
मेरा नाम आकाश है, और जब मैं अपनी बचपन की बातें याद करता हूँ, तो मेरा मन आज भी थोड़ा बेचैन हो उठता है। उस वक्त मैं अपने माता-पिता के साथ अपने चाचा के घर जाया करता था। चाचा का घर एक छोटा-सा एकमंजिला मकान था, जिसमें एक छोटा-सा आँगन और पीछे एक आम का पेड़ था। मैं और मेरी चचेरी बहन रीमा दिनभर आँगन में दौड़-भाग मचाते, कभी आम के पेड़ के नीचे लुका-छिपी खेलते, तो कभी चाची के हाथ का बना पिठ्ठा खाकर एक साथ शरारतें करते। रीमा बहुत शरारती थी; वो मेरी कमीज खींचकर हँसती, और मैं उसे गोद में उठाकर चक्कर काटता। चाची हमें हँसते हुए देखतीं और कभी-कभी कहतीं, “आकाश, रीमा को इतना लाड़ मत कर, ये सिर पर चढ़ जाएगी।” चाचा भी हँसते, लेकिन वो ज्यादातर अपनी छोटी-सी दुकान में व्यस्त रहते।
बचपन के वो हँसी-खुशी के दिन मेरे लिए किसी सपने की तरह थे। लेकिन एक दिन वो सपना टूट गया। उस दिन की याद आज भी मेरे मन में साफ चमकती है। बरसात का एक दोपहर था, आकाश काले बादलों से ढका हुआ था। मेरे माता-पिता मुझे लेने चाचा के घर आ रहे थे। मैं उस वक्त हमारे पुराने घर में एक पड़ोसी के यहाँ था। पिताजी ने कुछ दिन पहले एक सेकंड-हैंड मारुति कार खरीदी थी, और उसी कार से वो आ रहे थे। लेकिन बारिश की वजह से रास्ता फिसलन भरा हो गया था। सुना था, पिताजी कार चला रहे थे, और माँ उनके बगल में बैठकर गाना सुन रही थीं। अचानक एक ट्रक उनकी कार के सामने आ गया। पिताजी ने ब्रेक मारने की कोशिश की, लेकिन फिसलन भरे रास्ते पर कार का नियंत्रण खो गया। ट्रक से टकराते ही कार बुरी तरह कुचल गई। सिक्युरिटी ने बाद में बताया कि हादसा इतना भयानक था कि माता-पिता दोनों की मौके पर ही मौत हो गई। जब मुझे ये खबर दी गई, मैं जैसे पत्थर हो गया। मेरा दिमाग कुछ समझ नहीं पा रहा था। मेरा वो छोटा-सा संसार पलभर में चूर-चूर हो गया।
मेरे सीने में एक खालीपन सा बन गया। पड़ोस की आंटी मुझे गले लगाकर रो रही थीं, लेकिन मेरी आँखों से एक बूँद आँसू नहीं निकला। मैं बस चुपचाप बैठा रहा, मुझे लग रहा था कि मैं कोई सपना देख रहा हूँ, जिससे जागते ही मैं फिर से माता-पिता को देख लूँगा। लेकिन वो सपना कभी नहीं टूटा। माता-पिता के अंतिम संस्कार के वक्त मैं हल्दीघाटी में चाचा के घर गया। चाचा ने मुझे गले लगाकर कहा, “आकाश, तू चिंता मत कर, हम लोग हैं ना तेरे साथ।” लेकिन चाची के चेहरे पर वो हँसी नहीं थी, जो मैं बचपन में देखा करता था। वो चुपचाप सारे काम संभाल रही थीं, लेकिन जब मेरी तरफ देखतीं, तो उनकी आँखों में एक अजीब-सी दूरी दिखती थी।
माता-पिता के जाने के बाद मेरे पास जाने की कोई जगह नहीं थी। हमारा पुराना घर किराए पर दे दिया गया था, और उस किराए के पैसे से मेरी पढ़ाई चलती थी। चाचा ने कहा, “आकाश, तू अब से हमारे साथ रहेगा।” मैं तब मन में दुख और गुस्सा लिए हल्दीघाटी में चाचा के घर चला आया। चाचा का घर वही एकमंजिला मकान था, लेकिन अब वहाँ पहले जैसे आँगन में आम के पेड़ की छाया में खेलने के दिन नहीं थे। घर थोड़ा जर्जर हो चुका था, दीवारों पर सीलन के दाग थे, और चाचा की दुकान का व्यवसाय भी अच्छा नहीं चल रहा था।
पहले कुछ महीने चाचा ने मेरे साथ बहुत ध्यान रखा। उन्होंने मुझे कॉलेज में दाखिला दिलवाया, मेरे लिए किताबें खरीदीं। लेकिन चाची का व्यवहार मुझे धीरे-धीरे असहज करने लगा। वो मुझे देखते ही जैसे मुँह लटका लेती थीं। जब मैं कमरे में जाता, वो चुप हो जातीं या किसी और काम में व्यस्त हो जातीं। एक दिन रात को खाने बैठा तो मैंने कहा, “चाची, आज तुमने गोश्त बनाया है ना?” वो मेरी तरफ देखकर रुक गईं और बोलीं, “आकाश, अब तू बड़ा हो रहा है। हमें भी तो घर चलाना है। क्या हर दिन गोश्त खाया जा सकता है?” उनकी आवाज में एक तीखापन था, जैसे मैंने कोई गुनाह कर दिया हो। मेरे सीने में जैसे किसी ने चाकू चला दिया। मैं चुपचाप सिर झुकाकर दाल-भात खाकर उठ गया। उस रात बिस्तर पर लेटकर मैं रोते-रोते सो गया।
चाची का ये व्यवहार सिर्फ एक दिन का नहीं था। वो अक्सर मुझे इशारों में जतातीं कि मैं उनके लिए बोझ हूँ। एक बार मेरा जूता फट गया था, मैंने चाचा से कहा कि मुझे नया जूता चाहिए। चाची ने पास से सुनकर कहा, “आकाश, तू क्या सोचता है, हमारे पास पैसे का पेड़ है? तेरे चाचा की दुकान में तो वैसे ही घाटा हो रहा है।” मैं कुछ नहीं बोल पाया, बस सिर झुकाकर चला गया। चाचा ने चुपके से मुझे एक जूता खरीद दिया, लेकिन चाची की बातें मेरे मन में गहरे उतर गई थीं। मैं समझ चुका था कि मैं इस घर में मेहमान हूँ, मेरी यहाँ कोई स्थायी जगह नहीं है।
रीमा के साथ मेरा रिश्ता भी धीरे-धीरे बदल गया। बचपन में जो रीमा मेरे पीछे-पीछे घूमती थी, मेरी कमीज खींचकर हँसती थी, वो अब थोड़ी बड़ी हो चुकी थी। वो अब पहले की तरह मेरे साथ शरारत नहीं करती थी। जब मैं उससे कुछ कहने जाता, वो शर्मीली हँसी देकर चुप रहती। एक बार मैंने उससे कहा, “रीमा, चल, आँगन में लुका-छिपी खेलें।” उसने सिर्फ सिर हिलाकर सख्त स्वर में कहा, “नहीं, आकाश दा, मुझे पढ़ाई करनी है।” उसकी आँखों में एक दूरी थी, जैसे वो मुझसे बच रही हो। मुझे समझ नहीं आया कि ये उसकी शर्म थी या चाची का असर। चाची कभी-कभी रीमा से कहतीं, “तू आकाश के साथ ज्यादा मत घुल-मिल, वो अब बड़ा हो गया है।” ये बातें मेरे कानों तक पहुँचतीं, और मुझे लगता कि मैं इस घर में अकेला होता जा रहा हूँ।
रीमा का मुझसे दूर होना मुझे और अकेला कर गया। एक दिन दोपहर को मैं आँगन में बैठा था, रीमा पढ़ाई के टेबल पर थी। मैंने उसे पुकारकर कहा, “रीमा, थोड़ा बाहर आ ना, आम के पेड़ के नीचे बैठते हैं।” उसने मेरी तरफ देखकर सिर्फ एक हँसी दी, लेकिन उठी नहीं। उसकी आँखों में एक अजीब-सा भाव था, जैसे वो मुझसे बात करना चाहती हो, लेकिन कुछ उसे रोक रहा हो। मैंने और जोर नहीं किया। उस दिन के बाद हमारी बातचीत धीरे-धीरे खत्म हो गई। मैं समझ गया कि रीमा भी मुझसे बच रही थी, शायद चाची की बातों की वजह से, या शायद अपनी शर्म की वजह से।
चाचा के घर में रहते-रहते मुझे लगने लगा कि मैं यहाँ एक अतिरिक्त इंसान हूँ। चाची का व्यवहार मुझे हर दिन याद दिलाता कि मैं उनके लिए बोझ हूँ। चाचा मेरा ख्याल रखते थे, लेकिन वो अपनी दुकान में इतने व्यस्त रहते कि मेरे साथ ज्यादा वक्त नहीं बिता पाते। मैं कॉलेज जाता, पढ़ाई करता, लेकिन घर लौटने पर जैसे एक अदृश्य दीवार में कैद हो जाता। चाची की नजरें पड़ते ही मैं सिर झुका लेता। रीमा से मेरी बात नहीं होती, और मैं धीरे-धीरे खुद को समेटने लगा।
एक दिन मैंने फैसला किया कि मैं अब यहाँ नहीं रहूँगा। मेरी पढ़ाई के लिए माता-पिता के घर का किराया आता था, और मैंने एक छोटी-सी नौकरी के लिए आवेदन किया था। कॉलेज खत्म होने के बाद मैंने शहर में जाने का फैसला किया। चाचा से कहा, “चाचा, मैं अब अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता हूँ।” चाचा को थोड़ा दुख हुआ, लेकिन उन्होंने कहा, “ठीक है, आकाश, तू जो बेहतर समझे।” चाची ने कुछ नहीं कहा, बस सिर हिलाया। मैं समझ गया कि वो शायद खुश ही थीं कि मैं जा रहा हूँ। रीमा मेरी तरफ देख रही थी, उसकी आँखों में कुछ कहना था, लेकिन वो चुप रही। मैंने अपना बैग उठाया और अनजान की ओर चल पड़ा, पीछे छोड़ आया उस घर को, जहाँ मेरी बचपन की यादें थीं।
शहर में आकर मैंने चाचा के परिवार को भूलने की कोशिश की। उनके साथ मेरा संपर्क टूट गया। मैंने अपनी नई जिंदगी में मन लगाया, लेकिन मन के कोने में चाची की वो तीखी बातें और रीमा की शर्मीली हँसी बार-बार याद आती थी। मैं सोचता, शायद एक दिन फिर से हमारी मुलाकात होगी, लेकिन तब मुझे नहीं पता था कि वो मुलाकात मेरी जिंदगी को कैसे बदल देगी।
चाचा के घर से निकलने के बाद मुझे लगा जैसे मैंने किसी अनजान समुद्र में छलांग लगा दी हो। हल्दीघाटी का वो एकमंजिला घर, आँगन में आम के पेड़ की छाया, रीमा की शर्मीली हँसी, और चाची का ठंडा व्यवहार—सब कुछ पीछे छोड़कर मैंने शहर की राह पकड़ी। मेरे पास कॉलेज की डिग्री और माता-पिता के पुराने घर का किराया था। लेकिन शहर ने मेरा स्वागत नहीं किया। ये शहर क्रूर था, भीड़ से भरा हुआ, और मेरे जैसे गाँव के लड़के के लिए एक जंगल की तरह था। मैं किसी को नहीं जानता था, ना मुझे पता था कि कहाँ रहूँगा, क्या खाऊँगा, कैसे जिऊँगा।
शहर में कदम रखने के पहले दिन एक बुरे सपने जैसे थे। मेरे पास रहने की कोई जगह नहीं थी। पहली रात मैंने शहर के बस स्टैंड की बेंच पर काटी। रात की ठंडी हवा मेरे शरीर में सिहरन पैदा कर रही थी, और पास से बसों के हॉर्न और लोगों की चीख-पुकार मेरे सिर पर हथौड़ा मार रही थी। मेरी जेब में कुछ पैसे थे, तो दिन में एक पुरानी पान-बीड़ी की दुकान पर जाकर चाय और दो पावरोटी खाकर पेट भरा। लेकिन रात होते ही मेरे सीने में डर समा जाता। कहाँ सोऊँगा? कैसे जिऊँगा? मेरे दिमाग में माता-पिता के उस हादसे का दृश्य उभर आता, और मैं खुद को समझाता, “आकाश, तू अकेला नहीं है, तू कर सकता है।”
कुछ दिन बाद मुझे शहर की एक बस्ती में आश्रय मिला। एक छोटा-सा टिन के छप्पर वाला कमरा, जहाँ मुझे छह-सात लोगों के साथ रहना पड़ता था। कमरा अंधेरा था, दीवारों पर सीलन के दाग, फर्श पर सिर्फ एक पतली प्लास्टिक की चादर बिछी थी। गर्मी में कमरा जैसे भट्टी बन जाता, और बरसात में टिन की छत से टप-टप पानी टपकता। कमरे के एक कोने में एक टूटा-फूटा लैट्रिन था, जहाँ मुँह पर कपड़ा बाँधकर जैसे-तैसे जरूरत पूरी करनी पड़ती। बस्ती की गंध असहनीय थी—गंदे नाले की बदबू, सड़ा हुआ खाना, और लोगों के पसीने की मिली-जुली भाप। रात को सोते वक्त पास के लोगों की साँसों की आवाज, किसी का कराहना, और बाहर कुत्तों की भौंकने की आवाज मुझे जगा रखती। मुझे लगता जैसे मैं किसी जेल में कैद हूँ।
बस्ती में रहने वाले लोगों की जिंदगी और भी कठिन थी। मेरे रूममेट्स में एक रिक्शावाला था, जो दिनभर रिक्शा चलाकर रात को शराब पीकर सो जाता। दूसरा एक मजदूर था, जिसके हाथों में कड़े पड़ गए थे, और वो हर रात अपनी बीवी के लिए रोता, जो गाँव में थी और उसकी कोई खबर नहीं भेजती थी। मैं उनके साथ घुलने-मिलने की कोशिश करता, लेकिन मेरे मन का दुख और अकेलापन मुझे अपने में समेटे रखता। मैं रात को सो नहीं पाता, बस सोचता रहता—क्या यही मेरी जिंदगी के लिए थी? चाचा के घर का वो तिरस्कार, चाची की तीखी बातें, और रीमा का मुझसे दूर होना मेरे मन में बार-बार लौट आता। मेरे सीने में एक खालीपन सा बन गया था, जैसे मैं किसी का नहीं हूँ।
शहर में जिंदा रहने के लिए काम करना पड़ता था। मैं, आकाश, जो काम मिलता, वही करता। शहर की क्रूर सड़कों पर मेरी जिंदगी जैसे युद्ध का मैदान बन गई थी। पहले मुझे एक छोटी-सी दुकान में डिलीवरी ब्वॉय की नौकरी मिली। दिनभर शहर की गलियों में पार्सल पहुँचाता। गर्मी में मेरी कमीज पसीने से तर-बतर हो जाती, मेरे माथे से पसीना टपकता, और मेरे पैर जैसे सुन्न हो जाते। बरसात में सड़कों पर जमा गंदा पानी मेरे जूतों को भिगो देता, और मेरे जूते फट गए थे। नए जूते खरीदने के पैसे नहीं थे, तो फटे जूतों में ही काम चलाता। एक दिन बारिश में पार्सल ले जाते वक्त फिसलन भरी सड़क पर गिर गया। मेरा घुटना फट गया, खून बहने लगा, फिर भी मैंने दाँत पीसकर पार्सल पहुँचाया। महीने में जो थोड़े-से पैसे मिलते, उनसे बस्ती का किराया और दो वक्त का खाना चलता। खाना मतलब सिर्फ पतली दाल और चावल, कभी सस्ता मछली का झोल, जिसमें मछली की गंध से ज्यादा पानी होता। मेरा शरीर कमजोर होता जा रहा था, लेकिन मैंने हार नहीं मानी। मेरे मन में बार-बार यही बात आती—आकाश, तू हार मत, तू जिएगा।
कुछ महीनों बाद मुझे एक निर्माण स्थल पर काम मिला। वहाँ ईंटें ढोनी पड़ती थीं, सीमेंट मिलाना पड़ता था, और भारी सामान उठाना पड़ता था। सुबह से शाम तक मेरे हाथों में ईंटों की धूल, कंधों में दर्द, और पीठ पर सीमेंट की बोरियों का बोझ। मेरे हाथों में कड़े पड़ गए थे, उंगलियाँ फटकर खून जम जाता था। लेकिन मैं रुका नहीं। साइट पर बाकी मजदूरों के साथ मैं घुलने की कोशिश करता। उनमें रमेश था, एक अधेड़ उम्र का मजदूर, जो दिनभर काम के बीच गाना गाता और रात को शराब पीकर चिल्लाता। एक और था श्यामल, जो अपनी गाँव की बीवी की बातें करते-करते रो पड़ता। मैं उनके साथ हँसता, लेकिन मेरे मन में एक खालीपन था। मेरा कोई नहीं था, कोई मेरे लिए इंतजार नहीं करता था।
निर्माण स्थल पर मेरी मुलाकात मिना से हुई। मिना वहाँ खाना बनाने का काम करती थी। उसका साँवला शरीर, पसीने से भीगा साड़ी, और उसकी हँसी मेरे मन में एक अजीब-सी खिंचाव पैदा करती थी। उसकी उम्र तीस के आसपास थी, लेकिन उसके शरीर में एक कामुक आकर्षण था। उसकी साड़ी के बीच से उसके भरे-पूरे स्तनों की गहरी खाई और गोल-मटोल पेट दिखता। जब वो चाय लेकर आती, उसकी साड़ी कमर से थोड़ा ऊपर उठ जाती, और उसकी जाँघों का कुछ हिस्सा नजर आता। मेरी नजरें बार-बार उसी तरफ चली जातीं। वो कभी-कभी मेरी तरफ देखकर हँसती और कहती, “आकाश, तू इतना कष्ट क्यों करता है? थोड़ा हँस भी लिया कर!” उसकी बातों से मेरे मन में एक गर्माहट सी जागती, जैसे इस शहर में कोई मेरे लिए थोड़ा-सा ममता दिखा रहा हो। जब मैं उसकी तरफ देखता, मेरे शरीर में एक आग सी जल उठती। मैं मन ही मन सोचता, उसकी साड़ी उठाकर उसके स्तनों को मसल दूँ, उसकी चूत में जीभ डालकर चाटूँ, उसकी गांड पर अपना लंड रगड़कर ठोकूँ। मेरा लंड पैंट के नीचे सख्त होकर उछलता, लेकिन मैं खुद को संभाल लेता।
बस्ती की जिंदगी मुझे अंदर से तोड़ रही थी। टिन के छप्पर वाले कमरे में गर्मी से मेरा शरीर पसीने से तर हो जाता, और बरसात में छत से पानी टपकता। कमरे के एक कोने में टूटा-फूटा लैट्रिन, जहाँ मुँह पर कपड़ा बाँधकर जैसे-तैसे जरूरत पूरी करनी पड़ती। रात को रूममेट्स की कराहट, कुत्तों की भौंकने की आवाज, और गंदे नाले की बदबू मुझे जगा रखती। शहर की बस्ती के उस टिन के कमरे में मेरी जिंदगी जैसे एक अंधेरी गुफा में कैद हो गई थी।
एक रात मुझे तेज बुखार हो गया। मेरा शरीर काँप रहा था, सिर में चक्कर आ रहा था, और मेरे सीने में जैसे कोई भारी पत्थर रख दिया गया हो। मेरी जेब में डॉक्टर को दिखाने के पैसे नहीं थे। बस्ती के उस गंदे कमरे में, जहाँ दीवारों पर सीलन के दाग और फर्श पर पतली प्लास्टिक बिछी थी, मैंने एक पुरानी पैरासिटामॉल निगलकर जैसे-तैसे लेट गया। कमरे के कोने में टूटे लैट्रिन की बदबू, रूममेट्स की कराहट, और बाहर कुत्तों की भौंकने की आवाज मेरे कानों में गूँज रही थी। मेरा शरीर पसीने से भीग गया था, फिर भी बुखार की ठंड से मेरी हड्डियाँ काँप रही थीं। मुझे लग रहा था कि मैं मर रहा हूँ।
उस दिन दोपहर को मिना मुझे देखने आई। निर्माण स्थल पर उससे मेरी दोस्ती हो गई थी। उसका साँवला शरीर, पसीने से भीगी साड़ी, और उसकी कामुक हँसी मेरे मन में एक निषिद्ध आकर्षण पैदा कर चुकी थी। वो मेरे कमरे में आई और मेरे माथे पर हाथ रखकर बोली, “आकाश, तुझे इतना बुखार! तूने मुझे क्यों नहीं बताया?” उसके हाथ का स्पर्श मेरे शरीर में एक गर्माहट छोड़ गया। उसकी साड़ी के बीच से उसके भरे-पूरे स्तनों की गहरी खाई और गोल-मटोल पेट दिख रहा था। उसके शरीर की पसीने की गंध मेरे नाक में घुसी, और मेरे बुखार के धुंधलेपन में एक अजीब-सी कामना जाग उठी। उसने एक पुराना कंबल लाकर मेरे ऊपर डाल दिया। उसका हाथ मेरे सीने पर रगड़ा, और मेरे शरीर में एक आग सी जल उठी। मैं मन ही मन सोचने लगा, उसकी साड़ी उठाकर उसके स्तनों को मसल दूँ, उसके सख्त निप्पलों को चूसूँ, उसकी चूत में जीभ डालकर चाटूँ। मेरा लंड पैंट के नीचे सख्त होकर उछल रहा था, लेकिन बुखार की कमजोरी में मैं कुछ कर नहीं पाया।
मिना मेरे पास बैठकर मेरे सिर पर हाथ फेर रही थी। उसकी साड़ी थोड़ा ऊपर उठी हुई थी, और उसकी जाँघों का कुछ हिस्सा दिख रहा था। उसकी साँवली जाँघों की चिकनी त्वचा देखकर मेरे मन में गंदी कल्पनाएँ घूमने लगीं। मैं सोचने लगा, उसकी जाँघों पर हाथ फेरूँ, उसकी चूत में उंगली डाल दूँ, उसका रस चूस लूँ, उसकी गांड पर लंड रगड़कर ठोकूँ। उसका गर्म स्पर्श मेरे बुखार के शरीर में बिजली सी दौड़ा रहा था। उसने मेरे कान के पास फुसफुसाकर कहा, “आकाश, तू इतना कष्ट क्यों करता है? मैं तो हूँ तेरे पास।” उसकी आवाज में एक कामुक लहजा था, जैसे वो मुझे और करीब खींचना चाहती हो। मैंने उसकी तरफ देखा, उसकी आँखों में शर्म और कामना का मिश्रण दिखा। मेरा हाथ काँपते हुए उसकी कमर पर गया, उसकी साड़ी के नीचे उसके नरम पेट पर फिसला। उसका शरीर सिहर उठा, लेकिन उसने मुझे रोका नहीं। मैंने और हिम्मत करके उसकी साड़ी थोड़ा और ऊपर उठाई, उसकी जाँघों पर हाथ फेरा, और उसकी चूत के पास गया। उसकी चूत की गर्मी मेरी उंगलियों को छू गई, और मेरा लंड पैंट में उछलने लगा। मैं मन ही मन सोचने लगा, उसकी चूत में लंड डालकर तेजी से ठोकूँ, उसकी गांड पर माल छोड़ूँ, उसकी सिसकारियाँ सुनूँ।
लेकिन अचानक मिना ने मेरा हाथ हटा दिया। उसकी आँखों में डर समा गया। उसने फुसफुसाकर कहा, “आकाश, ये ठीक नहीं है। मेरा पति है।” मेरा मन टूट गया, लेकिन मेरे शरीर की आग नहीं बुझी। मैं बुखार के धुंधलेपन में उसकी तरफ देखकर बोला, “मिना, मैं तुझे चाहता हूँ।” वो सिर झुकाकर चुप रही, फिर उठकर चली गई। उसकी साड़ी की खसखस की आवाज मेरे कानों में गूँजती रही, और मेरे मन में अपमान और कामना का तूफान उठ गया।
बुखार के धुंधलेपन में मैं लेटा रहा, मेरे दिमाग में चाचा के घर की यादें तैरने लगीं। चाची का ठंडा व्यवहार, उनकी तीखी बातें—“आकाश, तू क्या सोचता है, हमारे पास पैसे का पेड़ है?”—मेरे मन में चाकू की तरह चुभती थीं। मैं रीमा की शर्मीली हँसी के बारे में सोचने लगा, उसकी बचपन की शरारतें, जब वो मेरी कमीज खींचती थी। लेकिन फिर उसका मुझसे दूर हो जाना, उसकी आँखों में वो अजीब-सी दूरी मेरे मन में गहरे उतर गई थी। मैं सोचने लगा, मैंने इस कष्ट की जिंदगी क्यों चुनी? बस्ती का ये गंदा कमरा, ये पसीने और बदबू की जिंदगी में मैं क्यों जी रहा हूँ? लेकिन मेरे मन में एक जिद सी चढ़ गई। मैंने मन ही मन कहा, “आकाश, तू हार नहीं मानेगा। तू अपने पैरों पर खड़ा होगा।”
एक दिन मिना ने मुझसे कहा, “आज मेरे घर चल, तुझे भात खिलाऊँगी।” मैं हैरान हुआ, लेकिन उसकी हँसी देखकर मना नहीं कर पाया। मिना का घर बस्ती में ही एक छोटा-सा कमरा था। कमरा छोटा और टूटा-फूटा था, दीवारों पर सीलन के दाग, फर्श पर एक पुरानी प्लास्टिक की चादर बिछी थी। कमरे में पसीने, खाने की गंध, और बाहर के गंदे नाले की बदबू मिलकर एक भाप भरा माहौल बना रही थी। मिना ने मुझे एक टूटी कुर्सी पर बिठाया और अपने हाथों से भात, दाल, और थोड़ा मछली का झोल बनाया। उसका साँवला शरीर पसीने से चमक रहा था, उसकी पतली साड़ी उसके शरीर से चिपकी हुई थी। साड़ी के बीच से उसके भरे-पूरे स्तनों की गहरी खाई, गोल-मटोल पेट, और गहरी नाभि दिख रही थी। जब वो खाना बना रही थी, उसकी गांड साड़ी के नीचे हिल रही थी, और मेरी नजरें बार-बार उसी तरफ चली जाती थीं। मैं मन ही मन सोच रहा था, उसकी साड़ी उठाकर उसकी गांड को मसल दूँ, उसकी चूत में जीभ डालकर चाटूँ, उसके पुट्ठे में उंगली डालकर रगड़ूँ। मेरा लंड पैंट के नीचे सख्त होकर उछल रहा था, लेकिन मैंने खुद को संभाला। मिना के हँसते हुए मुझे खाना परोसने के दौरान उसके स्तन मेरे हाथों के पास रगड़ रहे थे, और मेरे शरीर में एक आग सी जल उठी।
अचानक दरवाजे पर जोर की आवाज हुई। दरवाजा धक्का देकर खुला, और मिना का पति कालू, शराब के नशे में धुत्त होकर कमरे में घुसा। उसकी आँखें लाल थीं, मुँह से शराब की तीखी गंध और थूक के छींटे उड़ रहे थे। उसकी पैंट गंदगी से भरी थी, कमीज के बटन खुले थे, और उसका पेशीदार शरीर पसीने से चमक रहा था। मुझे देखकर वो चीख पड़ा, “ये साला कौन है? तू मेरी बीवी के साथ क्या कर रहा है, हरामी?” उसकी आवाज में एक जंगली गुस्सा था। मैं कुछ बोल पाता, उससे पहले वो मिना की तरफ बढ़ा और उसके बाल पकड़कर खींचने लगा। “साली, तू इस छोकरे के साथ चुदाई कर रही है, है ना? तेरी चूत इतनी गर्म है कि तू इस हरामजादे से चुदवाने लगी!” मिना काँपते हुए बोली, “नहीं, मैं तो बस इसे खाना दे रही थी! प्लीज, मुझे छोड़ दो!” उसकी आँखों में आँसू और डर मिला हुआ था, लेकिन कालू ने नहीं सुना। वो मिना को गालियाँ देने लगा, “तेरी गांड पर अभी भी मेरे लंड का निशान है, फिर भी तू इस साले को बुला लाई! तेरी चूत की आग मैं ही बुझा सकता हूँ!” उसकी बातें कमरे में गूँज रही थीं, और मेरे हाथ-पैर ठंडे पड़ गए। मैं चुपचाप कुर्सी पर बैठा रहा, मेरा सिर चकरा रहा था।
झगड़ा बढ़ते-बढ़ते कालू ने मिना को धक्का देकर टूटे बिस्तर पर गिरा दिया। उसने मिना की साड़ी कमर तक उठा दी, उसकी पैंटी एक झटके में खींचकर फेंक दी। मिना की साँवली जाँघें और उसकी चूत के काले बाल मेरी आँखों के सामने खुल गए। उसकी चूत पसीने से भीगकर चमक रही थी, और मेरे शरीर में बिजली सी दौड़ गई। कालू ने अपनी पैंट उतारी और अपना सख्त लंड बाहर निकाला, जिसका सिरा लाल होकर फूल गया था। उसने मिना की टाँगें फैलाईं और उसकी चूत में लंड डालकर तेजी से ठोकने लगा। मिना रो रही थी, उसकी आँखों में शर्म और अपमान मिला हुआ था, लेकिन कालू नहीं रुका। वो ठाप के ताल में चीख रहा था, “साला, तूने मेरी बीवी को ऐसे ही चोदा है, है ना? तेरे लंड से मेरी बीवी की चूत फाड़ दी!” हर ठाप के साथ मिना का शरीर हिल रहा था, उसके स्तन साड़ी के नीचे उछल रहे थे, उसकी गांड बिस्तर पर रगड़ खा रही थी। मिना का रोना धीरे-धीरे सिसकारियों में बदल गया, उसका शरीर कामना में काँप रहा था। वो मेरे सामने अपना मुँह छिपाने की कोशिश कर रही थी, लेकिन उसकी सिसकारियाँ मेरे कानों में गूँज रही थीं। “उह… आह… कालू, रुको…,” वो फुसफुसा रही थी, लेकिन उसका शरीर उसकी बातों का उल्टा कह रहा था। मेरा शरीर गर्म हो गया, मेरा लंड पैंट के नीचे सख्त होकर उछल रहा था। मैं मन ही मन सोचने लगा, अगर मैं मिना की चूत में लंड डालकर ठोकता, उसकी गांड पर माल छोड़ता, उसकी सिसकारियाँ सुनता। लेकिन मैं कुछ कर नहीं पाया, बस चुपचाप देखता रहा, मेरे शरीर में एक निषिद्ध कामना की आग जल रही थी।
कालू ने अपनी चुदाई खत्म की, उसका माल मिना की चूत और पेट पर फैल गया, जैसे कोई गंदी तस्वीर बन गई हो। उसका सख्त लंड से आखिरी बूँद माल निकलकर मिना के साँवले पेट पर चिपक गया, और वो धप्प से बिस्तर पर गिर पड़ा। उसकी नाक डाकने लगी, शराब के नशे में वो बेहोश हो गया। कमरे की भाप भरी गंध में शराब, पसीना, और यौन की गंध मिलकर एक मादक माहौल बना रही थी। दीवारों पर सीलन के दाग, फर्श पर बिखरी मिना की फटी पैंटी, और टूटे बिस्तर की कचकच की आवाज इस दृश्य को और गंदा बना रही थी।
मिना काँपते हुए उठी, उसने अपनी साड़ी ठीक करने की कोशिश की। उसका शरीर पसीने और कालू के माल से चमक रहा था, उसकी साँवली त्वचा जैसे एक कामुक चित्र बन गई थी। उसकी साड़ी पेट के पास चिपकी थी, उसकी गहरी नाभि और चूत के काले बालों का कुछ हिस्सा अभी भी दिख रहा था। उसके भरे-पूरे स्तन साड़ी के नीचे उभरे हुए थे, उसके निप्पल सख्त होकर साड़ी के कपड़े को ठेल रहे थे। उसकी आँखों में आँसू, शर्म, और अपमान मिला हुआ था, लेकिन उसके शरीर में एक अजीब-सी कामना की छुअन थी। उसने मेरी तरफ देखा और रोते हुए मुझे गले लगा लिया। उसका गर्म शरीर मेरे सीने से रगड़ रहा था, उसके भरे-पूरे स्तन मेरे सीने पर दब गए, उसके सख्त निप्पल मेरी कमीज के ऊपर से मेरी त्वचा को चुभ रहे थे। उसकी पसीने की गंध, जिसमें कालू के माल की गंध मिली थी, मेरे नाक में घुसी और मेरे शरीर में एक आग सी जल उठी। मेरा लंड पैंट के नीचे सख्त होकर उछल रहा था, मेरे मन में एक निषिद्ध कामना का तूफान उठ गया।
मैं मन ही मन सोचने लगा, उसे गले लगाकर उसकी चूत में लंड डालकर चोद दूँ। उसकी गांड में उंगली डालकर रगड़ूँ, उसके मुँह में माल छोड़ूँ। मेरा हाथ उसकी कमर पर गया, उसके नरम पेट पर फिसला, उसकी साड़ी के नीचे उसकी जाँघों पर गया। उसकी जाँघें चिकनी, गर्म, और पसीने से भीगकर चमक रही थीं। मेरी उंगलियाँ उसकी चूत के पास गईं, उसकी चूत की गर्मी और रस की गीलापन मेरी उंगलियों को छू गया। मिना का शरीर सिहर उठा, उसकी साँसें भारी हो गईं, उसकी आँखों में कामना समा गई। मैंने उसके कान के पास फुसफुसाकर कहा, “मिना, मैं तुझे चाहता हूँ। तेरा ये शरीर मेरे लिए जल रहा है, है ना?” मेरा लंड उसकी गांड पर रगड़ रहा था, मेरा हाथ उसकी साड़ी और ऊपर उठाकर उसकी चूत के बालों पर फेरने लगा। उसका रस मेरी उंगलियों पर लग गया, और मेरे शरीर में बिजली सी दौड़ गई। मैं मन ही मन सोचने लगा, उसकी चूत में लंड डालकर तेजी से ठोकूँ, उसकी गांड पर माल छोड़ूँ, उसकी सिसकारियाँ सुनूँ।
लेकिन अचानक मिना ने मेरा हाथ हटा दिया, उसका शरीर काँप रहा था। उसने मुझे धक्का देकर एक जोरदार थप्पड़ मारा, जिसकी आवाज कमरे में गूँज उठी। उसकी आँखों में नफरत, गुस्सा, और अपमान जल रहा था। वो चीखकर बोली, “आकाश, मैंने तुझे अच्छा समझा था! तू भी मुझे इस तरह चोदना चाहता है? तू भी कालू की तरह हरामी है! मेरे शरीर पर कालू का छुअन है, और तू भी मुझे गंदा करना चाहता है? मेरे घर से निकल जा!” उसकी बातें मेरे सीने में चाकू की तरह चुभ गईं। उसकी आँखों के आँसू और नफरत मेरे मन में गहरे उतर गए। मैं शर्म और अपमान से सिर झुकाकर कमरे से बाहर निकल आया। बाहर बस्ती की गंदी गली में खड़ा होकर मेरे शरीर में कामना, अपमान, और दुख का एक तूफान उठ गया। मेरा लंड अभी भी सख्त था, मेरे मन में मिना के शरीर का स्पर्श और उसकी सिसकारियाँ बार-बार लौट रही थीं।
इसके बाद मिना ने मुझसे बात करना बंद कर दिया। साइट पर उसकी तरफ देखता तो वो मुँह फेर लेती। मेरे मन में एक दुख जमा हो गया, लेकिन मैंने उसे भूलकर अपने काम में मन लगाया। बस्ती की इस गंदी जिंदगी, इस यौन के दृश्य, और मिना के साथ इस टूटन ने मुझे सिखा दिया कि ये शहर मुझे और सख्त कर देगा। लेकिन मिना का ये छुअन मेरे मन में एक निषिद्ध आग जला गया था। मेरे मन में एक संकल्प जागा—मैं इस बस्ती की जिंदगी छोड़कर अपनी जगह बनाऊँगा।
कई सालों की मेहनत के बाद मुझे एक सरकारी दफ्तर में क्लर्क की नौकरी मिली। तनख्वाह कम थी, लेकिन पक्की थी। मैंने बस्ती छोड़कर शहर के एक कोने में एक छोटा-सा वन बीएचके फ्लैट किराए पर लिया। छोटा-सा कमरा, एक बेडरूम, एक डाइनिंग हॉल, और एक बाथरूम। मेरी जरूरतें कम थीं, तो ये फ्लैट मेरे लिए काफी था। मैं दिनभर दफ्तर से लौटकर इस छोटी-सी दुनिया में डूब जाता। सुबह उठकर चाय और पावरोटी खाता, दफ्तर जाने से पहले दाल-भात बना लेता। रात को लौटकर टीवी पर पॉर्न देखता, स्क्रीन पर नंगी लड़कियों के शरीर देखकर मेरा लंड सख्त हो जाता। मैं लुंगी उतारकर हस्तमैथुन करता, मन ही मन कल्पना करता—किसी लड़की के स्तनों को मसलना, उसकी चूत में लंड डालकर ठोकना, उसके पुट्ठे पर माल छोड़ना। मेरा माल निकलकर बिस्तर को भिगो देता, और मैं थककर सो जाता।
बचपन के वो हँसी-खुशी के दिन मेरे लिए किसी सपने की तरह थे। लेकिन एक दिन वो सपना टूट गया। उस दिन की याद आज भी मेरे मन में साफ चमकती है। बरसात का एक दोपहर था, आकाश काले बादलों से ढका हुआ था। मेरे माता-पिता मुझे लेने चाचा के घर आ रहे थे। मैं उस वक्त हमारे पुराने घर में एक पड़ोसी के यहाँ था। पिताजी ने कुछ दिन पहले एक सेकंड-हैंड मारुति कार खरीदी थी, और उसी कार से वो आ रहे थे। लेकिन बारिश की वजह से रास्ता फिसलन भरा हो गया था। सुना था, पिताजी कार चला रहे थे, और माँ उनके बगल में बैठकर गाना सुन रही थीं। अचानक एक ट्रक उनकी कार के सामने आ गया। पिताजी ने ब्रेक मारने की कोशिश की, लेकिन फिसलन भरे रास्ते पर कार का नियंत्रण खो गया। ट्रक से टकराते ही कार बुरी तरह कुचल गई। सिक्युरिटी ने बाद में बताया कि हादसा इतना भयानक था कि माता-पिता दोनों की मौके पर ही मौत हो गई। जब मुझे ये खबर दी गई, मैं जैसे पत्थर हो गया। मेरा दिमाग कुछ समझ नहीं पा रहा था। मेरा वो छोटा-सा संसार पलभर में चूर-चूर हो गया।
मेरे सीने में एक खालीपन सा बन गया। पड़ोस की आंटी मुझे गले लगाकर रो रही थीं, लेकिन मेरी आँखों से एक बूँद आँसू नहीं निकला। मैं बस चुपचाप बैठा रहा, मुझे लग रहा था कि मैं कोई सपना देख रहा हूँ, जिससे जागते ही मैं फिर से माता-पिता को देख लूँगा। लेकिन वो सपना कभी नहीं टूटा। माता-पिता के अंतिम संस्कार के वक्त मैं हल्दीघाटी में चाचा के घर गया। चाचा ने मुझे गले लगाकर कहा, “आकाश, तू चिंता मत कर, हम लोग हैं ना तेरे साथ।” लेकिन चाची के चेहरे पर वो हँसी नहीं थी, जो मैं बचपन में देखा करता था। वो चुपचाप सारे काम संभाल रही थीं, लेकिन जब मेरी तरफ देखतीं, तो उनकी आँखों में एक अजीब-सी दूरी दिखती थी।
माता-पिता के जाने के बाद मेरे पास जाने की कोई जगह नहीं थी। हमारा पुराना घर किराए पर दे दिया गया था, और उस किराए के पैसे से मेरी पढ़ाई चलती थी। चाचा ने कहा, “आकाश, तू अब से हमारे साथ रहेगा।” मैं तब मन में दुख और गुस्सा लिए हल्दीघाटी में चाचा के घर चला आया। चाचा का घर वही एकमंजिला मकान था, लेकिन अब वहाँ पहले जैसे आँगन में आम के पेड़ की छाया में खेलने के दिन नहीं थे। घर थोड़ा जर्जर हो चुका था, दीवारों पर सीलन के दाग थे, और चाचा की दुकान का व्यवसाय भी अच्छा नहीं चल रहा था।
पहले कुछ महीने चाचा ने मेरे साथ बहुत ध्यान रखा। उन्होंने मुझे कॉलेज में दाखिला दिलवाया, मेरे लिए किताबें खरीदीं। लेकिन चाची का व्यवहार मुझे धीरे-धीरे असहज करने लगा। वो मुझे देखते ही जैसे मुँह लटका लेती थीं। जब मैं कमरे में जाता, वो चुप हो जातीं या किसी और काम में व्यस्त हो जातीं। एक दिन रात को खाने बैठा तो मैंने कहा, “चाची, आज तुमने गोश्त बनाया है ना?” वो मेरी तरफ देखकर रुक गईं और बोलीं, “आकाश, अब तू बड़ा हो रहा है। हमें भी तो घर चलाना है। क्या हर दिन गोश्त खाया जा सकता है?” उनकी आवाज में एक तीखापन था, जैसे मैंने कोई गुनाह कर दिया हो। मेरे सीने में जैसे किसी ने चाकू चला दिया। मैं चुपचाप सिर झुकाकर दाल-भात खाकर उठ गया। उस रात बिस्तर पर लेटकर मैं रोते-रोते सो गया।
चाची का ये व्यवहार सिर्फ एक दिन का नहीं था। वो अक्सर मुझे इशारों में जतातीं कि मैं उनके लिए बोझ हूँ। एक बार मेरा जूता फट गया था, मैंने चाचा से कहा कि मुझे नया जूता चाहिए। चाची ने पास से सुनकर कहा, “आकाश, तू क्या सोचता है, हमारे पास पैसे का पेड़ है? तेरे चाचा की दुकान में तो वैसे ही घाटा हो रहा है।” मैं कुछ नहीं बोल पाया, बस सिर झुकाकर चला गया। चाचा ने चुपके से मुझे एक जूता खरीद दिया, लेकिन चाची की बातें मेरे मन में गहरे उतर गई थीं। मैं समझ चुका था कि मैं इस घर में मेहमान हूँ, मेरी यहाँ कोई स्थायी जगह नहीं है।
रीमा के साथ मेरा रिश्ता भी धीरे-धीरे बदल गया। बचपन में जो रीमा मेरे पीछे-पीछे घूमती थी, मेरी कमीज खींचकर हँसती थी, वो अब थोड़ी बड़ी हो चुकी थी। वो अब पहले की तरह मेरे साथ शरारत नहीं करती थी। जब मैं उससे कुछ कहने जाता, वो शर्मीली हँसी देकर चुप रहती। एक बार मैंने उससे कहा, “रीमा, चल, आँगन में लुका-छिपी खेलें।” उसने सिर्फ सिर हिलाकर सख्त स्वर में कहा, “नहीं, आकाश दा, मुझे पढ़ाई करनी है।” उसकी आँखों में एक दूरी थी, जैसे वो मुझसे बच रही हो। मुझे समझ नहीं आया कि ये उसकी शर्म थी या चाची का असर। चाची कभी-कभी रीमा से कहतीं, “तू आकाश के साथ ज्यादा मत घुल-मिल, वो अब बड़ा हो गया है।” ये बातें मेरे कानों तक पहुँचतीं, और मुझे लगता कि मैं इस घर में अकेला होता जा रहा हूँ।
रीमा का मुझसे दूर होना मुझे और अकेला कर गया। एक दिन दोपहर को मैं आँगन में बैठा था, रीमा पढ़ाई के टेबल पर थी। मैंने उसे पुकारकर कहा, “रीमा, थोड़ा बाहर आ ना, आम के पेड़ के नीचे बैठते हैं।” उसने मेरी तरफ देखकर सिर्फ एक हँसी दी, लेकिन उठी नहीं। उसकी आँखों में एक अजीब-सा भाव था, जैसे वो मुझसे बात करना चाहती हो, लेकिन कुछ उसे रोक रहा हो। मैंने और जोर नहीं किया। उस दिन के बाद हमारी बातचीत धीरे-धीरे खत्म हो गई। मैं समझ गया कि रीमा भी मुझसे बच रही थी, शायद चाची की बातों की वजह से, या शायद अपनी शर्म की वजह से।
चाचा के घर में रहते-रहते मुझे लगने लगा कि मैं यहाँ एक अतिरिक्त इंसान हूँ। चाची का व्यवहार मुझे हर दिन याद दिलाता कि मैं उनके लिए बोझ हूँ। चाचा मेरा ख्याल रखते थे, लेकिन वो अपनी दुकान में इतने व्यस्त रहते कि मेरे साथ ज्यादा वक्त नहीं बिता पाते। मैं कॉलेज जाता, पढ़ाई करता, लेकिन घर लौटने पर जैसे एक अदृश्य दीवार में कैद हो जाता। चाची की नजरें पड़ते ही मैं सिर झुका लेता। रीमा से मेरी बात नहीं होती, और मैं धीरे-धीरे खुद को समेटने लगा।
एक दिन मैंने फैसला किया कि मैं अब यहाँ नहीं रहूँगा। मेरी पढ़ाई के लिए माता-पिता के घर का किराया आता था, और मैंने एक छोटी-सी नौकरी के लिए आवेदन किया था। कॉलेज खत्म होने के बाद मैंने शहर में जाने का फैसला किया। चाचा से कहा, “चाचा, मैं अब अपने पैरों पर खड़ा होना चाहता हूँ।” चाचा को थोड़ा दुख हुआ, लेकिन उन्होंने कहा, “ठीक है, आकाश, तू जो बेहतर समझे।” चाची ने कुछ नहीं कहा, बस सिर हिलाया। मैं समझ गया कि वो शायद खुश ही थीं कि मैं जा रहा हूँ। रीमा मेरी तरफ देख रही थी, उसकी आँखों में कुछ कहना था, लेकिन वो चुप रही। मैंने अपना बैग उठाया और अनजान की ओर चल पड़ा, पीछे छोड़ आया उस घर को, जहाँ मेरी बचपन की यादें थीं।
शहर में आकर मैंने चाचा के परिवार को भूलने की कोशिश की। उनके साथ मेरा संपर्क टूट गया। मैंने अपनी नई जिंदगी में मन लगाया, लेकिन मन के कोने में चाची की वो तीखी बातें और रीमा की शर्मीली हँसी बार-बार याद आती थी। मैं सोचता, शायद एक दिन फिर से हमारी मुलाकात होगी, लेकिन तब मुझे नहीं पता था कि वो मुलाकात मेरी जिंदगी को कैसे बदल देगी।
चाचा के घर से निकलने के बाद मुझे लगा जैसे मैंने किसी अनजान समुद्र में छलांग लगा दी हो। हल्दीघाटी का वो एकमंजिला घर, आँगन में आम के पेड़ की छाया, रीमा की शर्मीली हँसी, और चाची का ठंडा व्यवहार—सब कुछ पीछे छोड़कर मैंने शहर की राह पकड़ी। मेरे पास कॉलेज की डिग्री और माता-पिता के पुराने घर का किराया था। लेकिन शहर ने मेरा स्वागत नहीं किया। ये शहर क्रूर था, भीड़ से भरा हुआ, और मेरे जैसे गाँव के लड़के के लिए एक जंगल की तरह था। मैं किसी को नहीं जानता था, ना मुझे पता था कि कहाँ रहूँगा, क्या खाऊँगा, कैसे जिऊँगा।
शहर में कदम रखने के पहले दिन एक बुरे सपने जैसे थे। मेरे पास रहने की कोई जगह नहीं थी। पहली रात मैंने शहर के बस स्टैंड की बेंच पर काटी। रात की ठंडी हवा मेरे शरीर में सिहरन पैदा कर रही थी, और पास से बसों के हॉर्न और लोगों की चीख-पुकार मेरे सिर पर हथौड़ा मार रही थी। मेरी जेब में कुछ पैसे थे, तो दिन में एक पुरानी पान-बीड़ी की दुकान पर जाकर चाय और दो पावरोटी खाकर पेट भरा। लेकिन रात होते ही मेरे सीने में डर समा जाता। कहाँ सोऊँगा? कैसे जिऊँगा? मेरे दिमाग में माता-पिता के उस हादसे का दृश्य उभर आता, और मैं खुद को समझाता, “आकाश, तू अकेला नहीं है, तू कर सकता है।”
कुछ दिन बाद मुझे शहर की एक बस्ती में आश्रय मिला। एक छोटा-सा टिन के छप्पर वाला कमरा, जहाँ मुझे छह-सात लोगों के साथ रहना पड़ता था। कमरा अंधेरा था, दीवारों पर सीलन के दाग, फर्श पर सिर्फ एक पतली प्लास्टिक की चादर बिछी थी। गर्मी में कमरा जैसे भट्टी बन जाता, और बरसात में टिन की छत से टप-टप पानी टपकता। कमरे के एक कोने में एक टूटा-फूटा लैट्रिन था, जहाँ मुँह पर कपड़ा बाँधकर जैसे-तैसे जरूरत पूरी करनी पड़ती। बस्ती की गंध असहनीय थी—गंदे नाले की बदबू, सड़ा हुआ खाना, और लोगों के पसीने की मिली-जुली भाप। रात को सोते वक्त पास के लोगों की साँसों की आवाज, किसी का कराहना, और बाहर कुत्तों की भौंकने की आवाज मुझे जगा रखती। मुझे लगता जैसे मैं किसी जेल में कैद हूँ।
बस्ती में रहने वाले लोगों की जिंदगी और भी कठिन थी। मेरे रूममेट्स में एक रिक्शावाला था, जो दिनभर रिक्शा चलाकर रात को शराब पीकर सो जाता। दूसरा एक मजदूर था, जिसके हाथों में कड़े पड़ गए थे, और वो हर रात अपनी बीवी के लिए रोता, जो गाँव में थी और उसकी कोई खबर नहीं भेजती थी। मैं उनके साथ घुलने-मिलने की कोशिश करता, लेकिन मेरे मन का दुख और अकेलापन मुझे अपने में समेटे रखता। मैं रात को सो नहीं पाता, बस सोचता रहता—क्या यही मेरी जिंदगी के लिए थी? चाचा के घर का वो तिरस्कार, चाची की तीखी बातें, और रीमा का मुझसे दूर होना मेरे मन में बार-बार लौट आता। मेरे सीने में एक खालीपन सा बन गया था, जैसे मैं किसी का नहीं हूँ।
शहर में जिंदा रहने के लिए काम करना पड़ता था। मैं, आकाश, जो काम मिलता, वही करता। शहर की क्रूर सड़कों पर मेरी जिंदगी जैसे युद्ध का मैदान बन गई थी। पहले मुझे एक छोटी-सी दुकान में डिलीवरी ब्वॉय की नौकरी मिली। दिनभर शहर की गलियों में पार्सल पहुँचाता। गर्मी में मेरी कमीज पसीने से तर-बतर हो जाती, मेरे माथे से पसीना टपकता, और मेरे पैर जैसे सुन्न हो जाते। बरसात में सड़कों पर जमा गंदा पानी मेरे जूतों को भिगो देता, और मेरे जूते फट गए थे। नए जूते खरीदने के पैसे नहीं थे, तो फटे जूतों में ही काम चलाता। एक दिन बारिश में पार्सल ले जाते वक्त फिसलन भरी सड़क पर गिर गया। मेरा घुटना फट गया, खून बहने लगा, फिर भी मैंने दाँत पीसकर पार्सल पहुँचाया। महीने में जो थोड़े-से पैसे मिलते, उनसे बस्ती का किराया और दो वक्त का खाना चलता। खाना मतलब सिर्फ पतली दाल और चावल, कभी सस्ता मछली का झोल, जिसमें मछली की गंध से ज्यादा पानी होता। मेरा शरीर कमजोर होता जा रहा था, लेकिन मैंने हार नहीं मानी। मेरे मन में बार-बार यही बात आती—आकाश, तू हार मत, तू जिएगा।
कुछ महीनों बाद मुझे एक निर्माण स्थल पर काम मिला। वहाँ ईंटें ढोनी पड़ती थीं, सीमेंट मिलाना पड़ता था, और भारी सामान उठाना पड़ता था। सुबह से शाम तक मेरे हाथों में ईंटों की धूल, कंधों में दर्द, और पीठ पर सीमेंट की बोरियों का बोझ। मेरे हाथों में कड़े पड़ गए थे, उंगलियाँ फटकर खून जम जाता था। लेकिन मैं रुका नहीं। साइट पर बाकी मजदूरों के साथ मैं घुलने की कोशिश करता। उनमें रमेश था, एक अधेड़ उम्र का मजदूर, जो दिनभर काम के बीच गाना गाता और रात को शराब पीकर चिल्लाता। एक और था श्यामल, जो अपनी गाँव की बीवी की बातें करते-करते रो पड़ता। मैं उनके साथ हँसता, लेकिन मेरे मन में एक खालीपन था। मेरा कोई नहीं था, कोई मेरे लिए इंतजार नहीं करता था।
निर्माण स्थल पर मेरी मुलाकात मिना से हुई। मिना वहाँ खाना बनाने का काम करती थी। उसका साँवला शरीर, पसीने से भीगा साड़ी, और उसकी हँसी मेरे मन में एक अजीब-सी खिंचाव पैदा करती थी। उसकी उम्र तीस के आसपास थी, लेकिन उसके शरीर में एक कामुक आकर्षण था। उसकी साड़ी के बीच से उसके भरे-पूरे स्तनों की गहरी खाई और गोल-मटोल पेट दिखता। जब वो चाय लेकर आती, उसकी साड़ी कमर से थोड़ा ऊपर उठ जाती, और उसकी जाँघों का कुछ हिस्सा नजर आता। मेरी नजरें बार-बार उसी तरफ चली जातीं। वो कभी-कभी मेरी तरफ देखकर हँसती और कहती, “आकाश, तू इतना कष्ट क्यों करता है? थोड़ा हँस भी लिया कर!” उसकी बातों से मेरे मन में एक गर्माहट सी जागती, जैसे इस शहर में कोई मेरे लिए थोड़ा-सा ममता दिखा रहा हो। जब मैं उसकी तरफ देखता, मेरे शरीर में एक आग सी जल उठती। मैं मन ही मन सोचता, उसकी साड़ी उठाकर उसके स्तनों को मसल दूँ, उसकी चूत में जीभ डालकर चाटूँ, उसकी गांड पर अपना लंड रगड़कर ठोकूँ। मेरा लंड पैंट के नीचे सख्त होकर उछलता, लेकिन मैं खुद को संभाल लेता।
बस्ती की जिंदगी मुझे अंदर से तोड़ रही थी। टिन के छप्पर वाले कमरे में गर्मी से मेरा शरीर पसीने से तर हो जाता, और बरसात में छत से पानी टपकता। कमरे के एक कोने में टूटा-फूटा लैट्रिन, जहाँ मुँह पर कपड़ा बाँधकर जैसे-तैसे जरूरत पूरी करनी पड़ती। रात को रूममेट्स की कराहट, कुत्तों की भौंकने की आवाज, और गंदे नाले की बदबू मुझे जगा रखती। शहर की बस्ती के उस टिन के कमरे में मेरी जिंदगी जैसे एक अंधेरी गुफा में कैद हो गई थी।
एक रात मुझे तेज बुखार हो गया। मेरा शरीर काँप रहा था, सिर में चक्कर आ रहा था, और मेरे सीने में जैसे कोई भारी पत्थर रख दिया गया हो। मेरी जेब में डॉक्टर को दिखाने के पैसे नहीं थे। बस्ती के उस गंदे कमरे में, जहाँ दीवारों पर सीलन के दाग और फर्श पर पतली प्लास्टिक बिछी थी, मैंने एक पुरानी पैरासिटामॉल निगलकर जैसे-तैसे लेट गया। कमरे के कोने में टूटे लैट्रिन की बदबू, रूममेट्स की कराहट, और बाहर कुत्तों की भौंकने की आवाज मेरे कानों में गूँज रही थी। मेरा शरीर पसीने से भीग गया था, फिर भी बुखार की ठंड से मेरी हड्डियाँ काँप रही थीं। मुझे लग रहा था कि मैं मर रहा हूँ।
उस दिन दोपहर को मिना मुझे देखने आई। निर्माण स्थल पर उससे मेरी दोस्ती हो गई थी। उसका साँवला शरीर, पसीने से भीगी साड़ी, और उसकी कामुक हँसी मेरे मन में एक निषिद्ध आकर्षण पैदा कर चुकी थी। वो मेरे कमरे में आई और मेरे माथे पर हाथ रखकर बोली, “आकाश, तुझे इतना बुखार! तूने मुझे क्यों नहीं बताया?” उसके हाथ का स्पर्श मेरे शरीर में एक गर्माहट छोड़ गया। उसकी साड़ी के बीच से उसके भरे-पूरे स्तनों की गहरी खाई और गोल-मटोल पेट दिख रहा था। उसके शरीर की पसीने की गंध मेरे नाक में घुसी, और मेरे बुखार के धुंधलेपन में एक अजीब-सी कामना जाग उठी। उसने एक पुराना कंबल लाकर मेरे ऊपर डाल दिया। उसका हाथ मेरे सीने पर रगड़ा, और मेरे शरीर में एक आग सी जल उठी। मैं मन ही मन सोचने लगा, उसकी साड़ी उठाकर उसके स्तनों को मसल दूँ, उसके सख्त निप्पलों को चूसूँ, उसकी चूत में जीभ डालकर चाटूँ। मेरा लंड पैंट के नीचे सख्त होकर उछल रहा था, लेकिन बुखार की कमजोरी में मैं कुछ कर नहीं पाया।
मिना मेरे पास बैठकर मेरे सिर पर हाथ फेर रही थी। उसकी साड़ी थोड़ा ऊपर उठी हुई थी, और उसकी जाँघों का कुछ हिस्सा दिख रहा था। उसकी साँवली जाँघों की चिकनी त्वचा देखकर मेरे मन में गंदी कल्पनाएँ घूमने लगीं। मैं सोचने लगा, उसकी जाँघों पर हाथ फेरूँ, उसकी चूत में उंगली डाल दूँ, उसका रस चूस लूँ, उसकी गांड पर लंड रगड़कर ठोकूँ। उसका गर्म स्पर्श मेरे बुखार के शरीर में बिजली सी दौड़ा रहा था। उसने मेरे कान के पास फुसफुसाकर कहा, “आकाश, तू इतना कष्ट क्यों करता है? मैं तो हूँ तेरे पास।” उसकी आवाज में एक कामुक लहजा था, जैसे वो मुझे और करीब खींचना चाहती हो। मैंने उसकी तरफ देखा, उसकी आँखों में शर्म और कामना का मिश्रण दिखा। मेरा हाथ काँपते हुए उसकी कमर पर गया, उसकी साड़ी के नीचे उसके नरम पेट पर फिसला। उसका शरीर सिहर उठा, लेकिन उसने मुझे रोका नहीं। मैंने और हिम्मत करके उसकी साड़ी थोड़ा और ऊपर उठाई, उसकी जाँघों पर हाथ फेरा, और उसकी चूत के पास गया। उसकी चूत की गर्मी मेरी उंगलियों को छू गई, और मेरा लंड पैंट में उछलने लगा। मैं मन ही मन सोचने लगा, उसकी चूत में लंड डालकर तेजी से ठोकूँ, उसकी गांड पर माल छोड़ूँ, उसकी सिसकारियाँ सुनूँ।
लेकिन अचानक मिना ने मेरा हाथ हटा दिया। उसकी आँखों में डर समा गया। उसने फुसफुसाकर कहा, “आकाश, ये ठीक नहीं है। मेरा पति है।” मेरा मन टूट गया, लेकिन मेरे शरीर की आग नहीं बुझी। मैं बुखार के धुंधलेपन में उसकी तरफ देखकर बोला, “मिना, मैं तुझे चाहता हूँ।” वो सिर झुकाकर चुप रही, फिर उठकर चली गई। उसकी साड़ी की खसखस की आवाज मेरे कानों में गूँजती रही, और मेरे मन में अपमान और कामना का तूफान उठ गया।
बुखार के धुंधलेपन में मैं लेटा रहा, मेरे दिमाग में चाचा के घर की यादें तैरने लगीं। चाची का ठंडा व्यवहार, उनकी तीखी बातें—“आकाश, तू क्या सोचता है, हमारे पास पैसे का पेड़ है?”—मेरे मन में चाकू की तरह चुभती थीं। मैं रीमा की शर्मीली हँसी के बारे में सोचने लगा, उसकी बचपन की शरारतें, जब वो मेरी कमीज खींचती थी। लेकिन फिर उसका मुझसे दूर हो जाना, उसकी आँखों में वो अजीब-सी दूरी मेरे मन में गहरे उतर गई थी। मैं सोचने लगा, मैंने इस कष्ट की जिंदगी क्यों चुनी? बस्ती का ये गंदा कमरा, ये पसीने और बदबू की जिंदगी में मैं क्यों जी रहा हूँ? लेकिन मेरे मन में एक जिद सी चढ़ गई। मैंने मन ही मन कहा, “आकाश, तू हार नहीं मानेगा। तू अपने पैरों पर खड़ा होगा।”
एक दिन मिना ने मुझसे कहा, “आज मेरे घर चल, तुझे भात खिलाऊँगी।” मैं हैरान हुआ, लेकिन उसकी हँसी देखकर मना नहीं कर पाया। मिना का घर बस्ती में ही एक छोटा-सा कमरा था। कमरा छोटा और टूटा-फूटा था, दीवारों पर सीलन के दाग, फर्श पर एक पुरानी प्लास्टिक की चादर बिछी थी। कमरे में पसीने, खाने की गंध, और बाहर के गंदे नाले की बदबू मिलकर एक भाप भरा माहौल बना रही थी। मिना ने मुझे एक टूटी कुर्सी पर बिठाया और अपने हाथों से भात, दाल, और थोड़ा मछली का झोल बनाया। उसका साँवला शरीर पसीने से चमक रहा था, उसकी पतली साड़ी उसके शरीर से चिपकी हुई थी। साड़ी के बीच से उसके भरे-पूरे स्तनों की गहरी खाई, गोल-मटोल पेट, और गहरी नाभि दिख रही थी। जब वो खाना बना रही थी, उसकी गांड साड़ी के नीचे हिल रही थी, और मेरी नजरें बार-बार उसी तरफ चली जाती थीं। मैं मन ही मन सोच रहा था, उसकी साड़ी उठाकर उसकी गांड को मसल दूँ, उसकी चूत में जीभ डालकर चाटूँ, उसके पुट्ठे में उंगली डालकर रगड़ूँ। मेरा लंड पैंट के नीचे सख्त होकर उछल रहा था, लेकिन मैंने खुद को संभाला। मिना के हँसते हुए मुझे खाना परोसने के दौरान उसके स्तन मेरे हाथों के पास रगड़ रहे थे, और मेरे शरीर में एक आग सी जल उठी।
अचानक दरवाजे पर जोर की आवाज हुई। दरवाजा धक्का देकर खुला, और मिना का पति कालू, शराब के नशे में धुत्त होकर कमरे में घुसा। उसकी आँखें लाल थीं, मुँह से शराब की तीखी गंध और थूक के छींटे उड़ रहे थे। उसकी पैंट गंदगी से भरी थी, कमीज के बटन खुले थे, और उसका पेशीदार शरीर पसीने से चमक रहा था। मुझे देखकर वो चीख पड़ा, “ये साला कौन है? तू मेरी बीवी के साथ क्या कर रहा है, हरामी?” उसकी आवाज में एक जंगली गुस्सा था। मैं कुछ बोल पाता, उससे पहले वो मिना की तरफ बढ़ा और उसके बाल पकड़कर खींचने लगा। “साली, तू इस छोकरे के साथ चुदाई कर रही है, है ना? तेरी चूत इतनी गर्म है कि तू इस हरामजादे से चुदवाने लगी!” मिना काँपते हुए बोली, “नहीं, मैं तो बस इसे खाना दे रही थी! प्लीज, मुझे छोड़ दो!” उसकी आँखों में आँसू और डर मिला हुआ था, लेकिन कालू ने नहीं सुना। वो मिना को गालियाँ देने लगा, “तेरी गांड पर अभी भी मेरे लंड का निशान है, फिर भी तू इस साले को बुला लाई! तेरी चूत की आग मैं ही बुझा सकता हूँ!” उसकी बातें कमरे में गूँज रही थीं, और मेरे हाथ-पैर ठंडे पड़ गए। मैं चुपचाप कुर्सी पर बैठा रहा, मेरा सिर चकरा रहा था।
झगड़ा बढ़ते-बढ़ते कालू ने मिना को धक्का देकर टूटे बिस्तर पर गिरा दिया। उसने मिना की साड़ी कमर तक उठा दी, उसकी पैंटी एक झटके में खींचकर फेंक दी। मिना की साँवली जाँघें और उसकी चूत के काले बाल मेरी आँखों के सामने खुल गए। उसकी चूत पसीने से भीगकर चमक रही थी, और मेरे शरीर में बिजली सी दौड़ गई। कालू ने अपनी पैंट उतारी और अपना सख्त लंड बाहर निकाला, जिसका सिरा लाल होकर फूल गया था। उसने मिना की टाँगें फैलाईं और उसकी चूत में लंड डालकर तेजी से ठोकने लगा। मिना रो रही थी, उसकी आँखों में शर्म और अपमान मिला हुआ था, लेकिन कालू नहीं रुका। वो ठाप के ताल में चीख रहा था, “साला, तूने मेरी बीवी को ऐसे ही चोदा है, है ना? तेरे लंड से मेरी बीवी की चूत फाड़ दी!” हर ठाप के साथ मिना का शरीर हिल रहा था, उसके स्तन साड़ी के नीचे उछल रहे थे, उसकी गांड बिस्तर पर रगड़ खा रही थी। मिना का रोना धीरे-धीरे सिसकारियों में बदल गया, उसका शरीर कामना में काँप रहा था। वो मेरे सामने अपना मुँह छिपाने की कोशिश कर रही थी, लेकिन उसकी सिसकारियाँ मेरे कानों में गूँज रही थीं। “उह… आह… कालू, रुको…,” वो फुसफुसा रही थी, लेकिन उसका शरीर उसकी बातों का उल्टा कह रहा था। मेरा शरीर गर्म हो गया, मेरा लंड पैंट के नीचे सख्त होकर उछल रहा था। मैं मन ही मन सोचने लगा, अगर मैं मिना की चूत में लंड डालकर ठोकता, उसकी गांड पर माल छोड़ता, उसकी सिसकारियाँ सुनता। लेकिन मैं कुछ कर नहीं पाया, बस चुपचाप देखता रहा, मेरे शरीर में एक निषिद्ध कामना की आग जल रही थी।
कालू ने अपनी चुदाई खत्म की, उसका माल मिना की चूत और पेट पर फैल गया, जैसे कोई गंदी तस्वीर बन गई हो। उसका सख्त लंड से आखिरी बूँद माल निकलकर मिना के साँवले पेट पर चिपक गया, और वो धप्प से बिस्तर पर गिर पड़ा। उसकी नाक डाकने लगी, शराब के नशे में वो बेहोश हो गया। कमरे की भाप भरी गंध में शराब, पसीना, और यौन की गंध मिलकर एक मादक माहौल बना रही थी। दीवारों पर सीलन के दाग, फर्श पर बिखरी मिना की फटी पैंटी, और टूटे बिस्तर की कचकच की आवाज इस दृश्य को और गंदा बना रही थी।
मिना काँपते हुए उठी, उसने अपनी साड़ी ठीक करने की कोशिश की। उसका शरीर पसीने और कालू के माल से चमक रहा था, उसकी साँवली त्वचा जैसे एक कामुक चित्र बन गई थी। उसकी साड़ी पेट के पास चिपकी थी, उसकी गहरी नाभि और चूत के काले बालों का कुछ हिस्सा अभी भी दिख रहा था। उसके भरे-पूरे स्तन साड़ी के नीचे उभरे हुए थे, उसके निप्पल सख्त होकर साड़ी के कपड़े को ठेल रहे थे। उसकी आँखों में आँसू, शर्म, और अपमान मिला हुआ था, लेकिन उसके शरीर में एक अजीब-सी कामना की छुअन थी। उसने मेरी तरफ देखा और रोते हुए मुझे गले लगा लिया। उसका गर्म शरीर मेरे सीने से रगड़ रहा था, उसके भरे-पूरे स्तन मेरे सीने पर दब गए, उसके सख्त निप्पल मेरी कमीज के ऊपर से मेरी त्वचा को चुभ रहे थे। उसकी पसीने की गंध, जिसमें कालू के माल की गंध मिली थी, मेरे नाक में घुसी और मेरे शरीर में एक आग सी जल उठी। मेरा लंड पैंट के नीचे सख्त होकर उछल रहा था, मेरे मन में एक निषिद्ध कामना का तूफान उठ गया।
मैं मन ही मन सोचने लगा, उसे गले लगाकर उसकी चूत में लंड डालकर चोद दूँ। उसकी गांड में उंगली डालकर रगड़ूँ, उसके मुँह में माल छोड़ूँ। मेरा हाथ उसकी कमर पर गया, उसके नरम पेट पर फिसला, उसकी साड़ी के नीचे उसकी जाँघों पर गया। उसकी जाँघें चिकनी, गर्म, और पसीने से भीगकर चमक रही थीं। मेरी उंगलियाँ उसकी चूत के पास गईं, उसकी चूत की गर्मी और रस की गीलापन मेरी उंगलियों को छू गया। मिना का शरीर सिहर उठा, उसकी साँसें भारी हो गईं, उसकी आँखों में कामना समा गई। मैंने उसके कान के पास फुसफुसाकर कहा, “मिना, मैं तुझे चाहता हूँ। तेरा ये शरीर मेरे लिए जल रहा है, है ना?” मेरा लंड उसकी गांड पर रगड़ रहा था, मेरा हाथ उसकी साड़ी और ऊपर उठाकर उसकी चूत के बालों पर फेरने लगा। उसका रस मेरी उंगलियों पर लग गया, और मेरे शरीर में बिजली सी दौड़ गई। मैं मन ही मन सोचने लगा, उसकी चूत में लंड डालकर तेजी से ठोकूँ, उसकी गांड पर माल छोड़ूँ, उसकी सिसकारियाँ सुनूँ।
लेकिन अचानक मिना ने मेरा हाथ हटा दिया, उसका शरीर काँप रहा था। उसने मुझे धक्का देकर एक जोरदार थप्पड़ मारा, जिसकी आवाज कमरे में गूँज उठी। उसकी आँखों में नफरत, गुस्सा, और अपमान जल रहा था। वो चीखकर बोली, “आकाश, मैंने तुझे अच्छा समझा था! तू भी मुझे इस तरह चोदना चाहता है? तू भी कालू की तरह हरामी है! मेरे शरीर पर कालू का छुअन है, और तू भी मुझे गंदा करना चाहता है? मेरे घर से निकल जा!” उसकी बातें मेरे सीने में चाकू की तरह चुभ गईं। उसकी आँखों के आँसू और नफरत मेरे मन में गहरे उतर गए। मैं शर्म और अपमान से सिर झुकाकर कमरे से बाहर निकल आया। बाहर बस्ती की गंदी गली में खड़ा होकर मेरे शरीर में कामना, अपमान, और दुख का एक तूफान उठ गया। मेरा लंड अभी भी सख्त था, मेरे मन में मिना के शरीर का स्पर्श और उसकी सिसकारियाँ बार-बार लौट रही थीं।
इसके बाद मिना ने मुझसे बात करना बंद कर दिया। साइट पर उसकी तरफ देखता तो वो मुँह फेर लेती। मेरे मन में एक दुख जमा हो गया, लेकिन मैंने उसे भूलकर अपने काम में मन लगाया। बस्ती की इस गंदी जिंदगी, इस यौन के दृश्य, और मिना के साथ इस टूटन ने मुझे सिखा दिया कि ये शहर मुझे और सख्त कर देगा। लेकिन मिना का ये छुअन मेरे मन में एक निषिद्ध आग जला गया था। मेरे मन में एक संकल्प जागा—मैं इस बस्ती की जिंदगी छोड़कर अपनी जगह बनाऊँगा।
कई सालों की मेहनत के बाद मुझे एक सरकारी दफ्तर में क्लर्क की नौकरी मिली। तनख्वाह कम थी, लेकिन पक्की थी। मैंने बस्ती छोड़कर शहर के एक कोने में एक छोटा-सा वन बीएचके फ्लैट किराए पर लिया। छोटा-सा कमरा, एक बेडरूम, एक डाइनिंग हॉल, और एक बाथरूम। मेरी जरूरतें कम थीं, तो ये फ्लैट मेरे लिए काफी था। मैं दिनभर दफ्तर से लौटकर इस छोटी-सी दुनिया में डूब जाता। सुबह उठकर चाय और पावरोटी खाता, दफ्तर जाने से पहले दाल-भात बना लेता। रात को लौटकर टीवी पर पॉर्न देखता, स्क्रीन पर नंगी लड़कियों के शरीर देखकर मेरा लंड सख्त हो जाता। मैं लुंगी उतारकर हस्तमैथुन करता, मन ही मन कल्पना करता—किसी लड़की के स्तनों को मसलना, उसकी चूत में लंड डालकर ठोकना, उसके पुट्ठे पर माल छोड़ना। मेरा माल निकलकर बिस्तर को भिगो देता, और मैं थककर सो जाता।