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Adultery साक्षी की दुनिया
#5
रामू की दराज़ में रखा पुराना नोकिया एक घंटे बाद अचानक बजा। उसने स्क्रीन पर देखा और आँखें सिकोड़ लीं।

"इस्माइल भाई।"

इस नाम ने लगभग एक दशक से उसकी स्क्रीन पर झलक नहीं मारी थी। जैसे धुंध में से कोई आवाज़ सुनाई दे—आधा सपना, आधा चमत्कार।

उसने कॉल उठाई। "हैलो?"

"रामू! तू अब तक ज़िंदा है? या किसी ने आखिरकार तेरी फोटो पर माला चढ़ा दी?"

रामू हँसा, उसका सीना उस खास किस्म की खुशी से भर गया जो बस पुराने दोस्तों से मिलती है। "अब भी साँस ले रहा हूँ, भाई। वही घर। वही पंखा। बस बाल थोड़े कम।"

"वो पंखा अब तो मंदिर में चढ़ाने लायक हो गया होगा," इस्माइल ने छेड़ा। "तेरी आवाज़ बिल्कुल वैसी की वैसी है। लगता है अब भी नारियल का तेल लगाता है और उस अड़ियल दिल को झाड़-पोंछ के रखता है।"

"तू भारी लग रहा है। बूढ़ा भी।"

"दोनों ही हूँ। और... शादी कर रहा हूँ।"

रामू चौंका। "शादी?"

"हाँ हाँ। चौथी। निकाह अगले महीने है, तारीख तय नहीं हुई। लेकिन तू मरे बिना आएगा तो सही?"

रामू सीधा बैठ गया। "पागल है क्या? कौन है वो?"

एक पल की चुप्पी। फिर इस्माइल ने धीमे से कहा, "नाम है नूर। इक्कीस साल की है।"

रामू खाँसा। "इक्कीस? वो तो तेरी परपोती जितनी हो सकती है।"

"जानता हूँ," इस्माइल लगभग हँसते हुए बोला। "कभी मेरे पोते की girlfriend थी।"

रामू के हाथ से फोन गिरते-गिरते बचा। "क्या?"

"लंबी कहानी है। पिछले साल बुरा ब्रेकअप हुआ। सबको लगा पोता बाहर चला जाएगा, जैसे प्लान था। पर किस्मत ने लात मार दी — न वीज़ा, न नौकरी, न भागने का रास्ता। यहीं अटक गया। हॉस्टल में शिफ्ट करना पड़ा, कॉलेज के पास — कोई और जगह नहीं थी रहने की। मर्जी से नहीं गया, मजबूरी थी। बेचारा आज भी उसे देखता है। कुछ नहीं कहता, लेकिन मैं जानता हूँ। उसका चेहरा ही बदल जाता है जब कोई उसका नाम ले ले। जैसे उसका दिल हिचकियाँ लेने लगे।

अब वो उससे बात नहीं करता। हिम्मत भी नहीं है। लेकिन देखता है। हर दो हफ्ते में जब घर आता है, तो किसी बहाने मेरी दुकान पर आता है। दूर खड़ा रहता है। नूर अब यहीं काम करती है — पार्ट-टाइम। हिसाब-किताब, चाय-वाय। जैसे ख़ामोशी की मालकिन हो। और वो? बस कोने में खड़ा उसे देखता रहता है। एक शब्द नहीं कहता। वो तो उसकी तरफ़ देखती भी नहीं। जैसे वो कोई फर्नीचर हो। जैसे कभी उसका था ही नहीं।

पर फिर भी आता है। अब भी उम्मीद रखता है। हर बार थोड़ा और जलता है।"

रामू सन्न रह गया। "और अब वो तुझसे शादी कर रही है?"

"उसने खुद चुना। मैंने निकाह का प्रस्ताव दिया — कोई छुपी हुई बात नहीं, कोई इश्कबाज़ी नहीं। एक proper रिश्ता। और क्यों नहीं? बूढ़ा हूँ, पर अब भी इस टूटे-फूटे खानदान का शेर मैं ही हूँ। अगर इज़्ज़त से कुछ करना है, तो वही करूंगा। और उसने हाँ कर दी।"

"और तेरा पोता?"

"अब भी उसे मैसेज करता है। वॉइस नोट्स, कविताएँ, कैंपस की तस्वीरें भेजता है। उसे नहीं पता कि नूर की शादी होने वाली है। किसी ने नहीं बताया। नूर ने महीनों से जवाब नहीं दिया, पर वो अब भी कोशिश करता है — जैसे उसकी चुप्पी कोई नेटवर्क प्रॉब्लम हो जिसे वो ठीक कर लेगा। अब भी समझने की कोशिश करता है कि वो उसे छोड़कर क्यों गई। लेकिन मुझे लगता है... उसने नूर को कभी देखा ही नहीं। बस वही देखा जो वो चाहना चाहता था।"

रामू की आवाज़ धीमी थी। "और वो तुझे देखती है?"

"हाँ," इस्माइल बोला। "मुझे अपने भविष्य जैसा नहीं देखती। पर मुझे हकीकत की तरह देखती है। और फिलहाल, इतना ही काफी है।"

कुछ पल की चुप्पी छा गई। फिर रामू ने लंबी साँस छोड़ी। "अजीब है कि आज कॉल किया। मैं भी तुझे सोच रहा था।"

"क्यों? मेरी घटिया शायरी की याद आई?"

"नहीं," रामू बुदबुदाया। "क्योंकि मेरे साथ भी कुछ अजीब हो रहा है।"

"बता।"

रामू ने लंबी साँस भरी, शब्द भारी थे पर ठोस। "एक जोड़ा ऊपर वाले फ्लैट में शिफ्ट हुआ है। उनके साथ एक छोटा बच्चा भी है। बीवी का नाम है साक्षी।"

इस्माइल चुप हो गया।

"हाँ," रामू ने कहा। "साक्षी नाम। पहली बार सुना तो लगा जैसे मेरी पत्नी वापस लौट आई हो। पर जब देखा — अलग थी। जवान। तेज़। ऐसे चलती है जैसे गलियारा उसका हो। उसकी साड़ी वैसे ही रौशनी पकड़ती है जैसे मेरी साक्षी की करती थी। मैं देखना बंद नहीं कर पाया।"

"रामू..."

"मैं अब उसकी पायल सुनने लगा हूँ। उसकी चूड़ियों की खनक का इंतज़ार करता हूँ। जब जानता हूँ वो बाहर होगी तो चाय बनाने लगता हूँ। और पिछले हफ्ते... मैंने उसे मेरी साक्षी का मंगलसूत्र दे दिया।"

"तूने क्या किया?"

"एक डिब्बे में। उसके दरवाज़े पे रखा। एक नोट लिखा — अगर इसका कोई मतलब नहीं, तो लौटा देना। अगर कुछ है, तो पहन लेना।"

"और?"

"वो आई। हाथ में लेकर आई। मुझसे पूछा क्यों। मैंने सब बता दिया। उसने पहना नहीं। लेकिन लौटाया भी नहीं।"

इस्माइल ने लंबी साँस छोड़ी। "वो शादीशुदा है, रामू।"

"जानता हूँ। इसलिए कभी माँगा नहीं। बस ऑफर किया। चाहे तो जा सकती है। चाहे तो रुक सकती है। पर जो भी हो, वो अब मेरे अंदर रह चुकी है।"

"पागल बूढ़ा।"

"उसके आने से घर फिर से ज़िंदा लगने लगा है। दीवारें उसके क़दमों पे जवाब देती हैं। ख़ामोशी भी उसके सामने झुक जाती है।"

इस्माइल काफी देर चुप रहा। "तू हमेशा सबसे ज़्यादा तब गिरा जब सबसे कम उम्मीद थी।"

"वो मुझे एहसास दिलाती है कि मैं अब भी अधूरा नहीं हूँ। अब भी देखा जा सकता हूँ।"

"शायद यही तो हम सब चाहते हैं। कि आख़िरी बार कोई हमें फिर से देख ले।"

दोनों करीब एक घंटे तक कॉल पर रहे। बात करते रहे — उम्र, तन्हाई, भूख और दूसरी बार मिलने वाले मौक़ों के बारे में। हल्दी की गोलियों, जनाज़ों की खबरों, भूले हुए रिश्तेदारों और कराहती हड्डियों की भी बात हुई।

कॉल कटने के बाद भी, रामू फोन हाथ में लिए बैठा रहा। स्क्रीन पर टिमटिमाती सिग्नल की लकीर अब थक चुकी थी।

बाहर, साक्षी के फ्लैट की लाइटें एक-एक कर बुझने लगीं।

रामू ने नूर के बारे में सोचा। इस्माइल के बारे में। और उन आगों के बारे में जो किसी शोर के साथ नहीं आतीं — सिर्फ़ एक निमंत्रण के साथ।

और सोचने लगा, क्या साक्षी कभी उस डिब्बे को फिर से खोलेगी?

और क्या वो उस अतीत को पहन लेगी... जो अब उसका हो चुका है।

----

ये सब बहुत धीरे शुरू हुआ, जैसे हर ख़तरनाक चीज़ शुरू होती है। साक्षी ने कभी कोई हद पार नहीं की — वो बस उसके चारों ओर चलती रही, नंगे पाँव, खुली बाँहों के साथ, जैसे इंतज़ार कर रही हो कि वो हद खुद आकर उसे छू ले। उसने फासले से वैसे खेला जैसे कुछ औरतें रेशम से खेलती हैं — तनाव को परदे की तरह लटका कर, नाज़ुक लेकिन जानबूझकर।

मंगलसूत्र उसके पास पहुँचा — पर न पहना गया, न लौटाया गया। रामू ने कुछ नहीं कहा। वो काला डिब्बा अब भी साक्षी की ड्रेसर पर रखा था, न खोला गया, न छुआ गया, लेकिन हमेशा दिखता रहा। जैसे कमरे में कोई जानवर हो, जो कोने में चुपचाप मंडरा रहा हो। उसका न पहनना ख़ामोशी से ज़्यादा तेज़ बोला, और उसका न लौटाना वादे की तरह गूंजा। उसका इशारा — आधा बंद, आधा खुला — शब्दों से कहीं ज़्यादा पैना हो गया था। अब उनके बीच की चुप्पी गैर-मौजूदगी नहीं लगती थी। वो भारी थी, किसी जंगली चीज़ की तरह सांस लेती हुई। वो इंतज़ार कर रही थी।

जिस दिन परिवार निकलने वाला था, साक्षी गेट के पास पवन और उनके बेटे के साथ खड़ी थी, मकानमालकिन जाननी और उसके पति से बात कर रही थी, जो अपना सामान एक सफेद SUV में रख रहे थे। हवा में गर्मी भरी थी और बैग्स के पहिए कंक्रीट पर चीख रहे थे।

"अक्का, बस एक बार अप्पा को देख लेना, ठीक है? ये लिस्ट है — खाने-पीने का, दवाइयों का," जाननी ने एक कागज़ पकड़ाते हुए कहा।

"बिलकुल," साक्षी मुस्कराई। "हम उन्हें नाश्ता और रात का खाना दे देंगे। कोई परेशानी नहीं।"

"वो इन दिनों बहुत चूज़ी हो गए हैं," जाननी ने जोड़ा। "कभी खाना मना कर देते हैं। लेकिन तुम्हारी बात मानते हैं, मैंने देखा है। मुझसे ज़्यादा।"

पवन ने हल्का सिर हिलाया। "चिंता मत करो। साक्षी सब अच्छे से संभाल लेगी। मैं चेन्नई में ट्रेनिंग के लिए रहूंगा, पर ये सब देख लेगी।"

जाननी थोड़ी पास झुकते हुए हँसी, "पता है? मेरी सास का नाम भी साक्षी था। शुरू-शुरू में जब अप्पा तुम्हारा नाम सुनते थे, तो सच में लगता था जैसे वो वापस आ गई हो।"

पवन ने हल्की सी मुस्कान दी।

"सच कहूं, मुझे अब भी लगता है उन्हें वैसा ही लगता है। वो तुम्हें बहुत गौर से देखते हैं। जैसे डरते हों कि तुम पलक झपकते ही ग़ायब हो जाओगी।"

साक्षी ने थोड़ी हँसी में जवाब दिया, "अक्का, आप तो मुझे कोई भूत बना रही हैं।"

"भूत नहीं। एक और मौका," जाननी की आँखों में शरारत थी। "वो तुम्हें देखकर सीधा हो जाते हैं। तुम्हारी आवाज़ सुनकर हरकत में आ जाते हैं।"

पवन की मुस्कान बनी रही, लेकिन उसके बैग का स्ट्रैप थोड़ा और कस गया। उसने साक्षी को देखा, फिर नीचे झुककर उनके बेटे को देखा जो अपने खिलौने वाली गाड़ी से खेल रहा था।

"मुझे पैकिंग पूरी करनी है।"

वो अंदर चला गया।

अंदर जाते हुए उसके मन में ख्याल घूम रहे थे — 

ये सब मज़ाक ही है। सब प्यार से कह रहे हैं। लेकिन कभी-कभी लगता है जैसे ये लोग ज़्यादा देख रहे हैं, कम बोल रहे हैं। शायद मैं ज़्यादा सोच रहा हूँ। साक्षी तो वैसे भी हमेशा लोगों के साथ अच्छी रहती है। शायद बस यही है। फिर भी...

उसने उस ख्याल को झटक दिया। बहुत काम है। ट्रेन, शेड्यूल, डेडलाइन। और एक धीमी सी बेचैनी... जिसे वो नाम देना नहीं चाहता।

उनका बेटा उसके पीछे-पीछे गया, ट्रेन में खाने को लेकर सवाल पूछता हुआ।

साक्षी बाहर जाननी के साथ हँसती रही। लेकिन अंदर... उसका सीना झनझनाने लगा।

जाननी अब भी रुकी नहीं थी।

"तो, जब हम नहीं होंगे, तब क्या पहनोगी?" उसने शरारत से पूछा। "वो स्लीवलेस कॉटन साड़ियाँ? या वो पिंक वाली — जो तुम्हारे जिस्म से ऐसे चिपकती है जैसे जानबूझ के?" उसने आँख मारी। "अप्पा शायद अपने सीरियल्स छोड़ देंगे।"

साक्षी हँसी, आँखें फैली हुईं। "अक्का! आप हद पार कर रही हैं।"

"बस कह रही हूँ! थोड़ा रंग, थोड़ा कम कपड़ा — अप्पा की उम्र शायद उल्टी गिनती में चल पड़े।"

साक्षी मुस्कराई लेकिन घर की ओर देख भी लिया। पवन नज़र में नहीं था, पर उसके सीने में एक सिकुड़न सी उठी।

अंदर, पवन सूटकेस के पास खड़ा था। उसकी उंगलियाँ ज़िप पर रुकी हुई थीं।

ये बस मज़ाक है। नुकसान नहीं है। लेकिन क्यों हर शब्द सीधा वहाँ चोट करता है जहाँ मैं सबसे कमज़ोर हूँ?

उसने ज़िप बंद किया और चेहरा पोंछा।

ठीक है। सब ठीक ही है।

और रामू — पास ही अपनी छड़ी के सहारे चुपचाप खड़ा था — कुछ बोला नहीं। लेकिन उसकी नज़रें हर वो बात कह रही थीं जो उसके होंठ नहीं कह सकते थे। उनमें कोई हँसी नहीं थी। बस भूख थी। बस इंतज़ार।

---
SUV निकल गई, हँसी और इंजन की आवाज़ धीरे-धीरे फीकी होती गई। कंपाउंड खाली हो गया। घर में एक सन्नाटा उतर आया — खोखला नहीं, बल्कि तैयार। जैसे कोई परदा उठने से पहले का पल।

अगली सुबह से सब शुरू हुआ।

वो गलियारे में ऐसे चलने लगी जैसे ये सब उसने किसी सपने में पहले से रिहर्स किया हो। जब उसका बेटा कमरे में खेलता होता। जब हॉलवे बिल्कुल खाली होता। जब उसे पता होता कि रामू की खिड़की के पीछे का हल्का परदा हिलेगा।

उसकी साड़ियाँ अब कहानियाँ बन गई थीं। ऐसे लिपटीं जैसे कोई आह। ब्लाउज़ — जिनकी पीठ गहरी, किनारे उठते हुए। कपड़े अब उसके मूड के मुताबिक चलते। हर क़दम एक अदाकारी। हर मोड़ — जैसे कोई अदृश्य डोरी खींच रही हो।

चूड़ियाँ फिर से लौट आईं। अब उनकी खनक वक्त को नए अंदाज़ में बताती। उसकी चाल में लय थी। उसके पाँवों की आहट अब शायरी लगती। पायलें अब विराम चिन्ह बन चुकी थीं।

एक दोपहर, रामू अपने दरवाज़े पर खड़ा था। हाथ पीछे बांधे हुए। इंतज़ार करता हुआ।

वो बाहर आई — स्टील की बाल्टी में गीले कपड़े लिए। उसका ब्लाउज़ भीग चुका था। उसका सीना गर्मी और वज़न की वजह से ऊपर-नीचे हो रहा था।

"कल की चाय कैसी लगी?" उसने पूछा, उंगलियों में कपड़े टाँगने वाली क्लिप्स दबाए।

उसने तुरंत जवाब नहीं दिया। "काफ़ी स्ट्रॉन्ग थी।"

"तुम्हें स्ट्रॉन्ग पसंद है, है ना?"

वो थोड़ा आगे बढ़ा, दहलीज़ के पास। "हर नाज़ुक दिखने वाली चीज़ कमज़ोर नहीं होती।"

उसने आधी मुस्कान दी। "इसीलिए तो अब तक टूटी नहीं।"

उस रात, तार पर बस एक चीज़ टंगी थी — एक गहरे मरून रंग का ब्लाउज़। स्लीवलेस। लगभग पारदर्शी। अकेला। जैसे कोई अनकहा वादा। कॉरिडोर की पीली रौशनी में वो कपड़ा चमक रहा था, हिल रहा था।

उसने उसे छुआ नहीं। लेकिन वो फिर भी उस तक पहुँच ही गया।

अगले दिन, उसने उसके दरवाज़े पर दस्तक दी।

"शक्कर है क्या?"

उसने दरवाज़ा धीरे से खोला। उसकी साड़ी गर्मी से उसके बदन से चिपकी थी। गर्दन पर पसीने की चमक थी। साबुन और इलायची की मिली-जुली महक साथ आई।

उसने शक्कर का डिब्बा बढ़ाया।

"और कुछ चाहिए?"

उसने धीरे से लिया, उंगलियाँ छू गईं।

"आज नहीं।"

वो मुड़ी। उसके भीगे बाल से एक बूँद उसकी रीढ़ पर लुढ़क गई। रामू की नज़र ने उसे प्रार्थना की तरह फॉलो किया।

शाम को, वो उसके खिड़की के सामने से गुज़री — बालों में चमेली खोंसी हुई। तुलसी के पास खड़ी होकर धीरे-धीरे पानी डाला। उसकी साड़ी भीग चुकी थी। उसकी साँसों की लय से ब्लाउज़ हिल रहा था।

एक बार, जब उसने ऊपर कुछ टांगने के लिए हाथ बढ़ाया — उसका पल्लू पूरी तरह गिर गया।

वो हँसी। "अरे... आजकल तो कितनी गड़बड़ हो जाती है मुझसे।"

ये मासूमियत नहीं थी। ये चिंगारी थी।

और वो — सूखी सलाख़।

परदे के पीछे से, रामू ने खिड़की का किनारा कस के पकड़ा, उसकी उंगलियाँ सफेद हो चुकी थीं।

अब ये छेड़खानी नहीं रह गई थी। अब ये भूख थी — लेस और नज़रों में गूंथी हुई।

अब शिकारी वो थी।

और वो पहले ही शिकार बन चुका था।

हर दिन वो उसे बस उतनी रोशनी देती, जितनी वो पीछा करने के लिए चाहिए होती।

और हर रात, वो यही सपना देखता — अगर कभी उसने भागना बंद कर दिया... तो वो क्या करेगा।

----------
ट्रेन बहुत पहले जा चुकी थी।

पवन की आखिरी हाथ हिलाती मुस्कान साक्षी की याद में अटकी हुई थी — स्टेशन की रौशनी के नीचे उसकी मुस्कान थोड़ी हिचकिचाई सी। उनका बेटा उसकी साड़ी का पल्लू पकड़े हुए था, आखिरी पल तक, एक हाथ से उसे देख रहा था और दूसरे से अपने पिता का अंगूठा थामे हुए। 

सालों में पहली बार, साक्षी लगभग अकेली थी इस घर में।

लगभग — क्योंकि घर में अब भी वो थी। और उसका बेटा भी, जो अब कोने वाले कमरे में पतले चटाई पर उलझी हुई टाँगों के साथ सो रहा था। लेकिन फिर भी, ये सन्नाटा अटूट था। न पवन के कदमों की आवाज़। न कोई सवाल। न कोई परछाईं उसके पास। बस दीवार पर टिक-टिक करती घड़ी, और सीलिंग फैन की धीमी घूमती साँस, जो दोपहर की गर्मी को काटती जा रही थी।

वो गलियारे के मुहाने पर खड़ी थी, एक हाथ चौखट पर, सुनती हुई।

कुछ नहीं। लेकिन फिर भी...

उसे उसकी मौजूदगी महसूस हो रही थी।

उस दोपहर की उस ख़ामोशी में, रामू ने महसूस किया था। वो हमेशा करता था।

उस दिन, उसने गलियारा झाड़ने की कोई जल्दी नहीं की। उसने अपनी रोज़ वाली साड़ी नहीं पहनी। उसने नेवी ब्लू शिफॉन वाली साड़ी चुनी — चाँदी की पैस्ले डिज़ाइन के साथ — वो जो काम के लिए नहीं थी, और इंकार के लिए भी नहीं। उसका ब्लाउज़ सॉफ्ट था, स्लीवलेस, पीछे से बस दो पतली डोरियों से बंधा हुआ। उसने बालों में तेल लगाया, उन्हें समेटा, फिर छोड़ दिया। उंगलियों से उन्हें ऐसे सँवारा कि जैसे वो चमकते हों।

जब वो गलियारे में उतरी, उसने उसकी खिड़की की ओर देखा भी नहीं।

ज़रूरत ही नहीं थी।

परदा हिला।

उसके पीछे, रामू बैठा था — सांस रोके। ये इत्तेफ़ाक नहीं था। पवन जा चुका था। उसका संसार शांत हो चुका था। और अब वो किसी बंधन से मुक्त होकर चल रही थी।

रामू ने कुछ नहीं कहा। हिला भी नहीं।

साक्षी धीरे-धीरे उसके दरवाज़े से गुज़री — उसकी साड़ी की प्लीट्स हर कदम पर लहराती हुई। उसने तुलसी के गमले से एक फूल तोड़ा। उसका ब्लाउज़ खिसक गया, उसकी पीठ की ढलान खुल गई। उसने कुछ नहीं सुधारा। वैसे ही लौट गई — दरवाज़ा खुला छोड़ते हुए — लापरवाही से, और ख़तरनाक ढंग से।

कुछ मिनट बीते।

फिर एक आवाज़।

नॉकिंग। बस एक बार।

उसने दरवाज़ा खोला।

वो खड़ा था, अपनी छड़ी पर थोड़ा झुका हुआ। कमीज़ ग़लत बटन में बंद। होंठ भींचे हुए। आँखें एकदम खुली।

"मैंने कुछ गिरने की आवाज़ सुनी," उसने कहा।

उसने फूल उठाकर दिखाया।

"बस ये।"

उसकी नज़र नहीं झुकी। न ही उसकी।

वो एक तरफ हटी।

"अंदर आ जाओ, फिर।"

वो धीरे-धीरे अंदर आया — जैसे किसी याद में कदम रख रहा हो। दरवाज़ा पीछे से एक धीमी सी क्लिक में बंद हुआ।

वो खिड़की के पास वाली बेंत की कुर्सी पर बैठ गया — हाथ उसके हत्थों को कसकर पकड़े हुए। साक्षी बिना किसी जल्दी के, बिना किसी झिझक के चली। उसने उसे पानी दिया, उसकी कमर टेबल से छूती हुई झुकी। उसने चुपचाप पी लिया।

तभी पीछे वाले कमरे से एक आवाज़ आई। एक हल्की सिसकारी। फिर बढ़ती हुई रुलाई।

उसका बेटा जाग गया था।

साक्षी ने सिर टेढ़ा किया, सांस छोड़ी — न चिढ़ के, न थकान से, बल्कि एक तरह की देखभाल भरी मुस्कान के साथ। "माफ़ करना," उसने बुदबुदाया और मुड़ी — उसकी साड़ी की बनावट टाइल पर फिसलती हुई।

रामू उसकी चाल को देखता रहा — जैसे वो कोई आकृति हो जो धूप और छाया से गढ़ी गई हो।

जब वो लौटी, उसका बेटा उसकी बाहों में था — आँखें मलता हुआ, अपनी छोटी सी मुठ्ठी उसकी छाती के पास भींचे हुए।

"भूख लगी है, ज़ाहिर है," उसने हल्की मुस्कान के साथ कहा, फिर सीधे रामू की तरफ देखा। "बच्चे हमेशा जानते हैं उन्हें क्या चाहिए।"

रामू ने सिर हिलाया, उसकी आवाज़ गले में अटक गई।

वो उसके सामने वाले दीवान पर बैठ गई। थोड़ा सरकी। बेटे को अपने पास खींचा।

बहुत ही सहजता से, उसने अपना पल्लू ढीला किया — पर ज़्यादा नहीं। उसका ब्लाउज़ पहले से ही नीचा था, अब उसकी पीछे की डोरी भी खुली हुई थी। उसने कपड़ा कंधे से सरकाया। बस इतना कि कुछ दिख जाए। उसे थामा। बच्चे ने मुँह लगाया।

बच्चे ने तृप्ति से साँस छोड़ी। और रामू ने भी — चुपचाप।

उसका स्तन, भरपूर और उभरा हुआ, हर खिंचाव के साथ ऊपर आता। उसका झुकाव, उसकी साड़ी के ढलान से घिरा हुआ। उसकी उंगलियाँ बच्चे के बाल सहला रही थीं — एक ऐसी लय में जो शब्दों से पहले की थी।

उसने एक बार भी नज़रें नहीं हटाईं।

"बहुत खूबसूरत चीज़ है, है ना?" उसने पूछा। उसकी आँखें रामू से नहीं हटीं। "पिलाना। देना।"

"हाँ," उसने रुखे स्वर में कहा।

वो मुस्कराई। इस बार मुस्कान में वक़्त था। इरादा था।

"कभी-कभी सोचती हूँ... ये शरीर अब भी क्या-क्या देना जानता है।"

रामू की उंगलियाँ कस गईं। उसकी बाजू की नसें साफ़ दिखने लगीं।

उसने बच्चे को थोड़ा और सरकाया — थोड़ी और त्वचा दिखी। साड़ी का कपड़ा और नीचे खिसका। उसने खुद की त्वचा को ऐसे छुआ जैसे कुछ सोचना भूल गई हो।

"हर पवित्र चीज़ को छुपाना ज़रूरी नहीं होता," उसने जोड़ा, नीचे देखती हुई — उस बच्चे को जो आधी नींद में भूख से भरा चूस रहा था। "हर नैसर्गिक चीज़ मासूम भी नहीं होती।"

रामू चुप रहा।

वो बोल ही नहीं पाया।

उसने उस पल को खिंचने दिया — न शर्म, न रीति, न किसी परिणाम का डर। ये कोई दुर्घटना नहीं थी। ये कोई निमंत्रण भी नहीं था।

ये एक प्रदर्शन था।

और रामू देख रहा था — जैसे किसी ऐसे गुनाह की सज़ा भुगत रहा हो जो उसने अभी तक किया भी नहीं।

बच्चे ने दूध पीकर मुँह सटाया और सो गया। उसने धीरे से साड़ी को वापस ठीक किया — बिना जल्दबाज़ी के। ब्लाउज़ की डोरी बाँधी। जो ढकना था, ढक दिया।

लेकिन जो दिख चुका था — उसकी याद कमरे में अब भी लटकी थी।

वो धीरे-धीरे बच्चे को झुलाने लगी।

रामू खड़ा हुआ — धीरे से।

"अब मुझे चलना चाहिए।"

उसने सिर हिलाया। "बिलकुल।"

वो दरवाज़े की ओर मुड़ा।

उसने उसे नहीं रोका।

लेकिन जैसे ही दरवाज़ा बंद हुआ, उसने अपने बेटे की तरफ देखा, उसका माथा चूमा, और फुसफुसाई —

"अब उसने देख लिया है... जिसे वो छू नहीं सकता।"

और अगली चाल — अब उसकी थी।
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RE: साक्षी की दुनिया - by yodam69420 - 03-05-2025, 05:58 PM



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