23-09-2025, 10:09 AM
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मटके वाली सविता
मैं सविता हूँ, एक छोटे से गाँव की रहने वाली। मेरा घर गाँव के बाहर की तरफ है, जहाँ खेतों के बीच में एक छोटी सी झोपड़ी है। मेरी उम्र 22 साल की है, लेकिन गाँव की जिंदगी ने मुझे जल्दी ही जवान बना दिया। मेरी माँ बचपन में ही गुजर गईं, और पापा मजदूरी करके घर चलाते हैं। मैं रोज सुबह उठती हूँ, नदी से पानी लाती हूँ, फिर मिट्टी के मटके बनाती हूँ और उन्हें बाजार में बेचने जाती हूँ। मटके बेचना मेरा काम है, और इसी से घर का कुछ गुजारा होता है।
मेरा बदन गाँव की लड़कियों से थोड़ा अलग है। मेरी कमर पतली है, लेकिन कूल्हे चौड़े और भरे हुए। मेरी छातियाँ इतनी बड़ी हैं कि ब्लाउज में मुश्किल से समाती हैं, और जब मैं मटके सर पर रखकर चलती हूँ, तो वो हिलती-डुलती हैं, जिससे गाँव के मर्दों की नजरें मेरे ऊपर टिक जाती हैं। मेरी त्वचा गोरी है, बाल लंबे काले, और आँखें बड़ी-बड़ी। मैं साड़ी पहनती हूँ, लेकिन ब्लाउज का गला थोड़ा गहरा होता है, क्योंकि गर्मी में पसीना बहुत आता है। गाँव के लड़के और आदमी मुझे घूरते हैं, लेकिन मैं अनदेखा कर देती हूँ। पर अंदर से मुझे पता है कि वो मेरे बदन की प्यास बुझाना चाहते हैं।
एक दिन की बात है, गर्मी का मौसम था। सुबह-सुबह मैंने पाँच मटके बनाए, उन्हें सर पर रखा और बाजार की तरफ चल पड़ी। रास्ता खेतों से होकर जाता है, जहाँ हवा चलती है और मेरी साड़ी का पल्लू कभी-कभी सरक जाता है। मैं चलते-चलते थक जाती हूँ, लेकिन मटके बेचने हैं। बाजार पहुँचकर मैं अपनी जगह पर बैठ गई। वहाँ दूसरे दुकानदार भी थे, लेकिन मेरे मटके अच्छे थे, चिकने और मजबूत।
थोड़ी देर बाद रामलाल आया, गाँव का जमींदार का बेटा, उम्र करीब 30 साल की। वो लंबा, गोरा, और मजबूत बदन वाला था। उसने मुझे देखा और मुस्कुराया। "बहन, कितने का है ये मटका?" उसने पूछा, लेकिन उसकी नजरें मेरे ब्लाउज पर थीं, जहाँ से मेरी छातियाँ उभरी हुई दिख रही थीं। मैंने कहा, "बीस रुपये का एक, भैया। अच्छी मिट्टी का है, टूटेगा नहीं।" वो हँसा और बोला, "अच्छा, ले लूँगा दो। लेकिन पहले पानी पिला दे, गला सूख रहा है।"
मैंने एक मटके से पानी निकाला और उसे दिया। वो पीते हुए मुझे घूर रहा था। उसके होंठ पानी से गीले हो गए, और वो मुझे देखकर बोला, "तुम्हारा नाम क्या है? रोज आती हो बाजार?" मैंने कहा, "सविता, हाँ भैया, रोज आती हूँ।" वो बोला, "अच्छा, आज मेरे घर चलो। वहाँ और मटके चाहिए, और पैसा भी ज्यादा दूँगा। मेरा घर पास ही है।" मैं थोड़ा हिचकिचाई, लेकिन पैसे की जरूरत थी, तो मैं मान गई।
हम चल पड़े। रास्ते में वो बातें करता रहा। "तुम अकेली हो? कोई घरवाला?" मैंने कहा, "नहीं भैया, अभी शादी नहीं हुई।" वो मुस्कुराया और बोला, "अच्छा, इतनी सुंदर लड़की की शादी नहीं हुई? गाँव के लड़के अंधे हैं क्या?" मैं शरमा गई, लेकिन अंदर से एक सिहरन सी हुई। उसका घर बड़ा था, हवेली जैसा। हम अंदर गए, वो बोला, "बैठो, पानी पी लो। गर्मी है।" मैं बैठ गई, मटके नीचे रखे। वो मेरे लिए पानी लाया, और बैठकर बात करने लगा।
धीरे-धीरे उसकी बातें बदलने लगीं। "सविता, तुम्हारा बदन कितना सुंदर है। मटके बेचते हुए कितनी मेहनत करती हो।" उसने मेरे कंधे पर हाथ रखा, जैसे सहारा दे रहा हो। मैं चौंक गई, लेकिन हटी नहीं। उसकी उँगलियाँ मेरे ब्लाउज के पास सरक गईं। "क्या कर रहे हो भैया?" मैंने धीरे से कहा। वो बोला, "कुछ नहीं, बस देख रहा हूँ। तुम्हारी छातियाँ कितनी भरी हुई हैं।" मैं शरमा गई, लेकिन मेरे बदन में आग लगने लगी। गाँव में कभी किसी ने ऐसे छुआ नहीं था।
वो करीब आया, उसके होंठ मेरे गाल पर लगे। "सविता, मुझे तुम पसंद हो। आज मुझे खुश कर दो।" मैंने विरोध किया, "नहीं भैया, ये गलत है।" लेकिन वो नहीं माना। उसने मुझे बाँहों में भर लिया, मेरी छातियाँ उसके सीने से दब गईं। उसका हाथ मेरी साड़ी के अंदर सरक गया, मेरी जांघों को सहलाने लगा। मैं सिहर उठी। "अह्ह... भैया..." मैंने सिसकारी ली। वो बोला, "चुप, मजा आएगा।"
उसने मेरी साड़ी ऊपर की, मेरी चूत पर हाथ फेरा। मैं गीली हो चुकी थी। "देखो, तुम भी चाहती हो।" उसने कहा। मैं कुछ नहीं बोली, बस आँखें बंद कर लीं। उसने अपना पजामा उतारा, उसका लंड बाहर आया – मोटा, लंबा, काला। मैंने देखा और डर गई, लेकिन उत्सुक भी हुई। "ये... इतना बड़ा?" मैंने पूछा। वो हँसा, "हाँ, अब इसे चूसो।"
मैं घुटनों पर बैठ गई, उसके लंड को हाथ में लिया। वो गर्म था, धड़क रहा था। मैंने जीभ से छुआ, फिर मुँह में लिया। धीरे-धीरे चूसने लगी। वो सिसकारियाँ भरने लगा, "अह्ह... सविता... अच्छा कर रही हो।" मैंने जोर से चूसा, उसका रस निकलने लगा। फिर वो मुझे उठाया, दीवार से सटा दिया। मेरी साड़ी पूरी उतार दी, ब्लाउज खोला। मेरी छातियाँ बाहर आ गईं, गुलाबी निप्पल सख्त हो गए। वो उन्हें चूसने लगा, एक हाथ से दबाता, दूसरे से मेरी चूत में उंगली डालता। "उफ्फ... भैया... दर्द हो रहा है..." मैं बोली, लेकिन मजा आ रहा था।
फिर वो मुझे जमीन पर लिटा दिया, मेरी टांगें फैलाईं। उसका लंड मेरी चूत पर रगड़ा। "अब डालूँ?" उसने पूछा। मैंने हाँ में सिर हिलाया। धीरे से घुसाया, दर्द हुआ। "आह्ह... मर गई..." मैं चीखी। वो रुका, फिर धक्का दिया। पूरा अंदर चला गया। वो धीरे-धीरे चोदने लगा, हर धक्के में मेरी चूत फटती सी लगी। लेकिन धीरे-धीरे मजा आने लगा। मैं भी कमर हिलाने लगी। "जोर से... भैया... जोर से..." मैं बोली। वो तेज हुआ, मेरी छातियाँ हिल रही थीं।
करीब 10 मिनट चुदाई चली, फिर उसका रस मेरी चूत में गिरा। मैं भी झड़ गई। हम दोनों पसीने से तर थे। वो बोला, "मजा आया?" मैं शरमाकर हाँ बोली।
उस दिन के बाद रामलाल से मेरी मुलाकातें बढ़ गईं। वो रोज मटके खरीदने के बहाने मुझे बुलाता। एक दिन शाम को मैं उसके घर गई। वो अकेला था। "आज कुछ नया ट्राई करेंगे।" वो बोला। मैं उत्सुक हो गई। उसने मुझे नंगा किया, फिर अपनी जीभ से मेरी चूत चाटने लगा। "अह्ह... क्या कर रहे हो..." मैं सिहर उठी। उसकी जीभ अंदर-बाहर हो रही थी, मैं पागल हो गई। फिर मैंने उसका लंड चूसा, पूरा गले तक लिया।
फिर वो मुझे घोड़ी बनाया, पीछे से चोदा। उसका लंड मेरी गांड पर रगड़ता, फिर चूत में घुसता। दर्द और मजा दोनों। "उफ्फ... रामलाल... मार डालोगे..." मैं बोली। वो हँसा, जोर-जोर से धक्के मारता रहा। मेरी चूत गीली हो गई, आवाजें आने लगीं – फच फच। आखिर में वो मेरी गांड में उंगली डालकर चोदा, मैं चीख उठी। रस निकला, हम थककर लेट गए।
इस तरह रामलाल ने मुझे कई बार चोदा, हर बार नया मजा।
रामलाल के साथ मेरी चुदाई की आदत पड़ गई थी, लेकिन एक दिन कुछ और हुआ। मैं बाजार जा रही थी, सर पर मटके रखे, रास्ता खेतों से गुजरता था। दोपहर का समय था, सूरज चढ़ा हुआ, हवा में गर्मी। मेरी साड़ी पसीने से चिपक गई थी, ब्लाउज से छातियाँ झांक रही थीं। अचानक एक लड़का खेत से निकला, उम्र 20-22 की होगी, नाम श्याम, गाँव का मजदूर। वो काला, मजबूत, शर्ट खुली हुई, पसीने से तर।
उसने मुझे रोका, "अरे सविता, इधर आ। पानी पिला दे।" मैं रुक गई, मटका नीचे रखा। वो करीब आया, पानी पीने लगा, लेकिन नजरें मेरे बदन पर। "तुम्हारा बदन कितना मस्त है। रोज देखता हूँ तुम्हें।" वो बोला। मैं शरमा गई, "चलो भैया, मुझे बाजार जाना है।" लेकिन वो नहीं माना। उसने मेरा हाथ पकड़ा, मुझे खेत की झाड़ियों में खींच लिया। "क्या कर रहे हो? छोड़ो!" मैंने कहा, लेकिन वो मजबूत था।
वो मुझे जमीन पर गिरा दिया, मेरी साड़ी ऊपर कर दी। "चुप रह, मजा देगी तो छोड़ दूँगा।" उसका हाथ मेरी जांघों पर फिरा, फिर चूत पर। मैं विरोध करती रही, लेकिन बदन गर्म हो रहा था। उसने अपना लुंगी उतारा, लंड बाहर – मोटा, लेकिन छोटा सा। वो मेरे ऊपर चढ़ गया, मेरी छातियाँ दबाने लगा। "अह्ह... मत करो..." मैं बोली, लेकिन वो चूसने लगा निप्पल। दर्द हुआ, लेकिन सुख भी।
फिर उसने लंड मेरी चूत में घुसाया, बिना रुके। "उफ्फ... दर्द हो रहा है..." मैं सिसकी। वो जोर-जोर से धक्के मारने लगा, खेत में हवा चल रही थी, मेरे बाल उड़ रहे थे। मैंने भी कमर हिलाई, मजा आने लगा। "जोर से... हाँ..." मैं बोली। वो पागल हो गया, 5 मिनट में झड़ गया, रस मेरे अंदर। फिर भाग गया। मैं उठी, कपड़े ठीक किए, और बाजार चली गई। लेकिन वो दर्द और मजा याद रहा। श्याम ने मुझे कई बार खेत में पकड़ा, हर बार जंगली चुदाई की।
रामलाल का पिता हरिसिंह, जमींदार साहब, उम्र 50 के करीब, लेकिन तगड़ा आदमी था। उनका बदन अभी भी मजबूत था, बाल सफेद हो चुके थे, लेकिन आँखों में वही जवानी की चमक थी। वो गाँव के सबके मालिक थे, हवेली में रहते, और औरतों की कमी नहीं थी, लेकिन मुझे देखकर उनकी आँखें चमक उठीं। एक दिन रामलाल ने मुझे उसके घर बुलाया, लेकिन वो बाहर गया हुआ था। हवेली के बड़े कमरे में हरिसिंह साहब अकेले बैठे थे, चारपाई पर, हुक्का पीते हुए। "आ जा बेटी, रामलाल अभी आएगा। बैठ, थक गई होगी मटके लेकर।" वो बोले, लेकिन उनकी नजरें मेरे ब्लाउज पर टिकीं, जहाँ से मेरी छातियाँ हिल रही थीं। मैं शरमाकर बैठ गई, साड़ी का पल्लू ठीक किया।
वो उठे, मेरे पास आए, और मेरे लिए पानी का गिलास लाए। "पी ले, गर्मी है।" देते हुए उनका हाथ मेरे हाथ से छुआ, और वो रुक गए। "तुम रामलाल की दोस्त हो न? वो बताता है तुम्हारे बारे में। कहता है, बड़ी मेहनती लड़की है।" मैं शरमा गई, सिर झुका लिया। लेकिन वो और करीब आए, उनका हाथ मेरे कंधे पर रखा। "तुम्हारा बदन कितना रसीला है, बेटी। जैसे दूध की मलाई।" उनका हाथ धीरे-धीरे नीचे सरका, मेरे ब्लाउज के ऊपर से छातियाँ छूने लगा। मैं सिहर उठी, "साहब, ये क्या कर रहे हो? रामलाल आएगा..." मैंने धीरे से कहा, लेकिन मेरे बदन में एक आग सी लग गई। वो हँसे, "चुप, रामलाल को पता है। वो खुद लाया है तुम्हें।"
उन्होंने मुझे खड़ा किया, मेरी कमर पकड़ी, और अपनी ओर खींचा। उनका सीना चौड़ा था, मैं उनके खिलाफ दब गई। "देखो, कितनी नरम हो तुम।" उनका हाथ मेरी साड़ी के अंदर सरक गया, जांघों को सहलाने लगा। मैं विरोध करती रही, "साहब, गलत है ये..." लेकिन वो नहीं रुके। उन्होंने मुझे सोफे पर धकेला, जो हवेली के कोने में था। धीरे-धीरे मेरी साड़ी उतार दी, ब्लाउज खोला। मेरी छातियाँ बाहर आ गईं, वो उन्हें देखकर बोले, "वाह, कितनी बड़ी और गोल। जैसे आम।" वो एक को मुँह में लिया, चूसने लगे, जीभ से निप्पल को घुमाते। दर्द और मजा मिला, मैं सिसकारी भर उठी, "अह्ह... साहब... धीरे..." दूसरी छाती को हाथ से दबाते, मसलते।
फिर उन्होंने अपना कुरता उतारा, पजामा नीचे किया। उनका लंड बाहर निकला – पुराना लेकिन मोटा, नसों से भरा, सख्त हो चुका। "चूसो इसे, बेटी। जैसे रामलाल को चूसती हो।" मैं घुटनों पर बैठ गई, हाथ में लिया। वो गर्म था, मैंने जीभ से चाटा, ऊपर से नीचे तक। फिर मुँह में लिया, धीरे-धीरे चूसने लगी। वो सिसकारियाँ भरते, मेरे बाल पकड़कर आगे-पीछे करते। "अह्ह... अच्छी लड़की... जोर से..." मैंने गले तक लिया, चूसा। उनका रस थोड़ा निकला, नमकीन। फिर वो मुझे उठाए, सोफे पर लिटाया। मेरी टांगें फैलाईं, और अपनी जीभ से मेरी चूत चाटने लगे। उनकी दाढ़ी मेरी जांघों पर गड़ रही थी, जीभ अंदर घुस रही, मैं पागल हो गई। "उफ्फ... साहब... क्या कर रहे हो... अह्ह..." मैं कमर हिलाने लगी, उनके मुँह पर दबाने लगी।
करीब 10 मिनट चाटते रहे, मैं दो बार झड़ गई। फिर वो ऊपर आए, लंड मेरी चूत पर रगड़ा। "अब डालूँ?" पूछा। मैंने हाँ में सिर हिलाया। धीरे से घुसाया, उनका मोटा लंड मेरी चूत को फैलाता चला गया। दर्द हुआ, लेकिन अनुभव से वो रुकते-रुकते घुसाते। पूरा अंदर, फिर धीरे-धीरे धक्के मारने लगे। हर धक्का गहरा, जैसे मेरे अंदर तक पहुँच रहा। मैं सिसकियाँ भरती, "जोर से... साहब... मारो... उफ्फ..." वो मेरी छातियाँ दबाते, चूसते, धक्के मारते। 15 मिनट चली चुदाई, पसीना बह रहा था, हवेली में सिसकारियाँ गूँज रही थीं। आखिर में उनका गर्म रस मेरी चूत में गिरा, मैं भी झड़ गई। वो मेरे ऊपर लेटे रहे, साँस लेते। "अच्छी लड़की हो, बेटी। फिर आना।" वो बोले। मैं थक गई, लेकिन संतुष्ट। उसके बाद हरिसिंह साहब मुझे हवेली में बुलाते, लंबी चुदाई करते, हर बार नई ट्रिक्स सिखाते – कभी गांड में उंगली, कभी अलग पोज। उनका अनुभव मुझे पागल कर देता।
ये सबसे मुश्किल और गहरा था। मेरे पापा रामदास, उम्र 45, मजदूर थे, दिन भर खेतों में काम करते, शाम को थके-मांदे घर आते। माँ के जाने के बाद वो उदास रहते, रातें अकेले गुजारते। उनका बदन मजबूत था, लेकिन चेहरे पर थकान की लकीरें। एक रात, बारिश जोरों से हो रही थी, बाहर ठंडी हवा चल रही, घर की छत टपक रही थी। मैं अपनी चारपाई पर सो रही थी, साड़ी थोड़ी सरक गई थी, ब्लाउज से छातियाँ आधी बाहर। पापा आए, मेरे पास लेटे। "बेटी, ठंड लग रही है। पास आ जाऊँ?" वो बोले, उनकी आवाज काँप रही थी। मैं जाग गई, लेकिन चुप रही, सिर हिलाया। वो मेरे करीब सरक आए, उनका हाथ मेरे कमर पर रखा। धीरे-धीरे सहलाने लगे, जैसे सुला रहे हों। लेकिन हाथ ऊपर सरका, मेरी छातियों पर। मैं चौंकी, "पापा, क्या कर रहे हो?" मैंने धीरे से कहा, लेकिन बदन में एक अजीब सी सनसनी थी।
वो चुप रहे, लेकिन हाथ नहीं हटाया। "बेटी, माँ के जाने के बाद... मुझे जरूरत है। तू समझ।" उनका हाथ ब्लाउज के अंदर घुसा, निप्पल को छुआ। दर्द हुआ, लेकिन अंदर प्यास जागी। मैं विरोध नहीं कर पाई, बस आँखें बंद कर लीं। वो मेरे ऊपर झुके, मेरी गर्दन पर चूमने लगे, होंठ गर्म थे। धीरे-धीरे ब्लाउज खोला, छातियाँ चूसने लगे। "अह्ह... पापा... धीरे..." मैं सिसकी, लेकिन कमर हिलाने लगी। उनका हाथ साड़ी के अंदर, मेरी जांघों पर फिरा, फिर चूत पर। मैं गीली हो चुकी थी। "देखो, तू भी चाहती है।" वो बोले, उंगली अंदर डाली, घुमाई। मैं पिघल गई, "उफ्फ... पापा..."
फिर उन्होंने अपना धोती उतारा, लंड बाहर – मोटा, काला, सख्त। मैंने हाथ में लिया, सहलाया। वो सिसकारियाँ भरते, "चूस ले, बेटी।" मैं नीचे सरकी, मुँह में लिया। धीरे-धीरे चूसा, जैसे रामलाल को चूसती थी। उनका रस निकला थोड़ा, मैं निगल गई। फिर वो मुझे लिटाया, टांगें फैलाईं। लंड मेरी चूत पर रगड़ा, धीरे से घुसाया। दर्द हुआ, लेकिन प्यार भरा। "धीरे... पापा... उफ्फ..." मैं बोली। वो धीरे-धीरे चोदने लगे, हर धक्का जैसे मेरे दिल तक पहुँचता। मैं उनकी पीठ सहलाती, कमर हिलाती। "जोर से... पापा... मुझे चोदो..." मैं बोली। वो तेज हुए, लेकिन सावधानी से, जैसे बेटी को नुकसान न पहुँचे। बारिश की आवाज में हमारी सिसकारियाँ मिल गईं। 10 मिनट बाद उनका रस मेरे अंदर गिरा, गर्म, भरपूर। मैं भी झड़ गई, उनके सीने से चिपक गई।
सुबह हम चुप रहे, आँखें नहीं मिलाईं। लेकिन वो रात दोहराई गई। कभी रात में, कभी दिन में जब घर खाली होता। पापा मुझे घर में कई बार चोदते, हर बार धीरे-धीरे, प्यार से। कभी जीभ से चाटते, कभी मेरी गांड सहलाते। वो कहते, "तू मेरी माँ जैसी है, बेटी।" मैं शरमाती, लेकिन मजा लेती। ये रिश्ता गलत था, लेकिन गाँव की जिंदगी में ये मेरी प्यास बुझाता।
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