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Misc. Erotica संग वो गर्मी की शाम
#3
नेहा की बात सुनकर राहुल कुछ देर खामोश खड़ा रहा।
फिर उसने एक लंबी साँस ली… और धीरे-धीरे उसके करीब आया।

"नेहा…" — उसकी आवाज़ काँप रही थी,
"अगर तूने मुझे राखी बाँधी थी… तो उसमें एक मासूम रिश्ता था —
जो वक्त के साथ बड़ा नहीं हुआ, बस वहीं ठहर गया…"

"पर मैं ठहरा नहीं नेहा।
मैं बड़ा हुआ, मेरी भावनाएं बदलीं… और तुझसे सिर्फ़ बहन जैसा रिश्ता नहीं रहा।
मैंने तुझमें वो सब देखा… जो एक इंसान को पूरा कर देता है।"

उसने नेहा का हाथ थामा — धीरे, सहेजकर।
"तू मेरी आदत बन गई है… मेरी ज़रूरत।
क्या उस प्यार को सिर्फ़ एक 'राखी' की रस्म में बाँध देना इंसाफ़ होगा?"

नेहा की आँखों में आँसू थे —
राहुल की बातों ने उसके दिल की उस जगह को छुआ,
जहाँ तर्क और परंपराएं जवाब नहीं दे पातीं।

"मैं जानता हूँ ये आसान नहीं है…" — राहुल आगे बोला,
"लोग सवाल करेंगे, समाज शक करेगा —
पर मेरा प्यार… कोई रस्म नहीं, कोई मजबूरी नहीं…
ये मेरी रूह का फैसला है।"

"मैं तुझसे ज़बरदस्ती नहीं करूँगा…
लेकिन इतना ज़रूर कहूँगा —
अगर तू अपने दिल की सुने…
तो वो कहेगा कि मैं तुझसे सच्चा प्यार करता हूँ।"

नेहा की उंगलियाँ अब राहुल की हथेली में भींच गईं —
धीरे-धीरे, बेआवाज़ इजाज़त सी देती हुईं।

उसने कांपते हुए कहा —
"तो फिर… इस रिश्ते को वो नाम दे जो सब कुछ बदल दे…
ताकि मैं सिर्फ़ तेरी महबूबा नहीं…
तेरी होने में भी कोई शर्म न बचे…"

राहुल ने उसकी आँखों में देखा —
"मैं तुझे उस जगह रखूँगा… जहाँ कोई और सोच भी न सके।
ना बहन, ना दोस्त —
ब्लैक सूट में नेहा सच में एक दम सजीव सपना लग रही थी —
उसका बदन धीमी साँसों के साथ ऊपर-नीचे हो रहा था,
जैसे हर धड़कन अब ज़रा ज़्यादा गहरी हो गई हो।

राहुल की नज़रें वहीं अटकी थीं —
नेहा का सीना, जो हर साँस के साथ काँप रहा था,
ना सिर्फ़ उसकी घबराहट बयान कर रहा था, बल्कि वो चाह भी जिसे वो छुपा नहीं पा रही थी।

उसके सूट का कपड़ा हल्के से उसके बदन से चिपका हुआ था,
और हर थरथराहट जैसे किसी अनकहे एहसास की गवाही दे रही थी।

नेहा ने कोशिश की खुद को संभालने की,
लेकिन उसकी नज़रें अब राहुल की आँखों से टकरा चुकी थीं —
वहाँ कोई लज्जा नहीं बची थी… सिर्फ़ एक स्वीकृति।

सिर्फ़ मेरी जीवनसाथी…"
नेहा की साँसें अब भी बेकाबू थीं —
उसके चेहरे पर झिझक और इरादे की एक साथ लकीरें थीं।

राहुल कुछ कहने ही वाला था कि नेहा ने धीरे से उसका हाथ थामा।
ना बहुत कसकर, ना बहुत हल्के से —
बस इतना कि राहुल समझ सके, अब फैसला हो चुका है।

उसने एक नज़र राहुल की आँखों में डाली —
गहरी, डूबती हुई। फिर बिना कुछ कहे…
उसे धीरे-धीरे अपने कमरे की ओर ले गई।

कमरे में हल्की रौशनी थी, खिड़की के परदे हिल रहे थे,
और भीतर एक अलग ही सन्नाटा था —
जैसे सबकुछ कुछ कहने से पहले थम गया हो।

नेहा ने राहुल को सामने खड़ा किया,
एक पल उसे देखा… फिर अचानक —
हल्के से धक्का दिया और उसे अपने बिस्तर पर गिरा दिया।

राहुल हैरान था, लेकिन कुछ बोल नहीं पाया —
क्योंकि नेहा की आँखों में अब झिझक नहीं थी,
बस एक साफ़ सी लपट —
जो कह रही थी: "अब मैं सोचकर नहीं… महसूस करके जी रही हूँ।"

नेहा धीरे से आगे बढ़ी,
और राहुल के पास बैठते हुए फुसफुसाई —
"आज सिर्फ़ तेरे पास आना चाहती हूँ… किसी नाम, किसी रिश्ते के बिना…"

नेहा धीरे-धीरे राहुल के पास झुकी — उसकी साँसें अब थमी नहीं थीं,
बल्कि हर लम्हा उसके भीतर कुछ कहने लगी थीं।

वो उसके ऊपर लेट गई, लेकिन उस पल में कोई जल्दबाज़ी नहीं थी —
बस एक चाह थी, जो अब इंतज़ार नहीं करना चाहती थी।

नेहा ने राहुल के चेहरे को अपने हाथों में लिया,
और उसके होंठों को बहुत ही नर्मी से चूम लिया —
जैसे कोई एहसास बिना शब्दों के कह दिया हो।

राहुल की आँखें बंद थीं —
उस चुम्बन में कोई भूख नहीं, बस सुकून था।
एक भरोसा… कि अब जो भी हो, वो दोनों साथ में महसूस करेंगे।

चुम्बन लंबा नहीं था — लेकिन गहरा था।
जैसे दो रूहें थोड़ी देर के लिए एक-दूसरे में घुल गई हों।

नेहा ने फुसफुसाकर कहा:
"अब मैं रुक नहीं सकती… और तुझसे दूर नहीं रह सकती…"

राहुल ने उसकी उंगलियाँ थाम लीं, और मुस्कुरा कर कहा:
"मैं भी नहीं… अब तू जहाँ है, वहीं मेरी दुनिया है।"
नेहा की उँगलियाँ काँप रही थीं —
ना डर से, ना शर्म से…
बल्कि उस एहसास से जो पहली बार किसी को इस क़रीब महसूस कर रही थीं।

उसने धीरे से राहुल की तरफ देखा —
उसकी साँसें तेज़ थीं, लेकिन आँखों में एक सुकून था।
नेहा ने धीरे-धीरे उसके सीने पर हाथ रखा,
और फिर हल्के-से उसकी टी-शर्ट के किनारे को पकड़ा।

राहुल कुछ नहीं बोला —
बस उसकी आँखों में देखा, जैसे कह रहा हो:
"तू जो भी करेगी, मैं उसे पूरा महसूस करूँगा।"

नेहा ने उसकी टी-शर्ट को ऊपर सरकाया —
राहुल ने भी उसकी मदद की…
और कुछ ही पल में वो कपड़ा एक तरफ रख दिया गया।

अब उनके बीच कुछ कम रह गया था —
पर जो था, वो अब शब्दों से नहीं,
सिर्फ़ साँसों और धड़कनों से कहा जा सकता था।
नेहा की साँसें तेज़ थीं, पर उसके चेहरे पर अब झिझक के बजाय एक धीमी मुस्कान थी —
जैसे वो जानती हो कि अगला लम्हा कुछ नया, कुछ बेहद अपना लेकर आएगा।

राहुल ने झुककर उसके कान के पास हल्के से फुसफुसाया,
"तू ब्लैक सूट में ख़तरनाक लग रही है… लेकिन अब, मैं तुझे और भी करीब से देखना चाहता हूँ।"

नेहा की पलकों ने धीरे से जवाब दिया —
ना हाँ, ना ना… बस एक इशारा कि वो तैयार है, पर उसे चिढ़ाना भी है।

"पहले तुम अपनी नज़रें झुकाओ," नेहा ने मुस्कुराते हुए कहा,
"वरना मैं सूट नहीं, तुम्हें ही उतार दूँगी तुम्हारी बातों के साथ।"

राहुल हँसा — लेकिन उसकी उंगलियाँ अब भी नेहा के कंधों से कपड़े को नीचे सरका रही थीं,
जैसे वो उसकी हर बात का जवाब सिर्फ़ छूकर देना चाहता हो।

सूट जैसे ही ज़मीन पर गिरा, राहुल ने उसकी कमर को पकड़कर एक हल्की सी खींच ली —
नेहा, हल्के झटके में उसके सीने से लगी… और दोनों की साँसें मिल गईं।

"अब ज़्यादा बात मत करना," राहुल ने धीमे से कहा,
"वरना तुझे सज़ा देनी पड़ेगी — तेरे ही अंदाज़ में।"

नेहा हँसी — लेकिन उसकी हँसी में अब मिठास के साथ थोड़ी शरारत भी थी।
"तो फिर रोक क्यों रहे हो?"


---नेहा की पलकें अब भी झुकी थीं, लेकिन चेहरे पर एक संकोच भरी स्वीकृति थी।
जब ब्लैक सूट उसके कंधों से नीचे फिसला,
तो उसके भीतर की नज़ाकत और सरलता जैसे और भी उभर आई।

अब वो बस अपनी काली सलवार में थी —
ऊपर सफेद समीज़, जो हल्की-सी पारदर्शी थी,
और उसके भीतर से उसकी नर्म सांसें…
हर पल को ज़िंदा करती जा रही थीं।

राहुल ने उसकी ओर एक नज़र डाली —
ना वासना से, ना अधिकार से —
बल्कि उस तरह से, जैसे कोई किसी पूजा की वस्तु को देखता है।

उसने बस इतना कहा, धीमे स्वर में:
"तू… बहुत सुंदर है नेहा… और मेरी नज़रों में सबसे पाक।"

नेहा ने एक पल को आँखें मूँदीं —
उसके दिल की धड़कन जैसे उस एक वाक्य में सिमट आई हो।
उसका समीज़ और उसके नीचे की हल्की परतें अब सिर्फ़ कपड़े नहीं थीं —
बल्कि एक एहसास की लाज थीं, जिसे राहुल ने छूने से ज़्यादा समझा।
नेहा अब भी राहुल के क़रीब खड़ी थी,
उसकी साँसें धीमी लेकिन गहराई से भरी हुई थीं।
उसके चेहरे पर अब ना डर था, ना झिझक —
बल्कि एक विश्वास था, जो उसने सिर्फ़ राहुल की आँखों में देखा था।

राहुल ने उसके कमर की ओर देखा,
और बहुत धीरे से — बिना कोई जल्दबाज़ी किए —
उसकी सलवार के नारे को अपनी उंगलियों से महसूस किया।
कोई ज़ोर नहीं, कोई खिंचाव नहीं —
बस एक नर्म-सा इशारा, मानो पूछ रहा हो —
"क्या मैं…?"

नेहा ने उसकी ओर देखा —
और उसकी पलकें धीरे से झुकीं।
उसने कुछ नहीं कहा, लेकिन उसकी साँसों और उसकी नज़र में
एक सौम्य-सी इज़ाजत थी।

राहुल ने सलवार के नारे को थोड़ा ढीला किया —
ना शरारत थी, ना हवस —
बस एक गहराई भरा लम्हा था, जहाँ शरीर से ज़्यादा आत्मा जुड़ रही थी।

नेहा का हाथ राहुल के हाथ पर आया —
नज़रों ने एक-दूसरे से कहा:
"जो हो रहा है… वो सिर्फ़ तुम्हारे और मेरे बीच है।
कोई जल्दबाज़ी नहीं, कोई अपराध नहीं —
बस एक सच्चा, सादा, सच्चा प्यार।"
सलवार एक झटके में नीचे सरक गई, और नेहा का चेहरा शर्म से गुलाबी पड़ गया।
उसकी पलकों ने तुरंत नज़रें झुका लीं, और साँसें जैसे एक पल को थम गईं।
उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा — मानो वो खुद को छुपाना चाहती हो, लेकिन किसी अपने के सामने।
राहुल की आँखों में कोई उतावली नहीं थी — बस एक ठहरा हुआ अपनापन, एक गहराई,
जो नेहा की झिझक को भी धीरे-धीरे थाम रहा था।


राहुल अब पूरी तरह उसके सामने था —
घुटनों पर, सिर झुका हुआ… पर इरादे बेकाबू।

नेहा के उस हिस्से पर —
जहाँ अब कोई परत बाकी नहीं थी,
जहाँ सिर्फ़ भीगी त्वचा, घनी गर्मी और उसकी घबराई हुई रज़ामंदी थी —
राहुल ने अपने होंठ टिकाए…

और फिर चूसना शुरू किया।

धीरे… गहराई से…
हर स्पर्श के साथ वो बस कपड़े नहीं,
नेहा की साँस, होश और शर्म तक खींच रहा था।

नेहा की उँगलियाँ अब बिस्तर की चादर को जकड़े हुए थीं,
उसकी कमर हर चूसने के साथ ऊपर उछलती…
“आह…”
“ह्ह…”
“राहुल… बस…”

लेकिन वो “बस” में रोक नहीं,
वो थरथराहट थी जो रुकना भी चाहती थी और टूटकर बहना भी।

उसकी आँखों के सामने सचमुच अँधेरा छाने लगा —
पहली बार वो इस हद तक भीगी थी, इस हद तक हारी थी…
और पहली बार — उसने किसी को खुद में ऐसे उतरते हुए महसूस किया।

राहुल की ज़बान की हर हरकत,
उसके होंठों की हर खींच…
नेहा को एक तूफ़ान के भीतर धकेल रही थी।

वो काँप रही थी, गीली थी, खो रही थी — और फिर… एक लंबी सिसकारी के साथ…

नेहा का पूरा बदन जैसे किसी एक सिरे से झनझना उठा।

पहली बार था।
पहली बार — उसने पूरी तरह खुद को खोया… और पूरी तरह महसूस किया।
कमरा शांत था…
एक पल को सब थम गया था —
ना सांसें तेज़ थीं, ना आहटें…
बस नेहा के दिल की धड़कनें और राहुल के कंधे पर रखा उसका सिर।

नेहा की आँखें अब भी आधी बंद थीं,
लेकिन उनमें अब पसीने की नहीं, आँसुओं की नमी थी।

राहुल ने उसकी उँगलियाँ अपने हाथ में लपेट लीं —
कस कर नहीं, धीरे से… जैसे पूछ रहा हो, “क्या मैं अब भी पास हूँ?”

नेहा ने कुछ नहीं कहा।
वो चुपचाप लेटी रही,
लेकिन उसकी उंगलियाँ अब राहुल की पकड़ में थोड़ी कस गईं —
जवाब था, बिना लफ्ज़ों के।

फिर राहुल ने उसकी ओर देखा,
उसके गाल पर बिखरे बाल हटाए और फुसफुसाया:

"तुम सिर्फ़ मेरे साथ नहीं थीं…
तुमने खुद को मुझे दे दिया।
मैं अब सिर्फ़ तुम्हें छू नहीं सकता —
अब तुम्हें समझना पड़ेगा… मैं तुम्हें छोड़ नहीं पाऊँगा।”

नेहा की आँखों से एक बूँद खामोश लुढ़की —
वो चाहती थी बोलना, लेकिन गले में कुछ अटका था।
क्योंकि वो जानती थी — ये पहली बार सिर्फ़ जिस्म का नहीं था,
ये उस दरवाज़े का खुलना था,
जहाँ से कोई पीछे नहीं लौटता।
नेहा राहुल की बाँहों में सिमटी हुई थी —
उसके होंठ अब भी उस आखिरी किस की गर्मी से काँप रहे थे,
और उसकी साँसें एक नज़दीकी गहराई में डूबी हुई थीं।

तभी…

"ठक… ठक… ठक..."

सीढ़ियों पर किसी के चढ़ने की धीमी, भारी आवाज़।

नेहा की आँखें एकदम खुल गईं।

उसने तुरंत राहुल की छाती से सिर उठाया —
चेहरे पर एक झटके जैसी घबराहट थी।

"क-किसी के कदमों की… आवाज़ आई…"
उसका स्वर धीमा लेकिन कांपता हुआ था।

राहुल भी चौकन्ना हो गया।
कमरे की रौशनी अब भी मंद थी,
पर उनके दिलों की धड़कनें अचानक तेज़ हो गई थीं —
जैसे कोई चोरी पकड़े जाने के कगार पर हो।

नेहा ने जल्दी से चादर को कसकर लपेटा,
बालों को समेटा,
और धीमे से कहा:

"माँ… हो सकती हैं। या भाभी।
अगर किसी ने हमें यूँ देखा… राहुल…"

राहुल ने उसकी आँखों में देखा,
फिर जल्दी से अपनी शर्ट उठाकर पहनने लगा।

“चिंता मत करो,” वो फुसफुसाया,
“मैं कुछ नहीं कहूँगा… बस तुम शांत रहो। मैं देखता हूँ।”

लेकिन उस सन्नाटे में —
अब कदमों की आवाज़ और पास आ चुकी थी।

"ठक… ठक…"

दरवाज़ा अब सिर्फ़ एक परत था,
जो नेहा और बाहर की दुनिया के बीच खड़ी थी।

नेहा की साँसें अब फिर तेज़ हो रही थीं —
पर इस बार कामना से नहीं, डर से।
दरवाज़े के पास अब भी हल्की आहट थी।

नेहा ने बिना कुछ कहे राहुल की ओर देखा —
उन दोनों की आँखों में अब न तो कामना थी,
न ही लज्जा…

बस एक अधूरापन,
जिसे कोई और देख ले इससे पहले
उसे छुपाना ज़रूरी था।

वे जल्दी से कपड़े पहनने लगे —
नेहा ने झटपट अपना कुर्ता चढ़ाया,
बालों को समेटकर क्लिप लगा ली।
राहुल ने भी जल्दी-जल्दी शर्ट के बटन लगाए…
हालाँकि उँगलियाँ अब भी काँप रही थीं।

दरवाज़ा कभी खटखटाया नहीं गया।
कोई आया भी नहीं शायद…
या बस वक़्त ने दोनों को रोकने के लिए
एक झूठा डर भेजा था।

फिर भी… जो पल था, वो टूट गया।

नेहा आईने में खुद को देख रही थी —
चेहरे पर अब भी अधखिली लालिमा थी,
लेकिन आँखें थोड़ी खाली लग रही थीं।

“राहुल…”
उसने धीमे से कहा,
“मैं नहीं जानती कि हम अभी क्या हैं…
लेकिन हम जहाँ थे, वहाँ से अचानक खींचे गए हैं।
और अब… अधूरे रह गए।”

राहुल पास आया,
उसके कंधे पर हाथ रखा,
और बहुत धीरे कहा:

“कुछ अधूरे पल पूरे नहीं होते…
लेकिन वो कभी भुलाए भी नहीं जाते।
शायद अगली बार… हम पूरे हो जाएँ।”

नेहा ने एक हल्की मुस्कान दी,
लेकिन उसमें हल्का दर्द था…
एक ऐसी प्यास का स्वाद,
जो आधा ही मिला हो।
रात हो चुकी थी।
गाँव में वैसे भी बिजली अक्सर चली जाती थी,
और आज भी कोई नई बात नहीं थी।

आंगन में सब लोग खाना खा चुके थे —
नेहा की माँ, उसके पापा, और राहुल का परिवार
अब हँसी-मज़ाक में व्यस्त थे।

नीचे से हँसी की आवाजें आ रही थीं —
लेकिन ऊपर छत पर, जहाँ कुछ देर पहले वो गर्म पल गुज़रे थे,
अब सब बैठकर बात कर रहे थे।

राहुल, नेहा का भाई और उसकी बहन —
तीनों किसी पुरानी कॉलेज की यादों में हँस रहे थे।

लेकिन नेहा…

वो थोड़ी दूर बैठी थी,
घुटनों को सीने से लगाकर, और दुपट्टा काँधों पर कसकर।

उसकी आँखें बातों में नहीं थीं,
बल्कि कहीं छत के एक कोने पर टिकी थीं — स्थिर, और उलझी हुई।

राहुल ने एक नज़र उसकी ओर देखा।

वो जानता था,
उसकी आँखों में वो शोर नहीं था जो बाकी सबकी बातों में था —
वहाँ एक चुप्पी थी, जो बहुत तेज़ बोल रही थी।

कुछ पल बाद जब बाकी सब हँसते हुए चाय लेने नीचे गए,
राहुल धीरे से नेहा के पास आया।

“ठीक हो?” उसने फुसफुसा कर पूछा।

नेहा ने कोई जवाब नहीं दिया।

बस हल्की गर्दन हिलाई —
ना “हाँ”, ना “ना”…
बस एक अधूरा सा इशारा,
जैसे दिल कह रहा हो —
“कुछ भी ठीक नहीं है, लेकिन कह नहीं सकती।”

राहुल ने धीरे से उसके पास बैठते हुए कहा:
राहुल पास आया — उसका चेहरा देखकर वो एक पल में सब समझ गया।

“क्या हुआ?”

नेहा ने काँपते लहजे में कहा:

“जल्दबाज़ी में… जब हम नीचे आए…
तो मेरी… मेरी पैंटी… वहीं कमरे में रह गई…”

उसका गला सूख गया था।

“और वो कमरा… वो… मम्मी-पापा का ही तो है।
अगर मम्मी अंदर गईं…
और वो चीज़ देख ली…
तो…”

उसका चेहरा सफ़ेद पड़ गया था।

“मम्मी… कमरे के बाहर बैठी हैं अभी भी…”
उसकी आवाज़ अब बहुत धीमी हो चुकी थी —
जैसे अब शब्दों में शर्म घुल गई हो।

राहुल ने एक पल के लिए कुछ नहीं कहा।

फिर उसने गहरी साँस ली, और शांत स्वर में बोला:

“तुम यहीं रुको।
मैं जाऊँगा — चुपचाप, किसी बहाने से।
अगर कोई अंदर गया भी, तो मैं संभाल लूँगा।”

नेहा ने उसका हाथ कस कर पकड़ लिया।

“राहुल… अगर माँ को ज़रा भी शक हो गया तो…
मैं उनकी आँखों में कैसे देखूँगी?”

राहुल ने उसकी उंगलियों को धीरे से सहलाया।

“कुछ नहीं होगा, नेहा।
तुम अकेली नहीं हो।”
राहुल चुपचाप नीचे गया था।

कमरा अब भी वैसा ही था —
दीवारें शांत, पर्दे स्थिर… और बिस्तर पर चादर थोड़ी बिखरी हुई।

उसने हर कोना देखा,
तकिए के नीचे, बिस्तर के किनारों पर, खिड़की के पास…

लेकिन कुछ नहीं मिला।

थोड़ी देर बाद वह छत पर लौट आया।

नेहा अब और भी बेचैन थी —
उसकी आँखें दरवाज़े पर टिकी थीं जैसे
हर पल कुछ अनहोनी हो जाएगी।

राहुल ने धीरे से सिर हिलाया:

"कमरे में कुछ नहीं है, नेहा।
मैंने हर जगह देखा… पर वहाँ कुछ भी नहीं पड़ा।”

नेहा का दिल धक् से रह गया।

“नहीं हो सकता…”
उसने पलकें झपकाईं, याद करने की कोशिश की —
“मैंने… साड़ी चीज़ें जल्दी में पहनी थीं।
लेकिन... मैंने खुद नहीं देखा था।
बस सलवार पहन ली थी... तुम्हारे जाने से पहले।”

राहुल कुछ पल चुप रहा।

फिर उसने धीरे से पूछा:

"तो… क्या हो सकता है…
कि तुमने उस वक़्त पहनी ही नहीं थी?"

नेहा ने गहरी साँस ली, चेहरा छुपा लिया।

“मुझे याद नहीं…
सब इतना… तेज़ था, हड़बड़ी में…
शायद…”

उसकी आवाज़ काँपने लगी।

"राहुल… अगर वो कहीं और पड़ी हो…
या किसी को दिख गई हो… तो?"

राहुल ने उसकी काँपती पीठ पर हाथ रखा —
ना किसी हवस से, सिर्फ़ सच्चे भाव से।

“देखो, नेहा…
अगर सच में ऐसा हुआ है —
तो हमें मिलकर संभालना होगा।
डर के मारे भागना नहीं,
बल्कि सोच के साथ आगे बढ़ना है।”

नेहा ने चुपचाप सिर हिलाया —
डर अब भी था, लेकिन राहुल का साथ अब सहारा भी बन रहा था।

next part me jano ki panty kha gyi 

story achi lage to comment karna next part jald aayega 
user name Shipra Bhardwaj


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RE: संग वो गर्मी की शाम - by Shipra Bhardwaj - 21-07-2025, 09:44 AM



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