6 hours ago
तीसरा पन्ना
रेशम जैसी रेशमा पार्ट 1
मैं विकास शर्मा, 35 साल का एक साधारण अकाउंटेंट। मेवाड़ इंडस्ट्रियल एरिया में एक पुरानी लौह इस्पात की फैक्ट्री में नौकरी करता हूँ। दिन भर लेडजर, बिल, जीएसटी रिटर्न, बैंक रिकन्सिलेशन—यही मेरी दुनिया है। घर में बीवी, एक दस साल का बेटा, माँ-बाबूजी। बाहर से देखो तो बिलकुल सीधा-सादा इंसान। पर उस जनवरी की रात ने मेरे अंदर कुछ ऐसा तोड़ दिया, या शायद जोड़ दिया, जो पहले कभी नहीं था।
26 जनवरी 2024। गणतंत्र दिवस की छुट्टी के ठीक बाद का दिन। फैक्ट्री में साल का सबसे बड़ा ऑर्डर था—राजस्थान रोडवेज के लिए 400 टन सरिया। लोडिंग चल रही थी, ट्रक की लाइन लगी थी। मैं सुबह आठ बजे से बिल काट रहा था। चाय पीते-पीते, सिगरेट फूँकते-फूँकते रात साढ़े दस बज गए। कंधे अकड़ गए, आँखें जल रही थीं। चौकीदार भैरूँ सिंह ने ताला लगाने को कहा, “साहब, आज बस करो। कल फिर आएगा माल।” मैंने लैपटॉप बैग उठाया, हेलमेट लगाया और अपनी पुरानी काली होंडा एक्टिवा स्टार्ट की। इंजन ने पहले दो किक में साथ नहीं दिया, तीसरी में हल्का सा खाँसा और चल पड़ी।
बाहर ठंड इतनी थी कि हड्डियाँ तक जम जाएँ। हाईवे बिलकुल सुनसान। सिर्फ मेरी एक्टिवा की खट-खट और मेरे दाँत किटकिटाने की आवाज। हेलमेट का विजर बार-बार फॉग हो रहा था। हर दस-पंद्रह सेकंड में रुमाल निकाल कर पोंछना पड़ता। दूर-दूर तक एक भी गाड़ी नहीं। सिर्फ सड़क किनारे सूखे बबूल के पेड़ और चाँदनी में चमकती हुई फ्रॉस्ट।
घर अभी सात-आठ किलोमीटर दूर था। मैंने स्पीड बढ़ाई। ठीक उसी वक्त सड़क किनारे कोई हाथ हिलाता दिखा। पहले लगा शायद कोई मजदूर है, पर जैसे-जैसे पास आया, लाल साड़ी, काले लंबे बाल, चाँदनी में चमकता चेहरा। समझते देर नहीं लगी—किन्नर है। मैंने एक्टिवा धीमी की। वो दौड़ कर पास आई।
“भैया… थोड़ी लिफ्ट मिल जाएगी? आज कुछ कमाई नहीं हुई। ठंड से मर जाऊँगी।”
उसकी आवाज में एक अजीब सी मिठास थी, न ज्यादा पतली, न ज्यादा भारी। बस सही-सही।
मैंने बिना कुछ सोचे कहा, “बैठो।”
वो पीछे बैठ गई। जैसे ही बैठी, उसकी साड़ी से हल्की सी इत्र की खुशबू आई। चंदन और गुलाब की मिली-जुली। ठंड में भी वो खुशबू नाक में घुस गई। उसने अपना नाम बताया—रेशमा। बातों-बातों में पता चला कि वो रोज इसी हाईवे पर खड़ी रहती है। ट्रक ड्राइवर, टैंकर वाले, कभी-कभी कोई प्राइवेट कार वाला—इनसे ही गुजारा।
“आज एक हरियाणे का ड्राइवर था भैया। दो घंटे तक मजे लिए। लंड खड़ा किया, पूरा खेल खेला, पर पैसे देने के समय बोला—‘तेरे जैसे किन्नर को तो मुफ्त में ही करना चाहिए।’ मैंने बहुत मनाया, गिड़गिड़ाई, पर वो गाड़ी भगाकर ले गया। अब रात को भूखे पेट सोना पड़ेगा।”
उसकी आवाज में दर्द था, पर शिकायत नहीं। जैसे वो इसे किस्मत मान चुकी हो। मेरा दिल पसीज गया। मैंने पर्स निकाला। उसमें कुल ग्यारह सौ थे। मैंने पाँच सौ का नोट निकाला और उसकी ओर बढ़ाया।
“ले, ये रख। कुछ खा-पी लेना। ठंड में भूखे मत सोना।”
रेशमा ने नोट लिया, आँखें चमक उठीं। उसने नोट को माथे से लगाया और बोली,
“अरे भैया… तू तो सच्चा फरिश्ता है। चल, एक्टिवा साइड में लगा। मैं तुझे ऐसा मजा दूँगी कि जिंदगी भर याद रहेगा।”
मैंने हँस कर टाल दिया, “नहीं रेशमा, मैं बिलकुल सीधा आदमी हूँ। मुझे तो चूत ही पसंद है। गांड में कभी नहीं डाला।”
पर ठंड थी, लंड अकड़ा हुआ था, और उसकी बातों ने कुछ कुछ हिलोरें लेनी शुरू कर दी थीं। मैंने खुद ही कहा,
“पर अगर तू चाहे तो मेरा लौड़ा चूस सकती है। तू भी खुश, मैं भी खुश। बस उतना ही।”
रेशमा जोर से हँस पड़ी। उसकी हँसी में कोई बनावट नहीं थी।
“अरे वाह! सीधा-सादा साहब खुद ऑफर कर रहा है? चल भाई, लगा ले एक्टिवा।”
मैंने हाईवे से थोड़ा नीचे, खेतों के बीच एक कच्चा रास्ता पकड़ा। वहाँ चारों तरफ घना अंधेरा। दूर कहीं एक कुत्ता भौंक रहा था। मैंने एक्टिवा स्टैंड लगाई, हेलमेट उतारा और सीट पर थोड़ा पीछे खिसक गया। रेशमा आगे की तरफ झुकी। उसने पहले मेरी जैकेट की जिप धीरे से नीचे की। फिर शर्ट के अंदर हाथ डाल कर मेरी छाती पर उंगलियाँ फेरीं। ठंड से मेरा बदन सिहर उठा।
फिर उसने जींस का बटन खोला, जिप नीचे की। अंडरवियर में लंड पहले से ही आधा खड़ा था। जैसे ही उसने अंडरवियर नीचे सरकाया, ठंडी हवा का झोंका लगा और लंड पूरा तन गया। मेरा लौड़ा ठीक 6.5 इंच का है, मोटा, सीधा, सुपारा गुलाबी और चौड़ा। नसें उभरी हुईं, जड़ मोटी। ठंड में भी वो गर्म था, जैसे अंदर कोई आग जल रही हो।
रेशमा ने उसे हाथ में लिया। उसकी हथेली गर्म थी। उसने दो-तीन बार ऊपर-नीचे किया और मुस्कुरा कर बोली,
“वाह अकाउंटेंट साहब… माल तो एकदम प्राइम क्वालिटी है। मोटा-तगड़ा, बिलकुल मेरे पसंद का। आज तक जितने भी चूसे, इस जैसा मोटा शायद ही कोई रहा हो।”
फिर उसने जीभ निकाली। पहले सुपारे को हल्के से छुआ। उसकी जीभ गर्म और नरम थी। फिर धीरे-धीरे सुपारे को चाटने लगी, जैसे कोई बच्चा आइसक्रीम चाटता है। मैंने आँखें बंद कर लीं। उसने पूरा लंड मुँह में लिया। उसकी गर्माहट ने सारी ठंड भगा दी। कभी धीरे-धीरे चूसती, कभी तेज। कभी गले तक ले जाती, कभी सिर्फ सुपारे पर जीभ घुमाती। एक हाथ से मेरे अंडकोष सहलाती, दूसरा लंड की जड़ पर। बीच-बीच में ऊपर देखती और मुस्कुराती, जैसे पूछ रही हो—“मजा आ रहा है ना भैया?”
मैं बस “हँ… हँ…” की आवाज निकाल पा रहा था। दस-बारह मिनट में मेरी साँसें तेज हो गईं। कमर ऊपर उठने लगी। मैंने उसका सिर पकड़ा और पूरा माल उसके मुँह में छोड़ दिया। एक, दो, तीन… छह-सात धार निकली। वो एक बूंद भी नहीं गिरने दी। सब पी गई। फिर धीरे से लंड को साफ किया, होंठ पोंछे और मुस्कुराई।
“कैसा लगा भैया? तेरे लौड़े का पूरा रस निकाल लिया मैंने।”
मैं हाँफ रहा था। बोला, “रेशमा… तू तो जादूगरनी है। आज तक किसी ने भी ऐसा नहीं चूसा। न मेरी बीवी ने, न किसी और ने।”
वो हँसी, “अरे, अभी तो सिर्फ शुरुआत है। अगली बार पूरा प्रोग्राम दूँगी। सैलरी आने के बाद स्पेशल डिस्काउंट। हर महीने की 28-30 तारीख को याद रखना।”
मैंने जेब से दो सौ और निकाले। कुल सात सौ उसके हाथ में रख दिए। वो मना करती रही, “नहीं भैया, पाँच सौ ही काफी थे।”
मैंने कहा, “रात को अच्छे से खा लेना। गरमागरम खाना, दूध पीना। ठंड में बीमार मत पड़ जाना।”
वो मेरे गाल पर हल्के से किस की। उसकी लिपस्टिक की खुशबू अभी भी नाक में थी। फिर साड़ी ठीक की, बाल संवारे और अंधेरे में चली गई। मैंने दूर तक उसकी लाल साड़ी को हवा में लहराते देखा, फिर वो गायब हो गई।
घर पहुँचा तो ग्यारह बजकर पैंतीस मिनट हो रहे थे। बीवी सो रही थी। बेटा भी। मैंने गरम पानी से मुँह-हाथ धोया, कपड़े बदले और बिस्तर पर लेट गया। नींद नहीं आ रही थी। दिमाग में बार-बार वही सीन। उसकी गर्म जीभ, मेरे लंड का हर इंच पर उसका स्पर्श, उसकी आँखों में वो चमक।
मैंने खुद ऑफर किया था।
और मुझे एक बूंद भी पछतावा नहीं था।
बल्कि एक अजीब सा नशा था।
जैसे आज पहली बार मैंने सच में जीया हो।
शायद मैं अभी भी सीधा हूँ।
पर अब थोड़ा सा टेढ़ा भी हो गया हूँ।
और ये टेढ़ापन मुझे बहुत अच्छा लग रहा है।
बहुत-बहुत अच्छा।
अगले महीने 28 तारीख को मैंने फैक्ट्री से जल्दी निकलने का प्लान बनाया।
पर ये अलग कहानी है।
फिलहाल तो वो रात मेरे लिए एक नया जन्म थी।
रेशम जैसी रेशमा पार्ट 1
मैं विकास शर्मा, 35 साल का एक साधारण अकाउंटेंट। मेवाड़ इंडस्ट्रियल एरिया में एक पुरानी लौह इस्पात की फैक्ट्री में नौकरी करता हूँ। दिन भर लेडजर, बिल, जीएसटी रिटर्न, बैंक रिकन्सिलेशन—यही मेरी दुनिया है। घर में बीवी, एक दस साल का बेटा, माँ-बाबूजी। बाहर से देखो तो बिलकुल सीधा-सादा इंसान। पर उस जनवरी की रात ने मेरे अंदर कुछ ऐसा तोड़ दिया, या शायद जोड़ दिया, जो पहले कभी नहीं था।
26 जनवरी 2024। गणतंत्र दिवस की छुट्टी के ठीक बाद का दिन। फैक्ट्री में साल का सबसे बड़ा ऑर्डर था—राजस्थान रोडवेज के लिए 400 टन सरिया। लोडिंग चल रही थी, ट्रक की लाइन लगी थी। मैं सुबह आठ बजे से बिल काट रहा था। चाय पीते-पीते, सिगरेट फूँकते-फूँकते रात साढ़े दस बज गए। कंधे अकड़ गए, आँखें जल रही थीं। चौकीदार भैरूँ सिंह ने ताला लगाने को कहा, “साहब, आज बस करो। कल फिर आएगा माल।” मैंने लैपटॉप बैग उठाया, हेलमेट लगाया और अपनी पुरानी काली होंडा एक्टिवा स्टार्ट की। इंजन ने पहले दो किक में साथ नहीं दिया, तीसरी में हल्का सा खाँसा और चल पड़ी।
बाहर ठंड इतनी थी कि हड्डियाँ तक जम जाएँ। हाईवे बिलकुल सुनसान। सिर्फ मेरी एक्टिवा की खट-खट और मेरे दाँत किटकिटाने की आवाज। हेलमेट का विजर बार-बार फॉग हो रहा था। हर दस-पंद्रह सेकंड में रुमाल निकाल कर पोंछना पड़ता। दूर-दूर तक एक भी गाड़ी नहीं। सिर्फ सड़क किनारे सूखे बबूल के पेड़ और चाँदनी में चमकती हुई फ्रॉस्ट।
घर अभी सात-आठ किलोमीटर दूर था। मैंने स्पीड बढ़ाई। ठीक उसी वक्त सड़क किनारे कोई हाथ हिलाता दिखा। पहले लगा शायद कोई मजदूर है, पर जैसे-जैसे पास आया, लाल साड़ी, काले लंबे बाल, चाँदनी में चमकता चेहरा। समझते देर नहीं लगी—किन्नर है। मैंने एक्टिवा धीमी की। वो दौड़ कर पास आई।
“भैया… थोड़ी लिफ्ट मिल जाएगी? आज कुछ कमाई नहीं हुई। ठंड से मर जाऊँगी।”
उसकी आवाज में एक अजीब सी मिठास थी, न ज्यादा पतली, न ज्यादा भारी। बस सही-सही।
मैंने बिना कुछ सोचे कहा, “बैठो।”
वो पीछे बैठ गई। जैसे ही बैठी, उसकी साड़ी से हल्की सी इत्र की खुशबू आई। चंदन और गुलाब की मिली-जुली। ठंड में भी वो खुशबू नाक में घुस गई। उसने अपना नाम बताया—रेशमा। बातों-बातों में पता चला कि वो रोज इसी हाईवे पर खड़ी रहती है। ट्रक ड्राइवर, टैंकर वाले, कभी-कभी कोई प्राइवेट कार वाला—इनसे ही गुजारा।
“आज एक हरियाणे का ड्राइवर था भैया। दो घंटे तक मजे लिए। लंड खड़ा किया, पूरा खेल खेला, पर पैसे देने के समय बोला—‘तेरे जैसे किन्नर को तो मुफ्त में ही करना चाहिए।’ मैंने बहुत मनाया, गिड़गिड़ाई, पर वो गाड़ी भगाकर ले गया। अब रात को भूखे पेट सोना पड़ेगा।”
उसकी आवाज में दर्द था, पर शिकायत नहीं। जैसे वो इसे किस्मत मान चुकी हो। मेरा दिल पसीज गया। मैंने पर्स निकाला। उसमें कुल ग्यारह सौ थे। मैंने पाँच सौ का नोट निकाला और उसकी ओर बढ़ाया।
“ले, ये रख। कुछ खा-पी लेना। ठंड में भूखे मत सोना।”
रेशमा ने नोट लिया, आँखें चमक उठीं। उसने नोट को माथे से लगाया और बोली,
“अरे भैया… तू तो सच्चा फरिश्ता है। चल, एक्टिवा साइड में लगा। मैं तुझे ऐसा मजा दूँगी कि जिंदगी भर याद रहेगा।”
मैंने हँस कर टाल दिया, “नहीं रेशमा, मैं बिलकुल सीधा आदमी हूँ। मुझे तो चूत ही पसंद है। गांड में कभी नहीं डाला।”
पर ठंड थी, लंड अकड़ा हुआ था, और उसकी बातों ने कुछ कुछ हिलोरें लेनी शुरू कर दी थीं। मैंने खुद ही कहा,
“पर अगर तू चाहे तो मेरा लौड़ा चूस सकती है। तू भी खुश, मैं भी खुश। बस उतना ही।”
रेशमा जोर से हँस पड़ी। उसकी हँसी में कोई बनावट नहीं थी।
“अरे वाह! सीधा-सादा साहब खुद ऑफर कर रहा है? चल भाई, लगा ले एक्टिवा।”
मैंने हाईवे से थोड़ा नीचे, खेतों के बीच एक कच्चा रास्ता पकड़ा। वहाँ चारों तरफ घना अंधेरा। दूर कहीं एक कुत्ता भौंक रहा था। मैंने एक्टिवा स्टैंड लगाई, हेलमेट उतारा और सीट पर थोड़ा पीछे खिसक गया। रेशमा आगे की तरफ झुकी। उसने पहले मेरी जैकेट की जिप धीरे से नीचे की। फिर शर्ट के अंदर हाथ डाल कर मेरी छाती पर उंगलियाँ फेरीं। ठंड से मेरा बदन सिहर उठा।
फिर उसने जींस का बटन खोला, जिप नीचे की। अंडरवियर में लंड पहले से ही आधा खड़ा था। जैसे ही उसने अंडरवियर नीचे सरकाया, ठंडी हवा का झोंका लगा और लंड पूरा तन गया। मेरा लौड़ा ठीक 6.5 इंच का है, मोटा, सीधा, सुपारा गुलाबी और चौड़ा। नसें उभरी हुईं, जड़ मोटी। ठंड में भी वो गर्म था, जैसे अंदर कोई आग जल रही हो।
रेशमा ने उसे हाथ में लिया। उसकी हथेली गर्म थी। उसने दो-तीन बार ऊपर-नीचे किया और मुस्कुरा कर बोली,
“वाह अकाउंटेंट साहब… माल तो एकदम प्राइम क्वालिटी है। मोटा-तगड़ा, बिलकुल मेरे पसंद का। आज तक जितने भी चूसे, इस जैसा मोटा शायद ही कोई रहा हो।”
फिर उसने जीभ निकाली। पहले सुपारे को हल्के से छुआ। उसकी जीभ गर्म और नरम थी। फिर धीरे-धीरे सुपारे को चाटने लगी, जैसे कोई बच्चा आइसक्रीम चाटता है। मैंने आँखें बंद कर लीं। उसने पूरा लंड मुँह में लिया। उसकी गर्माहट ने सारी ठंड भगा दी। कभी धीरे-धीरे चूसती, कभी तेज। कभी गले तक ले जाती, कभी सिर्फ सुपारे पर जीभ घुमाती। एक हाथ से मेरे अंडकोष सहलाती, दूसरा लंड की जड़ पर। बीच-बीच में ऊपर देखती और मुस्कुराती, जैसे पूछ रही हो—“मजा आ रहा है ना भैया?”
मैं बस “हँ… हँ…” की आवाज निकाल पा रहा था। दस-बारह मिनट में मेरी साँसें तेज हो गईं। कमर ऊपर उठने लगी। मैंने उसका सिर पकड़ा और पूरा माल उसके मुँह में छोड़ दिया। एक, दो, तीन… छह-सात धार निकली। वो एक बूंद भी नहीं गिरने दी। सब पी गई। फिर धीरे से लंड को साफ किया, होंठ पोंछे और मुस्कुराई।
“कैसा लगा भैया? तेरे लौड़े का पूरा रस निकाल लिया मैंने।”
मैं हाँफ रहा था। बोला, “रेशमा… तू तो जादूगरनी है। आज तक किसी ने भी ऐसा नहीं चूसा। न मेरी बीवी ने, न किसी और ने।”
वो हँसी, “अरे, अभी तो सिर्फ शुरुआत है। अगली बार पूरा प्रोग्राम दूँगी। सैलरी आने के बाद स्पेशल डिस्काउंट। हर महीने की 28-30 तारीख को याद रखना।”
मैंने जेब से दो सौ और निकाले। कुल सात सौ उसके हाथ में रख दिए। वो मना करती रही, “नहीं भैया, पाँच सौ ही काफी थे।”
मैंने कहा, “रात को अच्छे से खा लेना। गरमागरम खाना, दूध पीना। ठंड में बीमार मत पड़ जाना।”
वो मेरे गाल पर हल्के से किस की। उसकी लिपस्टिक की खुशबू अभी भी नाक में थी। फिर साड़ी ठीक की, बाल संवारे और अंधेरे में चली गई। मैंने दूर तक उसकी लाल साड़ी को हवा में लहराते देखा, फिर वो गायब हो गई।
घर पहुँचा तो ग्यारह बजकर पैंतीस मिनट हो रहे थे। बीवी सो रही थी। बेटा भी। मैंने गरम पानी से मुँह-हाथ धोया, कपड़े बदले और बिस्तर पर लेट गया। नींद नहीं आ रही थी। दिमाग में बार-बार वही सीन। उसकी गर्म जीभ, मेरे लंड का हर इंच पर उसका स्पर्श, उसकी आँखों में वो चमक।
मैंने खुद ऑफर किया था।
और मुझे एक बूंद भी पछतावा नहीं था।
बल्कि एक अजीब सा नशा था।
जैसे आज पहली बार मैंने सच में जीया हो।
शायद मैं अभी भी सीधा हूँ।
पर अब थोड़ा सा टेढ़ा भी हो गया हूँ।
और ये टेढ़ापन मुझे बहुत अच्छा लग रहा है।
बहुत-बहुत अच्छा।
अगले महीने 28 तारीख को मैंने फैक्ट्री से जल्दी निकलने का प्लान बनाया।
पर ये अलग कहानी है।
फिलहाल तो वो रात मेरे लिए एक नया जन्म थी।
✍️निहाल सिंह


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