने वाला था ,सख्त भी ,मुलायम भी। और मॉम भी अब लखनऊ में भी कहां ,... शाम दिल्ली में तो दिन मुम्बई में ,... पर इस के बावजूद आमों के मौसम में वो अभी भी महीने भर तो गाँव में रहती ही थीं।
तीज में यहां भी क्लब में मेहंदी ,झूला ,गाने होते थे ,लेकिन जैसे बचपन में गुड्डे गुड़िया का खेल खेलते थे न बस वैसे ही गाँव गांव ,एकदम आज के बम्बइया फिल्मों की भोजपुरी ,न वो रस न वो मिठास ,न अपनापन।
चलिए कहाँ की बात कहाँ ले पहुंची।
यहाँ झूला बरामदे में पड़ा था ,बस इनसे कह के चुल्ले पे दो रस्सियां डलवा के ,बीच में एक पीढ़ा सा डाल के, बरामदा खूब लंबा सा था ,इसलिए पेंग मारने की जगह भी ,और आँगन सटा था तो बारिश की फुहार ,पुरवाई ,...
मम्मी ने इसे हैमॉक की तरह करवा दिया ,आते ही। वहां से पूरा घर भी नजर आता था।
बस उसी झूले पे इन्हें चढ़ा दिया।
कमरे से निकलने के पहले इनके हाथ पैर तो खुल ही गए थे लेकिन एक बार फिर जैसे ही इनके हाथों ने रस्सी पकड़ी ,वो फिर बांध दिए गए।
बांधे गए अबकी मेरी ब्रा से
और बांधने वाली मैं थी ,एकदम सख्त गांठे।
और मम्मी उनसे उनकी टाँगे उठवाने में लगीं थी।
" टांग उठा ,और ऊंचा जैसे तेरी माँ बहन उठाती हैं न हाँ वैसे ही ,और ,चौड़ा कर और ,और,... अरे छिनारों ने तुझे टांग फैलाना भी नहीं सिखाया , खुद तो झांटे बाद में आयीं ,टाँगे पहले फैलाना शुरू कर दिया ,... "
मम्मी मेरी इनइमीटेबल मम्मी ,असली प्यारी वाली ,... आज पूरे रंग में थीं।
और उन्होंने टाँगे खूब ऊँची ,चौड़ी कर दिया।
बस मम्मी ने झूले की रस्सी से उन उठी फैली टांगो को बाँध दिया।
और एक्जामिन किया ,... लेकिन अभी भी उन्हें कुछ कमी लगी।
पास पड़े केन के सोफे पर के सारे कुशन वो उठा लायीं ,
और जैसे कोई मरद ,
गौने की रात अपनी नयी नवेली दुल्हन के चूतड़ के नीचे ,बिस्तर पर के सारे तकिये लगा के ऊंचा उठा दे ,जिससे मोटा लौंडा भी वो घचाक से घोट सके ,बिलकुल वैसे।
और अब उनके चूतड़ एकदम हवा में उठे थे , दूर से भी दिख रहे थे।
लेकिन मॉम का काम इससे भी ख़तम नहीं हुआ।
इधर उधर बिना मुझसे कुछ बोले ,वो कुछ ढूंढती रही और उन्हें मिल भी गया।
एक लंबा मोटा सा डंडा ,
बस वो उन्होंने उनके खुले पैरों और झूले की रस्सी से ऐसे बाँध दिया की बस ,
अब वो लाख कोशिश कर लें, पैर उनके ऐसे ही खुले रहने वाले थे।
मैं प्यार से उनके बाल बिगाड़ रही थी ,सहला रही थी।