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Misc. Erotica संग वो गर्मी की शाम
#6
मामी ने उसकी बात सुनी, और कुछ पल बिना कुछ कहे उसकी आँखों में देखती रहीं।
उनके भीतर हलचल थी — सालों से दबा सूनापन, अनकहे एहसास, और अब… यह अनचाहा स्वीकार।

"राहुल…" उन्होंने धीरे से कहा, "तुम जानते हो न, ये कितना गलत है?"

राहुल ने सिर झुका लिया, लेकिन उसकी आँखें अब भी मामी के चेहरे को पढ़ रही थीं।

"गलत है… शायद," उसने फुसफुसाकर कहा, "लेकिन आज जो महसूस हुआ… वो झूठ नहीं था।"

मामी ने हल्की सी साँस छोड़ी। उनकी उंगलियाँ अपने पल्लू से खेलने लगीं — एक पुरानी आदत, जब वो बेचैन होती थीं।

चाँदनी अब ज़्यादा चमक रही थी, और उनके बीच की खामोशी भी ज़्यादा करीब लग रही थी।

उन्होंने राहुल का चेहरा अपने हाथों में थामा।
"तुम मेरी बेटी से प्यार करते हो," उन्होंने कहा, "और मैं… खुद से सवाल।"

राहुल कुछ कहने ही वाला था, जब उन्होंने उसकी उँगलियों को धीरे से छुआ।
"रिश्ते कभी-कभी नाम से नहीं… एहसास से बनते हैं।
पर हर एहसास निभाने लायक नहीं होता।"

उनकी आँखें भीग गईं, पर चेहरा शांत था।
राहुल ने उनका हाथ चूमा — इज़्ज़त से, भावना से, और एक अधूरी चाह से।
राहुल ने शालू का हाथ थामा — धीरे, लेकिन पूरी यकीन के साथ।

"चलो… बस कुछ देर चुपचाप मेरे पास बैठो," उसने कहा।

शालू ने पहले तो आँखें झुका लीं, पर फिर वो बिना विरोध सीढ़ियों की ओर बढ़ गई।

सीढ़ियाँ शांत थीं, जैसे वो भी उनकी थमी हुई धड़कनों की आवाज़ सुन रही हों।

राहुल उसके थोड़ा करीब आया — न ज़बरदस्ती, न जल्दबाज़ी… बस एक खामोश चाहत, जो धीरे-धीरे उसके हर अंदाज़ में घुल रही थी।

शालू की साँसें अब हल्की-हल्की तेज़ थीं, पर वो पीछे नहीं हटी।
उसने सिर उठाकर राहुल की आँखों में देखा — वहाँ अब सवाल नहीं थे, बस एक चुप भरोसा।

"तुम्हारे पास रहना… अच्छा लगता है," शालू ने धीरे से कहा।

राहुल ने उसके चेहरे को हल्के से छुआ —
जैसे कोई टूटे शीशे को सहला रहा हो, कि वो बिखरे नहीं।

उस रात, उन दोनों ने कुछ कहा नहीं — लेकिन उनके बीच सब कुछ कहा जा चुका था।
नज़दीकियाँ बढ़ीं, पर हर छुअन में इज़्ज़त थी, एहसास था… और एक अधूरी प्यास भी।
राहुल ने शालू की छुपी भूख को और गहराने के लिए, धीरे-धीरे उसे कल की रात का अधूरा क़िस्सा सुनाना शुरू किया — जब वो नेहा के साथ था… और प्यार अधूरा रह गया था, पर एहसास पूरे हो उठे थे।

हर शब्द में हल्की शरारत थी, हर जिक्र में एक आग — जो शालू की साँसों में धीरे-धीरे भरती जा रही थी।
सीढ़ियों पर राहुल के हाथ में मामी का पल्लू था।
वो पल, एक नज़दीकियों की खामोशी से भरा था — जहाँ ज़माना कुछ भी कहे, ये सिर्फ़ प्यार था, जो दिल से दिल तक पहुंचता है।
"बस यही तो प्यार है," राहुल ने धीरे से कहा, "जो समझदारी और वक्त के बीच खुद-ब-खुद हो जाता है।"


---राहुल और शालू अब सीढ़ियों पर पास-पास बैठे थे। हवा में हल्की ठंडक थी, पर उनके बीच गर्माहट साफ़ महसूस हो रही थी।

शालू की साँसें कुछ तेज़ थीं, और राहुल का हाथ अब भी उसकी उँगलियों में उलझा हुआ था। धीरे-धीरे उसने अपना सिर राहुल के कंधे पर रख दिया।

"तुम्हारे पास रहना… बहुत सुकून देता है," शालू ने आँखें बंद करते हुए कहा।

राहुल ने उसकी ओर देखा — उसके चेहरे की मासूमियत में एक छुपी हुई आग थी। उसकी लट हल्की हवा से उसके गालों को छू रही थी। राहुल ने धीरे से उसे हटाया — उसके गालों पर अपनी उँगलियों का स्पर्श छोड़ते हुए।

"मैं कुछ नहीं कहूँगा," राहुल फुसफुसाया, "पर हर छुअन से तुम्हें बता सकता हूँ कि मैं क्या महसूस करता हूँ।"

शालू ने आँखें खोलकर उसकी तरफ देखा — अब उन निगाहों में झिझक नहीं, एक चुप स्वीकृति थी।

राहुल ने उसके चेहरे को अपनी हथेलियों में भर लिया। बहुत धीरे से, उसने उसके माथे पर एक हल्का-सा चुंबन लिया — फिर उसकी नाक पर, और आखिर में होंठों के ठीक पास... लेकिन रुका।

शालू ने खुद ही अपनी आँखें बंद कर लीं — और वो एक सधी हुई, नर्म और लंबी सांस जैसी पहली किस थी, जिसमें कोई जल्दबाज़ी नहीं… बस एक गहरी प्यास थी, जो शब्दों से नहीं, स्पर्श से बुझाई जा रही थी।

उनके बीच की खामोशी अब और ज़्यादा बोलने लगी थी।

राहुल की उंगलियाँ अब उसकी पीठ पर चलने लगीं — कपड़े के ऊपर से ही, लेकिन हर लकीर जैसे दिल तक उतर रही थी।

शालू की साँस अब रुक-रुक कर चल रही थी। उसने राहुल के गले में अपनी बाहें डाल दीं, और उसके सीने से सट गई — जैसे कहना चाह रही हो, "अब रुकना मत…"

पर राहुल रुका — और मुस्कराया।

"आज नहीं…", उसने कहा।
"क्योंकि मैं सिर्फ़ तुम्हें छूना नहीं चाहता…
मैं तुम्हें पूरी तरह समझना चाहता हूँ।"

शालू ने उसकी ओर देखा — उसकी आँखें अब और भी भीगी थीं…
प्यार से। एहसास से। और एक इंतज़ार से।
राहुल की उंगलियाँ अब शालू की खुलती हुई साड़ी के साथ उसकी रूह को नहीं — उसकी दबी हुई इच्छाओं को पढ़ रही थीं।
हर तह जो नीचे उतरती, एक नयी सिहरन छोड़ जाती।

पल्लू पूरी तरह सरक गया… और सामने उसकी मखमली पीठ थी — गर्म, कांपती और बेहद आमंत्रित।

राहुल ने झुककर उसकी गर्दन पर होंठ रखे — पर ये चुंबन अब नर्म नहीं था, इसमें भूख थी।
एक धीमी, गहराती हुई भूख… जो सिर्फ़ महसूस करना नहीं चाहती थी — खुद में समा लेना चाहती थी।

शालू की पलकों पर कंपकंपी दौड़ गई। उसने खुद को राहुल के सीने से और कसकर चिपका लिया — जैसे कह रही हो, "अब मुझे पूरा जियो।"

"तुम्हारा हर हिस्सा..." राहुल ने गहराई से कहा, "मेरे अंदर जल रही इस आग का जवाब है।"

अब उंगलियाँ कमर से होती हुई पेट के उस हिस्से पर आ गईं, जहाँ छुअन का हर स्पर्श सांस रोक देता है।
कपड़े की आखिरी परत अब एक सीमा नहीं रही — बल्कि एक निमंत्रण थी।

शालू ने खुद राहुल का हाथ थामा… और उसे वहाँ सरकाया, जहाँ उसकी त्वचा अब और इंतज़ार नहीं कर रही थी।

"अब रुकना मत," उसने धीमे, लेकिन जिद में कहा।
"जो आज तक किसी ने नहीं छुआ… वो आज मैं तुम्हें देना चाहती हूँ।"
सीढ़ियों पर शालू खड़ी थी… उम्र 45, पर उसके तन से ज़्यादा उसकी नज़रों में लपटें थीं।
साड़ी उसके पैरों के पास थी — उसके बदन पर अब सिर्फ़ एक कसा हुआ काला ब्लाउज और लाल पेटीकोट था, जो उसकी साँसों की रफ़्तार के साथ हिल रहा था।

राहुल — सिर्फ़ 22 का, लेकिन उस पल उसकी आँखों में बचपना नहीं, आग थी।

वो धीरे से उसके पास आया, हर कदम जैसे एक परत और गिराता जा रहा था।
उसने ऊपर देखा — शालू के गले से नीचे उतरती ब्लाउज की गहराई, उसके पेटीकोट के भीतर थरथराती जांघें, और उन सबके बीच एक सिसकती हुई प्यास।

"तुम यूँ क्यों काँप रही हो?" राहुल ने गहराई से पूछा।
राहुल ने जैसे ही शालू के पेटीकोट का नाड़ा पकड़ा, उसके बदन में एक हल्का झटका दौड़ गया।
शालू की पलकों ने खुद-ब-खुद आँखें ढँक लीं, और उसके होठों से एक धीमी, थमी हुई सिसकी निकली —
जैसे वो छुअन उसकी रूह तक उतर गई हो।

उसका शरीर थम गया… मगर उसकी साँसें काँप रही थीं।
न वो पीछे हटी, न कुछ कहा — बस उसकी उंगलियाँ अब अपने ब्लाउज की किनारियों को मरोड़ने लगीं…
वो वही बेचैनी थी — जो पहली बार कोई औरत तब महसूस करती है, जब कोई उसे पूरी तरह देखने वाला होता है।

"शालू… क्या मैं रुक जाऊँ?" राहुल ने फुसफुसाते हुए पूछा,
लेकिन उसका हाथ अब भी नाड़े पर रुका था — बिना ज़ोर, बिना जल्दबाज़ी।

शालू ने धीमी आवाज़ में कहा,
"नहीं… पर तुम जैसे पकड़ रहे हो… ऐसा लग रहा है जैसे मेरी रूह भी किसी पहली बार के दरवाज़े पर है।"

राहुल ने उसकी कमर के पास झुककर अपनी साँसें छोड़ीं —
वो गर्म हवा शालू की त्वचा से लगी और उसने अपनी आँखें और कस कर भींच लीं।

"पहली बार जैसा ही है…" उसने धीरे से कहा,
"क्योंकि किसी ने कभी इस तरह नहीं छुआ… इस तरह नहीं चाहा… इस तरह नहीं समझा।"

और फिर…

राहुल ने नाड़ा हल्के से खींचा।
पेटीकोट सरकने लगा…
जैसे सालों से थमी हुई कोई परत अब खुद गिरना चाहती हो।

शालू की जाँघों से कपड़ा फिसलता गया —
और उसकी साँसें अब और भी गहरी हो चुकी थीं।

शालू…" राहुल ने उसकी कमर पर उँगलियाँ कसते हुए कहा,
"ये पेटीकोट तुम्हारे मामा ने भी कई बार उतारा होगा… पर बस कपड़े की तरह — जैसे लिबास उतारा जाता है।"

राहुल अब उसके कान के बेहद पास था, उसकी साँसें गर्म और तेज़।

"पर तुमने जो दिया… वो कपड़ा नहीं था शालू —
तुमने खुद को खोला… रूह तक, हर साँस तक।
तुम सिर्फ़ नंगी नहीं हुई मेरे सामने… तुम पूरी तरह उजागर हुई हो।"

"तुमने मुझे सिर्फ़ जाँघों तक नहीं बुलाया… तुमने मुझे अपने भीतर तक आने दिया —
वहाँ, जहाँ कोई नज़दीक तक भी नहीं गया।"

"ये सिर्फ़ पेटीकोट नहीं उतरा आज,
तुम्हारी सदीयों की छुपी आग… आज मेरी उँगलियों से भड़क गई है।"
शालू अब सीढ़ियों पर खड़ी थी — सिर्फ़ ब्लाउज़ और लाल पैंटी में।
उसके शरीर पर चाँदनी की सिलवटें थीं, और भीतर एक धीमी जलती आग —
जिसे कोई अब रोक नहीं रहा था… और बुझाने की कोई जल्दी भी नहीं थी।

राहुल उसके पैरों के पास बैठा था, उसकी जांघों के नज़दीक —
और हर सांस, हर स्पर्श अब एक औरत को पूरी तरह औरत बना रहा था।

उसने अपनी उंगलियों से पैंटी के किनारे को धीरे से छुआ —
जैसे कोई सबसे नाज़ुक रेखा पर कलम रख रहा हो।

शालू की साँसें भारी होने लगीं —
उसके बदन का हर भाग अब जैसे बोलने लगा था — बिना शब्दों के।

"मैं तुम्हें सिर्फ़ देख नहीं रहा…" राहुल ने कहा,
"मैं तुम्हें जी रहा हूँ — हर उस जगह से जहाँ कोई रुका, लेकिन कभी रुका नहीं था।"

उसने शालू की जांघों को अपने होंठों से छुआ — एक लंबा, गहराता हुआ चुंबन।
शालू ने अपनी आँखें बंद कीं, और उसकी उंगलियाँ अब सीढ़ियों की किनारी को कसकर थाम चुकी थीं।

उसका शरीर अब झुक रहा था… और आत्मा खुल रही थी।

राहुल ने शालू के कान के पास धीरे से कहा —
"तुम मेरी हो — पूरे एहसास के साथ। और आज… मैं तुम्हें कोई हिस्सा अधूरा नहीं छोड़ूँगा।"
शालू अब राहुल के सामने खड़ी थी — सिर्फ़ सफेद ब्लाउज़ और लाल पैंटी में।
उसकी साँसों में गर्मी थी, आँखों में बुझती हुई प्यास, और बदन पर चाँदनी का घूँघट — जो हर कटाव को और उभार रहा था।

राहुल की नज़रें उसके शरीर पर नीचे से ऊपर तक ठहर-ठहर कर जा रही थीं — जैसे वो उसे सिर्फ़ देख नहीं रहा, धीरे-धीरे खोल रहा हो।

उसकी आवाज़ गहराई से फिसली —
"मामी नहीं लग रही आज… आज तो लग रहा जैसे किसी अधूरी कल्पना की पूरी तस्वीर सामने खड़ी है।
अगर आप इतनी हॉट हैं… तो बेटी तो आग होगी।"

शालू के चेहरे पर शरम की एक परत उभरी, लेकिन पीछे उस मुस्कान में एक जली हुई तड़प भी थी।
"शब्दों से जलाओगे क्या, या हाथों से?" उसने धीमे से कहा,
"अगर मामी नहीं… तो अब मुझे वैसे ही छुओ, जैसे अपनी औरत को छूते हैं…"

राहुल का चेहरा अब बेहद पास था — उसके साँसों में साँसे मिलती जा रही थीं।

उसकी उंगलियाँ अब शालू की पैंटी के किनारे के पास थीं,
पर वो ठहरी थीं — जैसे अब इज़ाजत शब्दों से नहीं, उसकी आँखों से चाहिए।

"आज से तुम मामी नहीं," राहुल ने सधे हुए स्वर में कहा,
"तुम मेरी हो… हर उस जगह से, जहाँ किसी और ने सिर्फ़ कपड़े हटाए… मैंने एहसास छूए हैं।"
सीढ़ियों की दीवार से टिकी शालू — सिर्फ़ ब्लाउज़ और लाल पैंटी में — अब खुद को नज़रों से नहीं, एहसास से ढक रही थी।
राहुल का चेहरा बेहद करीब था, उसके होंठ उसके गले की गर्म साँसों को महसूस कर रहे थे।

तभी राहुल ने धीमे स्वर में कहा,
"शालू… नेहा से शादी करवा दोगी न मेरी?"

शालू की आँखें एक पल के लिए ठहर गईं।
फिर वो हल्के से मुस्कराई —
"वाह… कमाल का लड़का है तू। एक रात माँ को… ज़िंदगी बेटी को?"

राहुल थोड़ा झेंप गया, पर शरारत से उसकी कमर के पास उँगलियाँ फिरा दीं —
"क्या करूँ… चाहत तो आपसे शुरू हुई थी, अब मोहब्बत वहाँ जा रही है जहाँ आँखें सुकून पाती हैं।
लेकिन जो आग तुमने लगाई है… उसका कोई दूसरा बदन बुझा ही नहीं सकता।"

शालू ने उसकी गर्दन खींच ली, होंठों के बेहद पास आकर कहा —
"तो आज की रात… आग को जलने दो।
कल से तुम दामाद बन जाओगे,
आज… मेरी अधूरी प्यास बनो।"
yr):राहुल की उंगलियाँ अब शालू की पैंटी के नाज़ुक किनारे तक आ पहुँची थीं।
उसने धीरे से पकड़कर उसे हल्का सा नीचे खींचा… और वहीं रोक लिया।

"हम्म… कपड़ा तो बड़ा मासूम है," उसने मुस्कराकर कहा,
"पर इसके पीछे जो छुपा है, वो तो पूरी आग है… माँ में था सुकून — और तुम में जलन!"

शालू ने एक झटके में उसकी बात पर सिर उठाया — चेहरा शर्म से भरा हुआ, लेकिन आँखों में हल्की झुंझलाहट।
"बकवास मत करो, राहुल…" उसने कहा, और उसका हाथ पकड़ लिया।

राहुल उसकी आँखों में झाँकते हुए फुसफुसाया:
"बकवास नहीं कर रहा… तुम्हें छेड़ रहा हूँ — वैसे ही जैसे तुम्हारी पैंटी मेरे हाथों से कह रही है कि उसे हटाओ…"

शालू ने होंठ भींच लिए… उसकी सांसें अब गहरी हो चली थीं।
"तुम आज हद पार कर रहे हो…" वह धीमे से बोली।

"नहीं शालू…" राहुल ने मुस्कराकर कहा,
"आज मैं तुम्हारी झिझक की सारी हदें गिरा रहा हूँ —
और जब ये आख़िरी परत भी हटेगी,
तो सिर्फ़ बदन नहीं… तुम्हारा गुरूर भी मेरे सामने नंगा होगा
राहुल (शालू की कमर पर हाथ फेरते हुए, आँखों में शरारत):
"मामा ने तुम्हारी कमर नहीं बनाई… सीधा जलने-लड़कने का हॉटस्पॉट बना दिया है।
इतनी भरी हुई है कि लगता है मुझ जैसे छोरे की अक्ल सीधी यहीं आकर अटक जाए!"

शालू (साँसें थामकर, शर्म से आँखें फेरते हुए):
"ज़ुबान पर लगाम नहीं रही तुम्हारी…"

राहुल (हल्की मुस्कान के साथ, और पास आते हुए):
"लगाम तो अब तुम्हारी कमर पर लगानी है…
वरना मेरा होश, नजर और इरादा — सब भटक रहा है बस यहीं!"
राहुल ने टी-शर्ट उतारी… फिर पजामा भी। अब वो बस चड्डी में था — नज़रों में आग, और बदन पर चाहत की लपटें।
उसने शालू की कमर थामी और फुसफुसाया:
"अब पर्दा कुछ नहीं… बस मैं और तुम — अधूरी रात को पूरा करने के लिए तैयार।"

शालू ने उसकी ओर देखा — और खुद को उसकी बाँहों में सौंप दिया… चुपचाप, पूरे यकीन के साथ।
राहुल ने शालू को अपनी बाँहों में भींच लिया — अब उनके बीच कोई पर्दा नहीं था, न कपड़े का, न संकोच का।
उसके होठ शालू की गर्दन की गर्मी महसूस कर रहे थे… और उंगलियाँ कमर की गोलाई पर ठहर चुकी थीं।

"आज तुम मामी बनोगी, या सास...? या फिर मेरी ही बीवी?" राहुल ने फुसफुसाते हुए दोबारा पूछा।

शालू की साँसें उसकी गर्दन पर काँपीं। उसने राहुल की उंगलियाँ अपने बदन पर नीचे सरकाईं… और धीमे से कहा —
"आज मैं औरत हूँ… बस औरत। जो सिर्फ़ तुम्हारे इंतज़ार में सालों से अधूरी पड़ी थी।"

राहुल ने उसकी आँखों में झाँका, फिर उसके होंठों को अपने होंठों से चुप कर दिया —
चुम्बन धीमा था, लेकिन भीतर तक उतरता हुआ।

उसकी उँगलियाँ अब ब्लाउज़ की बंदिशों से खेल रही थीं…
और शालू ने बिना कुछ कहे उसकी उँगलियों की भाषा समझ ली थी।

कमरा नहीं था वहाँ — सिर्फ़ सीढ़ियों की खामोशी, और दो धड़कनों की रूहानी आवाज़।
शालू ने राहुल को पास खींचते हुए हौले से कान में कहा —
"अब ज़रा जल्दी करो ना... कहीं तुम्हारी माँ जाग गई तो?"
फिर मुस्कराकर उसने आँख मारी,
"उसकी नींद तो वैसे भी कच्ची है… देख लिया तो हो सकता है उसका भी मन मचल जाए!"

राहुल ने हैरानी और शरारत से उसकी ओर देखा —
"अरे शालू!"

शालू हँस दी, होंठ दाँतों के बीच दबाए —
"अरे मज़ाक था बाबा… पर तेरी मम्मी ने तुझे पैदा किया है, तू सोच, तू क्या करेगा अगर उन्होंने मुझे इस हाल में देख लिया!"
राहुल थोड़ा हँसा… लेकिन अगले ही पल उसकी मुस्कान धीमी पड़ गई।
उसने शालू की आँखों में देखा और फुसफुसाया:

"यार… माँ है वो मेरी…"
"तू तो मज़ाक में कह गई… पर मुझे सुनते ही अजीब सा लग गया…"

उसकी आँखें थोड़ी सी भीग गई थीं, लेकिन चेहरे पर झिझक नहीं… सिर्फ़ सच्चा भाव था।

"मैं जानता हूँ जो हमारे बीच है वो अलग है… पर कुछ रेखाएँ हैं जो खुद-ब-खुद खिंच जाती हैं।"

शालू ने
राहुल ने शालू की आँखों में देखा — उसकी साँसें तेज़ थीं, पर नज़रों में अब कोई संकोच नहीं… बस इंतज़ार।
उस इंतज़ार में एक बेचैनी भी थी — जैसे किसी अधूरे एहसास ने भीतर आग सुलगा दी हो।

राहुल ने उसका चेहरा अपनी हथेलियों में थामा और धीरे से कहा —
"तुम हर बार खुद को क्यों रोकती हो… जबकि तुम्हारी धड़कनें सब कह चुकी हैं?"

शालू कुछ कहने ही वाली थी, लेकिन उसके होंठों से पहले उसकी नज़रें झुक गईं…
जैसे मौन ही अब इज़हार था।

राहुल की उँगलियाँ उसके कंधे से फिसलती हुई पीछे गईं — और ब्रा के हुक को पकड़कर हल्की झुँझलाहट और चाह के साथ खींचा।
'चक' की हल्की सी आवाज़ आई — जैसे एक दरवाज़ा खुला हो।

शालू की साँस थमी… उसकी आँखें एक पल को खुलीं, फिर खुद ही उसने खुद को राहुल की छाती से सटा लिया — पूरी तरह, बेझिझक।

अब उनके बीच कोई परत नहीं थी… न कपड़ों की, न मन की।

राहुल ने उसके बालों में उंगलियाँ फिराईं, और फिर उसकी पीठ पर अपनी हथेली रख दी —
धीरे-धीरे नीचे उतरती हुई, जैसे हर स्पर्श से उसकी देह को पढ़ रहा हो।

शालू की साँसें अब उसके कान में गर्म भाप की तरह महसूस हो रही थीं।

उसने धीरे से फुसफुसाया —
"अब अधूरा मत छोड़ना… क्योंकि आज मैंने खुद को पूरा तुम्हारे हवाले किया है।"

राहुल ने उसका माथा चूमा — और फिर होंठों से उसकी रूह को।
उस रात, देह नहीं… दो आत्माएँ नज़दीक आईं।
दोनों एक-दूसरे के सामने खड़े थे — न कोई परत, न कोई पर्दा।
ना तन पर, ना मन में।

उनकी साँसें धीमी थीं, लेकिन भीतर एक तूफ़ान चल रहा था —
जैसे दो आत्माएँ पहली बार एक-दूसरे को पूरी तरह महसूस कर रही हों।

शालू ने राहुल के चेहरे को छूते हुए फुसफुसाया —
"अब कोई फासला नहीं बचा…"

राहुल ने उसके माथे को चूमा और कहा —
"और कोई डर भी नहीं…"

उस रात उन्होंने एक-दूसरे को केवल देखा नहीं…
समझा, छुआ, और अपनाया —
हर स्तर पर, पूरी तरह।


शालू के हाथों में अब वो था —
राहुल की देह का सबसे निजी, सबसे सच बोलता हिस्सा।

उसने उसे ऐसे थामा…
जैसे कोई पुरानी प्यास को हथेलियों से छूकर तसल्ली दे रही हो।
उंगलियाँ धीमे-धीमे चलीं…
कभी कसकर… कभी हल्के से…
हर छुअन के साथ राहुल की साँसों की गति तेज़ होती जा रही थी।

"तेरा ये हिस्सा… इतना ज़िंदा क्यों है?"
शालू ने गाल के पास से मुस्कराकर पूछा, आँखें नीची, मगर होंठों पर आग।

राहुल (धड़कती आवाज़ में):
"क्योंकि तूने इसे जागने की इजाज़त दी है…"

फिर शालू ने अपनी नज़दीकी और बढ़ा दी —
अब सिर्फ़ हाथ नहीं… उसके होठों की गर्मी भी राहुल की मर्दानगी को महसूस कर रही थी।

हर छुअन में कोई भूख थी…
हर सिसकी में कोई लहर उठ रही थी —
जैसे दोनों ने खुद को सालों से रोका हो, और अब इजाज़त मिल गई हो सब कुछ ख़त्म कर देने की,
हर परत, हर दूरी, हर लिहाज़।

"तेरे जिस्म की गर्मी अब मेरी साँसों से पिघल रही है, राहुल…"
शालू ने फुसफुसाया —
"अब तू बस रुक मत जाना… मैं तुझमें जलना चाहती हूँ, राख तक…"

राहुल ने उसका चेहरा थामा, और उसके होठों पर झपटता हुआ चुम्बन दे दिया —
अब वो चुम्बन कोई कोमल अभिव्यक्ति नहीं था…
वो भूख थी… लपट थी… अधिकार और प्यास थी।

उसने शालू को एक झटके में सीढ़ियों पर सीने से सटा लिया —
कमर को थामा, और ज़ोर से अपनी ओर खींचा।
उसका बदन अब काँप रहा था — लेकिन उस काँपने में डर नहीं… सिर्फ़ इजाज़त थी।

शालू (काँपती हुई):
"आज मेरा सब कुछ तेरा है… जिस रूप में चाहे, जैसे चाहे… छीन ले मुझे…"

fight to be continue........
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RE: संग वो गर्मी की शाम - by Shipra Bhardwaj - 22-07-2025, 11:34 PM



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