07-11-2025, 06:59 PM
मस्तराम का चेला: पांचवीं कहानी - दोस्त की बीवी का राज
नमस्कार दोस्तों, या फिर कहूँ, नमस्कार उन चुपचाप जलती रातों को, जहाँ चाँद की किरणें खिड़की से सिसकियाँ ले आती हैं, और दिल की गहराइयों में वो पुरानी धुन बजने लगती है – वो जो प्यार कहलाती है, लेकिन कभी-कभी भूख का नाम ले लेती है। मैं हूँ राजू, मस्तराम का चेला – वो साधारण सा यात्री जो गाँव की धूल भरी राहों से गुजरा, शहर की ऊँची इमारतों के साये में ठहरा, लेकिन रगों में वही ज्वाला बहाती रही जो ठंडी हवा को भी गर्म कर दे। पिछली कहानियों में मैंने भाभी की कमर की लहरों को छुआ, बहन की शादी की रात का तूफान महसूस किया, मम्मी की दबी सिसकियों को सुनाया, और चाची की मराठी ठहाकों में डूबा। हर बार लगता है कि ये आखिरी मोड़ है, लेकिन जिंदगी तो एक अनंत नदी है, जहाँ हर लहर में कोई नया राज छिपा होता है – कभी आग का, कभी प्यार का। आज की कहानी को मैंने थोड़ा और लंबा खींचा है, थोड़ा और गहरा उतारा है, क्योंकि तुम्हारे कहने पर नेहा की ये दास्ताँ अब सिर्फ चुदाई की नहीं, बल्कि उस रोमांस की है जो दोस्ती की दीवारों को चुपके से तोड़ देता है। "दोस्त की बीवी का राज" – मेरे सबसे करीबी संजय की बीवी नेहा, जो एक दिन मेरी आँखों की रानी बन गई। टैबू? हाँ, दोस्ती का विश्वास तोड़ना पाप है, लेकिन जब दिल की धड़कनें बोलने लगें, तो वो पाप भी स्वर्ग लगने लगता है। हटके ट्विस्ट? पुराने प्रेम-पत्रों की तरह चैट्स, वॉइस नोट्स में फुसफुसाहटें, और वो स्मार्टफोन वाली चिंगारियाँ जो दोस्ती को एक गुप्त प्रेम कथा में बदल दें। कहानी अब और लंबी है, धीमी आग वाली – हर सीन में हवा का स्पर्श महसूस होगा, हर टच में आत्मा की पुकार। तो लेट जाओ, आँखें बंद करो, और कल्पना करो कि ये तुम्हारी ही कहानी है, जहाँ प्यार और वासना एक ही सिक्के के दो पहलू हैं।
मेरा नाम राजू है, उम्र वो ही २५ की, जब जिंदगी के रंग सबसे चटखदार लगते हैं – न तो बचपन की मासूमियत बची रह जाती है, न ही बुढ़ापे की थकान आ जाती है। संजय मेरा वो दोस्त था, जो बचपन से साथ खेला, गाँव की नदी किनारे पत्थर फेंका, और दिल्ली की भागदौड़ में भी हँसते-हँसते जॉब पकड़ ली। वो शांत था, किताबों का दीवाना, हमेशा कहता – "राजू, जिंदगी एक उपन्यास है, धीरे पढ़ना।" मैं? मैं तो उछल-कूद वाला, शरारतों का पिटारा। फिर आई नेहा – संजय की शादी की शाम को, जैसे कोई सपना उतर आया हो। दिल्ली की लड़की, २४ की, लेकिन आँखों में गाँव की वो सादगी जो शहर की चमक को भी फीका कर दे। नेहा... अरे, नेहा को शब्दों में बाँधना मुश्किल है, जैसे कोई पुरानी ग़ज़ल जो सुनते ही सीने में बस जाए। ३४-२८-३६ का फिगर, स्लिम लेकिन कर्व्स ऐसी कि साड़ी पहनो तो वो लहरें उठें जो समंदर को शरमाने पर मजबूर कर दें; जींस में तो कमर की वो लकीरें सीधी नजरों में चुभ जाएँ, जैसे कोई नक्काशीदार मूर्ति। चेहरा अंडाकार, होंठ गुलाबी जैसे सुबह की ओस से भीगे, आँखें काली – गहरी, जहाँ डूबते ही भूल जाओ कि तट कहाँ है। हँसती तो डिंपल्स खिलखिलाते, गुस्से में भौहें सिकुड़तीं तो लगता, कोई कवि कागज उठा ले। शादी के बाद वो संजय के साथ दिल्ली शिफ्ट हुई। हम तीनों का रूटीन बन गया – शाम को चाय की प्यालियाँ, रात को मूवी की स्क्रीन पर हँसी। लेकिन धीरे-धीरे, जैसे बारिश की पहली बूँदें बादल से अलग होती हैं, मैंने नोटिस किया – नेहा की नजरें मुझ पर ठहरने लगीं। संजय की बातों के बीच, वो मुस्कुराहट... वो चमक जो दोस्ती से ऊपर उड़ान भरने को तैयार लगती। संजय? वो अपनी दुनिया में खोया रहता – किताबें, काम, नींद। कभी नोटिस ही न करता कि नेहा की आँखों में तड़प है, वो जोश की कमी जो शादी के रंगमंच पर धीरे-धीरे फीका पड़ने लगे।
एक शाम, दिल्ली की वो बारिश जो अचानक आ धमकती है, जैसे कोई पुराना प्रेमी लौट आया हो। संजय मीटिंग में फँसा, लेट आने वाला। मैं उनके फ्लैट पर पहुँचा, नेहा के साथ। वो किचन में चाय उबाल रही थी, साड़ी का पल्लू हल्का सा सरका हुआ, कमर की वो नाजुक लकीरें बारिश की नमी से चमक रही। खिड़की से पानी की बूँदें टपक रही, हवा में ठंडक घुली हुई – वो ठंडक जो दिल को छू ले। "भैया, संजय कब आएगा? ये बारिश... अकेले में डर लगता है," नेहा बोली, मुस्कुराते हुए, लेकिन आँखों में वो उदासी जो शब्दों से ज्यादा बोलती। मैंने टीवी ऑन किया – कोई पुरानी फिल्म, जहाँ हीरो-हीरोइन बारिश में गीत गाते। लेकिन नेहा पास आ बैठी, कंधा छुआ – हल्का सा, लेकिन बिजली सा करंट। "तू तो हमेशा हँसाता है भैया... संजय के साथ तो बस रूटीन। सुबह चाय, शाम खाना, रात सोना। कभी वो स्पार्क... वो जो दिल को जगाए।" उसकी साँसें गर्म लगीं, बारिश की ठंडक में भी। मैंने हाथ पकड़ा – नरम, ठंडा, लेकिन उँगलियों में वो कंपकंपी जो प्यार की पहली पुकार होती। "नेहा, तू खुश तो है ना? संजय तेरा कितना ख्याल रखता।" वो चुप रही, आँखें नीची। फिर धीरे से बोली, जैसे कोई राज़ खोल रही हो – "खुश हूँ भैया... लेकिन कभी-कभी लगता, जिंदगी में कुछ मिस कर रही। वो जोश... वो स्पार्क जो रातों को नींद उड़ा दे, सुबहों को सपनों से भर दे। संजय अच्छा है, लेकिन... वो आग नहीं जलाता।" बारिश तेज हो गई, जैसे आकाश भी रो रहा हो। मैंने करीब खींचा – धीरे से, जैसे कोई नाजुक फूल तोड़ रहे हों। होंठ मिले – नरम, गीले, बारिश की बूँदों जैसे। नेहा न रुकी, बल्कि लिपट गई। जीभ चूसी, धीरे-धीरे, जैसे कोई पुरानी धुन गा रही। "भैया... ये गलत है," फुसफुसाई, लेकिन आँखें बंद, हाथ मेरी कमीज में घुसे। संजय का फोन आया – "मैं लेट आऊँगा, मीटिंग लंबी।" नेहा ने काट दिया, मुस्कुराई – "अभी तो वक्त है भैया... बस थोड़ा सा।" वो पल... वो पहला चुंबन, जैसे कोई कविता पूरी हो गई हो।
उस रात से राज़ का जन्म हुआ – वो राज़ जो दोस्ती की दीवारों के पीछे छिपा, लेकिन रातों को चाँदनी में चमकने लगा। संजय सो गया, थकान से। हम बालकनी में चले आए – बारिश थम चुकी थी, लेकिन हवा में नमी बाकी। नेहा की साड़ी का पल्लू सरक गया, कमर नंगी चमक रही – वो नाजुक लकीरें, नाभि की गहराई जो किसी गहरे समंदर को छिपाए। मैंने छुआ – धीरे से, उँगलियों से सहलाया, जैसे कोई पुरानी तस्वीर को छू रहे हों। "नेहा... तू कितनी सुंदर है। जैसे कोई सपना जो छूने से उड़ न जाए।" वो सिसकी भर आई – हल्की, लेकिन दिल को छू लेने वाली। "भैया... संजय कभी नोटिस न करता। बस सो जाता, जैसे ड्यूटी हो। लेकिन तू... तेरी नजरें... वो प्यार जैसी।" हाथ नीचे सरका – सलवार में, चूत पर हल्का रगड़। गीली, गर्म। "तू... तैयार लग रही, लेकिन डर भी।" नेहा ने सिर हिलाया, आँखें नम – "डर है भैया... लेकिन तेरे बिना अब और डर लगेगा।" बालकनी की रेलिंग पर सटाया, धीरे से। सलवार नीचे सरकी। चूत गुलाबी, बाल हल्के, जैसे कोई फूल की कलियाँ। मैं घुटनों पर – जीभ लगाई, चाटा धीरे-धीरे, क्लिट पर। "आह... भैया... चूस... संजय कभी न चाटा, लेकिन तू... जैसे जानता हो मेरा हर राज़।" मीठा रस बहा, धीरे-धीरे। १० मिनट तक चाटा, उँगली डाली – एक, फिर दो। नेहा काँपी, बालकनी की रेलिंग पकड़ ली – "झड़ रही हूँ भैया... पी ले... तेरा प्यार।" रस मीठा, गर्म – निगला, जैसे कोई अमृत। फिर खड़ा हुआ। लंड बाहर – ७ इंच, सख्त लेकिन धीरे। नेहा ने पकड़ा – "वाह... संजय का छोटा लगता। तेरा... जैसे मेरा।" मुंह में लिया, चूसा धीरे – जीभ घुमाई, आँखें ऊपर उठाकर। "उम्म... तेरा स्वाद... प्यार का।" ६ मिनट। फिर दीवार सटाकर। "डाल भैया... धीरे... रोमांस से।" धक्का – टिप अंदर। टाइट, गर्म। "ओह... फुल हो गई... तेरी आग।" पेला – धीरे-धीरे, हर धक्के में चुंबन। थप थप, लेकिन बारिश की तरह नरम। १५ मिनट। नेहा की सिसकियाँ – "भैया... प्यार कर... तेज नही, गहरा।" आखिर में बाहर झाड़ा – उसके पेट पर, गर्म बूँदें। नेहा ने सहलाया – "तेरा राज़... मेरे अंदर।"
लेकिन ये राज़ तो बस शुरुआत था, जैसे कोई उपन्यास का पहला अध्याय। अगले हफ्ते संजय का बर्थडे आया – पार्टी की रौनक, लेकिन हमारे लिए वो एक गुप्त मिलन का बहाना। नेहा साड़ी में – लाल, पारदर्शी, जैसे कोई दुल्हन लेकिन आँखों में वो रहस्य जो सिर्फ मेरे लिए। नजरें मिलीं – पार्टियों के शोर में भी, जैसे कोई फुसफुसाहट। संजय शराब में डूबा, दोस्तों से हँसता। रात गहरी हुई, संजय सो गया – थकान से, बर्थडे की। नेहा चुपके मेरे कमरे में – "भैया, आग लगी है आज... बर्थडे का तोहफा तू दे।" नंगी हो गई, धीरे-धीरे – साड़ी सरकी, ब्लाउज खुला। बदन चाँद सा चमका, कमरे की लाइट में। चूचियाँ गोल, निप्पल्स गुलाबी – सख्त लेकिन नाजुक। मैंने छुआ – सहलाया, दबाया धीरे। "नेहा... तेरी चूचियाँ... जैसे दो तारे।" झुका, चूसा – मुंह में लिया, जीभ घुमाई। "आह... काट ले भैया... लेकिन प्यार से।" काटा हल्का, लेकिन चुंबनों से। नीचे – चूत चाटी, धीरे। उँगली डाली – दो, रगड़ा। "भैया... संजय एक ही डालता, लेकिन तू... जैसे मेरा दिल छू रहा।" नेहा झड़ी – लंबी, काँपती। "तेरा प्यार... बहा दिया।" फिर डॉगी – गांड ऊपर, लेकिन रोमांटिक। "गांड नही भैया... चूत में... गहरा प्यार।" लंड अंदर – धीरे। पेला। २५ मिनट। पोजिशन बदली – नेहा ऊपर, उछली धीरे। चूचियाँ हिलीं, लेकिन आँखें मिलीं। "तेरा लंड... मेरा राजा... प्यार का।" झड़ना – मुंह में, धीरे। निगला नेहा – "मीठा... तेरा, हमेशा।"
चैट्स अब कविताएँ बन गईं। वॉइस नोट्स – नेहा की फुसफुसाहट: "भैया, संजय सोया... तेरा वीडियो भेज, सपनों में देखूँ।" मैं भेजा – मुठ मारता, लेकिन आँखों में प्यार। वो – "मेरा देख... चूत रगड़ती, तेरे नाम की।" वीडियो कॉल रातों में – "भैया, संजय बाहर... कल्पना में चोदूँ, लेकिन प्यार से।" लेकिन एक दिन ट्विस्ट आया, जैसे कोई तूफान। संजय को शक हुआ – नेहा के फोन में एक मैसेज झलक गया। "नेहा, राजू से इतनी बातें? क्या राज़ है?" नेहा हँसी – "अरे यार, भाई जैसा... बस हँसाता है।" लेकिन रात को उसका मैसेज – "भैया, डर लग रहा... लेकिन तेरे बिना जिंदगी सूनी। आ मिल, पार्क में।" हम मिले – पार्क की बेंच पर, चाँदनी में। चुंबन – लंबा, गहरा। "नेहा, संजय को छोड़ दूँ?" वो आँखें नम – "नहीं भैया... वो मेरा पति, लेकिन तू मेरा प्यार। चुपके का राज़... हमारा।"
सिलसिला चला, जैसे कोई अनकही प्रेम कथा। कभी होटल में – मिशनरी पोजिशन, चूचियाँ काटते लेकिन चुंबनों से। "भैया... तेरा स्पर्श... आत्मा तक।" कभी कार में – ओरल, लेकिन आँखें बंद, कल्पना में। संजय को आखिरकार पता चला – एक रात, फोन में वीडियो क्लिप। झगड़ा हुआ, आँसू बहे। लेकिन नेहा बोली, आवाज काँपती – "संजय, तू मेरा सहारा... लेकिन राजू मेरा जोश, मेरा प्यार। हमें माफ कर... या स्वीकार।" संजय चुप रहा, टूटा लेकिन समझा। अब त्रिकोण बन गया – कभी तीनों साथ हँसते, कभी चुपके नेहा और मैं। नेहा की आग बनी, लेकिन अब रोमांस से भरी। "भैया, तू मेरा चेला... हमेशा, चाहे जो हो।
Fuckuguy
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