20-07-2025, 08:03 PM
कहानी का नाम: "संग वो गर्मी की शाम"
पात्र:
तुम (राहुल) – 24 साल का, पढ़ाई के बाद पहली बार गांव लौटा।
नेहा – 22 साल की, मामा की बेटी, बचपन में दोस्त थी... अब कुछ और लगती है।
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? भाग 1: मुलाक़ात
गर्मी की छुट्टियों में मैं अपने ननिहाल गया। जैसे ही आंगन में कदम रखा, एक जानी-पहचानी आवाज़ आई:
"राहुल? तू कितना बदल गया है!"
वो दोपहर याद है — जब गांव के बाकी लोग किसी रिश्तेदार की शादी में गए थे। घर में सिर्फ़ मैं और नेहा ही थे।
मैं बरामदे में लेटा था, किताब पढ़ने की कोशिश कर रहा था, मगर दिमाग कहीं और था।
नेहा हल्के से चाय की ट्रे लेकर आई। कुर्ता थोड़ा ढीला था, उसके गीले बाल अब सूखने लगे थे। चाय से ज़्यादा उसका आना महसूस हुआ।
मैंने उसे ऊपर से नीचे तक देखा...
वो वही नेहा थी, जिसे मैं बचपन से जानता था —
पर उस शाम, कुछ अलग था।
उस पीले सूट की कलीदार झालरें हवा से खेल रही थीं,
जैसे हर कली उसकी मुस्कराहट पर थिरक रही हो।
उसके खुले बाल — जैसे किसी पुराने गीत की धुन बनकर लहराए हों।
चेहरे पर कोई सजावट नहीं थी,
सिर्फ़ सादगी की चमक थी… जो किसी भी श्रृंगार से कहीं ज़्यादा गहरी थी।
उसकी आँखें — बड़ी, शांत, और जाने क्या कहती हुईं —
मानो पूरे दिन की थकान को सिर्फ़ एक नज़र में मिटा देतीं।
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उसकी आवाज़ जब मेरे कानों तक पहुँची —
"ठीक लग रही हूँ?"
तो मैं कुछ पल तक कुछ कह ही नहीं पाया।
कैसे कहता — कि आज तू सिर्फ़ ‘ठीक’ नहीं लग रही,
तू वैसी लग रही है… जैसी कोई अपने ख्वाबों में देखे,
और फिर आंख खुलने के बाद भी भूल न पाए।
पूजा ख़त्म हो गई थी।
लोगों की भीड़ मंदिर से निकल रही थी, पर हमारे बीच अब एक अजीब-सी ख़ामोशी थी।
हम साथ-साथ चले — वही धूल-भरी पगडंडी, वही रास्ता…
लेकिन अब हर क़दम जैसे दिल की धड़कनों से जुड़ा हुआ था।
मैं चुप था।
वो भी… पर उसकी चुप्पी अब भारी नहीं, भीतर तक उतरती हुई लग रही थी।
---जैसे ही आंगन में कदम रखा, वो रुक गई।
थोड़ी थकी-सी, पर चेहरा अब भी उजला।
"बहुत लोग थे मंदिर में," उसने कहा, और पल्लू पीछे सरकाते हुए बालों को ठीक किया।
पीला सूट धूप में कुछ ज़्यादा ही चमक रहा था,
और उसके खुले बाल अब माथे पर हल्की नमी छोड़ चुके थे।
मैंने महसूस किया —
वो बस वहीं खड़ी थी, कुछ कहे बिना,
लेकिन उस एक नज़र में जैसे पूरे दिन की बात छिपी थी।
थक गया?" उसने पूछा, मुस्कराकर।
"हाँ…" मैंने कहा, लेकिन शायद मेरा जवाब थकान का नहीं था।
उसने हल्के से मुस्कान दी और बिना कुछ कहे कमरे की ओर चल दी।
मैं वहीं खड़ा रह गया…
क्योंकि अब वो मामा की बेटी नेहा नहीं रही थी।
वो कोई ऐसी बन गई थी…
जिसकी चुप्पी भी मेरे अंदर कुछ कह रही थी।
रात का खाना हो चुका था। नानी ने कहा, "नेहा, राहुल को ऊपर वाला कमरा दिखा देना… वहीं पंखा ठीक है।"
नेहा ने चुपचाप सिर हिलाया।
मैं उसके पीछे-पीछे सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। हर क़दम, हर दरवाज़े की चरमराहट जैसे मुझे भीतर तक महसूस हो रही थी।
कमरे में पहुँचकर उसने खिड़की खोल दी —
बाहर हल्की हवा थी, और कुछ दूर मंदिर की घंटियाँ सुनाई दे रही थीं।
"यहाँ से पूरा गाँव दिखता है," उसने कहा।
मैंने कुछ नहीं कहा… बस उसे देखा।
वो खिड़की के पास खड़ी थी, पीले सूट में, बाल अब भी खुले।
उसका चेहरा चाँदनी से हल्का चमक रहा था।
"तेरे जाने के बाद यहाँ बहुत कुछ बदला," वो बोली।
"और तू?" मैंने पूछा।
वो पल भर को चुप रही… फिर धीमे से कहा —
"मैं भी शायद बदल गई हूँ। लेकिन तू देखता नहीं… समझता भी नहीं…"
मैंने उसकी ओर एक क़दम बढ़ाया —
"नेहा… अगर मैं कुछ समझने लगा हूँ, तो शायद अब… बहुत ग़लत वक़्त पर समझ रहा हूँ।"
उसने मेरी तरफ देखा — आँखों में हल्की नमी थी, पर वो मुस्कुरा रही थी।
"कभी-कभी सही चीज़ें भी ग़लत वक़्त पर मिलती हैं…" उसने कहा।
मैं और कुछ नहीं कह पाया।
बस उसी चुप्पी में खड़ा रहा —
जहाँ एक तरफ दिल धड़क रहा था, और दूसरी तरफ रिश्तों की दीवारें खड़ी थीं।
उसने जाते-जाते सिर्फ़ एक बात कही —
"रिश्ते अगर ज़्यादा क़रीब आ जाएं, तो या तो बहुत खूबसूरत हो जाते हैं… या बहुत मुश्किल।"
और फिर वो दरवाज़ा बंद कर गई।
---
? उस रात
मैं खिड़की से बाहर देखता रहा…
और सोचता रहा —
क्या नेहा को भी वही महसूस हुआ जो मुझे हो रहा है?
या मैं सिर्फ़ एक ख़्वाब को थामे बैठा हूँ?
रात को सब अपने-अपने कमरों में थे। बिजली चली गई थी। खिड़की से चांदनी अंदर आ रही थी। मैं बाहर आंगन में बैठा था… और नेहा वहीं पीछे बरामदे की चौखट पर।
हम दोनों चुप थे — लेकिन उस चुप्पी में इतनी बातें थीं, जितनी शब्द कभी कह नहीं सकते।
"याद है," उसने अचानक कहा, "जब तू पाँच साल पहले यहां से गया था, तो रोया नहीं था। पर मैं बहुत रोई थी।"
मैंने उसकी तरफ देखा। उसकी आँखों में वो बचपन था, वो भरोसा... और कुछ ऐसा भी, जिसे शब्दों में बाँधना मुश्किल था।
"तब शायद समझ नहीं पाई थी क्यूँ... अब समझ आती है," उसने कहा।
मैंने धीरे से पूछा, "अब क्या समझ आती है?"
उसने थोड़ी देर देखा, फिर हल्की मुस्कान के साथ बोली:
"कि कभी-कभी कुछ रिश्ते नाम से नहीं, एहसास से बनते हैं।"
बिजली अब तक नहीं आई थी।
गाँव की रातें वैसे भी खामोश होती हैं — ऊपर तारों भरा आसमान, और नीचे टिमटिमाती जुगनुओं की परछाइयाँ।
मैंने अपनी बैग से टॉर्च निकाली — एक हल्की पीली रौशनी सीधी सामने ज़मीन पर पड़ी।
"बड़ा शहर वाला है, सब कुछ साथ लाता है," नेहा ने हँसते हुए कहा और पास बैठ गई।
मैंने टॉर्च उसकी ओर घुमाई — रौशनी उसके चेहरे पर पड़ी।
वो झेंप गई, “ऐसे क्या देख रहा है?”
मैंने टॉर्च थोड़ा नीचे किया, लेकिन नज़रें नहीं हटीं।
उसके चेहरे पर टॉर्च की हल्की सी झिलमिलाहट थी — उसकी आँखें चमक रही थीं, और बालों की कुछ लटें गालों पर गिर रही थीं।
"तुझे कभी इतने पास से नहीं देखा," मेरे मुँह से खुद-ब-खुद निकल गया।
वो चौंकी, लेकिन कुछ नहीं कहा। सिर्फ़ नज़रे झुका लीं।
एक लंबा सन्नाटा… लेकिन वो सन्नाटा बोला।
मैंने टॉर्च ज़मीन पर रख दी — ताकि अब सिर्फ चांदनी बचे।
"नेहा..." मैंने धीरे से उसका नाम लिया, जैसे उसे पुकारा नहीं, महसूस किया।
वो उठी नहीं। बस हल्के से बोली —
"कभी-कभी कुछ एहसास... बोलने नहीं पड़ते।"
मैं कुछ कहता, उससे पहले उसने मेरी तरफ देखा…
वो नज़रें अब सवाल नहीं थीं, जवाब थीं।
टॉर्च अब भी ज़मीन पर रखी थी। उसका हल्का-सा उजाला हमारी परछाइयों को दीवार पर बड़ा बनाकर नाचा रहा था।
नेहा ने उसे देखा और हँसते हुए बोली,
"देख, दीवार पर कितनी डरावनी लग रही हूँ मैं!"
मैंने उसकी तरफ देखा, मुस्कराया,
"डरावनी नहीं... दीवार भी सोच रही होगी, काश मैं भी इंसान होती।"
वो ठहाका मारकर हँस पड़ी।
"तू अब भी वैसा ही है — बातों-बातों में लाइन मारने वाला!"
"और तू अब भी वैसी ही है — मुस्कुरा देती है, तो पूरा दिन ठीक लगने लगता है।"
कुछ देर दोनों चुप रहे... बस पंखे की जगह रात की ठंडी हवा चल रही थी।
"याद है बचपन में तू कितना मोटा था?" नेहा बोली।
"और तू हर बार छुपन-छुपाई में बर्तन में छुपती थी!"
"क्योंकि सबसे ज़्यादा डर तुझसे लगता था।" उसने आँखें तरेरकर कहा।
"डर? मुझसे? तू तो मेरी हील में रोती थी!"
मैंने चिढ़ाया।
हम दोनों अब ज़ोर से हँस रहे थे।
लेकिन फिर अचानक वो चुप हो गई।
उसकी आँखें थोड़ी देर के लिए झील जैसी शांत हो गईं।
"राहुल..." उसने धीमे से कहा, "सब कुछ कितना बदल गया है ना। पहले हम बस खेलते थे... अब हर बात में कोई ख़ास सा मतलब महसूस होता है।"
मैंने उसकी तरफ देखा — वो पलकों से कुछ छुपा रही थी। शायद कोई पुरानी याद या नई उलझन।
"नेहा," मैंने कहा, "बचपन के दिन तो लौट नहीं सकते... पर शायद, हम फिर से वैसे ही बेपरवाह हो सकते हैं।"
उसने मेरी तरफ देखा। थोड़ी सी नमी, थोड़ी सी हँसी… और फिर वही हल्की सी शरारती मुस्कान।
"तो फिर कल सुबह नदी पर चलते हैं? जैसे पहले जाते थे?"
"हाँ, लेकिन इस बार मैं तुझे धक्का दूँगा… पानी में!"
"अच्छा! तो मैं तेरी टॉर्च ले लूँगी!"
"नेहा! वो टॉर्च बहुत महंगी है!"
रात की टॉर्च की हल्की रोशनी में नेहा की आँखें चमक रही थीं। वो मामा की बेटी थी, बचपन की दोस्त, लेकिन आज उसकी हर हँसी मेरे दिल में कुछ मचलन पैदा कर रही थी।
मैंने उसकी तरफ़ देखा, और मुस्कुराते हुए बोला, "तुम्हारे ये बाल… आज कुछ ज़्यादा ही खूबसूरत लग रहे हैं।"
नेहा ने शरारत से मेरी तरफ़ नज़र उठाई, "ओह, क्या तुम्हें सच में पसंद आए?"
मैंने झूठ नहीं बोला, "हाँ, और तुम्हारा ये सूट भी... लगता है, तुम जानती हो कि तुम्हें कैसे खूबसूरत दिखना है।"
वो हँसी, और अपने बालों को एक तरफ़ झटकते हुए बोली, "तुम्हें देखकर तो मैं भी शरमाने लगती हूँ… क्या मेरे साथ ये सब महसूस करना तुम्हारे लिए भी नया है?"
मैं थोड़ा करीब जाकर बोला, "नेहा, ये सब कुछ नया नहीं, बस अब हम दोनों इसे महसूस करने लगे हैं। और शायद… ये थोड़ा सा मज़ेदार भी है।"
उसने आँखें चमकाते हुए कहा, "तो बताओ, अब क्या होगा? क्या तुम्हें डर नहीं लगता कि ये सब… कुछ गलत हो जाएगा?"
मैंने धीमे से कहा, "डर तो है, पर उससे ज़्यादा है ये चाहत कि तुम्हें मैं अपने दिल से कभी जाने न दूँ।"
नेहा ने शरारती मुस्कान दी, और अपनी उँगली से मेरी ठोड़ी पर हल्का सा थपथपाया, "तो फिर, ये नई शुरुआत हो सकती है — जो बचपन की दोस्ती को एक नए सफर पर ले जाए।"
और उसी पल, टॉर्च की रोशनी में, हम दोनों की परछाइयाँ दीवार पर मिलकर एक हो गईं — जैसे हमारी दिलों की दहलीज़ पर एक नई कहानी शुरू हो रही हो।
टॉर्च की रोशनी में उसके चेहरे पर एक चमक थी, और वह थोड़ी नर्वस लेकिन उत्साहित लग रही थी।
हम दोनों धीरे-धीरे खेत की ओर बढ़े,
जहां गाय शांतिपूर्वक घास चर रही थी।
"देखो, यह मेरी सबसे प्यारी गाय है," नेहा ने मुस्कुराते हुए कहा।
"रात में जब बिजली नहीं होती, तो मैं इसे देखती रहती हूं कि वह ठीक से है या नहीं।"
उस पल, उसकी मासूमियत और स्नेह देखकर, मेरा दिल एक अलग ही तरह से धड़क उठा।
रात की ठंडी हवा, टॉर्च की चमक, और नेहा का वो स्नेहिल भाव — सब कुछ एक खूबसूरत याद बन गया।
.रात के ठहरे हुए सन्नाटे में, खेत की हरियाली और चाँद की चाँदनी के बीच मैं और नेहा खड़े थे। हवा में हल्की सी ठंडक थी, लेकिन मेरे दिल की धड़कनें ऐसा महसूस करा रही थीं जैसे कोई आग जल रही हो।
मैंने अपनी हिम्मत जुटाई, और धीरे से नेहा का हाथ थामा। उसकी नज़रें मेरे चेहरे से टकराईं, लेकिन वह कुछ कह नहीं रही थी, बस मुझे सुनने के लिए तैयार थी।
"नेहा," मैंने धीरे से कहा, "तुम मेरे लिए सिर्फ मेरी मामा की बेटी या मेरी बचपन की दोस्त नहीं हो। तुम वो हो, जिसके बिना मेरी दुनिया अधूरी है। क्या तुम मेरी जिंदगी में हमेशा के लिए साथ चलोगी?"
कुछ पल के लिए चाँद की रौशनी ने हमें अपनी छाया में छुपा लिया। नेहा की आँखों में कुछ भाव उमड़ रहे थे — एक तरफ शर्मिंदगी, दूसरी तरफ खुशी।
नेहा (थोड़ी नाराज़गी और उलझन में):
"राहुल, तुम मुझसे ऐसी बात कैसे कह सकते हो?"
"तुम मेरी बुआ के बेटे हो… यही सोचते हो मेरे बारे में?"
"क्या सब कुछ इतने सालों की दोस्ती के बाद भी बस 'रिश्ता' ही दिखता है तुम्हें?"
नेहा कुछ पल चुप रही। आँखों में नमी थी, मगर चेहरा सख़्त।
फिर अचानक उसने मुँह मोड़ लिया, जैसे कुछ छुपाना चाह रही हो।
नेहा:
"तुम समझते क्यों नहीं, राहुल?"
"लोग क्या कहेंगे? मामा का बेटा... मेरी माँ को क्या जवाब दूंगी मैं?"
राहुल धीरे से उसके पास आया, मगर दूरी बनाए रखी। उसकी आवाज़ शांत थी, मगर गहराई से भरी हुई।
राहुल:
"लोगों ने तो हमें बचपन से साथ देखा है, नेहा। पर क्या किसी ने कभी हमारे बीच की बातें समझीं?"
"तू सिर्फ़ मेरी मामा की बेटी नहीं है... तू वो है जो मेरी हर मुस्कान की वजह बनी है।"
"मैंने तुझे रिश्ते के नाम से नहीं, एहसास से चाहा है।"
नेहा ने कुछ नहीं कहा। उसकी आँखों से एक आँसू चुपचाप नीचे गिरा।
राहुल थोड़ा और पास आया, मगर अभी भी बिना छुए।
राहुल:
"अगर तुझे सच में लगता है कि ये सब ग़लत है... तो मैं कभी कुछ नहीं कहूँगा दोबारा। बस... एक बार बता दे, कि तुझे भी कुछ महसूस नहीं होता मेरे लिए।"
नेहा ने धीरे-धीरे उसकी ओर देखा। उसकी आँखें भीग चुकी थीं, पर उनमें अब डर नहीं था — सिर्फ़ सच्चाई थी।
नेहा (धीरे से):
"मुश्किल है... पर झूठ भी नहीं कह सकती..."
"तू जब मंदिर में मेरे लिए इंतज़ार कर रहा था… जब तूने टॉर्च की उस मस्त हवा में बस मुझे देखा… तब मैं कुछ और ही महसूस कर रही थी।"
"हाँ, डरती हूँ... पर तेरे साथ वो डर भी अच्छा लगता है।"
राहुल ने पहली बार हल्की-सी मुस्कान दी।
नेहा उसके पास आई, और उसकी आँखों में देखते हुए बोली:
"हाँ राहुल… अब जो है, जैसा है... मैं बस तेरे साथ चलना चाहती हूँ।"
---कई देर तक खेत में बैठकर बातें करने के बाद, हम दोनों चुपचाप घर की ओर लौटे।
गाँव की पगडंडी पर बस हमारे कदमों की आहट थी… और कभी-कभी कोई कुत्ता दूर से भौंक उठता। आकाश में चाँद आधा था, लेकिन नेहा की आँखों में पूरा चाँद झलक रहा था।
राहुल (धीरे से): "तू थक गई है?"
नेहा (हल्की मुस्कान के साथ): "थक तो गई हूँ... पर पहली बार अच्छा लग रहा है थकना।"
हमने बिना कुछ कहे रास्ता पूरा किया। दरवाज़े पर पहुँचते ही वो रुकी, और एक पल के लिए मेरी तरफ देखा।
नेहा: "आज कुछ बदला है, है ना?"
मैंने सिर हिलाया।
राहुल: "हाँ... लेकिन अच्छा बदला है।"
वो मुस्कराई, और बोली:
नेहा: "अब डर लगना थोड़ा कम हो गया है।"
राहुल: "और मैं वादा करता हूँ, जब तक तू साथ है — डर कभी अकेला नहीं होगा।"
वो धीरे से सर हिलाकर अंदर चली गई।
मैं वहीं थोड़ी देर खड़ा रहा... उसी दरवाज़े पर, जहाँ से बचपन में हम लुका-छुपी खेलते थे। अब यहाँ पर कोई खेल नहीं था — सिर्फ़ एहसास था।
उस रात पहली बार लगा —
"प्यार तब नहीं होता जब कोई साथ आता है...
प्यार तब होता है जब कोई रुकता नहीं, फिर भी ठहर जाता है।"
रात गहरी हो चुकी थी।
खेत से लौटते वक्त मन में जितनी हलचल थी, घर के आंगन में कदम रखते ही उतना ही बोझ महसूस हुआ।
दरवाज़े पर नेहा की माँ खड़ी थी — आँचल सिर पर, माथे पर चिंता की रेखाएं और आँखों में माँ वाली बेचैनी।
नेहा कुछ कहे बिना अंदर चली गई। सिर झुकाए, कदम हल्के, जैसे जानती हो — माँ कुछ पूछे बिना भी बहुत कुछ कह देगी।
मैं वहीं रुक गया।
नेहा की माँ, यानी मेरी मामी, मेरी ओर नहीं देख रही थीं। उनका चेहरा मेरे मामा की ओर था — पर आवाज़ पूरे आंगन में गूंज रही थी।
"बेटी जवान है, और ये... ये भी अब बच्चा नहीं रहा।"
"क्या ज़रूरत थी रात के वक़्त खेतों में अकेले जाने की?"
मामा कुछ नहीं बोले। बस खाट पर बैठे-बैठे अपनी लाठी को ज़मीन पर धीरे-धीरे घसीटते रहे।
"समझा दो इन्हें..."
"कभी कुछ हो गया तो बात सिर्फ़ बदनामी की नहीं रहेगी... बेटी की ज़िंदगी है ये!"
उनका गला हल्का कांपा। शायद आवाज़ ऊँची थी, पर दर्द बहुत गहरा था।
मामा अब भी चुप थे, मगर उनकी आँखों में मैं एक साफ़ शब्द पढ़ पा रहा था — "विश्वास"।
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? एक माँ की चिंता
एक माँ जब अपनी जवान होती बेटी को देखती है, तो उसके मन में कई तरह के डर घर कर जाते हैं।
वो जानती है कि बेटियाँ फूल होती हैं — महकती हैं, पर एक तेज़ हवा से बिखर भी सकती हैं।
वो न नेहा को दोष दे रही थी, न मुझे।
बस वो वो हर मुमकिन खतरा सोच रही थी, जो एक माँ हर रोज़ अनदेखे सपनों में देखती है।
रात ढल चुकी थी।
गाँव की छतें जैसे तारों से बातें कर रही थीं।
मैं और नेहा का भाई — दोनों वहीं छत पर लेटे थे। हवा में गेहूं की खुशबू थी, और दूर कहीं कोई ट्रैक्टर की धीमी-सी गूंज आ रही थी।
दूसरे कोने में, मेरी माँ और बहन लेटी थीं।
उनके पास नेहा थी — चुपचाप, अपनी चादर में सिमटी हुई।
मैंने करवट बदली। और एक पल को नेहा की तरफ देखा — वो शायद मुझे देख रही थी, या फिर सोच रही थी कि मैं देख रहा हूँ।
हमारे बीच शब्द नहीं थे।
पर एक अपनापन, एक अनकहा जुड़ाव था — जो अब रिश्तों के नामों से परे जा चुका था।
कुछ रिश्ते होते हैं — जो नाम से नहीं, एहसास से जुड़ते हैं।
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रात गहरा चुकी थी। घर के हर कोने में सन्नाटा पसरा था, बस छत की मटमैली दीवारों पर जुगनुओं की परछाइयाँ तैर रही थीं।
मैं चटाई पर लेटा था, मगर आँखों में नींद नहीं थी। न जाने क्यों, हर बार करवट लेते हुए निगाहें वहीं चली जातीं — उस तरफ़ जहाँ नेहा लेटी थी।
वो चुप थी, गहरी नींद में भी नहीं — बस आँखें मूँदे, एक अजीब सी शांति के साथ।
उसका चेहरा — आधी चाँदनी में कुछ और ही लग रहा था। जैसे वो वही नेहा हो ही नहीं सकती जिसे मैंने बचपन में मिट्टी के घरौंदों के बीच हँसते देखा था।
अब वो बड़ी हो गई थी। और शायद… मैं भी।
हर बार जब उसकी तरफ़ देखता, कुछ सवाल उठते —
"क्या ये सिर्फ़ अतीत की दोस्ती है? या कुछ ऐसा... जो अब नाम नहीं चाहता?"
मैंने खुद को समझाने की कोशिश की।
"बस आकर्षण है। नींद नहीं है... और उसका होना बस एक एहसास को जागा रहा है।"
लेकिन कहीं न कहीं दिल मानने को तैयार नहीं था।
क्योंकि वो सिर्फ़ दिखती नहीं थी — महसूस होती थी। हर सांस में, हर धड़कन में।
छत पर आधी रात का वो शांत सन्नाटा अब भारी लगने लगा था।
मैंने करवट बदली, आँखें मूँदी, और अपने भीतर की उस आवाज़ को चुप करवाने की कोशिश की।
क्योंकि कभी-कभी...
सिर्फ़ आकर्षण भी बहुत कुछ कह जाता है।
---खामोश रात थी। आंगन में पत्तों की सरसराहट थी और ऊपर तारे शांत खड़े थे।
मैं कब से करवटें बदल रहा था — नींद जैसे आंखों से दूर भागी जा रही थी। उठकर बैठ गया। सामने वो थी — नेहा, छत पर एक कोने में, मां और बहन के बीच लेटी हुई।
चांद की हल्की रोशनी उसके चेहरे पर आ रही थी… और मैं बस देखता रहा।
वो करवट बदलती, तो उसके बाल थोड़े चेहरे पर आ जाते… मैं अनजाने में मुस्करा उठता।
दिल कह रहा था — बस एक बार उससे बात कर लूं, जान लूं कि वो भी ऐसे ही सोच रही है या नहीं।
धीरे-धीरे उठा, बिना किसी आहट के उसकी ओर बढ़ा। घुटनों के बल उसके पास बैठा और बहुत हल्के से फुसफुसाया —
"नेहा..."
उसने आंखें खोलीं। कुछ सेकंड लगे उसे समझने में… और फिर वो चौंक गई।
"तू अभी तक जाग रहा है?" उसने धीमे से पूछा।
मैंने बस इतना कहा —
"दिल भारी है… तेरे बिना कुछ अधूरा सा लग रहा है।"
उसने मेरी ओर देखा… कुछ कहने को हुआ, फिर रुक गई।
उसने खुद को उठाया और खिसक कर थोड़ा किनारे हुई।
"बैठ जा," उसने धीरे से कहा।
हम दोनों अब चुपचाप बैठे थे… रात के उस शांत टुकड़े में, जैसे सिर्फ़ दिलों की धड़कनों की आवाज़ थी।
वो मेरी बगल में बैठी थी, लेकिन उसके हाथ बार-बार अपनी चुन्नी को ठीक कर रहे थे। नज़रें मुझसे नहीं मिल रही थीं।
चाँदनी उसकी पलकों पर ठहर गई थी, और वो हर पल जैसे कुछ छुपाने की कोशिश कर रही थी — अपने जज़्बात… अपनी उलझन… और शायद वो धड़कनें, जो अब थोड़ी तेज़ हो गई थीं।
मैंने उसका नाम धीरे से पुकारा —
"नेहा..."
उसने बिना देखे बस इतना कहा —
"तू ना... पागल है।"
मैं हल्के से मुस्कराया,
"तू भी ना… इतनी प्यारी लग रही है कि खुद से संभाल नहीं पा रहा खुद को।"
उसने धीरे से मेरी ओर देखा। वो नज़र कुछ कह रही थी — न पूरी हाँ थी, न पूरी ना।
बस एक शर्म की हल्की परत, और अंदर कुछ तूफ़ान सा।
वो बोली, बहुत धीमे, जैसे खुद को भी सुनाना नहीं चाहती हो —
"राहुल… ये सब ठीक नहीं है… पर जब तू पास होता है ना, तो कुछ भी ठीक-ग़लत समझ नहीं आता…"
मैंने उसके हाथों को छुआ नहीं, बस पास रखे…
"मैं तुझे कोई तक़लीफ़ नहीं देना चाहता, नेहा। बस तेरे पास रहना चाहता हूँ।"
वो कुछ पल चुप रही… फिर अपनी उंगलियाँ मेरे हाथ के पास सरकाने लगी।
शर्म अभी भी थी, लेकिन अब दूरी नहीं थी।
मैंने उसकी आँखों में झाँकते हुए थोड़ा मज़ाकिया अंदाज़ में कहा,
"अब तो तेरा भाई भी मुझे ‘भाई’ नहीं, ‘जीजा जी’ बोलेगा!"
नेहा पहले तो चौंकी, फिर हँसी रोकने की कोशिश की… लेकिन उसकी मुस्कान आँखों तक पहुँच चुकी थी।
"तू सुधरेगा नहीं कभी," उसने हल्की झिड़की दी — मगर उसमें गुस्सा नहीं, शरारत थी।
मैंने धीरे से कहा,
"सच कह रहा हूँ, सोच — तेरा भाई जब मुझे शादी के कार्ड का पहला लिफाफा देगा और बोलेगा, 'लो जीजा जी, आपकी शादी का न्योता है'…"
नेहा की हँसी अब खुलकर बाहर आ चुकी थी।
"पागल!" उसने धीरे से मेरी तरफ तकिया फेंका।
मैंने उसे पकड़ते हुए मुस्कराकर कहा,
"तेरी मुस्कान के लिए ही तो ये सब करता हूँ… बाकी तो तेरा प्यार ही मेरी सबसे बड़ी जीत है।"
वो अब शांत थी — लेकिन उसके चेहरे पर जो सुकून था, वो किसी जवाब से कहीं ज़्यादा था।
नेहा भी मुस्कुरा पड़ी, आँखें घुमा कर बोली —
"ओहो! तू भी कम नहीं है... तो फिर तू भी मेरे भाई को 'जीजा जी' बोल सकता है!"
नेहा ने मुस्कराते हुए कहा —
"राहुल, तेरी बहन भी तो मेरी उम्र की है... और मेरा भाई भी!
चल, दोनों की सेटिंग करवा दे — घर में दो-दो शादी के ढोल बजेंगे!"
राहुल ने आँखें चौड़ी कीं, जैसे कोई बहुत बड़ा प्लान सुन लिया हो —
"मतलब तू प्लानिंग करके आई है पूरा कुनबा जोड़ने की?"
नेहा शरारती अंदाज़ में बोली —
"कम से कम कोई और भी तो 'जीजा जी' बुलाए तुझे, मैं अकेली थक जाती हूँ!"
राहुल हँसते-हँसते बोला —
"तू सच में कमाल की है, नेहा... शादी से पहले ही रिश्तेदार बढ़ाने लगी!"
राहुल की आँखों में एक हल्की चमक थी,
जैसे चुपचाप कुछ कह रही हो।
वो कुछ बोल नहीं रहा था, मगर उसकी नज़रें बहुत कुछ बयां कर रही थीं।
नेहा उस नज़र को महसूस कर रही थी,
और बार-बार अपनी चुन्नी को संभाल रही थी —
कभी कंधे पर, कभी गर्दन के पास, जैसे उस नज़रों की गर्माहट से बच रही हो।
उसका चेहरा गुलाबी हो रहा था,
आँखें नीची और होठों पर एक अजीब-सी मुस्कान थी —
वो मुस्कान, जो शर्म से भी भरी थी और एक मीठी बेचैनी से भी।
राहुल ने धीरे से कहा,
"नेहा... तू जब ऐसे शरमाती है ना, तो लगता है जैसे पूरा गाँव चुप हो गया हो... बस तुझे ही देख रहा हो।"
नेहा ने आँखें उठाकर देखा,
थोड़ी देर कुछ कहना चाहा... पर शब्द गले में अटक गए।
बस मुस्कराई — और फिर से अपनी चुन्नी से चेहरा आधा ढक लिया।
यहाँ एक शालीन, भावनात्मक और हल्की रोमांटिक शैली में आपकी कहानी को आगे बढ़ाया गया है:
रात का वो पल... जब सब सो चुके थे, पर हमारी नींद कहीं दूर भटक रही थी।
मैं और नेहा छत पर खड़े थे, परिवार से थोड़ा दूर। चारों तरफ़ सन्नाटा था, बस दूर कहीं पत्तों की सरसराहट और रात की ठंडी हवा हमारे साथ थी।
नेहा बालों को कानों के पीछे कर रही थी और अपनी चुनरी को ठीक कर रही थी, जो हवा में बार-बार उड़ रही थी।
उसने मेरी ओर देखा, फिर तुरंत नज़रें झुका लीं। चेहरे पर हल्की मुस्कान थी, मगर आंखों में एक संकोच भी।
मैंने चुपचाप उससे कहा,
"ठंडी हवा बड़ी जिद्दी है, लेकिन तू उससे भी ज़्यादा खूबसूरत लग रही है इस वक़्त।"
वो हँसी, लेकिन धीमे से। जैसे मन में कोई ख़्याल आकर चुपचाप बैठ गया हो।
"ऐसे मत देख," उसने फुसफुसाते हुए कहा,
"सब जाग गए तो?"
"तो क्या?" मैंने मुस्कराकर कहा,
"हम तो बस आसमान के तारे गिन रहे थे..."
वो फिर हँसी, इस बार थोड़ी खुलकर।
उस रात कुछ कहे बिना भी बहुत कुछ कहा गया।
नीचे देखा तो नेहा के मम्मी-पापा एक खाट पर साथ सोए थे।
उनकी थकी हुई आंखें बंद थीं, पर चेहरों पर शांति थी — जैसे पूरे दिन की जिम्मेदारियों से मुक्ति मिल गई हो।
पापा की बाजू माँ के कंधे पर रखी थी, और माँ का सिर हल्के से उनके सीने पर टिका था।
कोई कुछ नहीं कह रहा था, पर उस खामोशी में एक पूरी ज़िंदगी की कहानी छुपी थी।
नेहा ने धीमे से कहा, "यही असली प्यार होता है ना?"
मैंने सिर हिलाया, "हाँ... जिसमें शब्द नहीं, पर साथ होता है।"
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नेहा की हल्की गुलाबी चूनरी फड़फड़ाती हुई उड़ गई — और छत की मुंडेर से नीचे गिर गई।
वो चौंककर पीछे हटी, आँखों में घबराहट थी।
"अरे मेरी चूनरी!" उसने जल्दी से कहा और झुककर नीचे देखने लगी।
मैंने मुस्कराते हुए कहा,
"रुक, मैं लेकर आता हूँ। उड़ने की आदत सिर्फ़ तेरी नहीं, तेरी चूनरी की भी है।"
वो हँस दी — थोड़ी झेंपी हुई, थोड़ी शर्माई हुई।
नीचे खाट पर सोए नेहा के मम्मी-पापा अब भी उसी तरह एक-दूसरे की बाँहों में थे। चूनरी उनके पास जाकर एक किनारे रुक गई थी — जैसे वो भी सुकून ढूंढ़ रही हो।
मैंने नीचे उतरते हुए सोचा…
शायद कुछ चीज़ें उड़ती हैं, बस ये याद दिलाने के लिए कि उन्हें थामने वाला कोई हो।
---"मैंने नेहा की उड़ती हुई चुन्नी पकड़कर उसे लौटाई, मगर जब उसने ओढ़ने को हाथ बढ़ाया, तो मैंने हल्के से कहा — 'रहने दे नेहा... हवा से मत लड़, कभी-कभी खुद को बस महसूस करने दे।'
वो पल भर को ठिठकी, मेरी तरफ देखा… और बिना कुछ कहे मुस्कराकर नजरें झुका लीं। उसके गालों पर शर्म की लाली थी, और उस लम्हे में शायद... एक एहसास ने जन्म लिया था।"
नेहा ने चुपचाप अपनी चुन्नी उतारी और पास ही छत के कोने में रख दी।
राहुल ने देखा, पर कुछ कहा नहीं।
हवा अब भी चल रही थी — हल्की, ठंडी, और रात की स्याही में लिपटी।
नेहा बालों को कानों के पीछे करती हुई छत की मुंडेर तक चली गई।
"कभी-कभी… सब कुछ छोड़कर बस यहीं रह जाने का मन करता है," उसने धीमे से कहा।
राहुल ने उसकी बात सुनी, और बग़ैर कुछ बोले पास जाकर खड़ा हो गया।
नेहा ने उस दिन पीला पटियाला सूट पहना था — हल्की कढ़ाई वाला, जिसकी किनारियाँ हवा में हल्के-हल्के लहर रही थीं।
उसके बाल खुले थे, हवा से बार-बार आंखों के आगे आ जाते… और वो हर बार उन्हें सलीके से कानों के पीछे कर लेती।
राहुल ने एक नज़र उसकी तरफ देखा, और फिर तुरंत नज़रें फेर लीं।
पर उस एक पल में शायद बहुत कुछ महसूस हो चुका था।
वो कोई सज-धज नहीं थी, कोई दिखावा नहीं — सिर्फ़ सादगी। और उसी सादगी में एक अलग सी खूबसूरती थी।
नेहा ने मुस्कराते हुए पूछा,
"क्या देख रहे हो ऐसे?"
राहुल थोड़ा झेंप गया, फिर हल्की मुस्कान के साथ बोला,
"बस... वो पीला रंग तुम पर हमेशा से अच्छा लगता था।"
उसने कुछ नहीं कहा — बस थोड़ा और सिमटकर खड़ी हो गई।
शाम की हवा, खेतों की सोंधी महक, और छत पर खामोशी से खड़े दो दिल — ये शायद कहानी की सबसे नर्म शुरुआत थी।
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To be continue
पात्र:
तुम (राहुल) – 24 साल का, पढ़ाई के बाद पहली बार गांव लौटा।
नेहा – 22 साल की, मामा की बेटी, बचपन में दोस्त थी... अब कुछ और लगती है।
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? भाग 1: मुलाक़ात
गर्मी की छुट्टियों में मैं अपने ननिहाल गया। जैसे ही आंगन में कदम रखा, एक जानी-पहचानी आवाज़ आई:
"राहुल? तू कितना बदल गया है!"
वो दोपहर याद है — जब गांव के बाकी लोग किसी रिश्तेदार की शादी में गए थे। घर में सिर्फ़ मैं और नेहा ही थे।
मैं बरामदे में लेटा था, किताब पढ़ने की कोशिश कर रहा था, मगर दिमाग कहीं और था।
नेहा हल्के से चाय की ट्रे लेकर आई। कुर्ता थोड़ा ढीला था, उसके गीले बाल अब सूखने लगे थे। चाय से ज़्यादा उसका आना महसूस हुआ।
मैंने उसे ऊपर से नीचे तक देखा...
वो वही नेहा थी, जिसे मैं बचपन से जानता था —
पर उस शाम, कुछ अलग था।
उस पीले सूट की कलीदार झालरें हवा से खेल रही थीं,
जैसे हर कली उसकी मुस्कराहट पर थिरक रही हो।
उसके खुले बाल — जैसे किसी पुराने गीत की धुन बनकर लहराए हों।
चेहरे पर कोई सजावट नहीं थी,
सिर्फ़ सादगी की चमक थी… जो किसी भी श्रृंगार से कहीं ज़्यादा गहरी थी।
उसकी आँखें — बड़ी, शांत, और जाने क्या कहती हुईं —
मानो पूरे दिन की थकान को सिर्फ़ एक नज़र में मिटा देतीं।
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उसकी आवाज़ जब मेरे कानों तक पहुँची —
"ठीक लग रही हूँ?"
तो मैं कुछ पल तक कुछ कह ही नहीं पाया।
कैसे कहता — कि आज तू सिर्फ़ ‘ठीक’ नहीं लग रही,
तू वैसी लग रही है… जैसी कोई अपने ख्वाबों में देखे,
और फिर आंख खुलने के बाद भी भूल न पाए।
पूजा ख़त्म हो गई थी।
लोगों की भीड़ मंदिर से निकल रही थी, पर हमारे बीच अब एक अजीब-सी ख़ामोशी थी।
हम साथ-साथ चले — वही धूल-भरी पगडंडी, वही रास्ता…
लेकिन अब हर क़दम जैसे दिल की धड़कनों से जुड़ा हुआ था।
मैं चुप था।
वो भी… पर उसकी चुप्पी अब भारी नहीं, भीतर तक उतरती हुई लग रही थी।
---जैसे ही आंगन में कदम रखा, वो रुक गई।
थोड़ी थकी-सी, पर चेहरा अब भी उजला।
"बहुत लोग थे मंदिर में," उसने कहा, और पल्लू पीछे सरकाते हुए बालों को ठीक किया।
पीला सूट धूप में कुछ ज़्यादा ही चमक रहा था,
और उसके खुले बाल अब माथे पर हल्की नमी छोड़ चुके थे।
मैंने महसूस किया —
वो बस वहीं खड़ी थी, कुछ कहे बिना,
लेकिन उस एक नज़र में जैसे पूरे दिन की बात छिपी थी।
थक गया?" उसने पूछा, मुस्कराकर।
"हाँ…" मैंने कहा, लेकिन शायद मेरा जवाब थकान का नहीं था।
उसने हल्के से मुस्कान दी और बिना कुछ कहे कमरे की ओर चल दी।
मैं वहीं खड़ा रह गया…
क्योंकि अब वो मामा की बेटी नेहा नहीं रही थी।
वो कोई ऐसी बन गई थी…
जिसकी चुप्पी भी मेरे अंदर कुछ कह रही थी।
रात का खाना हो चुका था। नानी ने कहा, "नेहा, राहुल को ऊपर वाला कमरा दिखा देना… वहीं पंखा ठीक है।"
नेहा ने चुपचाप सिर हिलाया।
मैं उसके पीछे-पीछे सीढ़ियाँ चढ़ने लगा। हर क़दम, हर दरवाज़े की चरमराहट जैसे मुझे भीतर तक महसूस हो रही थी।
कमरे में पहुँचकर उसने खिड़की खोल दी —
बाहर हल्की हवा थी, और कुछ दूर मंदिर की घंटियाँ सुनाई दे रही थीं।
"यहाँ से पूरा गाँव दिखता है," उसने कहा।
मैंने कुछ नहीं कहा… बस उसे देखा।
वो खिड़की के पास खड़ी थी, पीले सूट में, बाल अब भी खुले।
उसका चेहरा चाँदनी से हल्का चमक रहा था।
"तेरे जाने के बाद यहाँ बहुत कुछ बदला," वो बोली।
"और तू?" मैंने पूछा।
वो पल भर को चुप रही… फिर धीमे से कहा —
"मैं भी शायद बदल गई हूँ। लेकिन तू देखता नहीं… समझता भी नहीं…"
मैंने उसकी ओर एक क़दम बढ़ाया —
"नेहा… अगर मैं कुछ समझने लगा हूँ, तो शायद अब… बहुत ग़लत वक़्त पर समझ रहा हूँ।"
उसने मेरी तरफ देखा — आँखों में हल्की नमी थी, पर वो मुस्कुरा रही थी।
"कभी-कभी सही चीज़ें भी ग़लत वक़्त पर मिलती हैं…" उसने कहा।
मैं और कुछ नहीं कह पाया।
बस उसी चुप्पी में खड़ा रहा —
जहाँ एक तरफ दिल धड़क रहा था, और दूसरी तरफ रिश्तों की दीवारें खड़ी थीं।
उसने जाते-जाते सिर्फ़ एक बात कही —
"रिश्ते अगर ज़्यादा क़रीब आ जाएं, तो या तो बहुत खूबसूरत हो जाते हैं… या बहुत मुश्किल।"
और फिर वो दरवाज़ा बंद कर गई।
---
? उस रात
मैं खिड़की से बाहर देखता रहा…
और सोचता रहा —
क्या नेहा को भी वही महसूस हुआ जो मुझे हो रहा है?
या मैं सिर्फ़ एक ख़्वाब को थामे बैठा हूँ?
रात को सब अपने-अपने कमरों में थे। बिजली चली गई थी। खिड़की से चांदनी अंदर आ रही थी। मैं बाहर आंगन में बैठा था… और नेहा वहीं पीछे बरामदे की चौखट पर।
हम दोनों चुप थे — लेकिन उस चुप्पी में इतनी बातें थीं, जितनी शब्द कभी कह नहीं सकते।
"याद है," उसने अचानक कहा, "जब तू पाँच साल पहले यहां से गया था, तो रोया नहीं था। पर मैं बहुत रोई थी।"
मैंने उसकी तरफ देखा। उसकी आँखों में वो बचपन था, वो भरोसा... और कुछ ऐसा भी, जिसे शब्दों में बाँधना मुश्किल था।
"तब शायद समझ नहीं पाई थी क्यूँ... अब समझ आती है," उसने कहा।
मैंने धीरे से पूछा, "अब क्या समझ आती है?"
उसने थोड़ी देर देखा, फिर हल्की मुस्कान के साथ बोली:
"कि कभी-कभी कुछ रिश्ते नाम से नहीं, एहसास से बनते हैं।"
बिजली अब तक नहीं आई थी।
गाँव की रातें वैसे भी खामोश होती हैं — ऊपर तारों भरा आसमान, और नीचे टिमटिमाती जुगनुओं की परछाइयाँ।
मैंने अपनी बैग से टॉर्च निकाली — एक हल्की पीली रौशनी सीधी सामने ज़मीन पर पड़ी।
"बड़ा शहर वाला है, सब कुछ साथ लाता है," नेहा ने हँसते हुए कहा और पास बैठ गई।
मैंने टॉर्च उसकी ओर घुमाई — रौशनी उसके चेहरे पर पड़ी।
वो झेंप गई, “ऐसे क्या देख रहा है?”
मैंने टॉर्च थोड़ा नीचे किया, लेकिन नज़रें नहीं हटीं।
उसके चेहरे पर टॉर्च की हल्की सी झिलमिलाहट थी — उसकी आँखें चमक रही थीं, और बालों की कुछ लटें गालों पर गिर रही थीं।
"तुझे कभी इतने पास से नहीं देखा," मेरे मुँह से खुद-ब-खुद निकल गया।
वो चौंकी, लेकिन कुछ नहीं कहा। सिर्फ़ नज़रे झुका लीं।
एक लंबा सन्नाटा… लेकिन वो सन्नाटा बोला।
मैंने टॉर्च ज़मीन पर रख दी — ताकि अब सिर्फ चांदनी बचे।
"नेहा..." मैंने धीरे से उसका नाम लिया, जैसे उसे पुकारा नहीं, महसूस किया।
वो उठी नहीं। बस हल्के से बोली —
"कभी-कभी कुछ एहसास... बोलने नहीं पड़ते।"
मैं कुछ कहता, उससे पहले उसने मेरी तरफ देखा…
वो नज़रें अब सवाल नहीं थीं, जवाब थीं।
टॉर्च अब भी ज़मीन पर रखी थी। उसका हल्का-सा उजाला हमारी परछाइयों को दीवार पर बड़ा बनाकर नाचा रहा था।
नेहा ने उसे देखा और हँसते हुए बोली,
"देख, दीवार पर कितनी डरावनी लग रही हूँ मैं!"
मैंने उसकी तरफ देखा, मुस्कराया,
"डरावनी नहीं... दीवार भी सोच रही होगी, काश मैं भी इंसान होती।"
वो ठहाका मारकर हँस पड़ी।
"तू अब भी वैसा ही है — बातों-बातों में लाइन मारने वाला!"
"और तू अब भी वैसी ही है — मुस्कुरा देती है, तो पूरा दिन ठीक लगने लगता है।"
कुछ देर दोनों चुप रहे... बस पंखे की जगह रात की ठंडी हवा चल रही थी।
"याद है बचपन में तू कितना मोटा था?" नेहा बोली।
"और तू हर बार छुपन-छुपाई में बर्तन में छुपती थी!"
"क्योंकि सबसे ज़्यादा डर तुझसे लगता था।" उसने आँखें तरेरकर कहा।
"डर? मुझसे? तू तो मेरी हील में रोती थी!"
मैंने चिढ़ाया।
हम दोनों अब ज़ोर से हँस रहे थे।
लेकिन फिर अचानक वो चुप हो गई।
उसकी आँखें थोड़ी देर के लिए झील जैसी शांत हो गईं।
"राहुल..." उसने धीमे से कहा, "सब कुछ कितना बदल गया है ना। पहले हम बस खेलते थे... अब हर बात में कोई ख़ास सा मतलब महसूस होता है।"
मैंने उसकी तरफ देखा — वो पलकों से कुछ छुपा रही थी। शायद कोई पुरानी याद या नई उलझन।
"नेहा," मैंने कहा, "बचपन के दिन तो लौट नहीं सकते... पर शायद, हम फिर से वैसे ही बेपरवाह हो सकते हैं।"
उसने मेरी तरफ देखा। थोड़ी सी नमी, थोड़ी सी हँसी… और फिर वही हल्की सी शरारती मुस्कान।
"तो फिर कल सुबह नदी पर चलते हैं? जैसे पहले जाते थे?"
"हाँ, लेकिन इस बार मैं तुझे धक्का दूँगा… पानी में!"
"अच्छा! तो मैं तेरी टॉर्च ले लूँगी!"
"नेहा! वो टॉर्च बहुत महंगी है!"
रात की टॉर्च की हल्की रोशनी में नेहा की आँखें चमक रही थीं। वो मामा की बेटी थी, बचपन की दोस्त, लेकिन आज उसकी हर हँसी मेरे दिल में कुछ मचलन पैदा कर रही थी।
मैंने उसकी तरफ़ देखा, और मुस्कुराते हुए बोला, "तुम्हारे ये बाल… आज कुछ ज़्यादा ही खूबसूरत लग रहे हैं।"
नेहा ने शरारत से मेरी तरफ़ नज़र उठाई, "ओह, क्या तुम्हें सच में पसंद आए?"
मैंने झूठ नहीं बोला, "हाँ, और तुम्हारा ये सूट भी... लगता है, तुम जानती हो कि तुम्हें कैसे खूबसूरत दिखना है।"
वो हँसी, और अपने बालों को एक तरफ़ झटकते हुए बोली, "तुम्हें देखकर तो मैं भी शरमाने लगती हूँ… क्या मेरे साथ ये सब महसूस करना तुम्हारे लिए भी नया है?"
मैं थोड़ा करीब जाकर बोला, "नेहा, ये सब कुछ नया नहीं, बस अब हम दोनों इसे महसूस करने लगे हैं। और शायद… ये थोड़ा सा मज़ेदार भी है।"
उसने आँखें चमकाते हुए कहा, "तो बताओ, अब क्या होगा? क्या तुम्हें डर नहीं लगता कि ये सब… कुछ गलत हो जाएगा?"
मैंने धीमे से कहा, "डर तो है, पर उससे ज़्यादा है ये चाहत कि तुम्हें मैं अपने दिल से कभी जाने न दूँ।"
नेहा ने शरारती मुस्कान दी, और अपनी उँगली से मेरी ठोड़ी पर हल्का सा थपथपाया, "तो फिर, ये नई शुरुआत हो सकती है — जो बचपन की दोस्ती को एक नए सफर पर ले जाए।"
और उसी पल, टॉर्च की रोशनी में, हम दोनों की परछाइयाँ दीवार पर मिलकर एक हो गईं — जैसे हमारी दिलों की दहलीज़ पर एक नई कहानी शुरू हो रही हो।
टॉर्च की रोशनी में उसके चेहरे पर एक चमक थी, और वह थोड़ी नर्वस लेकिन उत्साहित लग रही थी।
हम दोनों धीरे-धीरे खेत की ओर बढ़े,
जहां गाय शांतिपूर्वक घास चर रही थी।
"देखो, यह मेरी सबसे प्यारी गाय है," नेहा ने मुस्कुराते हुए कहा।
"रात में जब बिजली नहीं होती, तो मैं इसे देखती रहती हूं कि वह ठीक से है या नहीं।"
उस पल, उसकी मासूमियत और स्नेह देखकर, मेरा दिल एक अलग ही तरह से धड़क उठा।
रात की ठंडी हवा, टॉर्च की चमक, और नेहा का वो स्नेहिल भाव — सब कुछ एक खूबसूरत याद बन गया।
.रात के ठहरे हुए सन्नाटे में, खेत की हरियाली और चाँद की चाँदनी के बीच मैं और नेहा खड़े थे। हवा में हल्की सी ठंडक थी, लेकिन मेरे दिल की धड़कनें ऐसा महसूस करा रही थीं जैसे कोई आग जल रही हो।
मैंने अपनी हिम्मत जुटाई, और धीरे से नेहा का हाथ थामा। उसकी नज़रें मेरे चेहरे से टकराईं, लेकिन वह कुछ कह नहीं रही थी, बस मुझे सुनने के लिए तैयार थी।
"नेहा," मैंने धीरे से कहा, "तुम मेरे लिए सिर्फ मेरी मामा की बेटी या मेरी बचपन की दोस्त नहीं हो। तुम वो हो, जिसके बिना मेरी दुनिया अधूरी है। क्या तुम मेरी जिंदगी में हमेशा के लिए साथ चलोगी?"
कुछ पल के लिए चाँद की रौशनी ने हमें अपनी छाया में छुपा लिया। नेहा की आँखों में कुछ भाव उमड़ रहे थे — एक तरफ शर्मिंदगी, दूसरी तरफ खुशी।
नेहा (थोड़ी नाराज़गी और उलझन में):
"राहुल, तुम मुझसे ऐसी बात कैसे कह सकते हो?"
"तुम मेरी बुआ के बेटे हो… यही सोचते हो मेरे बारे में?"
"क्या सब कुछ इतने सालों की दोस्ती के बाद भी बस 'रिश्ता' ही दिखता है तुम्हें?"
नेहा कुछ पल चुप रही। आँखों में नमी थी, मगर चेहरा सख़्त।
फिर अचानक उसने मुँह मोड़ लिया, जैसे कुछ छुपाना चाह रही हो।
नेहा:
"तुम समझते क्यों नहीं, राहुल?"
"लोग क्या कहेंगे? मामा का बेटा... मेरी माँ को क्या जवाब दूंगी मैं?"
राहुल धीरे से उसके पास आया, मगर दूरी बनाए रखी। उसकी आवाज़ शांत थी, मगर गहराई से भरी हुई।
राहुल:
"लोगों ने तो हमें बचपन से साथ देखा है, नेहा। पर क्या किसी ने कभी हमारे बीच की बातें समझीं?"
"तू सिर्फ़ मेरी मामा की बेटी नहीं है... तू वो है जो मेरी हर मुस्कान की वजह बनी है।"
"मैंने तुझे रिश्ते के नाम से नहीं, एहसास से चाहा है।"
नेहा ने कुछ नहीं कहा। उसकी आँखों से एक आँसू चुपचाप नीचे गिरा।
राहुल थोड़ा और पास आया, मगर अभी भी बिना छुए।
राहुल:
"अगर तुझे सच में लगता है कि ये सब ग़लत है... तो मैं कभी कुछ नहीं कहूँगा दोबारा। बस... एक बार बता दे, कि तुझे भी कुछ महसूस नहीं होता मेरे लिए।"
नेहा ने धीरे-धीरे उसकी ओर देखा। उसकी आँखें भीग चुकी थीं, पर उनमें अब डर नहीं था — सिर्फ़ सच्चाई थी।
नेहा (धीरे से):
"मुश्किल है... पर झूठ भी नहीं कह सकती..."
"तू जब मंदिर में मेरे लिए इंतज़ार कर रहा था… जब तूने टॉर्च की उस मस्त हवा में बस मुझे देखा… तब मैं कुछ और ही महसूस कर रही थी।"
"हाँ, डरती हूँ... पर तेरे साथ वो डर भी अच्छा लगता है।"
राहुल ने पहली बार हल्की-सी मुस्कान दी।
नेहा उसके पास आई, और उसकी आँखों में देखते हुए बोली:
"हाँ राहुल… अब जो है, जैसा है... मैं बस तेरे साथ चलना चाहती हूँ।"
---कई देर तक खेत में बैठकर बातें करने के बाद, हम दोनों चुपचाप घर की ओर लौटे।
गाँव की पगडंडी पर बस हमारे कदमों की आहट थी… और कभी-कभी कोई कुत्ता दूर से भौंक उठता। आकाश में चाँद आधा था, लेकिन नेहा की आँखों में पूरा चाँद झलक रहा था।
राहुल (धीरे से): "तू थक गई है?"
नेहा (हल्की मुस्कान के साथ): "थक तो गई हूँ... पर पहली बार अच्छा लग रहा है थकना।"
हमने बिना कुछ कहे रास्ता पूरा किया। दरवाज़े पर पहुँचते ही वो रुकी, और एक पल के लिए मेरी तरफ देखा।
नेहा: "आज कुछ बदला है, है ना?"
मैंने सिर हिलाया।
राहुल: "हाँ... लेकिन अच्छा बदला है।"
वो मुस्कराई, और बोली:
नेहा: "अब डर लगना थोड़ा कम हो गया है।"
राहुल: "और मैं वादा करता हूँ, जब तक तू साथ है — डर कभी अकेला नहीं होगा।"
वो धीरे से सर हिलाकर अंदर चली गई।
मैं वहीं थोड़ी देर खड़ा रहा... उसी दरवाज़े पर, जहाँ से बचपन में हम लुका-छुपी खेलते थे। अब यहाँ पर कोई खेल नहीं था — सिर्फ़ एहसास था।
उस रात पहली बार लगा —
"प्यार तब नहीं होता जब कोई साथ आता है...
प्यार तब होता है जब कोई रुकता नहीं, फिर भी ठहर जाता है।"
रात गहरी हो चुकी थी।
खेत से लौटते वक्त मन में जितनी हलचल थी, घर के आंगन में कदम रखते ही उतना ही बोझ महसूस हुआ।
दरवाज़े पर नेहा की माँ खड़ी थी — आँचल सिर पर, माथे पर चिंता की रेखाएं और आँखों में माँ वाली बेचैनी।
नेहा कुछ कहे बिना अंदर चली गई। सिर झुकाए, कदम हल्के, जैसे जानती हो — माँ कुछ पूछे बिना भी बहुत कुछ कह देगी।
मैं वहीं रुक गया।
नेहा की माँ, यानी मेरी मामी, मेरी ओर नहीं देख रही थीं। उनका चेहरा मेरे मामा की ओर था — पर आवाज़ पूरे आंगन में गूंज रही थी।
"बेटी जवान है, और ये... ये भी अब बच्चा नहीं रहा।"
"क्या ज़रूरत थी रात के वक़्त खेतों में अकेले जाने की?"
मामा कुछ नहीं बोले। बस खाट पर बैठे-बैठे अपनी लाठी को ज़मीन पर धीरे-धीरे घसीटते रहे।
"समझा दो इन्हें..."
"कभी कुछ हो गया तो बात सिर्फ़ बदनामी की नहीं रहेगी... बेटी की ज़िंदगी है ये!"
उनका गला हल्का कांपा। शायद आवाज़ ऊँची थी, पर दर्द बहुत गहरा था।
मामा अब भी चुप थे, मगर उनकी आँखों में मैं एक साफ़ शब्द पढ़ पा रहा था — "विश्वास"।
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? एक माँ की चिंता
एक माँ जब अपनी जवान होती बेटी को देखती है, तो उसके मन में कई तरह के डर घर कर जाते हैं।
वो जानती है कि बेटियाँ फूल होती हैं — महकती हैं, पर एक तेज़ हवा से बिखर भी सकती हैं।
वो न नेहा को दोष दे रही थी, न मुझे।
बस वो वो हर मुमकिन खतरा सोच रही थी, जो एक माँ हर रोज़ अनदेखे सपनों में देखती है।
रात ढल चुकी थी।
गाँव की छतें जैसे तारों से बातें कर रही थीं।
मैं और नेहा का भाई — दोनों वहीं छत पर लेटे थे। हवा में गेहूं की खुशबू थी, और दूर कहीं कोई ट्रैक्टर की धीमी-सी गूंज आ रही थी।
दूसरे कोने में, मेरी माँ और बहन लेटी थीं।
उनके पास नेहा थी — चुपचाप, अपनी चादर में सिमटी हुई।
मैंने करवट बदली। और एक पल को नेहा की तरफ देखा — वो शायद मुझे देख रही थी, या फिर सोच रही थी कि मैं देख रहा हूँ।
हमारे बीच शब्द नहीं थे।
पर एक अपनापन, एक अनकहा जुड़ाव था — जो अब रिश्तों के नामों से परे जा चुका था।
कुछ रिश्ते होते हैं — जो नाम से नहीं, एहसास से जुड़ते हैं।
---
रात गहरा चुकी थी। घर के हर कोने में सन्नाटा पसरा था, बस छत की मटमैली दीवारों पर जुगनुओं की परछाइयाँ तैर रही थीं।
मैं चटाई पर लेटा था, मगर आँखों में नींद नहीं थी। न जाने क्यों, हर बार करवट लेते हुए निगाहें वहीं चली जातीं — उस तरफ़ जहाँ नेहा लेटी थी।
वो चुप थी, गहरी नींद में भी नहीं — बस आँखें मूँदे, एक अजीब सी शांति के साथ।
उसका चेहरा — आधी चाँदनी में कुछ और ही लग रहा था। जैसे वो वही नेहा हो ही नहीं सकती जिसे मैंने बचपन में मिट्टी के घरौंदों के बीच हँसते देखा था।
अब वो बड़ी हो गई थी। और शायद… मैं भी।
हर बार जब उसकी तरफ़ देखता, कुछ सवाल उठते —
"क्या ये सिर्फ़ अतीत की दोस्ती है? या कुछ ऐसा... जो अब नाम नहीं चाहता?"
मैंने खुद को समझाने की कोशिश की।
"बस आकर्षण है। नींद नहीं है... और उसका होना बस एक एहसास को जागा रहा है।"
लेकिन कहीं न कहीं दिल मानने को तैयार नहीं था।
क्योंकि वो सिर्फ़ दिखती नहीं थी — महसूस होती थी। हर सांस में, हर धड़कन में।
छत पर आधी रात का वो शांत सन्नाटा अब भारी लगने लगा था।
मैंने करवट बदली, आँखें मूँदी, और अपने भीतर की उस आवाज़ को चुप करवाने की कोशिश की।
क्योंकि कभी-कभी...
सिर्फ़ आकर्षण भी बहुत कुछ कह जाता है।
---खामोश रात थी। आंगन में पत्तों की सरसराहट थी और ऊपर तारे शांत खड़े थे।
मैं कब से करवटें बदल रहा था — नींद जैसे आंखों से दूर भागी जा रही थी। उठकर बैठ गया। सामने वो थी — नेहा, छत पर एक कोने में, मां और बहन के बीच लेटी हुई।
चांद की हल्की रोशनी उसके चेहरे पर आ रही थी… और मैं बस देखता रहा।
वो करवट बदलती, तो उसके बाल थोड़े चेहरे पर आ जाते… मैं अनजाने में मुस्करा उठता।
दिल कह रहा था — बस एक बार उससे बात कर लूं, जान लूं कि वो भी ऐसे ही सोच रही है या नहीं।
धीरे-धीरे उठा, बिना किसी आहट के उसकी ओर बढ़ा। घुटनों के बल उसके पास बैठा और बहुत हल्के से फुसफुसाया —
"नेहा..."
उसने आंखें खोलीं। कुछ सेकंड लगे उसे समझने में… और फिर वो चौंक गई।
"तू अभी तक जाग रहा है?" उसने धीमे से पूछा।
मैंने बस इतना कहा —
"दिल भारी है… तेरे बिना कुछ अधूरा सा लग रहा है।"
उसने मेरी ओर देखा… कुछ कहने को हुआ, फिर रुक गई।
उसने खुद को उठाया और खिसक कर थोड़ा किनारे हुई।
"बैठ जा," उसने धीरे से कहा।
हम दोनों अब चुपचाप बैठे थे… रात के उस शांत टुकड़े में, जैसे सिर्फ़ दिलों की धड़कनों की आवाज़ थी।
वो मेरी बगल में बैठी थी, लेकिन उसके हाथ बार-बार अपनी चुन्नी को ठीक कर रहे थे। नज़रें मुझसे नहीं मिल रही थीं।
चाँदनी उसकी पलकों पर ठहर गई थी, और वो हर पल जैसे कुछ छुपाने की कोशिश कर रही थी — अपने जज़्बात… अपनी उलझन… और शायद वो धड़कनें, जो अब थोड़ी तेज़ हो गई थीं।
मैंने उसका नाम धीरे से पुकारा —
"नेहा..."
उसने बिना देखे बस इतना कहा —
"तू ना... पागल है।"
मैं हल्के से मुस्कराया,
"तू भी ना… इतनी प्यारी लग रही है कि खुद से संभाल नहीं पा रहा खुद को।"
उसने धीरे से मेरी ओर देखा। वो नज़र कुछ कह रही थी — न पूरी हाँ थी, न पूरी ना।
बस एक शर्म की हल्की परत, और अंदर कुछ तूफ़ान सा।
वो बोली, बहुत धीमे, जैसे खुद को भी सुनाना नहीं चाहती हो —
"राहुल… ये सब ठीक नहीं है… पर जब तू पास होता है ना, तो कुछ भी ठीक-ग़लत समझ नहीं आता…"
मैंने उसके हाथों को छुआ नहीं, बस पास रखे…
"मैं तुझे कोई तक़लीफ़ नहीं देना चाहता, नेहा। बस तेरे पास रहना चाहता हूँ।"
वो कुछ पल चुप रही… फिर अपनी उंगलियाँ मेरे हाथ के पास सरकाने लगी।
शर्म अभी भी थी, लेकिन अब दूरी नहीं थी।
मैंने उसकी आँखों में झाँकते हुए थोड़ा मज़ाकिया अंदाज़ में कहा,
"अब तो तेरा भाई भी मुझे ‘भाई’ नहीं, ‘जीजा जी’ बोलेगा!"
नेहा पहले तो चौंकी, फिर हँसी रोकने की कोशिश की… लेकिन उसकी मुस्कान आँखों तक पहुँच चुकी थी।
"तू सुधरेगा नहीं कभी," उसने हल्की झिड़की दी — मगर उसमें गुस्सा नहीं, शरारत थी।
मैंने धीरे से कहा,
"सच कह रहा हूँ, सोच — तेरा भाई जब मुझे शादी के कार्ड का पहला लिफाफा देगा और बोलेगा, 'लो जीजा जी, आपकी शादी का न्योता है'…"
नेहा की हँसी अब खुलकर बाहर आ चुकी थी।
"पागल!" उसने धीरे से मेरी तरफ तकिया फेंका।
मैंने उसे पकड़ते हुए मुस्कराकर कहा,
"तेरी मुस्कान के लिए ही तो ये सब करता हूँ… बाकी तो तेरा प्यार ही मेरी सबसे बड़ी जीत है।"
वो अब शांत थी — लेकिन उसके चेहरे पर जो सुकून था, वो किसी जवाब से कहीं ज़्यादा था।
नेहा भी मुस्कुरा पड़ी, आँखें घुमा कर बोली —
"ओहो! तू भी कम नहीं है... तो फिर तू भी मेरे भाई को 'जीजा जी' बोल सकता है!"
नेहा ने मुस्कराते हुए कहा —
"राहुल, तेरी बहन भी तो मेरी उम्र की है... और मेरा भाई भी!
चल, दोनों की सेटिंग करवा दे — घर में दो-दो शादी के ढोल बजेंगे!"
राहुल ने आँखें चौड़ी कीं, जैसे कोई बहुत बड़ा प्लान सुन लिया हो —
"मतलब तू प्लानिंग करके आई है पूरा कुनबा जोड़ने की?"
नेहा शरारती अंदाज़ में बोली —
"कम से कम कोई और भी तो 'जीजा जी' बुलाए तुझे, मैं अकेली थक जाती हूँ!"
राहुल हँसते-हँसते बोला —
"तू सच में कमाल की है, नेहा... शादी से पहले ही रिश्तेदार बढ़ाने लगी!"
राहुल की आँखों में एक हल्की चमक थी,
जैसे चुपचाप कुछ कह रही हो।
वो कुछ बोल नहीं रहा था, मगर उसकी नज़रें बहुत कुछ बयां कर रही थीं।
नेहा उस नज़र को महसूस कर रही थी,
और बार-बार अपनी चुन्नी को संभाल रही थी —
कभी कंधे पर, कभी गर्दन के पास, जैसे उस नज़रों की गर्माहट से बच रही हो।
उसका चेहरा गुलाबी हो रहा था,
आँखें नीची और होठों पर एक अजीब-सी मुस्कान थी —
वो मुस्कान, जो शर्म से भी भरी थी और एक मीठी बेचैनी से भी।
राहुल ने धीरे से कहा,
"नेहा... तू जब ऐसे शरमाती है ना, तो लगता है जैसे पूरा गाँव चुप हो गया हो... बस तुझे ही देख रहा हो।"
नेहा ने आँखें उठाकर देखा,
थोड़ी देर कुछ कहना चाहा... पर शब्द गले में अटक गए।
बस मुस्कराई — और फिर से अपनी चुन्नी से चेहरा आधा ढक लिया।
यहाँ एक शालीन, भावनात्मक और हल्की रोमांटिक शैली में आपकी कहानी को आगे बढ़ाया गया है:
रात का वो पल... जब सब सो चुके थे, पर हमारी नींद कहीं दूर भटक रही थी।
मैं और नेहा छत पर खड़े थे, परिवार से थोड़ा दूर। चारों तरफ़ सन्नाटा था, बस दूर कहीं पत्तों की सरसराहट और रात की ठंडी हवा हमारे साथ थी।
नेहा बालों को कानों के पीछे कर रही थी और अपनी चुनरी को ठीक कर रही थी, जो हवा में बार-बार उड़ रही थी।
उसने मेरी ओर देखा, फिर तुरंत नज़रें झुका लीं। चेहरे पर हल्की मुस्कान थी, मगर आंखों में एक संकोच भी।
मैंने चुपचाप उससे कहा,
"ठंडी हवा बड़ी जिद्दी है, लेकिन तू उससे भी ज़्यादा खूबसूरत लग रही है इस वक़्त।"
वो हँसी, लेकिन धीमे से। जैसे मन में कोई ख़्याल आकर चुपचाप बैठ गया हो।
"ऐसे मत देख," उसने फुसफुसाते हुए कहा,
"सब जाग गए तो?"
"तो क्या?" मैंने मुस्कराकर कहा,
"हम तो बस आसमान के तारे गिन रहे थे..."
वो फिर हँसी, इस बार थोड़ी खुलकर।
उस रात कुछ कहे बिना भी बहुत कुछ कहा गया।
नीचे देखा तो नेहा के मम्मी-पापा एक खाट पर साथ सोए थे।
उनकी थकी हुई आंखें बंद थीं, पर चेहरों पर शांति थी — जैसे पूरे दिन की जिम्मेदारियों से मुक्ति मिल गई हो।
पापा की बाजू माँ के कंधे पर रखी थी, और माँ का सिर हल्के से उनके सीने पर टिका था।
कोई कुछ नहीं कह रहा था, पर उस खामोशी में एक पूरी ज़िंदगी की कहानी छुपी थी।
नेहा ने धीमे से कहा, "यही असली प्यार होता है ना?"
मैंने सिर हिलाया, "हाँ... जिसमें शब्द नहीं, पर साथ होता है।"
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नेहा की हल्की गुलाबी चूनरी फड़फड़ाती हुई उड़ गई — और छत की मुंडेर से नीचे गिर गई।
वो चौंककर पीछे हटी, आँखों में घबराहट थी।
"अरे मेरी चूनरी!" उसने जल्दी से कहा और झुककर नीचे देखने लगी।
मैंने मुस्कराते हुए कहा,
"रुक, मैं लेकर आता हूँ। उड़ने की आदत सिर्फ़ तेरी नहीं, तेरी चूनरी की भी है।"
वो हँस दी — थोड़ी झेंपी हुई, थोड़ी शर्माई हुई।
नीचे खाट पर सोए नेहा के मम्मी-पापा अब भी उसी तरह एक-दूसरे की बाँहों में थे। चूनरी उनके पास जाकर एक किनारे रुक गई थी — जैसे वो भी सुकून ढूंढ़ रही हो।
मैंने नीचे उतरते हुए सोचा…
शायद कुछ चीज़ें उड़ती हैं, बस ये याद दिलाने के लिए कि उन्हें थामने वाला कोई हो।
---"मैंने नेहा की उड़ती हुई चुन्नी पकड़कर उसे लौटाई, मगर जब उसने ओढ़ने को हाथ बढ़ाया, तो मैंने हल्के से कहा — 'रहने दे नेहा... हवा से मत लड़, कभी-कभी खुद को बस महसूस करने दे।'
वो पल भर को ठिठकी, मेरी तरफ देखा… और बिना कुछ कहे मुस्कराकर नजरें झुका लीं। उसके गालों पर शर्म की लाली थी, और उस लम्हे में शायद... एक एहसास ने जन्म लिया था।"
नेहा ने चुपचाप अपनी चुन्नी उतारी और पास ही छत के कोने में रख दी।
राहुल ने देखा, पर कुछ कहा नहीं।
हवा अब भी चल रही थी — हल्की, ठंडी, और रात की स्याही में लिपटी।
नेहा बालों को कानों के पीछे करती हुई छत की मुंडेर तक चली गई।
"कभी-कभी… सब कुछ छोड़कर बस यहीं रह जाने का मन करता है," उसने धीमे से कहा।
राहुल ने उसकी बात सुनी, और बग़ैर कुछ बोले पास जाकर खड़ा हो गया।
नेहा ने उस दिन पीला पटियाला सूट पहना था — हल्की कढ़ाई वाला, जिसकी किनारियाँ हवा में हल्के-हल्के लहर रही थीं।
उसके बाल खुले थे, हवा से बार-बार आंखों के आगे आ जाते… और वो हर बार उन्हें सलीके से कानों के पीछे कर लेती।
राहुल ने एक नज़र उसकी तरफ देखा, और फिर तुरंत नज़रें फेर लीं।
पर उस एक पल में शायद बहुत कुछ महसूस हो चुका था।
वो कोई सज-धज नहीं थी, कोई दिखावा नहीं — सिर्फ़ सादगी। और उसी सादगी में एक अलग सी खूबसूरती थी।
नेहा ने मुस्कराते हुए पूछा,
"क्या देख रहे हो ऐसे?"
राहुल थोड़ा झेंप गया, फिर हल्की मुस्कान के साथ बोला,
"बस... वो पीला रंग तुम पर हमेशा से अच्छा लगता था।"
उसने कुछ नहीं कहा — बस थोड़ा और सिमटकर खड़ी हो गई।
शाम की हवा, खेतों की सोंधी महक, और छत पर खामोशी से खड़े दो दिल — ये शायद कहानी की सबसे नर्म शुरुआत थी।
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To be continue