Thread Rating:
  • 1 Vote(s) - 5 Average
  • 1
  • 2
  • 3
  • 4
  • 5
Misc. Erotica संग वो गर्मी की शाम
#2
उसके नीचे की गहरी लाल सलवार, पीले रंग के साथ एक खूबसूरत मेल बना रही थी।
राहुल की नज़र एक पल को ठहर गई — न तो गलत इरादे से, न ही बेशर्मी से... बस एक पहली बार महसूस हुए प्यार की मासूम सी जिज्ञासा थी।
दोनों ने एक-दूजे का हाथ थामा।
चाँदनी छत की मुंडेर पर टिक गई थी, और नीले आसमान की चुप्पी में सिर्फ़ उनकी साँसों की आहट थी।

नेहा की उंगलियाँ धीरे-धीरे राहुल की हथेली में समा गईं — जैसे किसी पुराने गीत की धुन वापस लौट आई हो।
कोई शब्द नहीं बोले गए… फिर भी हर स्पर्श में जैसे सौ कहानियाँ छिपी थीं।

राहुल ने हल्के से नेहा की ओर देखा।
वो कुछ कहने ही वाला था, लेकिन नेहा ने उसकी हथेली को थोड़ा और कसकर थाम लिया।
"कुछ मत बोल," उसकी आँखें जैसे कह रही थीं, "बस यूँ ही कुछ देर थामे रहो।"

उस रात, न कोई इज़हार ज़रूरी था… न कोई वादा।
बस एक साथ होना — बिना किसी शोर के, बिना किसी डर के — सब कुछ कह गया।
छत पर रात का वक्त है, सब सो चुके हैं। हल्की-सी ठंडी हवा चल रही है, और चाँदनी चारों ओर फैली है। नेहा और राहुल एक कोने में चुपचाप बैठे हैं… एक-दूसरे के बेहद पास।


---

राहुल धीरे से बोला,
"तुझे पता है नेहा... जब तू चुपचाप बैठी होती है ना, तब भी तेरे साथ बहुत कुछ बोलने का मन करता है।"

नेहा मुस्कराई, लेकिन उसकी नज़रें अब भी नीचे थीं।
उसके चेहरे पर हल्की शर्म थी, और वो अपनी चुन्नी को बार-बार ठीक कर रही थी।

नेहा धीमे से बोली,
"तू भी ना… कुछ ज़्यादा ही फ़िल्मी बातें करता है।"

राहुल हँसते हुए, उसके थोड़े और करीब आ गया।
"तो तू ही बता… जब सामने इतनी प्यारी हिरोइन बैठी हो, तो हीरो कैसे ना बोले!"

नेहा ने उसकी तरफ देखा — कुछ कहने वाली थी, पर शब्द नहीं निकले।
बस एक हल्का सा धक्का दिया राहुल को, और बोली,
"ज़्यादा लाइन मत मार, मैं अभी भी गुस्से में हूँ!"

राहुल उसका हाथ पकड़ता है — पहली बार थोड़ी देर के लिए।
"गुस्सा है, लेकिन ये हाथ पीछे क्यों नहीं खींचा तूने?"

नेहा चौंकती है, फिर धीरे से अपना हाथ उसकी उँगलियों में छोड़ देती है।

रात और गहरी हो जाती है…
पास बैठे दो दिलों की धड़कनें अब एक-दूसरे को साफ़ सुनाई दे रही हैं।
नेहा ने हल्की मुस्कान के साथ कहा:
"चलो अब सोते हैं, नहीं तो कोई जाग गया तो... सवाल शुरू हो जाएंगे।"

राहुल ने हौले से सिर हिलाया:
"हाँ, वरना सुबह माँ की नज़रें हमसे ज़्यादा सवाल पूछेंगी।"

दोनों कुछ पल एक-दूसरे को देखते रहे। नज़रों में सैकड़ों बातें थीं, मगर लफ़्ज़ों में सिर्फ़ एक सुकून —
कि अब दोनों को एक-दूसरे का साथ मिल गया है।

नेहा अपनी जगह पर जाकर लेट गई, और राहुल भी चुपचाप अपनी चादर ओढ़कर लेट गया।
चाँदनी अब भी चुपचाप उन पर मुस्कुरा रही थी।
सुबह की हल्की धूप अब आँगन तक आ चुकी थी। सब लोग नहा-धोकर ताज़ा हो चुके थे और चाय के प्याले हाथों में थे।
नेहा बालों में तौलिया लपेटे, हाथ में गीले कपड़ों की टोकरी लिए छत की ओर बढ़ गई।

राहुल नीचे बैठा था, लेकिन उसकी नज़र अनायास ही सीढ़ियों की ओर चली गई।
वो जानता था — अब दिन की हलचल शुरू हो गई है... लेकिन कहीं ना कहीं, दिल अभी भी बीती रात की हल्की सी गर्माहट में उलझा था।
सुबह की हल्की धूप में नेहा छत पर आई — हाथ में बाल्टी थी, जिसमें कुछ भीगे हुए कपड़े रखे थे। उसने नहाने के बाद काले रंग का सूट पहन रखा था, जो उसकी शांत सुंदरता को और भी निखार रहा था।

मैं कुछ देर उसके पीछे छत तक चला आया, चुपचाप।

नेहा ने मुझे देखा, पर कुछ नहीं कहा। बस बाल्टी नीचे रखी और एक-एक कर कपड़े तार पर टांगने लगी।

हवा से उसके बाल बार-बार चेहरे पर आ जाते, और वो हल्के हाथों से उन्हें पीछे करती।

मैं उसे निहारता रहा — न किसी बुरी नज़र से, न किसी स्वार्थ से — बस उस शांत सुबह में, वो मुझे अपनेपन की सबसे प्यारी तस्वीर लग रही थी।

नेहा ने मेरी नज़रें महसूस कीं, फिर बिना देखे ही मुस्कुरा दी।

"क्या देख रहे हो?" उसने बिना मुड़े कहा।

"वो ही, जिसे पहली बार दिल से देखा है," मैंने जवाब दिया।

नेहा की मुस्कान और गहरी हो गई। वो पल, ना कोई शब्द, ना कोई दूरी — बस दो दिलों की खामोश समझ।
उसने अपने सूखे सूट के नीचे कुछ भीगे कपड़े रख लिए थे — शायद इसलिए ताकि हवा से उड़ न जाएँ, या कोई उन पर नज़र न डाले।

मैंने एक कोना पकड़ा और बस चुपचाप उसे देखता रहा। उसमें कोई आकर्षण नहीं था — बस एक गहरी समझ थी।

उसके इस छोटे-से व्यवहार में मानो पूरी स्त्री की मर्यादा थी। कपड़े सिर्फ कपड़े नहीं थे — वो उसकी निजता, उसकी गरिमा, उसकी परवरिश थे।
"वो नीचे चली गई, और मैं छत पर रह गया। हवा में लहराते उसके सूखने के लिए डाले गए कपड़े—जिन्हें उसने बड़ी संजीदगी और मर्यादा के साथ अपने सूट के नीचे दबाकर सुखाया था—उन्हें मैं कुछ पल देखता रहा।

हर कपड़े में जैसे उसकी परछाईं थी, उसकी सादगी थी, और एक लड़की की वो भावना जिसे वो दुनिया की नज़रों से बचाकर रखती है।

वो कपड़े सिर्फ़ कपड़े नहीं थे, वो उसकी पहचान, उसकी लाज और उसका आत्मसम्मान थे। उस पल मुझे पहली बार एहसास हुआ... कि किसी को चाहना सिर्फ़ देखने से नहीं, समझने से शुरू होता है।"

साँझ की हल्की रोशनी खिड़की से छनकर अंदर आ रही थी। उसके हाथों की हरकतें सधी हुई थीं — जैसे सालों से इस घर की जिम्मेदारी संभालती आई हो।

राहुल दूर खड़ा था, पर उसकी नज़रें नेहा की सरलता में कुछ खास देख रही थीं।

"तेरे हाथों की खुशबू आज रसोई में कुछ ज़्यादा ही महक रही है," राहुल ने मुस्कुराते हुए कहा।

नेहा ने पलटकर देखा, हल्की सी झुंझलाहट आँखों में और होंठों पर एक छुपी मुस्कान।

"चुपचाप बैठ, वरना हल्दी की जगह मिर्ची डाल दूँगी तेरे खाने में," नेहा बोली।

राहुल हँस पड़ा।
उसके लिए ये लम्हा प्यार के सबसे सादे लेकिन सबसे गहरे एहसासों में से था।

नेहा सब्ज़ियों में तड़का लगाते-लगाते अचानक चुप हो गई।

"आज बहुत थक गई है तू…"
राहुल की आवाज़ में एक अलग ही कोमलता थी।

नेहा ने बिना देखे जवाब दिया,
"थक तो रोज़ती हूँ, लेकिन आज तेरा यूँ चुपचाप देखना… थोड़ा सुकून दे गया।"

कुछ पल के लिए सिर्फ़ बर्तन की खनक सुनाई दी।

फिर राहुल ने कहा,
"कभी-कभी लगता है… तू रसोई नहीं, मेरा मन सँवार रही है।"

नेहा ने पहली बार उसकी ओर देखा — लंबी पलकों के नीचे हलकी सी नमी, और मुस्कान में थकी हुई मिठास।

"अब बस कर राहुल… ज़्यादा मीठा बोलेगा तो नमक भूल जाऊँगी,"
उसने पलटकर कहा, लेकिन उसकी आँखें बता रही थीं — वो सुनना चाहती थी, बार-बार।

राहुल धीरे से अंदर आया, उसके पीछे खड़ा हुआ।
हाथ कुछ नहीं छूते, लेकिन उसकी मौजूदगी अब नेहा के साँसों में घुल चुकी थी।

"तू कहे तो… आज खाना हम बाहर खाएँ?"
राहुल ने धीरे से पूछा।

नेहा थोड़ी देर चुप रही… फिर मुस्कुराकर बोली,
"नहीं… आज खाना घर पर ही अच्छा लगेगा।
क्योंकि आज तू मेरे पास है।"
सब लोग खाना खा चुके थे। अब छत पर टहलने चले गए थे — हँसी, बच्चों की दौड़ और बातों की गूंज ऊपर से आ रही थी।

नीचे रसोई में सिर्फ़ नेहा थी — अकेली, बर्तनों की खनक और पानी की धारों के बीच।

उसकी पीठ पर पसीने की हल्की परत थी, बालों की कुछ लटें चेहरे से चिपकी हुई थीं।

वो झुकी हुई थी — दोनों हाथों में साबुन और पानी, लेकिन ध्यान कहीं और था।

तभी पीछे से किसी के कदमों की हल्की आहट आई।
नेहा ने पलटकर नहीं देखा — शायद उसे पता था, ये कौन है।

राहुल धीरे से पास आया।
उसके हाथ अब नेहा की कमर के बेहद करीब थे — लेकिन बिना छुए भी, जैसे उसकी साँसों से उसकी पीठ तपने लगी हो।

"इतना काम मत किया कर नेहा…" — उसने फुसफुसाकर कहा।
"वरना मेरे हिस्से की थकान भी तू ही ओढ़ लेगी।"

नेहा की उँगलियाँ थम गईं।
उसने सिर झुकाए ही धीमे से जवाब दिया —
"और अगर मैं तेरी थकान भी ओढ़ लूँ… तो क्या तू मेरे बदन की गर्मी बाँटेगा?"

राहुल अब और क़रीब था — सिर्फ़ एक साँस की दूरी।
उसने धीरे से नेहा के बालों को कान के पीछे सरकाया।

"अगर तू इजाज़त दे… तो मैं तेरा हर हिस्सा अपना समझूँ।"

नेहा ने धीरे से गर्दन मोड़ी — उसकी आँखें अब राहुल की आँखों से टकरा चुकी थीं।
साँसें धीमी, मगर भारी।

"तेरी उँगलियाँ… मेरे गले से टकरा रही हैं, राहुल…"
उसकी आवाज़ में न तो पूरी मनाही थी, न पूरी इजाज़त — बस एक काँपती हुई खामोशी।

राहुल ने हल्का सा मुस्कुराकर उसके गले के पास से एक बूँद पसीना अपनी उँगली से हटाई,
फिर फुसफुसाया —
"ये बूँद नहीं… तेरी गर्मी की पहली ख़बर है।"

नेहा की पलकों ने धीरे से झुककर जवाब दिया —
जैसे उसने खुद को रोकना छोड़ दिया हो।

नेहा की साँसें तेज़ थीं… राहुल की उंगलियाँ उसकी गर्दन से नीचे सरकने लगी थीं।
लेकिन तभी, उसके भीतर एक आवाज़ गूँजी —

"नेहा, पागल मत बन… कोई देख लेगा…"

उसने एक झटके में खुद को थोड़ा पीछे किया।
राहुल चौंका — उसकी आँखों में सवाल था।

"अभी… अभी हमारी उम्र नहीं है इस सबकी,"
नेहा ने काँपती आवाज़ में कहा।
"अभी तो मुझे बहुत कुछ बनना है… और ये सब… बाद में भी हो सकता है, अगर सही होगा तो।"

कमरे में सन्नाटा फैल गया।
लेकिन नेहा के चेहरे पर जो तेज़ था — वो किसी भी मोह से बड़ा था।

राहुल कुछ देर वहीं खड़ा रहा — चुप, उदास।
उसने न तो कुछ कहा, न नेहा को रोका… बस पलटकर बाहर चला गया।

नेहा वापस बर्तन साफ़ करने लगी, लेकिन हाथ रुक-रुककर चलते थे।
उसके ज़ेहन में राहुल की आँखें थीं… उसकी उँगलियों की वो गर्मी जो अब भी गर्दन पर महसूस हो रही थी।

कुछ पल बीते — फिर दस, फिर पंद्रह।
फिर नेहा ने गीला हाथ धोया, और धीमे से मुड़कर बाहर झाँका।

राहुल बालकनी की दीवार से टिका हुआ था — अकेला, चुपचाप।
उसकी आँखें कहीं दूर थीं… लेकिन नेहा जानती थी, वो सिर्फ़ एक पल की हाँ का इंतज़ार कर रहा है।

नेहा ने एक लंबी साँस ली।
फिर रसोई से बाहर आई — धीरे-धीरे, नखरे से।

"ऐ राहुल…" — उसकी आवाज़ में एक मुस्कान छुपी थी।
राहुल ने उसकी ओर देखा, लेकिन कुछ कहा नहीं।

"इतना उदास मत हुआ कर…
मैंने मना किया था, छोड़ने के लिए नहीं…"
उसने एक कदम और क़रीब आते हुए कहा।

राहुल की आँखों में हल्की चमक लौटी।
"तो फिर?" — उसने फुसफुसाकर पूछा।
राहुल ने नेहा की कमर थामी और उसे अपनी ओर खींच लिया।
उसका स्पर्श न तो अचानक था, न ज़बरदस्ती — बस इतना काफ़ी था कि नेहा की धड़कन दो कदम आगे भाग जाए।

"आज तो… ब्लैक सूट में एकदम हीरोइन लग रही हो,"
राहुल ने उसकी आँखों में झाँकते हुए कहा।

नेहा ने नज़रें झुका लीं — मुस्कान होंठों तक आई, लेकिन ज़बान से कुछ नहीं बोली।
उसकी लटें गालों पर लहराईं, और वो शर्म से थोड़ा और पास खिसक गई।

"देख रही है तू मुझे?"
राहुल ने फुसफुसाकर पूछा।
"या बस यूँ ही... दिल चुरा ले जाना तेरा रोज़ का काम है?"

नेहा ने उसकी छाती पर हल्का सा धक्का दिया — बहुत ही नाज़ुक सा।
"चुप कर… कोई सुन लेगा…"

राहुल हँसा, फिर धीरे से उसके कान के पास झुका —
"सुन भी लें… तो क्या? बता दें कि मेरी हीरोइन आज सिर्फ़ मेरी है?"

नेहा की साँसें गड़बड़ाने लगीं —
उसने एक हाथ से राहुल की शर्ट की बटन को थाम लिया, जैसे कोई वजह चाहिए हो संभलने की।

"राहुल…" — उसने धीरे से कहा,
"अब तू अगर और पास आया… तो मैं सच में खुद को नहीं रोक पाऊँगी।"

राहुल ने उसकी कमर थोड़ी और कस ली…
"तो मत रोक… आज नाटक नहीं… आज बस तू और मैं।"


---राहुल ने धीरे से नेहा का चेहरा थाम लिया — उसकी उँगलियाँ उसके गालों को छूते हुए बालों के पीछे सरक गईं।
नेहा की नज़रें काँपने लगीं, लेकिन वो दूर नहीं हुई… बस एक साँस थमी।

"तेरे होंठ…" राहुल फुसफुसाया, "हर बार जैसे कुछ कहने से रुक जाते हैं…"

और फिर — बिना और कुछ कहे — उसने अपना चेहरा आगे बढ़ाया,
धीरे-धीरे… जब तक कि उनके साँसें एक-दूसरे से उलझ न गईं।

नेहा की आँखें खुद-ब-खुद बंद हो गईं, और अगले ही पल —
राहुल ने उसके होंठों को अपने होंठों में ले लिया।

किस गहरा नहीं था, तेज़ नहीं था — बस एक धीमा, डूबा हुआ एहसास था,
जैसे दोनों पहली बार अपने जज़्बातों को ज़ुबान दे रहे हों।

नेहा ने उसकी शर्ट को हल्के से कसकर पकड़ा,
और खुद को उस पल में बहने दिया।

राहुल और नेहा अब उस एक किस में पूरी तरह डूब चुके थे।
होंठ एक-दूसरे से बंधे थे, साँसें उलझ रही थीं, और वक्त जैसे रुक गया था।

नेहा की उँगलियाँ अब राहुल की गर्दन के पीछे सरक चुकी थीं,
और उसका बदन — धीरे-धीरे, बेइंतहा गर्माहट में पिघलने लगा था।

राहुल ने उसकी कमर को कसकर पकड़ा — जैसे उसे खोने का डर हो,
और अपने होंठों की गहराई और बढ़ा दी।

किस अब धीमा नहीं रहा —
वो गहराता जा रहा था,
हर पल में एक नई बेक़रारी घुलती जा रही थी।

नेहा की पीठ दीवार से टकरा गई, लेकिन उसने कोई विरोध नहीं किया —
बल्कि आँखें बंद करके खुद को उस पल में पूरी तरह सौंप दिया।

उसकी साँसें तेज़ थीं… और होंठ अब राहुल की चाहत में पूरी तरह भीग चुके थे।

किस में अब सिर्फ़ प्यार नहीं था —
एक भूख भी थी… धीरे-धीरे जागती हुई।
किस की गर्मी में डूबी नेहा ने अचानक राहुल को हल्के से धक्का दिया।
न ज़ोर से, न गुस्से में — बस उतना कि वो खुद को संभाल सके।

उसने एक पल में खुद को दीवार से सटा लिया —
चेहरा नीचे, आँखें भीगी, और होंठ काँपते हुए।

जैसे अभी-अभी उसने कुछ ऐसा कर लिया हो… जो करना नहीं चाहिए था।

राहुल चुप खड़ा था — उसकी साँसें अब भी भारी थीं,
लेकिन वो नेहा की नज़रों में देखने से डर रहा था।

नेहा ने धीरे से कहा —
"हमने… ये नहीं होना चाहिए था…"

उसके लहजे में पछतावा नहीं,
बस एक अजीब-सी उलझन थी —
जैसे दिल कुछ और कह रहा हो, और दिमाग कुछ और।

राहुल ने धीमी आवाज़ में जवाब दिया —
"अगर ये ग़लत था… तो क्यों लगा जैसे हम दोनों सच में वहीं belong करते हैं?"

नेहा ने कुछ नहीं कहा।
बस दीवार की ओर मुँह करके आँखें बंद कर लीं —
और अपने दिल की तेज़ धड़कनों को सीने में छुपा लिया।
कुछ देर तक बस सन्नाटा था —
कमरे में, साँसों में, और नेहा के भीतर भी।

वो अब भी दीवार से सटी खड़ी थी — आँखें बंद, और होंठ भिंचे हुए।
राहुल ने कुछ नहीं कहा — बस खड़ा रहा, जैसे वो भी उस चुप्पी का हिस्सा बन गया हो।

तभी नेहा की आवाज़ फूटी — धीमी, टूटी हुई, लेकिन बहुत साफ़।

"राहुल… ये… ग़लत है…"

उसने धीरे से सिर उठाया, पर उसकी नज़रें अब भी राहुल से नहीं मिलीं।
"जिस हाथ पर मैंने बचपन से राखी बाँधी है…
उसी हाथ की छाया में अब… महबूबा बनकर नहीं खिल सकती…"

उसकी आँखों में एक अजीब सी नमी थी —
न सिर्फ़ पछतावे की, बल्कि अंदर से कुछ टूटने की।

"तू मेरा बहुत अपना है… शायद इसलिए ये सब इतना आसान लगने लगा…"
"पर अपनी ही ज़मीर से जब नज़र नहीं मिला सकूं —
तो प्यार भी बोझ लगने लगता है…"

राहुल की साँसें थम-सी गईं।
वो कुछ कहने को बढ़ा, पर फिर पीछे हट गया —
क्योंकि ये वो लम्हा था, जहाँ शब्द बेईमानी हो जाते हैं।

नेहा अब खुद से कह रही थी, राहुल से नहीं —
जैसे खुद को समझाने की कोशिश कर रही हो,
या शायद… खुद से माफ़ी माँग रही हो।



---

.नेहा की बात सुनकर राहुल कुछ देर खामोश खड़ा रहा।
फिर उसने एक लंबी साँस ली… और धीरे-धीरे उसके करीब आया।

"नेहा…" — उसकी आवाज़ काँप रही थी,
"अगर तूने मुझे राखी बाँधी थी… तो उसमें एक मासूम रिश्ता था —
जो वक्त के साथ बड़ा नहीं हुआ, बस वहीं ठहर गया…"

"पर मैं ठहरा नहीं नेहा।
मैं बड़ा हुआ, मेरी भावनाएं बदलीं… और तुझसे सिर्फ़ बहन जैसा रिश्ता नहीं रहा।
मैंने तुझमें वो सब देखा… जो एक इंसान को पूरा कर देता है।"

उसने नेहा का हाथ थामा — धीरे, सहेजकर।
"तू मेरी आदत बन गई है… मेरी ज़रूरत।
क्या उस प्यार को सिर्फ़ एक 'राखी' की रस्म में बाँध देना इंसाफ़ होगा?"

नेहा की आँखों में आँसू थे —
राहुल की बातों ने उसके दिल की उस जगह को छुआ,
जहाँ तर्क और परंपराएं जवाब नहीं दे पातीं।

"मैं जानता हूँ ये आसान नहीं है…" — राहुल आगे बोला,
"लोग सवाल करेंगे, समाज शक करेगा —
पर मेरा प्यार… कोई रस्म नहीं, कोई मजबूरी नहीं…
ये मेरी रूह का फैसला है।"

"मैं तुझसे ज़बरदस्ती नहीं करूँगा…
लेकिन इतना ज़रूर कहूँगा —
अगर तू अपने दिल की सुने…
तो वो कहेगा कि मैं तुझसे सच्चा प्यार करता हूँ।"

नेहा की उंगलियाँ अब राहुल की हथेली में भींच गईं —
धीरे-धीरे, बेआवाज़ इजाज़त सी देती हुईं।

उसने कांपते हुए कहा —
"तो फिर… इस रिश्ते को वो नाम दे जो सब कुछ बदल दे…
ताकि मैं सिर्फ़ तेरी महबूबा नहीं…
तेरी होने में भी कोई शर्म न बचे…"

राहुल ने उसकी आँखों में देखा —
"मैं तुझे उस जगह रखूँगा… जहाँ कोई और सोच भी न सके।
ना बहन, ना दोस्त —
ब्लैक सूट में नेहा सच में एक दम सजीव सपना लग रही थी —
उसका बदन धीमी साँसों के साथ ऊपर-नीचे हो रहा था,
जैसे हर धड़कन अब ज़रा ज़्यादा गहरी हो गई हो।

राहुल की नज़रें वहीं अटकी थीं —
नेहा का सीना, जो हर साँस के साथ काँप रहा था,
ना सिर्फ़ उसकी घबराहट बयान कर रहा था, बल्कि वो चाह भी जिसे वो छुपा नहीं पा रही थी।

उसके सूट का कपड़ा हल्के से उसके बदन से चिपका हुआ था,
और हर थरथराहट जैसे किसी अनकहे एहसास की गवाही दे रही थी।

नेहा ने कोशिश की खुद को संभालने की,
लेकिन उसकी नज़रें अब राहुल की आँखों से टकरा चुकी थीं —
वहाँ कोई लज्जा नहीं बची थी… सिर्फ़ एक स्वीकृति।

सिर्फ़ मेरी जीवनसाथी…"
नेहा की साँसें अब भी बेकाबू थीं —
उसके चेहरे पर झिझक और इरादे की एक साथ लकीरें थीं।

राहुल कुछ कहने ही वाला था कि नेहा ने धीरे से उसका हाथ थामा।
ना बहुत कसकर, ना बहुत हल्के से —
बस इतना कि राहुल समझ सके, अब फैसला हो चुका है।

उसने एक नज़र राहुल की आँखों में डाली —
गहरी, डूबती हुई। फिर बिना कुछ कहे…
उसे धीरे-धीरे अपने कमरे की ओर ले गई।

कमरे में हल्की रौशनी थी, खिड़की के परदे हिल रहे थे,
और भीतर एक अलग ही सन्नाटा था —
जैसे सबकुछ कुछ कहने से पहले थम गया हो।

नेहा ने राहुल को सामने खड़ा किया,
एक पल उसे देखा… फिर अचानक —
हल्के से धक्का दिया और उसे अपने बिस्तर पर गिरा दिया।

राहुल हैरान था, लेकिन कुछ बोल नहीं पाया —
क्योंकि नेहा की आँखों में अब झिझक नहीं थी,
बस एक साफ़ सी लपट —
जो कह रही थी: "अब मैं सोचकर नहीं… महसूस करके जी रही हूँ।"

नेहा धीरे से आगे बढ़ी,
और राहुल के पास बैठते हुए फुसफुसाई —
"आज सिर्फ़ तेरे पास आना चाहती हूँ… किसी नाम, किसी रिश्ते के बिना…"

नेहा धीरे-धीरे राहुल के पास झुकी — उसकी साँसें अब थमी नहीं थीं,
बल्कि हर लम्हा उसके भीतर कुछ कहने लगी थीं।

वो उसके ऊपर लेट गई, लेकिन उस पल में कोई जल्दबाज़ी नहीं थी —
बस एक चाह थी, जो अब इंतज़ार नहीं करना चाहती थी।

नेहा ने राहुल के चेहरे को अपने हाथों में लिया,
और उसके होंठों को बहुत ही नर्मी से चूम लिया —
जैसे कोई एहसास बिना शब्दों के कह दिया हो।

राहुल की आँखें बंद थीं —
उस चुम्बन में कोई भूख नहीं, बस सुकून था।
एक भरोसा… कि अब जो भी हो, वो दोनों साथ में महसूस करेंगे।

चुम्बन लंबा नहीं था — लेकिन गहरा था।
जैसे दो रूहें थोड़ी देर के लिए एक-दूसरे में घुल गई हों।

नेहा ने फुसफुसाकर कहा:
"अब मैं रुक नहीं सकती… और तुझसे दूर नहीं रह सकती…"

राहुल ने उसकी उंगलियाँ थाम लीं, और मुस्कुरा कर कहा:
"मैं भी नहीं… अब तू जहाँ है, वहीं मेरी दुनिया है।"
नेहा की उँगलियाँ काँप रही थीं —
ना डर से, ना शर्म से…
बल्कि उस एहसास से जो पहली बार किसी को इस क़रीब महसूस कर रही थीं।

उसने धीरे से राहुल की तरफ देखा —
उसकी साँसें तेज़ थीं, लेकिन आँखों में एक सुकून था।
नेहा ने धीरे-धीरे उसके सीने पर हाथ रखा,
और फिर हल्के-से उसकी टी-शर्ट के किनारे को पकड़ा।

राहुल कुछ नहीं बोला —
बस उसकी आँखों में देखा, जैसे कह रहा हो:
"तू जो भी करेगी, मैं उसे पूरा महसूस करूँगा।"

नेहा ने उसकी टी-शर्ट को ऊपर सरकाया —
राहुल ने भी उसकी मदद की…
और कुछ ही पल में वो कपड़ा एक तरफ रख दिया गया।

अब उनके बीच कुछ कम रह गया था —
पर जो था, वो अब शब्दों से नहीं,
सिर्फ़ साँसों और धड़कनों से कहा जा सकता था।
नेहा की साँसें तेज़ थीं, पर उसके चेहरे पर अब झिझक के बजाय एक धीमी मुस्कान थी —
जैसे वो जानती हो कि अगला लम्हा कुछ नया, कुछ बेहद अपना लेकर आएगा।

राहुल ने झुककर उसके कान के पास हल्के से फुसफुसाया,
"तू ब्लैक सूट में ख़तरनाक लग रही है… लेकिन अब, मैं तुझे और भी करीब से देखना चाहता हूँ।"

नेहा की पलकों ने धीरे से जवाब दिया —
ना हाँ, ना ना… बस एक इशारा कि वो तैयार है, पर उसे चिढ़ाना भी है।

"पहले तुम अपनी नज़रें झुकाओ," नेहा ने मुस्कुराते हुए कहा,
"वरना मैं सूट नहीं, तुम्हें ही उतार दूँगी तुम्हारी बातों के साथ।"

राहुल हँसा — लेकिन उसकी उंगलियाँ अब भी नेहा के कंधों से कपड़े को नीचे सरका रही थीं,
जैसे वो उसकी हर बात का जवाब सिर्फ़ छूकर देना चाहता हो।

सूट जैसे ही ज़मीन पर गिरा, राहुल ने उसकी कमर को पकड़कर एक हल्की सी खींच ली —
नेहा, हल्के झटके में उसके सीने से लगी… और दोनों की साँसें मिल गईं।

"अब ज़्यादा बात मत करना," राहुल ने धीमे से कहा,
"वरना तुझे सज़ा देनी पड़ेगी — तेरे ही अंदाज़ में।"

नेहा हँसी — लेकिन उसकी हँसी में अब मिठास के साथ थोड़ी शरारत भी थी।
"तो फिर रोक क्यों रहे हो?"


---नेहा की पलकें अब भी झुकी थीं, लेकिन चेहरे पर एक संकोच भरी स्वीकृति थी।
जब ब्लैक सूट उसके कंधों से नीचे फिसला,
तो उसके भीतर की नज़ाकत और सरलता जैसे और भी उभर आई।

अब वो बस अपनी काली सलवार में थी —
ऊपर सफेद समीज़, जो हल्की-सी पारदर्शी थी,
और उसके भीतर से उसकी नर्म सांसें…
हर पल को ज़िंदा करती जा रही थीं।

राहुल ने उसकी ओर एक नज़र डाली —
ना वासना से, ना अधिकार से —
बल्कि उस तरह से, जैसे कोई किसी पूजा की वस्तु को देखता है।

उसने बस इतना कहा, धीमे स्वर में:
"तू… बहुत सुंदर है नेहा… और मेरी नज़रों में सबसे पाक।"

नेहा ने एक पल को आँखें मूँदीं —
उसके दिल की धड़कन जैसे उस एक वाक्य में सिमट आई हो।
उसका समीज़ और उसके नीचे की हल्की परतें अब सिर्फ़ कपड़े नहीं थीं —
बल्कि एक एहसास की लाज थीं, जिसे राहुल ने छूने से ज़्यादा समझा।
नेहा अब भी राहुल के क़रीब खड़ी थी,
उसकी साँसें धीमी लेकिन गहराई से भरी हुई थीं।
उसके चेहरे पर अब ना डर था, ना झिझक —
बल्कि एक विश्वास था, जो उसने सिर्फ़ राहुल की आँखों में देखा था।

राहुल ने उसके कमर की ओर देखा,
और बहुत धीरे से — बिना कोई जल्दबाज़ी किए —
उसकी सलवार के नारे को अपनी उंगलियों से महसूस किया।
कोई ज़ोर नहीं, कोई खिंचाव नहीं —
बस एक नर्म-सा इशारा, मानो पूछ रहा हो —
"क्या मैं…?"

नेहा ने उसकी ओर देखा —
और उसकी पलकें धीरे से झुकीं।
उसने कुछ नहीं कहा, लेकिन उसकी साँसों और उसकी नज़र में
एक सौम्य-सी इज़ाजत थी।

राहुल ने सलवार के नारे को थोड़ा ढीला किया —
ना शरारत थी, ना हवस —
बस एक गहराई भरा लम्हा था, जहाँ शरीर से ज़्यादा आत्मा जुड़ रही थी।

नेहा का हाथ राहुल के हाथ पर आया —
नज़रों ने एक-दूसरे से कहा:
"जो हो रहा है… वो सिर्फ़ तुम्हारे और मेरे बीच है।
कोई जल्दबाज़ी नहीं, कोई अपराध नहीं —
बस एक सच्चा, सादा, सच्चा प्यार।"
सलवार एक झटके में नीचे सरक गई, और नेहा का चेहरा शर्म से गुलाबी पड़ गया।
उसकी पलकों ने तुरंत नज़रें झुका लीं, और साँसें जैसे एक पल को थम गईं।
उसका दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा — मानो वो खुद को छुपाना चाहती हो, लेकिन किसी अपने के सामने।
राहुल की आँखों में कोई उतावली नहीं थी — बस एक ठहरा हुआ अपनापन, एक गहराई,
जो नेहा की झिझक को भी धीरे-धीरे थाम रहा था।
[+] 1 user Likes Shipra Bhardwaj's post
Like Reply


Messages In This Thread
RE: संग वो गर्मी की शाम - by Shipra Bhardwaj - 21-07-2025, 09:42 AM



Users browsing this thread: 1 Guest(s)