22-07-2025, 11:32 PM
part 1
उस रात… नेहा की माँ कमरे में कुछ सामान लेने गईं थीं।
कमरे में हल्की धूप फैली थी,
बिस्तर ठीक नहीं था, और तकिए के नीचे कुछ अटका हुआ था।
माँ ने जैसे ही हाथ डाला…
उनकी उंगलियाँ एक बेहद नर्म, महीन कपड़े से टकराईं।
उन्होंने धीरे से खींचा…
और सामने आई गुलाबी, लेस वाली एक पैंटी।
कुछ देर तक उन्होंने बस उसे देखा —
कोई हड़बड़ी नहीं, कोई आवाज़ नहीं।
फिर उन्होंने वो चीज़ उठाई,
धीरे से तह किया… और अलमारी के एक कोने में रख दी।
ना कोई सवाल।
ना कोई आवाज़।
लेकिन चेहरे पर अब एक अजीब-सी चुप्पी और आँखों में हलकी सख्ती थी।
---
अगली सुबह...
नेहा माँ से नज़रें नहीं मिला पा रही थी।
माँ चुप थीं —
खाना बना रही थीं, आवाज़ में कोई फर्क नहीं,
लेकिन हर बात थोड़ी कम हो रही थी… थोड़ा ठंडी… और थोड़ी तीखी।
नेहा की घबराहट अब बेहद तेज़ हो गई थी।
उसे शक था — "माँ ने देख लिया है…"
लेकिन वो तय नहीं कर पा रही थी कि…
माँ जानती हैं… या माँ सब समझ कर इंतज़ार कर रही हैं कि मैं खुद कुछ कहूँ?"
दोपहर का वक़्त था।
घर में सब अपने-अपने कमरों में थे,
नेहा रसोई में थी और उसके पापा बाहर खेत की तरफ़ गए थे।
माँ — शालू — चुपचाप बरामदे में बैठी थीं।
उनकी आँखें छत की सीढ़ियों की ओर बार-बार उठ रही थीं।
फिर जैसे ही राहुल नीचे उतरा,
शालू ने उसे आवाज़ दी:
“राहुल बेटा, ज़रा इधर आओ।”
राहुल ने मुस्कुराकर सिर हिलाया,
पर शालू की मुस्कान गायब थी।
उसके बैठते ही माँ ने सीधा सवाल नहीं पूछा।
बस उसकी आँखों में देखा,
और धीरे से बोलीं:
“तुम्हारे घर में भी बहन है ना?”
राहुल थोड़ा चौंका।
“जी… है।”
“तो मान के चलो, कि मैं भी एक माँ हूँ…
जिसकी बेटी है।
और मैं सब कुछ ना देखकर भी बहुत कुछ देख लेती हूँ।”
राहुल अब थोड़ा गम्भीर हो गया।
माँ ने रुककर कहा:
“कल जब तुम कमरे से बाहर आए थे नेहा के साथ…
और फिर बाद में मुझे एक चीज़ मिली वहाँ,
जो वहाँ होनी नहीं चाहिए थी —
तब मुझे दो बातें साफ़ समझ में आ गईं।”
**“एक — तुमने मेरी बेटी की मासूमियत को छुआ है।”
“और दो — अब मैं तुम्हारे इरादे समझने जा रही हूँ।”
बरामदे के कोने में दोनों बैठे थे।
राहुल कुछ समझ नहीं पा रहा था —
शालू आंटी के चेहरे पर ना गुस्सा था, ना ममता… सिर्फ़ एक सख्त, पढ़ लेने वाली नज़र।
“राहुल… मुझे लगता है, तुम बहुत समझदार हो।
लेकिन कुछ बातें… आँखों से नहीं, हाथ से दिखानी पड़ती हैं।”
उन्होंने धीरे से पीछे देखा —
घर का पिछला हिस्सा सुनसान था।
फिर अपनी साड़ी के पल्लू को हल्का सा उठाया…
और उसकी तह में से नेहा की वही गुलाबी पैंटी बाहर निकाली —
साफ़ तह की हुई।
राहुल की साँस अटक गई।
"ये चीज़ मैंने कल कमरे में देखी थी।
मेरी बेटी के कमरे में, मेरे ही बिस्तर पर।
और वो भी उस दिन… जब तुम दोनों वहाँ अकेले थे।”
शालू अब उसके सामने पूरी तरह एक माँ की तरह खड़ी थीं,
ना डर, ना झिझक — सिर्फ़ एक माँ का साफ़ सवाल।
“अब बताओ —
क्या ये मेरी बेटी की ग़लती थी?
या ये तुम दोनों की मर्ज़ी थी?
या सिर्फ़ तुम्हारा खेल?”
राहुल के माथे पर पसीना आ गया।
उसने काँपती आवाज़ में कहा:
“मामी… माफ़ कीजिए,
मुझे ये सब बताना चाहिए था…
लेकिन मैं डर गया था।”
“नेहा ने कुछ भी जबरदस्ती नहीं किया,
ना मैंने… लेकिन जो हुआ, वो शायद नहीं होना चाहिए था।
पर मैं सिर्फ़ उसके साथ खेल नहीं रहा…”
"मैं… उसे चाहता हूँ।”
राहुल सिर झुकाए बैठा था।
शालू उसकी तरफ़ देख रही थीं — लेकिन उनकी नज़र में अब सिर्फ़ नाराज़गी नहीं थी।
अब वहाँ एक माँ का वो गुस्सा था जो तब आता है, जब बेटी की आत्मा को ठेस पहुँचती है।
उन्होंने धीरे से, पर ठोस आवाज़ में कहा:
“शहर में रहकर क्या इतना बदल गया है तुम्हारे अंदर, राहुल?”
“रिश्ते अब तुम्हारे लिए बस ‘मौका’ रह गए हैं?”
राहुल कुछ कहने ही वाला था कि शालू ने हाथ उठाकर रोक दिया।
"मैंने ये बात न तुम्हारी माँ से कही, न तुम्हारे मामा से।
क्योंकि मुझे अब भी उम्मीद है —
कि जो लड़का मेरी बेटी के करीब गया है,
उसमें इंसानियत बाकी है।”
“तुम्हारी भी एक बहन है, ना?”
“प्रिय्या…”
राहुल ने धीरे से सिर हिलाया।
शालू की आँखों में अब आँसू थे —
लेकिन आवाज़ अब भी फौलादी:
“कल को अगर किसी लड़के के हाथ में उसकी… कपड़े हों —
और वो हँसे, छुपाए, या उसे गलत नज़र से देखे —
तो बताओ राहुल, तुम्हारे सीने में क्या गुज़रेगा?”
राहुल की आँखें नीचे झुक गईं।
"नेहा, मेरी बेटी है — लेकिन उससे पहले वो भी एक बहन थी, एक इंसान थी।
उसे छूने से पहले तुमने एक बार भी उसकी इज़्ज़त की सोच की थी?”
“कपड़े सिर्फ़ शरीर नहीं ढँकते,
कई बार एक माँ की नींद, एक लड़की की गरिमा, और एक परिवार की मर्यादा भी उन्हीं धागों में बंधी होती है।”
अब शालू थोड़ा रुकीं, गहरी साँस लीं…
फिर शांत होकर बोलीं:
“गलतियाँ सभी करते हैं…
लेकिन हर कोई मर्द नहीं बनता —
जो अपनी ग़लती को समझकर उसे सही करे।”
“अब फैसला तुम्हारा है —
राहुल अब भी सिर झुकाए बैठा था।
शालू की आँखों में बहुत कुछ था —
गुज़रा हुआ विश्वास, हिल चुकी उम्मीद,
लेकिन सबसे ऊपर… एक माँ की कोमलता।
वो कुछ देर चुप रहीं।
फिर राहुल की तरफ़ देखा,
और बेहद धीमे स्वर में बोलीं:
"मैं जानती हूँ, राहुल…
तुम कोई बुरा लड़का नहीं हो।
बस… कुछ पल ऐसे आ जाते हैं ज़िंदगी में
जहाँ इंसान से गलती हो जाती है।”
“मुझे तुमसे गुस्सा है…
क्योंकि तुमने मेरी बेटी को उस मोड़ पर ले जाया,
जहाँ कोई माँ अपनी संतान को नहीं देखना चाहती।”
“लेकिन मैंने तुम्हारी आँखों में डर नहीं…
पछतावा देखा है।”
वो उठीं।
साड़ी को ठीक किया।
और बहुत शांत आवाज़ में बोलीं:
"इसलिए —
मैं तुम्हें एक बच्चा मानकर माफ़ कर रही हूँ।
लेकिन अगली बार अगर तुमने मेरी बेटी को सिर्फ़ पास आने लायक समझा,
साथ निभाने लायक नहीं…
तो मैं फिर माँ नहीं बनूँगी,
सिर्फ़ एक औरत बनकर जवाब दूँगी।”
वो मुड़ीं, दो क़दम चलीं…
फिर रुकीं और एक आखिरी बात कह गईं:
शालू धीरे से दो कदम चलीं,
फिर रुककर पीछे मुड़ीं —
राहुल अभी भी अपनी जगह जड़ था।
उनके हाथ में कुछ था —
वही गुलाबी पैंटी,
जो उन्होंने उस दिन कमरे से चुपचाप उठाई थी।
उन्होंने उसे राहुल की ओर बढ़ाया —
आवाज़ बहुत हल्की थी, लेकिन हर शब्द सटीक:
"इसे ले लो…"
राहुल ने काँपते हाथों से लिया, कुछ बोलना चाहा —
लेकिन शालू ने उसे रोका:
"कुछ मत कहो।
बस सुनो।”
"ये नेहा की है —
और उसे नहीं पता कि ये मुझे मिली थी।
उसे पता भी नहीं चलना चाहिए।”
“मैं नहीं चाहती कि मेरी बेटी को ये महसूस हो
कि उसकी माँ ने उसे उस नज़रों से देखा…
जिससे एक लड़की टूट जाती है।”
"वो मुझसे अब भी हँसकर बात करती है —
और मैं चाहती हूँ कि उसकी वो मासूम हँसी,
बची रहे।”
राहुल की आँखें भीगने लगीं।
शालू ने आँखें उसकी ओर नहीं,
बस ज़मीन की ओर टिकाईं —
जैसे अपने ही शब्दों से बच रही हों।
“मैंने तुम्हें माफ़ किया, क्योंकि मैं माँ हूँ —
लेकिन ये मत भूलना…
माफ़ी भरोसे की तरह होती है —
एक बार टूटे तो आवाज़ नहीं आती,
लेकिन दोबारा जोड़ने पर दरारें हमेशा दिखती हैं।”
फिर वो चुप हो गईं।
“नेहा से जाकर कह देना —
कि उसे वो चीज़ उसी कमरे से मिल गई,
उसी वक़्त, बस उसे ध्यान नहीं रहा।”
“और तुम…
अपने अंदर का आदमी अब जगा दो,
लड़का बहुत देख चुकी हूँ।”
शालू चली गईं —
धीरे-धीरे… लेकिन जैसे एक बड़ी आग को ठंडी राख में बदलकर।
रात के वक़्त, सब छत पर बैठे थे।
राहुल धीरे से उठा, और नेहा को इशारे से नीचे बुलाया।
नेहा थोड़ी झिझकी, लेकिन उसका चेहरा अब थोड़ा हल्का था —
जैसे कोई बड़ी आफ़त टल गई हो।
नीचे बरामदे में — चुपचाप…
राहुल ने चुपचाप जेब से कुछ निकाला।
वही पैंटी।
नेहा की आँखें चौड़ी हो गईं।
“मिली कहाँ?” उसने जल्दी से पूछा।
राहुल ने हल्के से मुस्कराकर कहा:
“कमरे में… कोने में ही थी शायद,
तुमने ध्यान नहीं दिया।”
नेहा ने राहत की साँस ली।
“थैंक गॉड… मम्मी को कुछ नहीं पता ना?”
राहुल कुछ देर चुप रहा।
फिर बोला:
“नहीं… कुछ नहीं पता…”
(पर उसकी आँखों ने कुछ और कहा)
नेहा चली गई, पैंटी को लेकर तेज़ी से ऊपर।
लेकिन राहुल वहीं रुका रहा… अंधेरे में, अकेला।
उसकी आँखों में शालू की छवि थी —
साड़ी की तह से चुपचाप पैंटी निकालती,
आँखों में ग़ुस्सा नहीं,
बल्कि एक ऐसा भाव…
जो माँ से ज़्यादा एक स्त्री की जागरूकता लिए हुए था।
उसकी आवाज़ गूँजी:
> “अगर दोबारा सिर्फ़ पास आने लायक समझा, साथ निभाने लायक नहीं… तो मैं माँ नहीं, सिर्फ़ औरत बनकर जवाब दूँगी।”
राहुल को कुछ समझ नहीं आ रहा था —
क्यों वो पल उसके भीतर से निकल ही नहीं रहा…
क्या ये डर था?
या सम्मान?
या कुछ और… जो वो खुद नहीं समझ पा रहा था?
part 2 गाँव की गर्म रात।
सब लोग छत पर अपनी-अपनी जगह पर चादरें बिछाए लेटे थे।
हल्की हवा बह रही थी… पंखे नहीं थे, लेकिन आसमान खुला था।
राहुल, नेहा, प्रिय्या — सब छत के एक किनारे।
दादी दीवार की ओर, और कुछ दूरी पर एक और चादर बिछी थी…
शालू भी आज ऊपर ही सोने आई थीं।
नेहा चौंकी थी, लेकिन कुछ बोली नहीं।
“गर्मी बहुत थी नीचे,” शालू ने हल्के से कहा —
जैसे खुद को ही यक़ीन दिला रही हों।
राहुल ने भी नज़रें नहीं उठाईं, लेकिन उसे उस चुप चादर की आहट ज़रूर महसूस हो रही थी।
कुछ देर तक सब सोने का बहाना करते रहे।
पर किसी की नींद नहीं आई थी…
छत पर चुपचाप लेटे हुए,
राहुल की आँखें खुली थीं — लेकिन वो आसमान नहीं, यादें देख रहा था।
शालू की आवाज़,
उसके हाथ से पैंटी देना,
वो निगाह जो माँ से ज़्यादा जानती-सी लगी…
“मैं फिर माँ नहीं बनूँगी…
सिर्फ़ औरत बनकर जवाब दूँगी…”
राहुल ने धीरे से करवट बदली —
लेकिन सामने ही कुछ दूर,
चादर के भीतर से एक हल्की आहट आई।
शालू ने भी शायद करवट बदली थी।
एक पल को दोनों की निगाहें मिलीं —
अँधेरे में… चुपचाप… बिना आवाज़ के।
कोई बात नहीं हुई —
लेकिन जो नहीं कहा गया,
वही सबसे बड़ा कह दिया गया।
राहुल की साँसें थोड़ी तेज़ थीं।
शालू की पलकों में अब भी वही सख़्त नरमी थी —
जैसे माँ होने और औरत होने के बीच की रेखा पर चल रही हों।
छत पर सब सोने की तैयारी में थे।
नेहा ने चादर सिर तक खींच ली थी —
उसका मन आज विचलित था।
माँ की उपस्थिति ने उसे संभाल दिया था,
लेकिन उस संभाल के साथ एक भीतर की दूरी भी आ गई थी।
राहुल की तरफ़ देखा तक नहीं उसने…
धीरे-धीरे उसकी साँसें भारी हुईं…
आँखें बंद… और वो सो गई।
लेकिन छत पर हर कोई नहीं सोया था।
राहुल…
आँखें खुली थीं उसकी,
मन जागता हुआ।
वो करवट लेता, फिर सीधा होता,
उसका दिल भारी था।
ना नेहा की कोई बात हुई,
ना उसकी झलक।
और फिर…
कुछ कदमों की धीमी-सी आवाज़।
हल्का सरकता हुआ पाँव…
किसी की चप्पल की आहट नहीं थी —
बस, चादर सरकने की धीमी सी खरखराहट।
राहुल की साँस रुक गई।
उसने देखा —
शालू उठी थीं।
धीरे से वो पानी की बोतल उठाकर बैठ गईं,
लेकिन उनकी नज़र एक पल के लिए ठीक राहुल पर पड़ी।
अँधेरे में,
जैसे दो साए एक-दूसरे को पहचानते हों —
लेकिन कुछ कहे बिना लौट जाते हों।
शालू ने कुछ नहीं कहा।
बस उठीं… और वहीं थोड़ी दूरी पर आकर फिर लेट गईं।
लेकिन अब तक,
छत पर सिर्फ़ हवा नहीं बह रही थी…
कुछ असहज, अनकहा भी तैर रहा था।
छत पर चारों तरफ़ सन्नाटा पसरा था।
तारे चुप थे… हवा शांत।
राहुल सो रहा था — करवट के बल, हल्के खर्राटों के साथ।
उसके माथे पर पसीने की कुछ बूँदें थीं —
गाँव की गर्मी का असर।
और तभी…
एक छाया धीरे-धीरे उसके पास आई —
बिलकुल चुपचाप।
चप्पल नहीं, आहट नहीं —
सिर्फ़ एक साड़ी की सरसराहट।
वो झुकी…
और बहुत हल्के हाथ से राहुल के माथे से पसीना पोंछने लगी।
पहले ऊँगली से — फिर धीरे-से हथेली से।
राहुल गहरी नींद में था,
लेकिन छुअन का एहसास धीरे-धीरे उसके भीतर उतरने लगा।
थोड़ी देर बाद, उसकी आँखें खुलीं…
और जैसे ही सामने देखा — वो चौंक गया।
“मामी…?”
उसने फुसफुसाते हुए कहा —
थोड़ा डर, थोड़ा संकोच।
शालू की आँखें थोड़ी चमक रही थीं…
लेकिन चेहरा शांत था।
"नींद में थे… माथा बहुत गर्म था बेटा।
बस ऐसे ही…"
(उसकी आवाज़ धीमी थी, पर कुछ तो था उसमें जो माँ जैसा नहीं लगा।)
राहुल अब पूरी तरह जाग चुका था।
उसने चादर थोड़ी खींची, खुद को समेटा।
शालू बस एक पल देखती रही — फिर सीधी हुई।
"सो जाओ… बहुत कुछ सोचने की ज़रूरत नहीं।
मैं तो माँ हूँ न।”
"आज मैंने तुम्हें बहुत डाँटा..."
वो थोड़ी देर चुप रहीं।
फिर खुद से बोलीं जैसे —
"शायद लहज़ा ज़्यादा सख़्त था... शायद डर ज़्यादा दिखा, प्यार कम।"
फिर राहुल की ओर देखा —
आँखों में अब ग़ुस्सा नहीं था,
बस एक थकी हुई ममता थी।
"मैं माँ हूँ, राहुल...
लेकिन उससे पहले मैं भी एक इंसान हूँ।
ग़लतियाँ मुझसे भी होती हैं..."
"तुमसे जो कहा — वो डर से कहा था,
पर जो नहीं कहा...
वो मेरी चिंता थी।"
राहुल कुछ नहीं बोला।
बस उसकी आँखें नम हो गईं।
शालू ने हल्के से उसका माथा छुआ —
इस बार डाँटने वाली माँ की तरह नहीं,
बल्कि माफ़ी माँगती और प्यार बाँटती इंसान की तरह।
"मुझे माफ़ कर सको तो करना..."
वो उठीं, वापस अपनी चादर पर चली गईं।
पर उस रात, राहुल की आँखें देर तक नहीं झपकीं…
शालू के चले जाने के कुछ देर बाद —
राहुल अपनी चादर से उठ बैठा।
उसका दिल भारी था,
मन उलझा हुआ…
वो धीरे से उठा,
और बिना आवाज़ किए छत के कोने में, दीवार पर जाकर बैठ गया।
रात का एक ठहरा हुआ पल —
जहाँ सिर्फ़ तारों की रोशनी थी और सोचों का शोर।
उसने छत के उस पार देखा —
दूर अंधेरे में गाँव की बत्तियाँ बुझी थीं,
पर उसके मन का उजाला और अँधेरा —
दोनों जाग रहे थे।
"मैंने क्या किया…?"
उसने खुद से पूछा।
"नेहा…?
और मामी…?
कहीं मैंने किसी की नज़रों में खुद को खो तो नहीं दिया…?"
हवा चल रही थी —
धीमी, गुनगुनाहट-सी…
पर राहुल के भीतर आँधी थी।
उसने सिर दोनों घुटनों पर रख लिया,
और आँखें बंद कर लीं।
उसे अब सबसे ज़्यादा डर खुद से लग रहा था।
part 3 रात गहरी थी, पर नींद कहीं नहीं थी।
राहुल अब भी छत की मुंडेर पर बैठा था —
नीचे झाँकता हुआ, जैसे अपने भीतर झाँक रहा हो।
पीछे से हल्की-सी चप्पल की आहट आई।
शालू।
धीरे-धीरे चलती हुई, वो उसके पास आई —
थोड़ी दूरी पर बैठ गईं।
"नींद नहीं आ रही?"
शालू ने धीमे से पूछा।
राहुल ने सिर हिलाया —
"नहीं मामी… बहुत कुछ सोच रहा हूँ।"
शालू चुप रहीं।
फिर एक लम्बी साँस लेते हुए बोलीं:
"मुझे भी नहीं आ रही… शायद इसलिए क्योंकि जो बात कहनी थी, वो कह नहीं पाई… और जो नहीं कहनी थी, वो दिल में ठहर गई।"
राहुल उसकी तरफ़ देखने लगा —
उनकी आँखों में आज माँ जैसी कोमलता भी थी, और एक थकी हुई औरत की सच्चाई भी।
"कभी-कभी रिश्तों की पहचान वक़्त से नहीं, एक पल से होती है," शालू ने कहा,
"और कभी एक ग़लत पल सबकुछ बदल भी देता है।"
वो थोड़ी देर चुप रहीं।
"मैं तुम्हारी मामी हूँ, राहुल… पर एक औरत भी हूँ, जिसकी अपनी भावनाएँ हैं, अपनी कमज़ोरियाँ…"
फिर उन्होंने अपनी नज़रें मोड़ लीं।
"मैंने तुम्हें डाँटा, माफ़ किया… पर मैं खुद को माफ़ नहीं कर पाई।"
राहुल कुछ बोलना चाहता था, लेकिन शब्द नहीं मिले।
शालू उठीं।छत पर हवा थोड़ी ठंडी हो चली थी।
शालू, राहुल के पास बैठीं थीं — अब चुप्पी थोड़ा खुलने लगी थी।
एक लंबा मौन तोड़ते हुए उन्होंने कहा:
"राहुल… क्या कभी तुमने किसी औरत की चुप्पी सुनी है?"
राहुल चुप रहा।
शालू ने आसमान की तरफ़ देखा —
तारे भी जैसे थम से गए।
"कभी-कभी औरतें बहुत कुछ नहीं कहतीं,
क्योंकि उन्हें आदत होती है सब सहने की…
क्योंकि उन्हें कोई सुनने वाला नहीं मिलता।"
थोड़ी देर के बाद उन्होंने धीरे से कहा:
"तुम्हारी मामी होने के साथ-साथ मैं एक औरत भी हूँ…
और एक औरत जिसने कभी… मर्द का वो प्यार नहीं पाया जो सिर्फ़ शरीर नहीं, मन को भी छू जाए।"
"तुम्हारे मामा… एक सीधे-सादे इंसान हैं।
अच्छे हैं… पर कभी मेरी आँखों में नहीं देख पाए…
कभी ये नहीं पूछा कि मैं ठीक हूँ या सिर्फ़ निभा रही हूँ।”
शालू की आवाज़ नहीं काँप रही थी,
पर उसमें एक ठहर गया दर्द था।
राहुल कुछ कहना चाहता था,
पर उस वक्त शब्द छोटा और मौन भारी हो गया।
शालू ने नज़रें नीची कीं,
"कभी-कभी इंसान को इतना खाली छोड़ दिया जाता है… कि वो सिर्फ़ रिश्ते निभाता है, जीता नहीं।"
वो उठीं।
"मैं ये सब तुमसे इसलिए कह रही हूँ, क्योंकि तुम समझ सकते हो —
शायद इसलिए नहीं कि तुम जवाब दो… बस इसलिए कि कोई सुन ले।"शालू उठकर मुंडेर की ओर चली गईं।
राहुल अब भी चुप था।
उसके भीतर कुछ बदल रहा था —
किसी रिश्ते की परिभाषा, किसी भाव की समझ।
शालू अब मुंडेर से दूर आसमान की ओर देख रही थीं।
पीठ राहुल की तरफ़, पर मन... शायद उसके ही पास।
राहुल ने धीरे से आवाज़ दी —
"मामी…"
शालू पलटीं।
"आप ठीक हैं?"
शालू के चेहरे पर एक क्षण के लिए मुस्कान तैर गई —
थकी हुई, पर सच्ची।
"नहीं हूँ… लेकिन तुमसे कहकर थोड़ी हल्की हो गई हूँ।"
वो फिर बैठ गईं — इस बार थोड़ा और पास।
"राहुल, तुम्हें ये सब बताना शायद ग़लत हो सकता है…
पर मेरी ज़िंदगी में कोई और ऐसा नहीं जिससे मैं ये कह पाती।"
राहुल ने उनकी ओर देखा।
"आपकी बातों से डर नहीं लगा मामी…
बल्कि एक सवाल उठा —
क्या हम वाकई अपनों से इतनी दूर हो सकते हैं… कि उन्हें कुछ कहने के लिए कोई बाहर का सहारा लेना पड़े?"
शालू की आँखें नम हो गईं।
"हम औरतें सबकी होती हैं… बस खुद की नहीं होतीं।"
कुछ देर दोनों चुप रहे।
फिर राहुल ने धीरे से कहा:
"मैं आपकी बातें कभी किसी से नहीं कहूँगा…
पर अगर कभी फिर कुछ सुनना चाहें… तो कहिएगा ज़रूर।"
शालू ने उसका हाथ पकड़ा —
बस एक पल के लिए।
ना कोई गलत इरादा, ना कोई आग्रह…
बस एक मानवीय जुड़ाव — दो अकेलेपन के बीच।
फिर उन्होंने हाथ पीछे खींच लिया और बोलीं:
"चलो… बहुत रात हो गई है। अब सो जाएँ।"
और
कुछ देर की चुप्पी के बाद
राहुल ने शालू को थोड़ा मुस्कुराते हुए देखा।
फिर, हवा में थोड़ा नटखटपन घोलते हुए बोला:
"वैसे मामी… एक बात तो समझ में नहीं आई..."
शालू ने हल्के से पूछा,
"क्या?"
"अगर मामा जी इतने सीधे-सादे हैं, प्यार-व्यार जताते नहीं…
तो फिर आप दो-दो बच्चों की मम्मी कैसे बन गईं?"
?
शालू पहले तो चौक गईं —
फिर उनकी आँखों में गुस्सा नहीं, हँसी थी।
"तेरी तो…! बद्तमीज़!"
उन्होंने पास पड़े तकिए से राहुल को हल्के से मारा।
"बातों-बातों में क्या-क्या सोचता है तू!"
राहुल अब खुलकर हँस रहा था।
"अरे मामी, अब आप इतना दिल खोलकर बात कर रही थीं,
तो सोचा थोड़ा माहौल हल्का कर दूँ।"
शालू भी मुस्कुरा पड़ीं।
"चलो… तू बड़ा हो गया है, पर अभी भी बच्चों जैसी बातें करता है।"
फिर थोड़ी देर बाद, शालू ने भी उसी लहज़े में मज़ाक किया:
"और सुनो भांजे राजा… एक दिन जब तू शादी करेगा,
और बीवी तुझसे कहेगी — 'तुम प्यार नहीं करते'…
तो ये सवाल खुद से पूछना मत भूलना!"
अब दोनों मुस्कुरा रहे थे —
छत की उस रात में, तारे थोड़े और पास लग रहे थे।
राहुल ने मज़ाक के साथ हल्के अंदाज़ में कहा:
"अच्छा मामी, फिर शादी के बाद नेहा से ही पूछूँगा ये सवाल…
क्योंकि शादी तो मैं उसी से करने वाला हूँ।"
उसका चेहरा मुस्कराहट से भरा था —
बिलकुल मासूम, लेकिन सच्चा।
शालू उसे एक पल देखती रहीं।
और फिर… उनके होंठों पर भी मुस्कान आ गई।
बहुत हल्की, लेकिन उसमें वो सारी थकावट थी जो सालों से उन्होंने छुपा रखी थी।
उस मुस्कान में कोई ताना नहीं था,
कोई दर्द भी नहीं —
बस एक माँ खो गई थी उस पल में…
कहीं उस उम्मीद में कि शायद उसकी बेटी को वो मिल जाए, जो उसे कभी नहीं मिला।
शालू ने कुछ नहीं कहा।
बस उठीं…
राहुल के सिर पर हल्के से हाथ फेरा,
और धीरे से बोलीं:
"तो फिर अब सो जा…
कल सुबह जब मेरी बेटी की आँख खुले,
तो उसे लगे — वो किसी के प्यार की नहीं,
किसी के इज़्ज़त की हक़दार है।”
और वो लौट
राहुल की बात पर शालू मुस्कुराई तो थी…
लेकिन कुछ सेकंड बाद, वो मुस्कान थोड़ी फीकी पड़ गई।
वो ठिठकी… फिर धीमे से बोली:
"अच्छा… वो तो तुम्हारी बहन भी है ना — मेरी बेटी..."
राहुल
राहुल शालू की आँखों में देख रहा था —
वो आँखें जिनमें अभी-अभी माँ की झलक थी…
पर अब वो उसमें कुछ और ढूँढ रहा था।
धीरे से बोला:
"मामी… नहीं — अब तो मुझे आपको मम्मीजी कहने का हक़ है।
क्योंकि नेहा अब मेरी बहन नहीं… मेरी पत्नी है।
और मुझे सबसे प्यारी सास भी मिल गई है…"
उसके चेहरे पर कोई शरारत नहीं थी —
बस एक सच्चा विश्वास, एक अंदर से निकली रोशनी।
शालू उसे देखती रहीं।
कई भाव उनके चेहरे पर आए —
हैरानी, उलझन, डर, और फिर… एक नमी।
उनके पास कोई शब्द नहीं थे।
वो कुछ बोलना चाहती थीं… लेकिन गले से आवाज़ नहीं निकली।
बस अपने आँचल से आँखें पोंछीं,
फिर धीरे से राहुल का हाथ थामा —
बहुत हल्के से, पर पूरी माँ की ताक़त के साथ।
और कहा:
"तो फिर… अब जो भी हो,
सिर्फ़ प्यार नहीं, भरोसा भी निभाना पड़ेगा… बेटा।”
राहुल ने सिर झुका लिया —
"आपके आशीर्वाद के बिना तो ये रिश्ता अधूरा है, मम्मीजी…"
शालू के आशीर्वाद वाले शब्द सुनकर राहुल ने थोड़ा मुस्कुराते हुए हाथ जोड़ लिए।
और फिर हल्के नटखट अंदाज़ में बोला:
"तो फिर मम्मीजी, आशीर्वाद दीजिए…
कभी बीवी प्यार न करे,
तो सास ही थोड़ा-बहुत प्यार दे दे!"
?
शालू एक पल को ठिठकीं।
उनके चेहरे पर पहले हँसी आई… फिर चुप्पी।
उनकी आँखों में जैसे कुछ चमका —
कोई याद? कोई भाव?
या शायद… एक अनकहा सवाल।
उन्होंने कुछ नहीं कहा,
बस हल्के से राहुल की ओर देखा —
न डाँट, न हँसी — बस एक गहराई।
राहुल ने धीरे से पूछा:
"क्या सोच रही हैं मम्मीजी?"
शालू मुस्कुराईं।
फिर बोलीं:
"सोच रही हूँ… कि अब मैं तुझे भांजा नहीं कह सकती!"
राहुल हँस पड़ा।
"क्यों? अब क्या बन गया मैं?"
शालू ने ज़रा झुककर, हल्के से आँखों में देखते हुए कहा:
"अब तू मेरा दामाद है… और मैं तेरी सास!"
"और तेरी माँ? जो मेरी ननद है — वो अब मेरी समधन!"
(और कह कर खुद ही हँसने लगीं)
राहुल ने भी हँसते हुए हाथ जोड़े:
"तो फिर मम्मीजी, आशीर्वाद दो… वरना समधन नाराज़ हो जाएँगी!"
शालू ने प्यार से उसके माथे पर हल्की चपत मारी:
"चल हट… बातों का बादशाह बन गया है।"
फिर कुछ देर चुप रहीं,
और धीमे से बोलीं:
हवा अब ठंडी चलने लगी थी।
शालू और राहुल अब थोड़े सहज हो चुके थे।
मूड हल्का था… कुछ सन्नाटा, कुछ मुस्कुराहटें।
शालू ने चुप्पी तोड़ी और मुस्कुराते हुए कहा:
"राहुल, एक बात पूछूँ… बिना नाराज़ हुए जवाब देगा?"
राहुल हँस पड़ा, "अब मामी, आप भी डराकर पूछेंगी तो सोचूंगा ज़रूर!"
शालू ने थोड़ी नज़दीक होकर हल्के से आँखें मटकाईं और बोली:
"ये जो तुम्हारे पापा हैं — जो मेरी ननद यानी तुम्हारी मम्मी के पति हैं —
वो प्यार करते हैं न अपनी पत्नी से, या बस निभा रहे हैं?"
राहुल ने थोड़ा चौंकते हुए देखा, फिर मुस्कुराया।
छत पर चाँदनी बिखरी थी — नर्म, चुप, और धीमे-धीमे जलती हुई… ठीक वैसे ही जैसे उनके भीतर कुछ सुलग रहा था।
शालू की उँगलियाँ जब राहुल की हथेलियों में ढीली पड़ीं, तो वो सिर्फ़ थकान नहीं थी — वो एक इशारा था… एक मौन स्वीकृति, कि अब वो पास आने दे रही है।
राहुल ने उसकी ओर देखा — उसकी आँखों में सवाल नहीं, अब प्यास थी।
ऐसी प्यास जो देह से नहीं, उस स्पर्श से बुझती है जिसमें सैकड़ों अधूरे पल छुपे हों।
चाँदनी अब और भी सफेद लग रही थी, पर उनके बीच का स्पर्श धीरे-धीरे गहरा होता जा रहा था —
कपड़ों के पार, साँसों के आर-पार।
वासना वहाँ शब्द नहीं मांग रही थी,
बस मौजूद थी —
धीमी, धड़कनों के बीच छिपी हुई,
जैसे किसी अनकहे गीत की आखिरी सरगम।
मामी," राहुल की आवाज़ काँप रही थी,
"मुझे आपकी बेटी से प्यार है… ये आप जानती हैं।
लेकिन आज… न जाने क्यों… आपसे कुछ ऐसा महसूस हुआ… जो मैं खुद से भी छिपा नहीं पाया।"
वो चुप हो गया।
मामी की आँखें उसकी ओर उठीं — उनमें न तो ग़ुस्सा था, न ही कोई साफ़ जवाब।
बस एक लम्बा सन्नाटा था…
जिसमें दोनों ने शायद कुछ खोया भी, और खुद को थोड़ा समझा भी।
उस रात… नेहा की माँ कमरे में कुछ सामान लेने गईं थीं।
कमरे में हल्की धूप फैली थी,
बिस्तर ठीक नहीं था, और तकिए के नीचे कुछ अटका हुआ था।
माँ ने जैसे ही हाथ डाला…
उनकी उंगलियाँ एक बेहद नर्म, महीन कपड़े से टकराईं।
उन्होंने धीरे से खींचा…
और सामने आई गुलाबी, लेस वाली एक पैंटी।
कुछ देर तक उन्होंने बस उसे देखा —
कोई हड़बड़ी नहीं, कोई आवाज़ नहीं।
फिर उन्होंने वो चीज़ उठाई,
धीरे से तह किया… और अलमारी के एक कोने में रख दी।
ना कोई सवाल।
ना कोई आवाज़।
लेकिन चेहरे पर अब एक अजीब-सी चुप्पी और आँखों में हलकी सख्ती थी।
---
अगली सुबह...
नेहा माँ से नज़रें नहीं मिला पा रही थी।
माँ चुप थीं —
खाना बना रही थीं, आवाज़ में कोई फर्क नहीं,
लेकिन हर बात थोड़ी कम हो रही थी… थोड़ा ठंडी… और थोड़ी तीखी।
नेहा की घबराहट अब बेहद तेज़ हो गई थी।
उसे शक था — "माँ ने देख लिया है…"
लेकिन वो तय नहीं कर पा रही थी कि…
माँ जानती हैं… या माँ सब समझ कर इंतज़ार कर रही हैं कि मैं खुद कुछ कहूँ?"
दोपहर का वक़्त था।
घर में सब अपने-अपने कमरों में थे,
नेहा रसोई में थी और उसके पापा बाहर खेत की तरफ़ गए थे।
माँ — शालू — चुपचाप बरामदे में बैठी थीं।
उनकी आँखें छत की सीढ़ियों की ओर बार-बार उठ रही थीं।
फिर जैसे ही राहुल नीचे उतरा,
शालू ने उसे आवाज़ दी:
“राहुल बेटा, ज़रा इधर आओ।”
राहुल ने मुस्कुराकर सिर हिलाया,
पर शालू की मुस्कान गायब थी।
उसके बैठते ही माँ ने सीधा सवाल नहीं पूछा।
बस उसकी आँखों में देखा,
और धीरे से बोलीं:
“तुम्हारे घर में भी बहन है ना?”
राहुल थोड़ा चौंका।
“जी… है।”
“तो मान के चलो, कि मैं भी एक माँ हूँ…
जिसकी बेटी है।
और मैं सब कुछ ना देखकर भी बहुत कुछ देख लेती हूँ।”
राहुल अब थोड़ा गम्भीर हो गया।
माँ ने रुककर कहा:
“कल जब तुम कमरे से बाहर आए थे नेहा के साथ…
और फिर बाद में मुझे एक चीज़ मिली वहाँ,
जो वहाँ होनी नहीं चाहिए थी —
तब मुझे दो बातें साफ़ समझ में आ गईं।”
**“एक — तुमने मेरी बेटी की मासूमियत को छुआ है।”
“और दो — अब मैं तुम्हारे इरादे समझने जा रही हूँ।”
बरामदे के कोने में दोनों बैठे थे।
राहुल कुछ समझ नहीं पा रहा था —
शालू आंटी के चेहरे पर ना गुस्सा था, ना ममता… सिर्फ़ एक सख्त, पढ़ लेने वाली नज़र।
“राहुल… मुझे लगता है, तुम बहुत समझदार हो।
लेकिन कुछ बातें… आँखों से नहीं, हाथ से दिखानी पड़ती हैं।”
उन्होंने धीरे से पीछे देखा —
घर का पिछला हिस्सा सुनसान था।
फिर अपनी साड़ी के पल्लू को हल्का सा उठाया…
और उसकी तह में से नेहा की वही गुलाबी पैंटी बाहर निकाली —
साफ़ तह की हुई।
राहुल की साँस अटक गई।
"ये चीज़ मैंने कल कमरे में देखी थी।
मेरी बेटी के कमरे में, मेरे ही बिस्तर पर।
और वो भी उस दिन… जब तुम दोनों वहाँ अकेले थे।”
शालू अब उसके सामने पूरी तरह एक माँ की तरह खड़ी थीं,
ना डर, ना झिझक — सिर्फ़ एक माँ का साफ़ सवाल।
“अब बताओ —
क्या ये मेरी बेटी की ग़लती थी?
या ये तुम दोनों की मर्ज़ी थी?
या सिर्फ़ तुम्हारा खेल?”
राहुल के माथे पर पसीना आ गया।
उसने काँपती आवाज़ में कहा:
“मामी… माफ़ कीजिए,
मुझे ये सब बताना चाहिए था…
लेकिन मैं डर गया था।”
“नेहा ने कुछ भी जबरदस्ती नहीं किया,
ना मैंने… लेकिन जो हुआ, वो शायद नहीं होना चाहिए था।
पर मैं सिर्फ़ उसके साथ खेल नहीं रहा…”
"मैं… उसे चाहता हूँ।”
राहुल सिर झुकाए बैठा था।
शालू उसकी तरफ़ देख रही थीं — लेकिन उनकी नज़र में अब सिर्फ़ नाराज़गी नहीं थी।
अब वहाँ एक माँ का वो गुस्सा था जो तब आता है, जब बेटी की आत्मा को ठेस पहुँचती है।
उन्होंने धीरे से, पर ठोस आवाज़ में कहा:
“शहर में रहकर क्या इतना बदल गया है तुम्हारे अंदर, राहुल?”
“रिश्ते अब तुम्हारे लिए बस ‘मौका’ रह गए हैं?”
राहुल कुछ कहने ही वाला था कि शालू ने हाथ उठाकर रोक दिया।
"मैंने ये बात न तुम्हारी माँ से कही, न तुम्हारे मामा से।
क्योंकि मुझे अब भी उम्मीद है —
कि जो लड़का मेरी बेटी के करीब गया है,
उसमें इंसानियत बाकी है।”
“तुम्हारी भी एक बहन है, ना?”
“प्रिय्या…”
राहुल ने धीरे से सिर हिलाया।
शालू की आँखों में अब आँसू थे —
लेकिन आवाज़ अब भी फौलादी:
“कल को अगर किसी लड़के के हाथ में उसकी… कपड़े हों —
और वो हँसे, छुपाए, या उसे गलत नज़र से देखे —
तो बताओ राहुल, तुम्हारे सीने में क्या गुज़रेगा?”
राहुल की आँखें नीचे झुक गईं।
"नेहा, मेरी बेटी है — लेकिन उससे पहले वो भी एक बहन थी, एक इंसान थी।
उसे छूने से पहले तुमने एक बार भी उसकी इज़्ज़त की सोच की थी?”
“कपड़े सिर्फ़ शरीर नहीं ढँकते,
कई बार एक माँ की नींद, एक लड़की की गरिमा, और एक परिवार की मर्यादा भी उन्हीं धागों में बंधी होती है।”
अब शालू थोड़ा रुकीं, गहरी साँस लीं…
फिर शांत होकर बोलीं:
“गलतियाँ सभी करते हैं…
लेकिन हर कोई मर्द नहीं बनता —
जो अपनी ग़लती को समझकर उसे सही करे।”
“अब फैसला तुम्हारा है —
राहुल अब भी सिर झुकाए बैठा था।
शालू की आँखों में बहुत कुछ था —
गुज़रा हुआ विश्वास, हिल चुकी उम्मीद,
लेकिन सबसे ऊपर… एक माँ की कोमलता।
वो कुछ देर चुप रहीं।
फिर राहुल की तरफ़ देखा,
और बेहद धीमे स्वर में बोलीं:
"मैं जानती हूँ, राहुल…
तुम कोई बुरा लड़का नहीं हो।
बस… कुछ पल ऐसे आ जाते हैं ज़िंदगी में
जहाँ इंसान से गलती हो जाती है।”
“मुझे तुमसे गुस्सा है…
क्योंकि तुमने मेरी बेटी को उस मोड़ पर ले जाया,
जहाँ कोई माँ अपनी संतान को नहीं देखना चाहती।”
“लेकिन मैंने तुम्हारी आँखों में डर नहीं…
पछतावा देखा है।”
वो उठीं।
साड़ी को ठीक किया।
और बहुत शांत आवाज़ में बोलीं:
"इसलिए —
मैं तुम्हें एक बच्चा मानकर माफ़ कर रही हूँ।
लेकिन अगली बार अगर तुमने मेरी बेटी को सिर्फ़ पास आने लायक समझा,
साथ निभाने लायक नहीं…
तो मैं फिर माँ नहीं बनूँगी,
सिर्फ़ एक औरत बनकर जवाब दूँगी।”
वो मुड़ीं, दो क़दम चलीं…
फिर रुकीं और एक आखिरी बात कह गईं:
शालू धीरे से दो कदम चलीं,
फिर रुककर पीछे मुड़ीं —
राहुल अभी भी अपनी जगह जड़ था।
उनके हाथ में कुछ था —
वही गुलाबी पैंटी,
जो उन्होंने उस दिन कमरे से चुपचाप उठाई थी।
उन्होंने उसे राहुल की ओर बढ़ाया —
आवाज़ बहुत हल्की थी, लेकिन हर शब्द सटीक:
"इसे ले लो…"
राहुल ने काँपते हाथों से लिया, कुछ बोलना चाहा —
लेकिन शालू ने उसे रोका:
"कुछ मत कहो।
बस सुनो।”
"ये नेहा की है —
और उसे नहीं पता कि ये मुझे मिली थी।
उसे पता भी नहीं चलना चाहिए।”
“मैं नहीं चाहती कि मेरी बेटी को ये महसूस हो
कि उसकी माँ ने उसे उस नज़रों से देखा…
जिससे एक लड़की टूट जाती है।”
"वो मुझसे अब भी हँसकर बात करती है —
और मैं चाहती हूँ कि उसकी वो मासूम हँसी,
बची रहे।”
राहुल की आँखें भीगने लगीं।
शालू ने आँखें उसकी ओर नहीं,
बस ज़मीन की ओर टिकाईं —
जैसे अपने ही शब्दों से बच रही हों।
“मैंने तुम्हें माफ़ किया, क्योंकि मैं माँ हूँ —
लेकिन ये मत भूलना…
माफ़ी भरोसे की तरह होती है —
एक बार टूटे तो आवाज़ नहीं आती,
लेकिन दोबारा जोड़ने पर दरारें हमेशा दिखती हैं।”
फिर वो चुप हो गईं।
“नेहा से जाकर कह देना —
कि उसे वो चीज़ उसी कमरे से मिल गई,
उसी वक़्त, बस उसे ध्यान नहीं रहा।”
“और तुम…
अपने अंदर का आदमी अब जगा दो,
लड़का बहुत देख चुकी हूँ।”
शालू चली गईं —
धीरे-धीरे… लेकिन जैसे एक बड़ी आग को ठंडी राख में बदलकर।
रात के वक़्त, सब छत पर बैठे थे।
राहुल धीरे से उठा, और नेहा को इशारे से नीचे बुलाया।
नेहा थोड़ी झिझकी, लेकिन उसका चेहरा अब थोड़ा हल्का था —
जैसे कोई बड़ी आफ़त टल गई हो।
नीचे बरामदे में — चुपचाप…
राहुल ने चुपचाप जेब से कुछ निकाला।
वही पैंटी।
नेहा की आँखें चौड़ी हो गईं।
“मिली कहाँ?” उसने जल्दी से पूछा।
राहुल ने हल्के से मुस्कराकर कहा:
“कमरे में… कोने में ही थी शायद,
तुमने ध्यान नहीं दिया।”
नेहा ने राहत की साँस ली।
“थैंक गॉड… मम्मी को कुछ नहीं पता ना?”
राहुल कुछ देर चुप रहा।
फिर बोला:
“नहीं… कुछ नहीं पता…”
(पर उसकी आँखों ने कुछ और कहा)
नेहा चली गई, पैंटी को लेकर तेज़ी से ऊपर।
लेकिन राहुल वहीं रुका रहा… अंधेरे में, अकेला।
उसकी आँखों में शालू की छवि थी —
साड़ी की तह से चुपचाप पैंटी निकालती,
आँखों में ग़ुस्सा नहीं,
बल्कि एक ऐसा भाव…
जो माँ से ज़्यादा एक स्त्री की जागरूकता लिए हुए था।
उसकी आवाज़ गूँजी:
> “अगर दोबारा सिर्फ़ पास आने लायक समझा, साथ निभाने लायक नहीं… तो मैं माँ नहीं, सिर्फ़ औरत बनकर जवाब दूँगी।”
राहुल को कुछ समझ नहीं आ रहा था —
क्यों वो पल उसके भीतर से निकल ही नहीं रहा…
क्या ये डर था?
या सम्मान?
या कुछ और… जो वो खुद नहीं समझ पा रहा था?
part 2 गाँव की गर्म रात।
सब लोग छत पर अपनी-अपनी जगह पर चादरें बिछाए लेटे थे।
हल्की हवा बह रही थी… पंखे नहीं थे, लेकिन आसमान खुला था।
राहुल, नेहा, प्रिय्या — सब छत के एक किनारे।
दादी दीवार की ओर, और कुछ दूरी पर एक और चादर बिछी थी…
शालू भी आज ऊपर ही सोने आई थीं।
नेहा चौंकी थी, लेकिन कुछ बोली नहीं।
“गर्मी बहुत थी नीचे,” शालू ने हल्के से कहा —
जैसे खुद को ही यक़ीन दिला रही हों।
राहुल ने भी नज़रें नहीं उठाईं, लेकिन उसे उस चुप चादर की आहट ज़रूर महसूस हो रही थी।
कुछ देर तक सब सोने का बहाना करते रहे।
पर किसी की नींद नहीं आई थी…
छत पर चुपचाप लेटे हुए,
राहुल की आँखें खुली थीं — लेकिन वो आसमान नहीं, यादें देख रहा था।
शालू की आवाज़,
उसके हाथ से पैंटी देना,
वो निगाह जो माँ से ज़्यादा जानती-सी लगी…
“मैं फिर माँ नहीं बनूँगी…
सिर्फ़ औरत बनकर जवाब दूँगी…”
राहुल ने धीरे से करवट बदली —
लेकिन सामने ही कुछ दूर,
चादर के भीतर से एक हल्की आहट आई।
शालू ने भी शायद करवट बदली थी।
एक पल को दोनों की निगाहें मिलीं —
अँधेरे में… चुपचाप… बिना आवाज़ के।
कोई बात नहीं हुई —
लेकिन जो नहीं कहा गया,
वही सबसे बड़ा कह दिया गया।
राहुल की साँसें थोड़ी तेज़ थीं।
शालू की पलकों में अब भी वही सख़्त नरमी थी —
जैसे माँ होने और औरत होने के बीच की रेखा पर चल रही हों।
छत पर सब सोने की तैयारी में थे।
नेहा ने चादर सिर तक खींच ली थी —
उसका मन आज विचलित था।
माँ की उपस्थिति ने उसे संभाल दिया था,
लेकिन उस संभाल के साथ एक भीतर की दूरी भी आ गई थी।
राहुल की तरफ़ देखा तक नहीं उसने…
धीरे-धीरे उसकी साँसें भारी हुईं…
आँखें बंद… और वो सो गई।
लेकिन छत पर हर कोई नहीं सोया था।
राहुल…
आँखें खुली थीं उसकी,
मन जागता हुआ।
वो करवट लेता, फिर सीधा होता,
उसका दिल भारी था।
ना नेहा की कोई बात हुई,
ना उसकी झलक।
और फिर…
कुछ कदमों की धीमी-सी आवाज़।
हल्का सरकता हुआ पाँव…
किसी की चप्पल की आहट नहीं थी —
बस, चादर सरकने की धीमी सी खरखराहट।
राहुल की साँस रुक गई।
उसने देखा —
शालू उठी थीं।
धीरे से वो पानी की बोतल उठाकर बैठ गईं,
लेकिन उनकी नज़र एक पल के लिए ठीक राहुल पर पड़ी।
अँधेरे में,
जैसे दो साए एक-दूसरे को पहचानते हों —
लेकिन कुछ कहे बिना लौट जाते हों।
शालू ने कुछ नहीं कहा।
बस उठीं… और वहीं थोड़ी दूरी पर आकर फिर लेट गईं।
लेकिन अब तक,
छत पर सिर्फ़ हवा नहीं बह रही थी…
कुछ असहज, अनकहा भी तैर रहा था।
छत पर चारों तरफ़ सन्नाटा पसरा था।
तारे चुप थे… हवा शांत।
राहुल सो रहा था — करवट के बल, हल्के खर्राटों के साथ।
उसके माथे पर पसीने की कुछ बूँदें थीं —
गाँव की गर्मी का असर।
और तभी…
एक छाया धीरे-धीरे उसके पास आई —
बिलकुल चुपचाप।
चप्पल नहीं, आहट नहीं —
सिर्फ़ एक साड़ी की सरसराहट।
वो झुकी…
और बहुत हल्के हाथ से राहुल के माथे से पसीना पोंछने लगी।
पहले ऊँगली से — फिर धीरे-से हथेली से।
राहुल गहरी नींद में था,
लेकिन छुअन का एहसास धीरे-धीरे उसके भीतर उतरने लगा।
थोड़ी देर बाद, उसकी आँखें खुलीं…
और जैसे ही सामने देखा — वो चौंक गया।
“मामी…?”
उसने फुसफुसाते हुए कहा —
थोड़ा डर, थोड़ा संकोच।
शालू की आँखें थोड़ी चमक रही थीं…
लेकिन चेहरा शांत था।
"नींद में थे… माथा बहुत गर्म था बेटा।
बस ऐसे ही…"
(उसकी आवाज़ धीमी थी, पर कुछ तो था उसमें जो माँ जैसा नहीं लगा।)
राहुल अब पूरी तरह जाग चुका था।
उसने चादर थोड़ी खींची, खुद को समेटा।
शालू बस एक पल देखती रही — फिर सीधी हुई।
"सो जाओ… बहुत कुछ सोचने की ज़रूरत नहीं।
मैं तो माँ हूँ न।”
"आज मैंने तुम्हें बहुत डाँटा..."
वो थोड़ी देर चुप रहीं।
फिर खुद से बोलीं जैसे —
"शायद लहज़ा ज़्यादा सख़्त था... शायद डर ज़्यादा दिखा, प्यार कम।"
फिर राहुल की ओर देखा —
आँखों में अब ग़ुस्सा नहीं था,
बस एक थकी हुई ममता थी।
"मैं माँ हूँ, राहुल...
लेकिन उससे पहले मैं भी एक इंसान हूँ।
ग़लतियाँ मुझसे भी होती हैं..."
"तुमसे जो कहा — वो डर से कहा था,
पर जो नहीं कहा...
वो मेरी चिंता थी।"
राहुल कुछ नहीं बोला।
बस उसकी आँखें नम हो गईं।
शालू ने हल्के से उसका माथा छुआ —
इस बार डाँटने वाली माँ की तरह नहीं,
बल्कि माफ़ी माँगती और प्यार बाँटती इंसान की तरह।
"मुझे माफ़ कर सको तो करना..."
वो उठीं, वापस अपनी चादर पर चली गईं।
पर उस रात, राहुल की आँखें देर तक नहीं झपकीं…
शालू के चले जाने के कुछ देर बाद —
राहुल अपनी चादर से उठ बैठा।
उसका दिल भारी था,
मन उलझा हुआ…
वो धीरे से उठा,
और बिना आवाज़ किए छत के कोने में, दीवार पर जाकर बैठ गया।
रात का एक ठहरा हुआ पल —
जहाँ सिर्फ़ तारों की रोशनी थी और सोचों का शोर।
उसने छत के उस पार देखा —
दूर अंधेरे में गाँव की बत्तियाँ बुझी थीं,
पर उसके मन का उजाला और अँधेरा —
दोनों जाग रहे थे।
"मैंने क्या किया…?"
उसने खुद से पूछा।
"नेहा…?
और मामी…?
कहीं मैंने किसी की नज़रों में खुद को खो तो नहीं दिया…?"
हवा चल रही थी —
धीमी, गुनगुनाहट-सी…
पर राहुल के भीतर आँधी थी।
उसने सिर दोनों घुटनों पर रख लिया,
और आँखें बंद कर लीं।
उसे अब सबसे ज़्यादा डर खुद से लग रहा था।
part 3 रात गहरी थी, पर नींद कहीं नहीं थी।
राहुल अब भी छत की मुंडेर पर बैठा था —
नीचे झाँकता हुआ, जैसे अपने भीतर झाँक रहा हो।
पीछे से हल्की-सी चप्पल की आहट आई।
शालू।
धीरे-धीरे चलती हुई, वो उसके पास आई —
थोड़ी दूरी पर बैठ गईं।
"नींद नहीं आ रही?"
शालू ने धीमे से पूछा।
राहुल ने सिर हिलाया —
"नहीं मामी… बहुत कुछ सोच रहा हूँ।"
शालू चुप रहीं।
फिर एक लम्बी साँस लेते हुए बोलीं:
"मुझे भी नहीं आ रही… शायद इसलिए क्योंकि जो बात कहनी थी, वो कह नहीं पाई… और जो नहीं कहनी थी, वो दिल में ठहर गई।"
राहुल उसकी तरफ़ देखने लगा —
उनकी आँखों में आज माँ जैसी कोमलता भी थी, और एक थकी हुई औरत की सच्चाई भी।
"कभी-कभी रिश्तों की पहचान वक़्त से नहीं, एक पल से होती है," शालू ने कहा,
"और कभी एक ग़लत पल सबकुछ बदल भी देता है।"
वो थोड़ी देर चुप रहीं।
"मैं तुम्हारी मामी हूँ, राहुल… पर एक औरत भी हूँ, जिसकी अपनी भावनाएँ हैं, अपनी कमज़ोरियाँ…"
फिर उन्होंने अपनी नज़रें मोड़ लीं।
"मैंने तुम्हें डाँटा, माफ़ किया… पर मैं खुद को माफ़ नहीं कर पाई।"
राहुल कुछ बोलना चाहता था, लेकिन शब्द नहीं मिले।
शालू उठीं।छत पर हवा थोड़ी ठंडी हो चली थी।
शालू, राहुल के पास बैठीं थीं — अब चुप्पी थोड़ा खुलने लगी थी।
एक लंबा मौन तोड़ते हुए उन्होंने कहा:
"राहुल… क्या कभी तुमने किसी औरत की चुप्पी सुनी है?"
राहुल चुप रहा।
शालू ने आसमान की तरफ़ देखा —
तारे भी जैसे थम से गए।
"कभी-कभी औरतें बहुत कुछ नहीं कहतीं,
क्योंकि उन्हें आदत होती है सब सहने की…
क्योंकि उन्हें कोई सुनने वाला नहीं मिलता।"
थोड़ी देर के बाद उन्होंने धीरे से कहा:
"तुम्हारी मामी होने के साथ-साथ मैं एक औरत भी हूँ…
और एक औरत जिसने कभी… मर्द का वो प्यार नहीं पाया जो सिर्फ़ शरीर नहीं, मन को भी छू जाए।"
"तुम्हारे मामा… एक सीधे-सादे इंसान हैं।
अच्छे हैं… पर कभी मेरी आँखों में नहीं देख पाए…
कभी ये नहीं पूछा कि मैं ठीक हूँ या सिर्फ़ निभा रही हूँ।”
शालू की आवाज़ नहीं काँप रही थी,
पर उसमें एक ठहर गया दर्द था।
राहुल कुछ कहना चाहता था,
पर उस वक्त शब्द छोटा और मौन भारी हो गया।
शालू ने नज़रें नीची कीं,
"कभी-कभी इंसान को इतना खाली छोड़ दिया जाता है… कि वो सिर्फ़ रिश्ते निभाता है, जीता नहीं।"
वो उठीं।
"मैं ये सब तुमसे इसलिए कह रही हूँ, क्योंकि तुम समझ सकते हो —
शायद इसलिए नहीं कि तुम जवाब दो… बस इसलिए कि कोई सुन ले।"शालू उठकर मुंडेर की ओर चली गईं।
राहुल अब भी चुप था।
उसके भीतर कुछ बदल रहा था —
किसी रिश्ते की परिभाषा, किसी भाव की समझ।
शालू अब मुंडेर से दूर आसमान की ओर देख रही थीं।
पीठ राहुल की तरफ़, पर मन... शायद उसके ही पास।
राहुल ने धीरे से आवाज़ दी —
"मामी…"
शालू पलटीं।
"आप ठीक हैं?"
शालू के चेहरे पर एक क्षण के लिए मुस्कान तैर गई —
थकी हुई, पर सच्ची।
"नहीं हूँ… लेकिन तुमसे कहकर थोड़ी हल्की हो गई हूँ।"
वो फिर बैठ गईं — इस बार थोड़ा और पास।
"राहुल, तुम्हें ये सब बताना शायद ग़लत हो सकता है…
पर मेरी ज़िंदगी में कोई और ऐसा नहीं जिससे मैं ये कह पाती।"
राहुल ने उनकी ओर देखा।
"आपकी बातों से डर नहीं लगा मामी…
बल्कि एक सवाल उठा —
क्या हम वाकई अपनों से इतनी दूर हो सकते हैं… कि उन्हें कुछ कहने के लिए कोई बाहर का सहारा लेना पड़े?"
शालू की आँखें नम हो गईं।
"हम औरतें सबकी होती हैं… बस खुद की नहीं होतीं।"
कुछ देर दोनों चुप रहे।
फिर राहुल ने धीरे से कहा:
"मैं आपकी बातें कभी किसी से नहीं कहूँगा…
पर अगर कभी फिर कुछ सुनना चाहें… तो कहिएगा ज़रूर।"
शालू ने उसका हाथ पकड़ा —
बस एक पल के लिए।
ना कोई गलत इरादा, ना कोई आग्रह…
बस एक मानवीय जुड़ाव — दो अकेलेपन के बीच।
फिर उन्होंने हाथ पीछे खींच लिया और बोलीं:
"चलो… बहुत रात हो गई है। अब सो जाएँ।"
और
कुछ देर की चुप्पी के बाद
राहुल ने शालू को थोड़ा मुस्कुराते हुए देखा।
फिर, हवा में थोड़ा नटखटपन घोलते हुए बोला:
"वैसे मामी… एक बात तो समझ में नहीं आई..."
शालू ने हल्के से पूछा,
"क्या?"
"अगर मामा जी इतने सीधे-सादे हैं, प्यार-व्यार जताते नहीं…
तो फिर आप दो-दो बच्चों की मम्मी कैसे बन गईं?"
?
शालू पहले तो चौक गईं —
फिर उनकी आँखों में गुस्सा नहीं, हँसी थी।
"तेरी तो…! बद्तमीज़!"
उन्होंने पास पड़े तकिए से राहुल को हल्के से मारा।
"बातों-बातों में क्या-क्या सोचता है तू!"
राहुल अब खुलकर हँस रहा था।
"अरे मामी, अब आप इतना दिल खोलकर बात कर रही थीं,
तो सोचा थोड़ा माहौल हल्का कर दूँ।"
शालू भी मुस्कुरा पड़ीं।
"चलो… तू बड़ा हो गया है, पर अभी भी बच्चों जैसी बातें करता है।"
फिर थोड़ी देर बाद, शालू ने भी उसी लहज़े में मज़ाक किया:
"और सुनो भांजे राजा… एक दिन जब तू शादी करेगा,
और बीवी तुझसे कहेगी — 'तुम प्यार नहीं करते'…
तो ये सवाल खुद से पूछना मत भूलना!"
अब दोनों मुस्कुरा रहे थे —
छत की उस रात में, तारे थोड़े और पास लग रहे थे।
राहुल ने मज़ाक के साथ हल्के अंदाज़ में कहा:
"अच्छा मामी, फिर शादी के बाद नेहा से ही पूछूँगा ये सवाल…
क्योंकि शादी तो मैं उसी से करने वाला हूँ।"
उसका चेहरा मुस्कराहट से भरा था —
बिलकुल मासूम, लेकिन सच्चा।
शालू उसे एक पल देखती रहीं।
और फिर… उनके होंठों पर भी मुस्कान आ गई।
बहुत हल्की, लेकिन उसमें वो सारी थकावट थी जो सालों से उन्होंने छुपा रखी थी।
उस मुस्कान में कोई ताना नहीं था,
कोई दर्द भी नहीं —
बस एक माँ खो गई थी उस पल में…
कहीं उस उम्मीद में कि शायद उसकी बेटी को वो मिल जाए, जो उसे कभी नहीं मिला।
शालू ने कुछ नहीं कहा।
बस उठीं…
राहुल के सिर पर हल्के से हाथ फेरा,
और धीरे से बोलीं:
"तो फिर अब सो जा…
कल सुबह जब मेरी बेटी की आँख खुले,
तो उसे लगे — वो किसी के प्यार की नहीं,
किसी के इज़्ज़त की हक़दार है।”
और वो लौट
राहुल की बात पर शालू मुस्कुराई तो थी…
लेकिन कुछ सेकंड बाद, वो मुस्कान थोड़ी फीकी पड़ गई।
वो ठिठकी… फिर धीमे से बोली:
"अच्छा… वो तो तुम्हारी बहन भी है ना — मेरी बेटी..."
राहुल
राहुल शालू की आँखों में देख रहा था —
वो आँखें जिनमें अभी-अभी माँ की झलक थी…
पर अब वो उसमें कुछ और ढूँढ रहा था।
धीरे से बोला:
"मामी… नहीं — अब तो मुझे आपको मम्मीजी कहने का हक़ है।
क्योंकि नेहा अब मेरी बहन नहीं… मेरी पत्नी है।
और मुझे सबसे प्यारी सास भी मिल गई है…"
उसके चेहरे पर कोई शरारत नहीं थी —
बस एक सच्चा विश्वास, एक अंदर से निकली रोशनी।
शालू उसे देखती रहीं।
कई भाव उनके चेहरे पर आए —
हैरानी, उलझन, डर, और फिर… एक नमी।
उनके पास कोई शब्द नहीं थे।
वो कुछ बोलना चाहती थीं… लेकिन गले से आवाज़ नहीं निकली।
बस अपने आँचल से आँखें पोंछीं,
फिर धीरे से राहुल का हाथ थामा —
बहुत हल्के से, पर पूरी माँ की ताक़त के साथ।
और कहा:
"तो फिर… अब जो भी हो,
सिर्फ़ प्यार नहीं, भरोसा भी निभाना पड़ेगा… बेटा।”
राहुल ने सिर झुका लिया —
"आपके आशीर्वाद के बिना तो ये रिश्ता अधूरा है, मम्मीजी…"
शालू के आशीर्वाद वाले शब्द सुनकर राहुल ने थोड़ा मुस्कुराते हुए हाथ जोड़ लिए।
और फिर हल्के नटखट अंदाज़ में बोला:
"तो फिर मम्मीजी, आशीर्वाद दीजिए…
कभी बीवी प्यार न करे,
तो सास ही थोड़ा-बहुत प्यार दे दे!"
?
शालू एक पल को ठिठकीं।
उनके चेहरे पर पहले हँसी आई… फिर चुप्पी।
उनकी आँखों में जैसे कुछ चमका —
कोई याद? कोई भाव?
या शायद… एक अनकहा सवाल।
उन्होंने कुछ नहीं कहा,
बस हल्के से राहुल की ओर देखा —
न डाँट, न हँसी — बस एक गहराई।
राहुल ने धीरे से पूछा:
"क्या सोच रही हैं मम्मीजी?"
शालू मुस्कुराईं।
फिर बोलीं:
"सोच रही हूँ… कि अब मैं तुझे भांजा नहीं कह सकती!"
राहुल हँस पड़ा।
"क्यों? अब क्या बन गया मैं?"
शालू ने ज़रा झुककर, हल्के से आँखों में देखते हुए कहा:
"अब तू मेरा दामाद है… और मैं तेरी सास!"
"और तेरी माँ? जो मेरी ननद है — वो अब मेरी समधन!"
(और कह कर खुद ही हँसने लगीं)
राहुल ने भी हँसते हुए हाथ जोड़े:
"तो फिर मम्मीजी, आशीर्वाद दो… वरना समधन नाराज़ हो जाएँगी!"
शालू ने प्यार से उसके माथे पर हल्की चपत मारी:
"चल हट… बातों का बादशाह बन गया है।"
फिर कुछ देर चुप रहीं,
और धीमे से बोलीं:
हवा अब ठंडी चलने लगी थी।
शालू और राहुल अब थोड़े सहज हो चुके थे।
मूड हल्का था… कुछ सन्नाटा, कुछ मुस्कुराहटें।
शालू ने चुप्पी तोड़ी और मुस्कुराते हुए कहा:
"राहुल, एक बात पूछूँ… बिना नाराज़ हुए जवाब देगा?"
राहुल हँस पड़ा, "अब मामी, आप भी डराकर पूछेंगी तो सोचूंगा ज़रूर!"
शालू ने थोड़ी नज़दीक होकर हल्के से आँखें मटकाईं और बोली:
"ये जो तुम्हारे पापा हैं — जो मेरी ननद यानी तुम्हारी मम्मी के पति हैं —
वो प्यार करते हैं न अपनी पत्नी से, या बस निभा रहे हैं?"
राहुल ने थोड़ा चौंकते हुए देखा, फिर मुस्कुराया।
छत पर चाँदनी बिखरी थी — नर्म, चुप, और धीमे-धीमे जलती हुई… ठीक वैसे ही जैसे उनके भीतर कुछ सुलग रहा था।
शालू की उँगलियाँ जब राहुल की हथेलियों में ढीली पड़ीं, तो वो सिर्फ़ थकान नहीं थी — वो एक इशारा था… एक मौन स्वीकृति, कि अब वो पास आने दे रही है।
राहुल ने उसकी ओर देखा — उसकी आँखों में सवाल नहीं, अब प्यास थी।
ऐसी प्यास जो देह से नहीं, उस स्पर्श से बुझती है जिसमें सैकड़ों अधूरे पल छुपे हों।
चाँदनी अब और भी सफेद लग रही थी, पर उनके बीच का स्पर्श धीरे-धीरे गहरा होता जा रहा था —
कपड़ों के पार, साँसों के आर-पार।
वासना वहाँ शब्द नहीं मांग रही थी,
बस मौजूद थी —
धीमी, धड़कनों के बीच छिपी हुई,
जैसे किसी अनकहे गीत की आखिरी सरगम।
मामी," राहुल की आवाज़ काँप रही थी,
"मुझे आपकी बेटी से प्यार है… ये आप जानती हैं।
लेकिन आज… न जाने क्यों… आपसे कुछ ऐसा महसूस हुआ… जो मैं खुद से भी छिपा नहीं पाया।"
वो चुप हो गया।
मामी की आँखें उसकी ओर उठीं — उनमें न तो ग़ुस्सा था, न ही कोई साफ़ जवाब।
बस एक लम्बा सन्नाटा था…
जिसमें दोनों ने शायद कुछ खोया भी, और खुद को थोड़ा समझा भी।