06-11-2025, 12:49 PM
रीति रिवाज
मेरा नाम राहुल है। दिल्ली में एक साधारण सी जॉब करता हूँ, लेकिन दिल में हमेशा एक पुरानी सी चाहत थी – एक ऐसा साथी जो न सिर्फ खूबसूरत हो, बल्कि दिल से भी जुड़ जाए। मेरी माँ ने एक दिन कहा, "बेटा, एक लड़की है लखनऊ में, नाम नेहा। अच्छे घराने की है, पढ़ी-लिखी। चल, देखने चलें।" मैंने हामी भर ली। हफ्ते भर बाद हम लखनऊ पहुँचे। नेहा का घर पुराना हवेली जैसा था, बगीचे में फूलों की महक और हवा में एक अजीब सी मिठास।
नेहा जब कमरे में आई, तो दिल धक् से हो गया। वो साड़ी में लिपटी हुई थी, हल्की गुलाबी रंग की, जो उसके गोरे रंग पर चिपक रही थी। लंबे काले बाल खुले थे, जो कमर तक लहरा रहे थे। आँखें बड़ी-बड़ी, काजल लगी हुईं, जैसे कोई कविता लिखी हो उनमें। हम बातें करने लगे। वो बोली, "राहुल जी, आपकी जॉब कैसी चल रही है?" मैंने हँसते हुए कहा, "बस, रोज़ की भागदौड़। लेकिन आपकी हँसी सुनकर लगता है, ज़िंदगी रुक जाएगी।" वो शरमा गई, गाल लाल हो गए। बातें चलीं – किताबों पर, ट्रैवल पर, सपनों पर। आधे घंटे में ही लगा, जैसे सालों से जानते हैं एक-दूसरे को। नेहा की आँखों में वो चमक थी जो कह रही थी – हाँ, ये वही है। मेरी भी यही हालत थी।
फिर परिवार वाले मिले। नेहा की माँ, सुधा जी, वहाँ बैठी थीं। उम्र करीब ४५ की होगी, लेकिन देखने में ऐसी लग रही थीं मानो समय ने उन्हें छुआ ही न हो। मैंने चुपके से नज़र डाली – उनके बाल घने, काले, लहराते हुए कंधों पर बिखरे हुए, जैसे रेशमी साड़ी की तरह। होंठ गुलाबी, मोटे, हल्के से मुस्कुरा रहे थे, जो किसी को भी मदहोश कर दें। आँखें नेहा जैसी ही, लेकिन गहरी, जैसे समंदर की गहराई में छिपी कोई रहस्यमयी लहर। साड़ी ब्लाउज़ में उनके स्तन उभरे हुए थे – भरे-पूरे, गोल, जैसे दो पके आम जो छूने को बुला रहे हों। कमर पतली, लेकिन कूल्हे चौड़े, गोलाकार, जो साड़ी के नीचे से हिलते हुए एक जादू सा बिखेर रहे थे। उनकी चाल में एक लचक थी, जो देखकर मन में उथल-पुथल मच जाती।
चाय-नाश्ता हुआ। नेहा की माँ ने मुस्कुराते हुए कहा, "राहुल बेटा, नेहा को तुम पसंद आ गए हो। लेकिन हमारे यहाँ एक पुरानी रिवाज है। शादी से पहले, लड़की की माँ लड़के की 'मर्दानगी' परखती है। मतलब, एक रात साथ बिताती है। अगर संतुष्टि मिली, तो रिश्ता पक्का। वरना... रद्द।" कमरे में सन्नाटा छा गया। मेरी माँ की आँखें फैल गईं, पापा का चेहरा लाल। "ये क्या बकवास है?" पापा चिल्लाए। नेहा के पापा ने शांत स्वर में कहा, "ये हमारी सदियों पुरानी प्रथा है। गाँव में आज भी चलती है। लड़की का भविष्य सुरक्षित रखने के लिए। माँ ही जानती है कि बेटी को क्या चाहिए।" घंटों बहस चली। मेरी माँ रोने लगीं, लेकिन नेहा की माँ ने इतने प्यार से समझाया – "ये सम्मान है, विश्वास का। हमारी संस्कृति का हिस्सा।" आखिरकार, हम मान गए। दिल में डर था, लेकिन नेहा की मुस्कान ने हिम्मत दी।
रात हुई। घर में सब सो चुके थे। सुधा जी ने मुझे बुलाया, "आओ बेटा, चलो ऊपर के कमरे में।" उनकी आवाज़ में एक मिठास थी, जो कानों को सहला रही थी। मैं उनके पीछे-पीछे चला। सीढ़ियाँ चढ़ते हुए उनकी कमर की लचक देखी, कूल्हे हल्के-हल्के हिल रहे थे, साड़ी की आंचल से वो गोलाकार गांड झलक रही थी – मोटी, मुलायम, जैसे रुई का गोला जो दबाने को बुला रहा हो। कमरे में घुसते ही उन्होंने दरवाज़ा बंद किया। लाइट डिम थी, मोमबत्तियाँ जल रही थीं। हवा में चंदन की खुशबू। वो मेरे सामने खड़ी हो गईं, साड़ी का पल्लू हल्का सा सरका। "डरो मत, राहुल। ये रिवाज है, लेकिन रात हमारी अपनी होगी।"
मैंने उनकी आँखों में देखा – वो चमक रही थीं, जैसे आग की लपटें। उनके बाल खुले थे, कंधों पर बिखरे, मैंने हाथ बढ़ाया और उन्हें सहलाया। मुलायम, रेशमी। "सुधा जी..." मैं बुदबुदाया। वो मुस्कुराईं, होंठ फैले, गुलाबी, चमकदार। "सुधा बोलो, बस।" उनकी साँसें तेज़ हो रही थीं। मैंने उनके होंठों को छुआ – नरम, गर्म, जैसे शहद से लिपटे। हमारा पहला चुम्बन हुआ। धीरे-धीरे, रोमांटिक। उनकी जीभ मेरी जीभ से मिली, एक मीठी लड़ाई सी छिड़ गई। हाथ उनके बालों में, कमर पर। साड़ी सरकने लगी।
वो मेरे शर्ट के बटन खोलने लगीं, आँखों में शरारत। "देखो ना, कितना मज़बूत हो।" उनके स्तन मेरे सीने से दबे – भारी, गर्म, निप्पल्स सख्त हो चुके थे, ब्लाउज़ के ऊपर से उभर आए। मैंने ब्लाउज़ खोला, ब्रा में बंद वो दो पहाड़ दिखे। सफेद ब्रा, काली लेस वाली। मैंने ब्रा उतारी – वाह! उनके दूध उभरे हुए, गोल, भूरे निप्पल्स पर गुलाबी घेरा। मैंने मुंह लगाया, चूसा धीरे-धीरे। सुधा जी सिसकारी भरने लगीं, "आह... राहुल... कितना प्यार से..." उनके हाथ मेरे बालों में, दबा रही थीं। उनकी आँखें बंद, होंठ काट रही थीं खुद को।
फिर साड़ी उतरी। पेटीकोट में उनकी कमर, नाभि गहरी, गोल। मैंने पेटीकोट खींचा – अंदर कुछ न था। उनकी गांड नंगी – बड़ी, गोल, सफेद, बीच में गहरी दरार। मैंने हाथ फेरा, मसलने लगा। मुलायम, लोचदार, जैसे जेली। वो मोड़ गईं, दीवार से टेक लगाई। "छूओ ना... और गहराई से।" मैंने उनके बाल पकड़े, पीछे से चूमा गर्दन पर। उनकी साँसें तेज़, कमर हिल रही। बेड पर लेटे। मैंने उनके होंठ फिर चूसे, जीभ अंदर तक। नीचे हाथ गया – उनकी चूत गीली, गर्म, बाल हल्के, ट्रिम्ड। उंगली डाली, वो चीखी हल्के से, "हाँ... वैसे ही..."
मैं नंगा हो गया। मेरा लंड सीधा, कड़ा। सुधा जी ने देखा, आँखें चमकीं। "वाह... नेहा खुश होगी।" उन्होंने मुंह में लिया – होंठों से लिपटा, जीभ घुमाई। रोमांटिक सक्शन, जैसे आइसक्रीम चूस रही हों। मैं सिहर उठा। फिर ऊपर चढ़ा। उनके स्तनों को दबाया, निप्पल चूसा। कमर पकड़ी, धीरे से अंदर घुसा। वो सिसकी, "आह... धीरे... प्यार से।" मैंने धक्का दिया – गर्म, गीली, चुभन सी मज़ा। हम दोनों हिले – लय में, जैसे कोई पुराना गाना। उनके बाल बिखरे बेड पर, आँखें मेरी आँखों में। "तुम्हें प्यार आया?" वो पूछीं। "बहुत... सुधा... तुम जन्नत हो।" स्पीड बढ़ी, रोमांस में उत्तेजना। उनकी गांड मेरे हाथों में, मसलता रहा। चरम पर पहुँचे – वो काँपीं, नाखून मेरी पीठ पर, "आ गया... हाँ!" मैं भी झड़ गया, गर्माहट फैली।
सुबह हुई। सुधा जी मुस्कुराईं, "रिवाज पूरा। नेहा तुम्हारी।" मैंने उनके होंठ चूमा आखिरी बार। दिल में नेहा के लिए प्यार, लेकिन ये रात – एक राज़, जो ज़िंदगी भर याद रहेगा। रिश्ता पक्का हो गया। और मैं? मैंने कभी न सोचा था कि परंपरा इतनी मीठी हो सकती है।
सुबह की पहली किरण जब खिड़की से चुरा-चुरा आई, तो मैं बेड पर लेटा सुधा जी को देख रहा था। उनकी साँसें अभी भी तेज़ थीं, लेकिन चेहरा शांत, जैसे कोई सपना पूरा हो गया हो। बाल बिखरे हुए थे तकिए पर, काले लहराते, सुबह की रोशनी में चमकते। होंठ हल्के सूजे हुए, गुलाबी, मेरे चुम्बनों की निशानी। आँखें बंद, लंबी पलकें काँप रही थीं। उनके स्तन धीरे-धीरे ऊपर-नीचे हो रहे थे, निप्पल्स अभी भी सख्त, जैसे रात की आग बुझी न हो। कमर पर मेरा हाथ था, मुलायम त्वचा, और नीचे उनकी गांड – गोल, भरी, मेरे स्पर्श से अभी भी गर्म। मैंने धीरे से चूमा उनके कंधे पर। वो जागीं, मुस्कुराईं। "राहुल... रिवाज ने तुम्हें पास कर दिया। नेहा की ज़िंदगी संवर जाएगी।" उनकी आवाज़ में एक मिठास थी, जो दिल को छू गई।
हम नीचे आए। परिवार वाले इंतज़ार कर रहे थे। नेहा की आँखों में चमक थी, लेकिन एक सवाल भी – "मम्मी, सब ठीक?" सुधा जी ने सिर हिलाया, "बिल्कुल, बेटी। राहुल जैसा दामाद मिला है, भगवान का शुक्र।" मेरी माँ ने आँसू पोंछे, पापा ने हाथ मिलाया। रिश्ता पक्का। अगले हफ्ते शादी तय हो गई। लखनऊ के उस पुराने घर में हल्दी, मेहंदी, सब कुछ चला। नेहा रोज़ मिलती, बातें करती। "राहुल, तुम्हें पता है, मम्मी ने कहा है तुम बहुत अच्छे हो।" मैं हँसता, लेकिन मन में सुधा जी की यादें घूम जातीं – वो रात, वो स्पर्श। नेहा खूबसूरत थी, लेकिन सुधा जी... वो एक रहस्य थीं, जो दिल में बस गई।
शादी का दिन आया। मंडप में फेरे लिए। नेहा दुल्हन बनी, लाल जोड़े में, आँखें काजल से सजी, होंठ नारंगी, बालों में गजरा। लेकिन मेरी नज़रें सुधा जी पर ठहर गईं। वो साड़ी में थीं, हरी रंग की, जो उनके गोरे रंग पर चमक रही थी। बाल चोटी में बाँधे, लेकिन कुछ लटें बाहर लहरा रही थीं। आँखें गहरी, मुस्कुराहट में वो ही शरारत। स्तन साड़ी के ब्लाउज़ में उभरे, भरे-भरे, जैसे कोई मूर्तिकार ने तराशा हो। कमर पतली, लेकिन कूल्हे – वाह! चौड़े, गोल, साड़ी के नीचे से हिलते हुए, हर कदम पर जादू। मैंने सोचा, "ये औरत... उम्र ने तो छुआ ही नहीं।"
रात हुई। विदाई के बाद नेहा मेरे साथ आई। कमरा सजा था – फूलों की महक, मोमबत्तियाँ। नेहा शरमा रही थी, जोड़ा उतारते हुए। "राहुल... आज हम..." मैंने उसके होंठ चूसे, नरम, मीठे। उसके बाल खुले, काले, नेहा की आँखें बड़ी, चमकतीं। लेकिन तभी दरवाज़ा खुला। सुधा जी! "बेटी, एक मिनट। रिवाज का आखिरी हिस्सा।" नेहा हँसी, "मम्मी, क्या?" सुधा जी बोलीं, "शादी की पहली रात, माँ बेटी को सिखाती है। पुरानी प्रथा। राहुल, तुम्हें कोई आपत्ति?" मेरा दिल धक् से हो गया। नेहा ने सिर हिलाया, "हाँ, मम्मी सिखाएँगी।"
सुधा जी अंदर आईं। नेहा बेड पर लेटी, घाघरा ऊपर सरका। सुधा जी ने मेरे हाथ पकड़े, नेहा की कमर पर रखे। "देखो बेटा, प्यार से छूना।" उनकी साड़ी सरकी, ब्लाउज़ दिखा। नेहा की आँखें फैलीं। सुधा जी ने नेहा के स्तनों को सहलाया, "वैसे ही, धीरे।" फिर मेरी ओर मुड़ीं। "राहुल, याद है ना रात?" मैंने हामी भरी। उन्होंने अपना पल्लू गिराया। स्तन उभरे, ब्रा में बंद। नेहा देख रही थी, उत्सुक। सुधा जी ने ब्रा खोली – वो दो गोल पहाड़, निप्पल्स सख्त। "देखो नेहा, मर्द का प्यार ऐसा होता है।" मैंने सुधा जी के स्तनों को चूसा, नेहा के सामने। सुधा जी सिसकी, "आह... हाँ।" नेहा का चेहरा लाल, लेकिन आँखें चिपकीं।
फिर सुधा जी ने नेहा को छुआ, "बेटी, खुल जाओ।" नेहा नंगी हो गई – उसके स्तन छोटे लेकिन चुस्त, गोल, निप्पल्स गुलाबी। कमर पतली, गांड छोटी लेकिन टाइट। सुधा जी ने मेरे लंड को पकड़ा, नेहा को दिखाया। "ये तुम्हारा है अब।" नेहा ने छुआ, शरमाई। सुधा जी ने मुंह में लिया मेरा, जीभ घुमाई – रोमांटिक, गहरा। नेहा देखती रही। फिर सुधा जी ने कहा, "अब बेटी, तुम करो।" नेहा ने कोशिश की, कच्ची लेकिन प्यारी। मैं सिहर उठा। सुधा जी पीछे से नेहा को सहला रही थीं, उसके बालों में उंगलियाँ।
बेड पर तीनों। मैंने नेहा को चूदा पहले – धीरे, प्यार से। वो सिसकी, "राहुल... दर्द... लेकिन अच्छा।" सुधा जी नेहा के होंठ चूस रही थीं, स्तनों को मसल रही। "हाँ बेटी, सहो।" फिर मैं सुधा जी की ओर मुड़ा। नेहा देख रही। मैंने सुधा जी को उल्टा किया, उनकी गांड ऊपर – बड़ी, गोल, सफेद। हाथ फेरा, चपेटा मारा हल्के से। वो हँसीं, "शरारती!" नेहा ने पूछा, "मम्मी, ये?" सुधा जी बोलीं, "ये मज़ा है, बेटी।" मैं अंदर घुसा – गर्म, गीली। सुधा जी काँपीं, "आह... राहुल... तेज़!" नेहा ने मेरी पीठ सहलाई। लय बनी – रोमांटिक, उत्तेजक। सुधा जी के बाल खुले, लहराते। आँखें नेहा की ओर, "देखो, ये प्यार है।"
फिर नेहा को लिया फिर से। सुधा जी नीचे से सहारा दे रही। चरम आया – नेहा चीखी, "हाँ... आ गया!" मैं झड़ा। सुधा जी ने आखिर में मुझे चूसा, सब कुछ साफ किया। तीनों लेटे, साँसें मिलीं। सुधा जी बोलीं, "अब रिवाज पूरा। नेहा, ये तुम्हारा घर है।" नेहा मुस्कुराई, "थैंक यू मम्मी... राहुल।" रात भर बातें हुईं – प्यार की, सपनों की। सुबह, नई ज़िंदगी की शुरुआत। लेकिन मन में ये राज़ – माँ-बेटी का प्यार, एक रिवाज जो बंधन तोड़ गया। अब नेहा मेरी थी, लेकिन सुधा जी... वो हमारी कहानी का हिस्सा बन गईं। और ये सफर, अभी शुरू ही हुआ था।
शादी को एक महीना हो गया था। नेहा अब हमारे घर की बहू थी – दिल्ली के उस छोटे से फ्लैट में, जहाँ हर कोना अब उसकी हँसी से गूँजता। सुबह उठती, चाय बनाती, मेरे गले लगकर कहती, "राहुल, आज ऑफिस जल्दी आना।" लेकिन मन में वो रातें घूम जातीं – लखनऊ वाली रिवाज, सुधा जी की गर्माहट, नेहा की मासूमियत। नेहा कुछ जानती थी, लेकिन सब राज़ ही था। पापा – मेरे बाबू जी – रिटायर्ड थे, घर पर ही रहते। उम्र ५५ की, लेकिन शरीर मज़बूत, जिम जाते थे, चेहरा सख्त लेकिन आँखों में एक नरमी। नेहा को बहुत प्यार करते, "बेटी, तू तो घर की रानी है।"
एक शाम, हम सब डिनर कर रहे थे। नेहा साड़ी में थी, नीली रंग की, जो उसके गोरे रंग पर चमक रही थी। बाल खुले, लहराते, कमर पर चूड़ियाँ की खनक। पापा ने अचानक कहा, "राहुल, नेहा, सुनो। हमारे परिवार में भी एक पुरानी रिवाज है। शादी के बाद, ससुर बहू को 'आशीर्वाद' देता है। मतलब, एक रात साथ बिताता है – प्यार, विश्वास का प्रतीक। अगर बहू संतुष्ट हो जाए, तो घर में सुख-शांति। वरना... अशुभ।" मैं चौंक गया। नेहा की आँखें फैल गईं, चम्मच हाथ से गिरा। "पापा जी, ये...?" पापा मुस्कुराए, "हाँ बेटी, हमारा गोत्र ऐसा ही है। दादा-परदादा चले आ रहे। नेहा, डरना मत। ये आशीर्वाद है, प्यार का।"
मैं विरोध करने लगा, लेकिन पापा ने समझाया, "बेटा, लखनऊ वाली रिवाज तो तुमने निभाई। अब हमारी बारी। परिवार का बंधन मज़बूत होगा।" नेहा शरमा गई, लेकिन आँखों में एक चमक – शायद उत्सुकता। रात को बेड पर, नेहा बोली, "राहुल, अगर ये रिवाज है, तो ठीक। पापा जी अच्छे हैं।" मेरा दिल बैठा, लेकिन कहीं मन में एक अजीब सी उत्तेजना भी। अगली रात तय हो गई। पापा ने नेहा को बुलाया, "चल बेटी, मेरे कमरे में। राहुल, तू बाहर रह।"
मैं बाहर बरामदे पर खड़ा था, दिल ज़ोर-ज़ोर धड़क रहा। कमरे की खिड़की से हल्की झलक मिल रही थी – पापा नेहा को सोफे पर बिठाया। नेहा की साड़ी हल्की सी सरक रही थी। पापा के हाथ नेहा के कंधे पर – धीरे से सहला रहे। नेहा की आँखें नीची, लेकिन मुस्कुराहट। पापा बोले, "नेहा, तू कितनी खूबसूरत है। बाल इतने लंबे, काले, जैसे रात की चाँदनी।" नेहा शरमाई, बालों को संवारा। पापा ने करीब खिंचा, नेहा के होंठ देखे – गुलाबी, नरम, हल्के से काँपते। "ये होंठ... जैसे फूल।" उन्होंने चूमा – धीरे, रोमांटिक। नेहा सिहर गई, लेकिन हाथ पापा की कमर पर रख दिया। चुम्बन गहरा हुआ, जीभें मिलीं, नेहा की सिसकी सुनाई दी – "पापा जी... आह..."
पापा ने साड़ी का पल्लू सरकाया। नेहा का ब्लाउज़ दिखा – सफेद, उसके स्तन उभरे हुए, गोल, युवा, लेकिन भरे-भरे। पापा के हाथ वहाँ पहुँचे, मसले धीरे से। "वाह बेटी, कितने नरम... दूध जैसे।" नेहा की साँस तेज़, आँखें बंद। पापा ने ब्लाउज़ खोला, ब्रा में बंद वो दो आम – गुलाबी निप्पल्स झलक रहे। ब्रा उतारी, मुंह लगाया। नेहा काँपी, "हाँ... पापा जी... प्यार से।" पापा चूस रहे थे, जीभ घुमा रहे, नेहा के बाल बिखर गए, हाथ पापा के सिर पर। कमरे में मोमबत्तियाँ जल रही थीं, हवा में नेहा की खुशबू।
फिर साड़ी उतरी। नेहा का पेटीकोट, कमर पतली, नाभि गहरी। पापा ने पेटीकोट खींचा – अंदर पैंटी, लेकिन नेहा की गांड – गोल, टाइट, युवा लचक। पापा ने पीछे से गले लगाया, हाथ आगे – स्तनों पर। "तेरी कमर... इतनी पतली, गांड इतनी मस्त।" नेहा मोड़ी, दीवार से टेक लगाई। पापा की उंगलियाँ नीचे – नेहा की चूत गीली हो चुकी। "गील हो गई बेटी... आशीर्वाद का असर।" नेहा हँसी हल्के से, "पापा जी... आपका जादू।" पापा ने पैंटी उतारी, नेहा को बेड पर लिटाया। उसके बाल बिखरे, आँखें चमकतीं – बड़ी-बड़ी, काजल लगी। पापा नंगे हो गए – उनका लंड कड़ा, मोटा, उम्र के बावजूद ताकतवर। नेहा ने देखा, आँखें फैलीं। "पापा जी... इतना..."
पापा ने नेहा के होंठ फिर चूसे, नीचे हाथ। उंगली डाली, नेहा चीखी मीठे से। फिर मुंह नीचे – नेहा की चूत चाटी, जीभ अंदर। नेहा के पैर फैले, कमर ऊपर उठी, "आह... पापा... कितना अच्छा!" पापा की दाढ़ी नेहा की जाँघों पर रगड़ रही, रोमांस में उत्तेजना। नेहा झड़ी पहली बार, शरीर काँपा, "हाँ... आ गया!" पापा ऊपर चढ़े। नेहा के स्तनों को दबाया, निप्पल काटा हल्के से। फिर अंदर घुसा – धीरे, नेहा की चीख, "दर्द... लेकिन मज़ा।" पापा हिले – लय में, गहरा। नेहा की गांड उनके हाथों में, मसलते। "तेरी गांड... कितनी टाइट, बेटी।" नेहा की आँखें पापा की आँखों में, "पापा जी... तेज़... आशीर्वाद दो।"
स्पीड बढ़ी। पापा के बाल सफेद, लेकिन ताकत कम न हुई। नेहा के बाल लहरा रहे, होंठ काटे, नाखून पापा की पीठ पर। चरम नज़दीक – नेहा चिल्लाई, "आ रहा हूँ... पापा!" पापा भी झड़े, गर्माहट नेहा में फैली। दोनों लेटे, साँसें मिलीं। पापा ने नेहा के बाल सहलाए, "आशीर्वाद पूरा, बेटी। अब घर में सुख।" नेहा मुस्कुराई, "थैंक यू पापा जी... आपका प्यार।"
सुबह, नेहा मेरे पास आई। चेहरा चमकता, लेकिन शरम भी। "राहुल, रिवाज निभा लिया। पापा जी ने आशीर्वाद दिया।" मैंने गले लगाया, लेकिन मन में तस्वीरें घूमीं – नेहा की वो रात। परिवार का बंधन और मज़बूत हो गया। अब नेहा मेरी थी, लेकिन ये रिवाज़... ये एक चक्र था, जो प्यार को नई परिभाषा दे रहा था। और आगे? कौन जानता, अगला रिवाज क्या लाएगा।
Fuckuguy
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