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Incest मस्तराम का चेला : सीरीज
#7
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मस्तराम का चेला: सातवीं कहानी - दोस्त की माँ की  भूख

नमस्कार दोस्तों, या शायद कहूँ, नमस्कार उन उन रातों को जो दोस्ती की छतों से झांकती हैं, जब लाइट्स बंद हो जाती हैं लेकिन दीवारों के पीछे वो गुप्त सिसकियाँ गूँजने लगती हैं – वो जो किताबों के पन्नों से ज्यादा गहरी, ज्यादा गुप्त होती हैं। मैं हूँ राजू, मस्तराम का चेला – वो लड़का जो गाँव की कच्ची सड़कों से निकला, दिल्ली की मेट्रो में सवार हुआ, लेकिन दिल में वही जज्बा रखा जो कभी शांत न हो। पिछली कहानी में मैम की वो क्लास सुनी ना? दिन में इकोनॉमिक्स, रात में वो सब जो सिलेबस से बाहर। लेकिन दोस्तों, जिंदगी तो बस एक लंबी दोस्ती है, जहाँ हर दोस्त के घर में कोई न कोई राज़ छिपा होता – कभी माँ का, कभी खुद का। आज की कहानी थोड़ी दोस्ती की आग वाली है, थोड़ी माँ वाली टैबू, लेकिन हटके ट्विस्ट के साथ: इसमें होगा वो छुपा देखना, जो राजू ने देखा – दोस्त की माँ का सेक्स, और फिर वो स्टोरी जो बतानी पड़ी, लेकिन सिर्फ देखने तक – कोई छुअन नहीं, कोई मिलन नहीं, बस वो जलती आग की झलकियाँ जो रातों को नींद उड़ा देतीं। कहानी अब और विस्तार से भरी है, डिटेल्स से लदी – हर झाँकी का दृश्य, हर सिसकी का एहसास, सेक्स पार्ट अब और इंटेंस, और इंटरेस्टिंग – टेंशन से भरा, जैसे कोई थ्रिलर मूवी। तो दरवाजा बंद करो, लाइट्स ऑफ करो, और सुनो – ये है "दोस्त की माँ की भूख"। मेरे दोस्त अजय की माँ, आंटी राधा, जो दिन में माँ लगती, रात में वो आग जो राजू ने चुपके देखी, और वो देखना जो कभी भुलाया न जा सका।
मेरा नाम राजू है, उम्र वो ही 25 की, जब दिल्ली की इस अपार्टमेंट में रहता था – सिंगल रूम, लेकिन पड़ोस कमाल का। अजय मेरा क्लोज फ्रेंड, कॉलेज से – साथ पढ़ाई, साथ क्रिकेट, साथ रातों की बातें। उसका घर अगला फ्लोर, अक्सर जाता – होमवर्क के बहाने, या बस यूं ही। आंटी राधा – 42 की, लेकिन बॉडी ऐसी कि देखकर लगे 35 की हों, घर की वो औरत जो दिन में सब संभालती, लेकिन रात में अकेली जलती। 38-30-40 का फिगर, साड़ी पहनतीं ऐसी कि कमर की कटि पट्टी हल्की ढीली, नाभि की गहराई में पसीना चमकता जैसे कोई गुप्त झील। चूचियाँ भारी और गोल, ब्लाउज में तनी हुईं जैसे दो परिपक्व फल लटक रहे हों, गांड गोल और फूली, सलवार में मटकती तो लगता कोई रिदम बज रहा। चेहरा गोल-मटोल, होंठ मोटे और गुलाबी, आँखें काली और गहरी – मुस्कुराती तो डिंपल्स खिलखिलाते, लेकिन रात में वो नजरें जो उदास होकर चाँद को ताकतीं। अंकल – अजय के पापा – बिजनेस में डूबे, ट्रिप्स पर महीनों, घर आते तो थके-हारे सो जाते। आंटी घर में अकेली, लेकिन अजय से कहती – "बेटा, राजू को बुला ले, कंपनी मिलेगी।" पहली मुलाकात किचन में – "राजू बेटा, चाय पी? अजय बाहर है, लेकिन तू बैठ।" हाथ छुआ चाय देते हुए, लेकिन वो टच में गर्मी – जैसे कोई करंट। मैं सोचता – "आंटी, तू कितनी केयरिंग, लेकिन आँखों में उदासी क्यों?" लेकिन दोस्त की माँ, कभी लाइन क्रॉस का सोचा न।
एक शाम, अजय का बर्थडे – पार्टी घर पर, सब दोस्त बुलाए। मैं लेट पहुँचा, काम से फँसा। दरवाजा हल्का खुला, अंदर गया – लेकिन घर सूना, पार्टी खत्म? लाइट्स डिम, सब सोए लगे। लेकिन बैडरूम से हल्की आवाज – सिसकी जैसी, कराह जैसी। दिल धड़का, चुपके दरवाजे की दरार से झाँका – वाह रे किस्मत! आंटी बेड पर, नाइट गाउन ऊपर कमर तक चढ़ा, पैर फैले, और हाथ... चूत पर रगड़ते हुए। लेकिन अकेली न – कोई आदमी उसके ऊपर, अंकल जैसा नहीं, कोई और – पड़ोसी या कोई? वो आदमी – मोटा, 50 का, आंटी की कमर पकड़े, लंड चूत में पेल रहा। "आह... तेज... फाड़ दे मेरी चूत!" आंटी की कराह – गहरी, भूखी। आदमी का लंड मोटा, 6 इंच, लेकिन तेज धक्के – थप थप की आवाज, बेड हिल रहा। आंटी की चूचियाँ बाहर, उछल रही – भारी, निप्पल्स सख्त, आदमी मुंह में ले चूस रहा, काट रहा। "काट ले... दर्द में मजा है... अंकल कभी न करता!" आंटी सिसकी, हाथ उसके बालों में। आदमी नीचे गया – चूत चाटने लगा, जीभ अंदर-बाहर, क्लिट पर रगड़। आंटी काँपी – "ओह... चूस... पानी निकाल... भूखी हूँ सालों से!" रस बहा, आदमी पिया। फिर डॉगी – आंटी घुटनों पर, गांड ऊपर, आदमी थप्पड़ मारा – "रंडी... ले लंड!" पेला – गहरा, तेज। आंटी चीखी – "हाँ... रंडी बना... फाड़ गांड भी!" लेकिन आदमी चूत में ही – 20 मिनट पेला, पसीना टपका, सिसकियाँ गूँजीं। आंटी 2 बार झड़ी – "आ गया... फिर आ गया!" आखिर आदमी झड़ा – अंदर, गर्म वीर्य भरा। "भर दे... प्रेग्नेंट कर!" आंटी लिपट गई। मैं वहीं खड़ा, लंड सख्त, लेकिन हिला न – डर, उत्तेजना। चुपके निकला, लेकिन दिमाग में वो दृश्य – इंटेंस, जैसे कोई लाइव शो, भूखी औरत की आग, जो देखकर रात भर नींद न आई।
अगली सुबह अजय से मिला – "कल पार्टी मजा आया?" लेकिन आंटी की नजरें मुझ पर – सामान्य, लेकिन जैसे जानती हों कि देखा। "राजू, रात को आया था? दरवाजा खुला था।" मैं हकलाया – "हाँ आंटी... लेकिन लेट था, चला गया।" वो मुस्कुराई – "अंदर आ जाता, चाय मिलती।" लेकिन आँखों में चमक – शायद शक? मैं चुप रहा, लेकिन रात को सपने में वो दृश्य – आंटी की सिसकियाँ, धक्कों की थपथपाहट, वो इंटेंस भूख जो एक औरत की सालों दबी थी। अगली रात फिर झाँका – बालकनी से, विंडो खुली। आंटी फिर – उसी आदमी से, लेकिन अब ओरल – मुंह में लंड, गले तक, लार टपकती। "चूस... रंडी जैसे!" आदमी बोला। आंटी चूसी – तेज, जीभ घुमाई। फिर 69 – आदमी नीचे, आंटी ऊपर, चूत उसके मुंह पर, लंड उसके मुंह में। "चाट... पानी पी!" सिसकियाँ, 15 मिनट। झड़ना – दोनों साथ। मैं देखता रहा, लंड रगड़ता, लेकिन बाहर – इंटेंस दृश्य, जैसे कोई सीक्रेट फिल्म।
कई रातें ऐसे – कभी डॉगी में गांड थप्पड़, कभी मिशनरी में चूचियाँ काटना, कभी शावर में साबुन से चिकना चोदना। आंटी की भूख इंटेंस – "तेज... और तेज... सालों की प्यास!" वो आदमी बदलता – कभी पड़ोसी, कभी डिलीवरी बॉय, लेकिन आग एक। मैं देखता, मुठ मारता, लेकिन कभी अंदर न गया – डर अजय का, डर राज़ खुलने का। लेकिन वो स्टोरी – दोस्त की माँ की वो भूख, जो देखकर मैंने सीखा कि औरत की आग कितनी गहरी होती। अब अजय को बताऊँ? नहीं
Fuckuguy
albertprince547;
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RE: मस्तराम का चेला : सीरीज - by Fuckuguy - 07-11-2025, 10:23 PM



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