28-11-2025, 04:06 PM
दूसरा पन्ना... नूरी की मन्नत
निहाल , दिल्ली की चमकती-धूल भरी भीड़ में वह हमेशा ख़ुद से बिछड़ा हुआ सा लगता। पच्चीस साल। सॉफ़्टवेयर इंजीनियर। दिन में कोड, रात में बीयर, और ज़िंदगी एक अनंत लूप। उसे प्यार जैसी कोई चीज़ नहीं दिखती थी—बस लोग एक-दूसरे का वक़्त काटते हैं, यही समझ था।
उस रात भी कुछ ऐसा ही था। ऑफ़िस पार्टी के बाद नशे में दोस्तों ने कहा, “चल, आज कुछ नया करते हैं।” किसी ने जीबी रोड का नाम लिया। निहाल हँस पड़ा, “चलो।” उसे नहीं पता था कि यह हँसी उसकी सारी दुनिया उलट देगी।
सीढ़ियाँ चढ़ते वक़्त दिल ज़ोर-ज़ोर धड़क रहा था। शराब भी कम पड़ रही थी। दलाल ने एक दरवाज़े की ओर इशारा किया। दरवाज़ा खुला तो लाल बल्ब की मद्धम रोशनी में एक लड़की बैठी थी। लाल साड़ी, लाल लिपिस्टिक, पर आँखें—थकी हुई, जैसे बहुत पहले ही रोना छोड़ चुकी हों।
नूरी। बाईस साल। नौ साल से यहाँ। तेरह साल की उम्र में बिहार से लायी गई थी। पहले रोती थी, चीखती थी। फिर मार खाकर चुप हो गई। अब बस एक नंबर थी—कमरा नंबर सात।
निहाल ने पैसे गिने, मेज़ पर रखे। नूरी ने उठकर पल्लू सरकाया। यही रिवाज़ था।
पर निहाल ने हाथ जोड़ लिए।
“मैं… कुछ नहीं करूँगा। बस बात करनी है।”
नूरी ने पहली बार किसी ग्राहक की आँखों में देखा। उन आँखों में नशा था, पर उससे कहीं ज़्यादा कुछ और था। शायद दया। शायद इंसानियत। वह चुपचाप फिर बैठ गई।
“तुम्हारा नाम?”
“जो मर्ज़ी रख लो।”
“नहीं, असली नाम।”
लंबा सन्नाटा। फिर बहुत धीरे से, “नूरी।”
“सचमुच ख़ूबसूरत। मैं निहाल हूँ।”
उस रात दो घंटे सिर्फ़ बातें हुईं। नूरी ने कभी किसी को अपनी कहानी नहीं सुनाई थी। आज पता नहीं क्यों, सब उड़ेल दिया। गाँव, माँ का धोखा, दिल्ली की पहली रात… वह रुक गई। निहाल चुपचाप सुनता रहा। जाते वक़्त उसने सौ रुपये और रख दिए।
“चाय पी लेना।”
फिर हर हफ़्ते आया। सिर्फ़ नूरी। पैसे पूरे, पर हाथ कभी नहीं उठा। कभी चॉकलेट, कभी दुपट्टा, कभी किताब।
नूरी को लगा था—एक दिन माँग ही लेगा। महीने गुज़रे। निहाल ने कभी छुआ तक नहीं।
एक रात बारिश हो रही थी। नूरी ने पहली बार मुस्कुराते हुए पूछा, “पागल हो तुम?”
निहाल ने कहा, “हाँ। तुम्हें यहाँ से निकालने के लिए पूरी तरह पागल हो गया हूँ।”
नूरी की आँखें भर आईं।
“कोशिश मत करना। यहाँ से कोई नहीं निकलता।”
पर निहाल ने ठान लिया था।
उसने जॉब बदली। मेंटल हेल्थ का बहाना बनाकर केरल की छोटी ब्रांच में परमानेंट रिमोट ले लिया। हर महीने की आधी सैलरी अलग रखी। अलप्पुझा के पास एक पुराना नालुकेट्टू घर किराए पर लिया—चार कमरे, बड़ा आँगन, नहर के किनारे। बूढ़ी अम्मा ने कहा, “किराया कम कर दूँगी बेटा, बस घर को ज़िंदा रखना।”
नूरी को सिर्फ़ इतना कहा, “एक छोटा बैग तैयार रखना। जिसमें तुम्हारी ज़िंदगी समा जाए।”
रात तय हुई—14 अगस्त, आज़ादी की पूर्व संध्या।
रात तीन बजकर पंद्रह मिनट। बारिश ज़ोरों पर। जीबी रोड सूनी। निहाल और रॉकी पीछे की गली में वैन लेकर खड़े। तीन हल्की खटखट। कोड।
नूरी ने दरवाज़ा खोला। सलवार-कमीज़, सिर पर दुपट्टा।
सीढ़ियाँ उतरीं तो लगा दिल की धड़कन पूरी कोठी सुन लेगी। बाहर बारिश का शोर। वैन का दरवाज़ा खुला। निहाल ने हाथ बढ़ाया। नूरी ने पकड़ा और अंदर बैठ गई।
गाड़ी चली तो नूरी ने पीछे मुड़कर देखा। लाल बत्तियाँ धुंधली होती गईं। वह फूट-फूटकर रो पड़ी। निहाल ने कुछ नहीं कहा, बस उसका हाथ थामे रहा।
तीन दिन का सफ़र। दिल्ली-कोटा-मुंबई-एर्नाकुलम। नाम बदल-बदल कर। नूरी ने पहली बार ट्रेन की खिड़की से दुनिया देखी—खेत, नदियाँ, पहाड़। लगा जैसे कोई सपना हो।
केरल पहुँचे तो शाम ढल चुकी थी। बारिश फिर शुरू। नालुकेट्टू घर लकड़ी की खुशबू से भरा था।
बारिश जोरों से बरस रही थी, जैसे सारा आसमाँ नूरी के सारे ज़ख़्म धोकर नया रंग भर देना चाहता हो।
निहाल ने उसे गोद में उठाया—पहली बार छुआ।
नूरी ने उसकी गर्दन में मुँह छुपा लिया। उसका बदन काँप रहा था, अब डर से नहीं, चाहत से।
अंदर मिट्टी के लैंप की सुनहरी रोशनी नाच रही थी।
निहाल ने उसे चटाई पर धीरे से उतारा।
नूरी ने उसका चेहरा हाथों में लिया, उँगलियों से गाल सहलाए, जैसे सालों बाद अंधी आँखें खुली हों।
“अब मुझे डर नहीं लगता… तुझे छूने में भी नहीं।”
फिर शब्द ख़त्म। सिर्फ़ साँसें।
नूरी ने खुद साड़ी खींचकर फेंक दी। वह फर्श पर गिरी तो एक पुरानी ज़िंदगी की तरह सिमट गई।
उसकी चूत नौ साल बाद अपनी मर्ज़ी के लंड के लिए तरस रही थी—भीगी हुई, रस से लबालब।
निहाल ने पैंट उतारी। उसका लंड तना, सख़्त, गर्म।
नूरी ने उसे देखा, हाथ बढ़ाया, पकड़ा, सहलाया। ऊपर-नीचे। जैसे अपना खोया खिलौना वापस मिल गया हो।
निहाल ने उसकी टाँगें फैलाईं। लंड का सुपारा चूत पर रगड़ा। नूरी की कमर अपने आप उठ गई।
“डाल… अब और इंतज़ार नहीं होता,” उसने फुसफुसाया।
एक झटका। पूरा लंड अंदर।
नूरी की चूत ने उसे इतने प्यार से जकड़ लिया जैसे कह रही हो—अब कभी मत निकलना।
वह चिल्लाई नहीं, बस एक लंबी सिसकारी भरी, “हाँ… बस यहीं…”
फिर शुरू हुआ।
धीरे-धीरे, जैसे कोई नदी पहली बार समंदर से मिल रही हो।
फिर तेज़।
हर धक्के में नूरी का बदन हिलता, मम्मे उछलते।
निहाल ने एक मम्मा मुँह में लिया, चूसा। नूरी ने उसके बाल खींचे।
“ज़ोर से… और ज़ोर से चोद मुझे…” उसकी आवाज़ फटी थी, पर आज़ाद।
लंड अंदर-बाहर, चूत की गहराई तक। फच-फच की आवाज़। नूरी का रस निहाल के लंड पर लिपटा हुआ।
उसके कंधों पर पुराने निशान थे—निहाल ने हर निशान पर होंठ रखे, जैसे कह रहा हो, अब ये मेरे हैं, मैं इन्हें प्यार से ढँक दूँगा।
फिर नूरी ने उसे कसकर जकड़ लिया, नाख़ून पीठ में गड़े।
“आ… गया… मैं आ गई…”
चूत में झटके लगे, लंड को पूरी ताकत से दबोच लिया।
निहाल भी रुका नहीं। आख़िरी तीन ज़ोर के धक्के और नूरी की चूत के सबसे अंदर अपना सारा माल उड़ेल दिया। गर्म, गाढ़ा वीर्य।
नूरी ने उसे महसूस किया, आँखें बंद कीं, मुस्कुराई और उसे और कसकर भींच लिया।
दोनों पसीने से तर, एक-दूसरे में लिपटे लेटे रहे।
नूरी ने निहाल के लंड को फिर हाथ से पकड़ा—अब भी आधा तना था। हल्के से दबाया और फुसफुसाई,
“अब ये मेरा है… सिर्फ़ मेरा।”
बाहर बारिश रुक चुकी थी।
पर नूरी के अंदर जो नई बारिश शुरू हुई थी, वह कभी नहीं रुकनी थी।
सुबह नूरी आँगन में गई। मिट्टी को छुआ। रोई नहीं। मुस्कुराई।
दो साल गुज़र गए।
निहाल नौ बजे लैपटॉप खोलता है। नूरी अदरक वाली चाय बनाती है। दोनों खिड़की के पास बैठकर पीते हैं। नूरी ने सब्ज़ियाँ लगाई हैं—भिंडी, टमाटर, मिर्च। शाम को नहर किनारे टहलते हैं। नूरी केरल की साड़ी लपेटना सीख गई। निहाल को मलयालम के कुछ शब्द आ गए।
ईद पर सिवईयाँ, ओणम पर प्रसाद। नूरी पूजा की थाली सजाती है। उसके बाल फिर लंबे हो गए। हँसती है तो आवाज़ पूरे घर में गूँजती है। कभी पुराना ख़्याल आता है तो वह निहाल के सीने से लगकर चुप हो जाती है। निहाल उसके बालों में उँगलियाँ फिराता रहता है।
और अब नूरी के पेट में एक नई ज़िंदगी पल रही है।
हर रात निहाल उसका पेट सहलाते हुए सोचता, “ये सच है न?”
नूरी हँसती, “अब तक तो सपना लग रहा था, पर ये तो लात मार रहा है।”
डिलीवरी की रात भी बारिश थी।
निहाल बरामदे में टहल रहा था।
अंदर नूरी ने एक गहरी साँस ली और फिर…
एक नन्ही रोने की आवाज़। जैसे कोई पुराना घाव अचानक हँस पड़ा हो।
डॉक्टर ने बच्ची गोद में दी।
नूरी ने देखा—छोटी सी नाक, मुँह पर हल्के बाल, और आँखें… बिल्कुल उसकी अपनी। पर उनमें वह पुरानी थकान नहीं थी।
“नाम?”
“मन्नत।”
निहाल ने मुस्कुराकर पूछा, “मन्नत?”
नूरी ने बच्ची को सीने से लगाया और धीरे से कहा,
“मैंने ऊपर वाले से कभी कुछ नहीं माँगा था। बस एक बार माँगा था—कोई मुझे अपना ले, पूरी इंसान बना दे। वो मन्नत पूरी हुई। ये उसकी निशानी है।”
घर लौटे तो मन्नत को आँगन में लिटाया। सूरज की पहली किरण उस पर पड़ी।
नूरी ने उसका माथा चूमा और फुसफुसाया,
“तेरी माँ कोठे पर पैदा नहीं हुई थी बेटी…
तेरी माँ यहाँ पैदा हुई है। आज।”
शाम को नारियल के पेड़ों के नीचे तीन लोग थे।
निहाल, नूरी, और गोद में मन्नत।
सूरज डूबने से पहले आखिरी सुनहरी किरणें नहर पर टकरा रही थीं। पानी में तीन परछाइयाँ लहरा रही थीं; एक जो कभी टूट चुकी थी, एक जो उसे जोड़ने आया था, और एक जो कभी टूटेगी ही नहीं।
नूरी ने मन्नत को सीने से लगाया और धीरे-धीरे झूलने लगी। उसकी आँखें भर आईं, पर इस बार आँसू खारे नहीं थे।
वो आँसू मीठे थे।
जैसे कोई नदी सालों बाद अपने असली समंदर में पहुँचकर रो दे।
निहाल ने उसका हाथ थामा। उसकी उँगलियाँ अब भी थोड़ी काँपती थीं जब वह नूरी को छूता था; जैसे डरता हो कि कहीं ये सपना न टूट जाए।
नूरी ने उसकी हथेली पर अपनी हथेली रखी और दबाया।
“देखो,” उसने फुसफुसाया, “अब मेरी हथेली पर कोई लकीर नहीं डरती। सब लकीरें तेरे साथ चलने को तैयार हैं।”
मन्नत ने अचानक छोटा-सा हाथ उठाया।
उसकी नन्ही उँगलियाँ पहले नूरी की उँगली पकड़ती थीं, फिर निहाल की।
फिर उसने दोनों की उँगलियाँ आपस में जोड़ दीं।
जैसे कह रही हो:
अब ये गाँठ कभी नहीं खुलेगी।
नूरी ने सिर निहाल के कंधे पर टिका दिया।
उसकी साँसें अब पहली बार बिल्कुल शांत थीं।
उसने बहुत धीरे से कहा,
“सुन…
मैंने कभी सोचा नहीं था कि मेरी ज़िंदगी में भी कोई ‘हम’ होगा।
अब मेरे भीतर दो दिल धड़कते हैं।
एक मेरा, जो तुझे मिला।
दूसरा ये छोटा-सा, जो हमसे बना।”
निहाल की आँखें भीग गईं। उसने कुछ नहीं कहा। बस नूरी के माथे पर होंठ रखे और देर तक ऐसे ही रहा।
जैसे सारी दुनिया को बता रहा हो:
ये मेरा वादा है।
ये औरत अब मेरे साथ है।
और मैं इसके साथ हूँ।
हर जन्म में।
हवा में नारियल के पत्तों की सरसराहट थी।
नहर का पानी चुपके-चुपके गा रहा था।
और बारिश फिर शुरू हो गई।
धीरे-धीरे।
नरम-नरम।
जैसे आसमाँ भी रो रहा हो।
खुशी के आँसुओं से।
नूरी ने मन्नत को ऊपर उठाया।
बारिश की पहली बूँदें बच्ची के गाल पर गिरीं।
मन्नत हँस दी।
उसकी हँसी इतनी साफ़ थी कि पुरानी सारी चीखें, सारी मारें, सारी रातें उस एक हँसी में धुल गईं।
नूरी ने आँखें बंद कीं।
और पहली बार, बिना किसी डर के, ऊपर वाले से कुछ माँगा।
नहीं, माँगा नहीं।
शुक्रिया कहा।
बहुत देर तक।
बिना आवाज़ के।
बस होंठ हिलते रहे।
निहाल ने उसे देखा।
फिर उसने भी आँखें बंद कर लीं।
दोनों चुप थे।
पर उनकी साँसें एक ही लय में चल रही थीं।
बारिश तेज़ हो गई।
पर वे हटे नहीं।
उन्हें अब बारिश में भीगने से कोई डर नहीं था।
क्योंकि अब उनके ऊपर कोई छत नहीं थी।
उनके ऊपर था पूरा आसमाँ।
और आसमाँ अब उनका अपना था।
तीन लोग।
एक परिवार।
एक शुरुआत।
और एक वादा जो मौत के बाद भी नहीं टूटेगा।
बस।
इतनी सी कहानी।
पर अब वो पूरी नहीं रही।
वो हर बारिश में, हर साँस में, हर हँसी में
फिर से लिखी जा रही है।
हर दिन।
हर पल।
हमेशा।
निहाल , दिल्ली की चमकती-धूल भरी भीड़ में वह हमेशा ख़ुद से बिछड़ा हुआ सा लगता। पच्चीस साल। सॉफ़्टवेयर इंजीनियर। दिन में कोड, रात में बीयर, और ज़िंदगी एक अनंत लूप। उसे प्यार जैसी कोई चीज़ नहीं दिखती थी—बस लोग एक-दूसरे का वक़्त काटते हैं, यही समझ था।
उस रात भी कुछ ऐसा ही था। ऑफ़िस पार्टी के बाद नशे में दोस्तों ने कहा, “चल, आज कुछ नया करते हैं।” किसी ने जीबी रोड का नाम लिया। निहाल हँस पड़ा, “चलो।” उसे नहीं पता था कि यह हँसी उसकी सारी दुनिया उलट देगी।
सीढ़ियाँ चढ़ते वक़्त दिल ज़ोर-ज़ोर धड़क रहा था। शराब भी कम पड़ रही थी। दलाल ने एक दरवाज़े की ओर इशारा किया। दरवाज़ा खुला तो लाल बल्ब की मद्धम रोशनी में एक लड़की बैठी थी। लाल साड़ी, लाल लिपिस्टिक, पर आँखें—थकी हुई, जैसे बहुत पहले ही रोना छोड़ चुकी हों।
नूरी। बाईस साल। नौ साल से यहाँ। तेरह साल की उम्र में बिहार से लायी गई थी। पहले रोती थी, चीखती थी। फिर मार खाकर चुप हो गई। अब बस एक नंबर थी—कमरा नंबर सात।
निहाल ने पैसे गिने, मेज़ पर रखे। नूरी ने उठकर पल्लू सरकाया। यही रिवाज़ था।
पर निहाल ने हाथ जोड़ लिए।
“मैं… कुछ नहीं करूँगा। बस बात करनी है।”
नूरी ने पहली बार किसी ग्राहक की आँखों में देखा। उन आँखों में नशा था, पर उससे कहीं ज़्यादा कुछ और था। शायद दया। शायद इंसानियत। वह चुपचाप फिर बैठ गई।
“तुम्हारा नाम?”
“जो मर्ज़ी रख लो।”
“नहीं, असली नाम।”
लंबा सन्नाटा। फिर बहुत धीरे से, “नूरी।”
“सचमुच ख़ूबसूरत। मैं निहाल हूँ।”
उस रात दो घंटे सिर्फ़ बातें हुईं। नूरी ने कभी किसी को अपनी कहानी नहीं सुनाई थी। आज पता नहीं क्यों, सब उड़ेल दिया। गाँव, माँ का धोखा, दिल्ली की पहली रात… वह रुक गई। निहाल चुपचाप सुनता रहा। जाते वक़्त उसने सौ रुपये और रख दिए।
“चाय पी लेना।”
फिर हर हफ़्ते आया। सिर्फ़ नूरी। पैसे पूरे, पर हाथ कभी नहीं उठा। कभी चॉकलेट, कभी दुपट्टा, कभी किताब।
नूरी को लगा था—एक दिन माँग ही लेगा। महीने गुज़रे। निहाल ने कभी छुआ तक नहीं।
एक रात बारिश हो रही थी। नूरी ने पहली बार मुस्कुराते हुए पूछा, “पागल हो तुम?”
निहाल ने कहा, “हाँ। तुम्हें यहाँ से निकालने के लिए पूरी तरह पागल हो गया हूँ।”
नूरी की आँखें भर आईं।
“कोशिश मत करना। यहाँ से कोई नहीं निकलता।”
पर निहाल ने ठान लिया था।
उसने जॉब बदली। मेंटल हेल्थ का बहाना बनाकर केरल की छोटी ब्रांच में परमानेंट रिमोट ले लिया। हर महीने की आधी सैलरी अलग रखी। अलप्पुझा के पास एक पुराना नालुकेट्टू घर किराए पर लिया—चार कमरे, बड़ा आँगन, नहर के किनारे। बूढ़ी अम्मा ने कहा, “किराया कम कर दूँगी बेटा, बस घर को ज़िंदा रखना।”
नूरी को सिर्फ़ इतना कहा, “एक छोटा बैग तैयार रखना। जिसमें तुम्हारी ज़िंदगी समा जाए।”
रात तय हुई—14 अगस्त, आज़ादी की पूर्व संध्या।
रात तीन बजकर पंद्रह मिनट। बारिश ज़ोरों पर। जीबी रोड सूनी। निहाल और रॉकी पीछे की गली में वैन लेकर खड़े। तीन हल्की खटखट। कोड।
नूरी ने दरवाज़ा खोला। सलवार-कमीज़, सिर पर दुपट्टा।
सीढ़ियाँ उतरीं तो लगा दिल की धड़कन पूरी कोठी सुन लेगी। बाहर बारिश का शोर। वैन का दरवाज़ा खुला। निहाल ने हाथ बढ़ाया। नूरी ने पकड़ा और अंदर बैठ गई।
गाड़ी चली तो नूरी ने पीछे मुड़कर देखा। लाल बत्तियाँ धुंधली होती गईं। वह फूट-फूटकर रो पड़ी। निहाल ने कुछ नहीं कहा, बस उसका हाथ थामे रहा।
तीन दिन का सफ़र। दिल्ली-कोटा-मुंबई-एर्नाकुलम। नाम बदल-बदल कर। नूरी ने पहली बार ट्रेन की खिड़की से दुनिया देखी—खेत, नदियाँ, पहाड़। लगा जैसे कोई सपना हो।
केरल पहुँचे तो शाम ढल चुकी थी। बारिश फिर शुरू। नालुकेट्टू घर लकड़ी की खुशबू से भरा था।
बारिश जोरों से बरस रही थी, जैसे सारा आसमाँ नूरी के सारे ज़ख़्म धोकर नया रंग भर देना चाहता हो।
निहाल ने उसे गोद में उठाया—पहली बार छुआ।
नूरी ने उसकी गर्दन में मुँह छुपा लिया। उसका बदन काँप रहा था, अब डर से नहीं, चाहत से।
अंदर मिट्टी के लैंप की सुनहरी रोशनी नाच रही थी।
निहाल ने उसे चटाई पर धीरे से उतारा।
नूरी ने उसका चेहरा हाथों में लिया, उँगलियों से गाल सहलाए, जैसे सालों बाद अंधी आँखें खुली हों।
“अब मुझे डर नहीं लगता… तुझे छूने में भी नहीं।”
फिर शब्द ख़त्म। सिर्फ़ साँसें।
नूरी ने खुद साड़ी खींचकर फेंक दी। वह फर्श पर गिरी तो एक पुरानी ज़िंदगी की तरह सिमट गई।
उसकी चूत नौ साल बाद अपनी मर्ज़ी के लंड के लिए तरस रही थी—भीगी हुई, रस से लबालब।
निहाल ने पैंट उतारी। उसका लंड तना, सख़्त, गर्म।
नूरी ने उसे देखा, हाथ बढ़ाया, पकड़ा, सहलाया। ऊपर-नीचे। जैसे अपना खोया खिलौना वापस मिल गया हो।
निहाल ने उसकी टाँगें फैलाईं। लंड का सुपारा चूत पर रगड़ा। नूरी की कमर अपने आप उठ गई।
“डाल… अब और इंतज़ार नहीं होता,” उसने फुसफुसाया।
एक झटका। पूरा लंड अंदर।
नूरी की चूत ने उसे इतने प्यार से जकड़ लिया जैसे कह रही हो—अब कभी मत निकलना।
वह चिल्लाई नहीं, बस एक लंबी सिसकारी भरी, “हाँ… बस यहीं…”
फिर शुरू हुआ।
धीरे-धीरे, जैसे कोई नदी पहली बार समंदर से मिल रही हो।
फिर तेज़।
हर धक्के में नूरी का बदन हिलता, मम्मे उछलते।
निहाल ने एक मम्मा मुँह में लिया, चूसा। नूरी ने उसके बाल खींचे।
“ज़ोर से… और ज़ोर से चोद मुझे…” उसकी आवाज़ फटी थी, पर आज़ाद।
लंड अंदर-बाहर, चूत की गहराई तक। फच-फच की आवाज़। नूरी का रस निहाल के लंड पर लिपटा हुआ।
उसके कंधों पर पुराने निशान थे—निहाल ने हर निशान पर होंठ रखे, जैसे कह रहा हो, अब ये मेरे हैं, मैं इन्हें प्यार से ढँक दूँगा।
फिर नूरी ने उसे कसकर जकड़ लिया, नाख़ून पीठ में गड़े।
“आ… गया… मैं आ गई…”
चूत में झटके लगे, लंड को पूरी ताकत से दबोच लिया।
निहाल भी रुका नहीं। आख़िरी तीन ज़ोर के धक्के और नूरी की चूत के सबसे अंदर अपना सारा माल उड़ेल दिया। गर्म, गाढ़ा वीर्य।
नूरी ने उसे महसूस किया, आँखें बंद कीं, मुस्कुराई और उसे और कसकर भींच लिया।
दोनों पसीने से तर, एक-दूसरे में लिपटे लेटे रहे।
नूरी ने निहाल के लंड को फिर हाथ से पकड़ा—अब भी आधा तना था। हल्के से दबाया और फुसफुसाई,
“अब ये मेरा है… सिर्फ़ मेरा।”
बाहर बारिश रुक चुकी थी।
पर नूरी के अंदर जो नई बारिश शुरू हुई थी, वह कभी नहीं रुकनी थी।
सुबह नूरी आँगन में गई। मिट्टी को छुआ। रोई नहीं। मुस्कुराई।
दो साल गुज़र गए।
निहाल नौ बजे लैपटॉप खोलता है। नूरी अदरक वाली चाय बनाती है। दोनों खिड़की के पास बैठकर पीते हैं। नूरी ने सब्ज़ियाँ लगाई हैं—भिंडी, टमाटर, मिर्च। शाम को नहर किनारे टहलते हैं। नूरी केरल की साड़ी लपेटना सीख गई। निहाल को मलयालम के कुछ शब्द आ गए।
ईद पर सिवईयाँ, ओणम पर प्रसाद। नूरी पूजा की थाली सजाती है। उसके बाल फिर लंबे हो गए। हँसती है तो आवाज़ पूरे घर में गूँजती है। कभी पुराना ख़्याल आता है तो वह निहाल के सीने से लगकर चुप हो जाती है। निहाल उसके बालों में उँगलियाँ फिराता रहता है।
और अब नूरी के पेट में एक नई ज़िंदगी पल रही है।
हर रात निहाल उसका पेट सहलाते हुए सोचता, “ये सच है न?”
नूरी हँसती, “अब तक तो सपना लग रहा था, पर ये तो लात मार रहा है।”
डिलीवरी की रात भी बारिश थी।
निहाल बरामदे में टहल रहा था।
अंदर नूरी ने एक गहरी साँस ली और फिर…
एक नन्ही रोने की आवाज़। जैसे कोई पुराना घाव अचानक हँस पड़ा हो।
डॉक्टर ने बच्ची गोद में दी।
नूरी ने देखा—छोटी सी नाक, मुँह पर हल्के बाल, और आँखें… बिल्कुल उसकी अपनी। पर उनमें वह पुरानी थकान नहीं थी।
“नाम?”
“मन्नत।”
निहाल ने मुस्कुराकर पूछा, “मन्नत?”
नूरी ने बच्ची को सीने से लगाया और धीरे से कहा,
“मैंने ऊपर वाले से कभी कुछ नहीं माँगा था। बस एक बार माँगा था—कोई मुझे अपना ले, पूरी इंसान बना दे। वो मन्नत पूरी हुई। ये उसकी निशानी है।”
घर लौटे तो मन्नत को आँगन में लिटाया। सूरज की पहली किरण उस पर पड़ी।
नूरी ने उसका माथा चूमा और फुसफुसाया,
“तेरी माँ कोठे पर पैदा नहीं हुई थी बेटी…
तेरी माँ यहाँ पैदा हुई है। आज।”
शाम को नारियल के पेड़ों के नीचे तीन लोग थे।
निहाल, नूरी, और गोद में मन्नत।
सूरज डूबने से पहले आखिरी सुनहरी किरणें नहर पर टकरा रही थीं। पानी में तीन परछाइयाँ लहरा रही थीं; एक जो कभी टूट चुकी थी, एक जो उसे जोड़ने आया था, और एक जो कभी टूटेगी ही नहीं।
नूरी ने मन्नत को सीने से लगाया और धीरे-धीरे झूलने लगी। उसकी आँखें भर आईं, पर इस बार आँसू खारे नहीं थे।
वो आँसू मीठे थे।
जैसे कोई नदी सालों बाद अपने असली समंदर में पहुँचकर रो दे।
निहाल ने उसका हाथ थामा। उसकी उँगलियाँ अब भी थोड़ी काँपती थीं जब वह नूरी को छूता था; जैसे डरता हो कि कहीं ये सपना न टूट जाए।
नूरी ने उसकी हथेली पर अपनी हथेली रखी और दबाया।
“देखो,” उसने फुसफुसाया, “अब मेरी हथेली पर कोई लकीर नहीं डरती। सब लकीरें तेरे साथ चलने को तैयार हैं।”
मन्नत ने अचानक छोटा-सा हाथ उठाया।
उसकी नन्ही उँगलियाँ पहले नूरी की उँगली पकड़ती थीं, फिर निहाल की।
फिर उसने दोनों की उँगलियाँ आपस में जोड़ दीं।
जैसे कह रही हो:
अब ये गाँठ कभी नहीं खुलेगी।
नूरी ने सिर निहाल के कंधे पर टिका दिया।
उसकी साँसें अब पहली बार बिल्कुल शांत थीं।
उसने बहुत धीरे से कहा,
“सुन…
मैंने कभी सोचा नहीं था कि मेरी ज़िंदगी में भी कोई ‘हम’ होगा।
अब मेरे भीतर दो दिल धड़कते हैं।
एक मेरा, जो तुझे मिला।
दूसरा ये छोटा-सा, जो हमसे बना।”
निहाल की आँखें भीग गईं। उसने कुछ नहीं कहा। बस नूरी के माथे पर होंठ रखे और देर तक ऐसे ही रहा।
जैसे सारी दुनिया को बता रहा हो:
ये मेरा वादा है।
ये औरत अब मेरे साथ है।
और मैं इसके साथ हूँ।
हर जन्म में।
हवा में नारियल के पत्तों की सरसराहट थी।
नहर का पानी चुपके-चुपके गा रहा था।
और बारिश फिर शुरू हो गई।
धीरे-धीरे।
नरम-नरम।
जैसे आसमाँ भी रो रहा हो।
खुशी के आँसुओं से।
नूरी ने मन्नत को ऊपर उठाया।
बारिश की पहली बूँदें बच्ची के गाल पर गिरीं।
मन्नत हँस दी।
उसकी हँसी इतनी साफ़ थी कि पुरानी सारी चीखें, सारी मारें, सारी रातें उस एक हँसी में धुल गईं।
नूरी ने आँखें बंद कीं।
और पहली बार, बिना किसी डर के, ऊपर वाले से कुछ माँगा।
नहीं, माँगा नहीं।
शुक्रिया कहा।
बहुत देर तक।
बिना आवाज़ के।
बस होंठ हिलते रहे।
निहाल ने उसे देखा।
फिर उसने भी आँखें बंद कर लीं।
दोनों चुप थे।
पर उनकी साँसें एक ही लय में चल रही थीं।
बारिश तेज़ हो गई।
पर वे हटे नहीं।
उन्हें अब बारिश में भीगने से कोई डर नहीं था।
क्योंकि अब उनके ऊपर कोई छत नहीं थी।
उनके ऊपर था पूरा आसमाँ।
और आसमाँ अब उनका अपना था।
तीन लोग।
एक परिवार।
एक शुरुआत।
और एक वादा जो मौत के बाद भी नहीं टूटेगा।
बस।
इतनी सी कहानी।
पर अब वो पूरी नहीं रही।
वो हर बारिश में, हर साँस में, हर हँसी में
फिर से लिखी जा रही है।
हर दिन।
हर पल।
हमेशा।
✍️निहाल सिंह


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