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Adultery साक्षी की दुनिया
#1
यह कहानी मेरी अंग्रेज़ी कहानी का एक कच्चा अनुवाद है, खासतौर पर हिंदी पाठकों के लिए तैयार किया गया है। इसमें पति का नाम मूल कहानी में Murugan था, जिसे अब पवन कर दिया गया है।

मुख्य पात्र:

साक्षी (~25 वर्ष) – एक युवा पत्नी और माँ, जो अपने भीतर की कामनाओं और दबी हुई संवेदनाओं को फिर से खोज रही है। जटिल, बुद्धिमान और अपनी इच्छाओं के प्रति तीव्र रूप से सजग। यह कहानी उसकी जागृति की यात्रा के इर्द-गिर्द घूमती है।

रामू (~65 वर्ष) – एक वृद्ध विधुर और मकान मालिक का पिता। शांत, सतर्क और अपनी दिवंगत पत्नी की यादों से पीछा छुड़ाने में असमर्थ। उसकी पत्नी का नाम भी साक्षी था, जो अब मृत है। साक्षी (नई) के प्रति उसकी बढ़ती आकर्षण एक अंतरंग और वर्जित जुड़ाव को जन्म देती है।

पवन (~27 वर्ष) – साक्षी का पति। पारंपरिक, भावनात्मक रूप से दूर और अक्सर साक्षी की मानसिक और शारीरिक ज़रूरतों से अनभिज्ञ।

मीना (~25 वर्ष) – साक्षी की सबसे करीबी दोस्त और हमराज़। चटपटी, बेबाक और हाज़िरजवाब। वह साक्षी की भावना और हास्य की साथी है, जो अक्सर उसकी सोच का आईना बनती है।

जननी और अरुण – मकान मालिक दंपत्ति। जननी, अरुण की पत्नी और रामू की बहू है। वह साक्षी और रामू के बीच बढ़ती केमिस्ट्री को भांप लेती है और उसे हल्के फुल्के चुटीले अंदाज़ में बयान करती है।

रामू की दिवंगत पत्नी (साक्षी) – भले ही अब जीवित नहीं है, लेकिन उसकी यादें रामू के जज़्बातों पर गहरी छाया छोड़ती हैं। उसका नाम भी साक्षी था, जिससे पूरे कथानक में एक भावनात्मक प्रतिध्वनि गूंजती रहती है।

साक्षी का बेटा – जिसकी उपस्थिति साक्षी को घरेलू वास्तविकता में बाँधती है, लेकिन साथ ही उसकी माँ, पत्नी और स्त्री के बीच की भूमिकाओं में गहरा तनाव भी पैदा करती है।

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पेंट और पुराने लकड़ी की गंध सीढ़ियों में अब भी ठहरी हुई थी जब साक्षी अपने दो साल के बेटे को गोद में उठाए पहली मंज़िल की तरफ चली। लोहे का गेट कड़कड़ाया, फिर खुला — सामने एक पतला-सा कॉरिडोर दिखा जो उनके हिस्से की तरफ जाता था। उसके पीछे पवन था, एक हाथ में मोड़ा हुआ मैट और दूसरे में किचन का बर्तन वाला बैग।

"अरे ध्यान से चलो, कन्ना," साक्षी ने पीछे मुड़कर बेटे को टोका, जो चिपकी हुई टाइल्स पर भाग रहा था, "दीवार मत छूना, अभी भी गीली है!"

पवन ने माथे का पसीना पोंछा, "हाय राम! इस घर में तो ऐसा लग रहा जैसे सालों से ताला लगा था। लेकिन हाँ, जगह तो है कम से कम।"

"तुझे बस ये अच्छा लग रहा है कि अब किचन बेडरूम से दूर है। अब तेरी नींद ‘सांभर की खुशबू’ से नहीं टूटेगी," उसने कमर पर हाथ रखते हुए चुटकी ली।

पवन हँसा, "नहीं बेबी, असली बात तो ये है — अब मैं तुझे उस लंबे कॉरिडोर में पकड़ने के लिए दौड़ सकता हूँ, और तेरी अम्मा सुन भी नहीं पाएँगी!"

"आयो! सुधर जा पति महाशय! बच्चा देख रहा है," उसने मुँह बनाते हुए धीरे से फुसफुसाया, पर गाल तो गुलाबी हो गए थे।

वो और पास आकर बोला, "देखने दो। उसे पता चलना चाहिए कि उसका बाप अपनी बीवी से कितना प्यार करता है।"

साक्षी ने आँखें घुमाईं, "रोमांटिक बावला कहीं का। प्यार कम, पसीना ज़्यादा बह रहा है तुझसे। तू तो ऐसा लग रहा जैसे मैराथन दौड़ के आया हो।"

पवन ने सीना ठोकते हुए नाटक किया, "तेरे लिए तो दो मैराथन भी दौड़ जाऊँ, जानू।"
अंदर ही अंदर सोच रहा था — साली इस पुराने से नाइटी में भी क्या लगती है। काम पे ध्यान कैसे लगाऊँ जब ये घर में ऐसे घूमती रहती है?

साक्षी ने उसकी नज़रें पकड़ लीं और हल्का-सा मुस्काई। समझती हूँ मैं… अब भी तेरी जुबान लड़खड़ा सकती है मेरे चलते। अच्छा है।

पहली मंज़िल एकदम चुप थी, कॉरिडोर में बस ढलती धूप की रौशनी थी। आखिरी छोर पर एक बंद लकड़ी का दरवाज़ा दिखा, जंग खाई नेमप्लेट पर बस एक नाम उकेरा था — "रामू"। अंदर से हल्की-सी आवाज़ आ रही थी — टीवी, या कोई पुराना भजन जो लूप पे चला हो शायद। उस कमरे से कुछ दूरी पर एक पुरानी लकड़ी की अलमारी पड़ी थी, जिसके शीशे पर धूल की एक परत जमी थी। कॉरिडोर में कुछ दीवारों पर पुराने कैलेंडर भी टंगे थे, जैसे वक्त वहीं अटका हो।

साक्षी ने ज़्यादा नहीं सोचा। पहले कुछ दिन झटपट बीत गए। सुबह वही रूटीन: अलार्म से पहले उठना, इडली-सांभर बनाना, पवन के लिए टिफिन पैक करना, जो 8:30 बजे लोकल पकड़ने निकलता। फिर बेटे को नहलाना, उसके साथ खेलना, बहन से वीडियो कॉल, कपड़े फोल्ड करना, reels स्क्रॉल करना, कोने साफ़ करना जो पहले से साफ़ थे। नया घर था, पर ज़िंदगी का सुर कुछ-कुछ जाना-पहचाना था। लेकिन अब हर चीज़ में एक हल्की बेचैनी घुलने लगी थी — जैसे कोई अदृश्य परछाईं हर कोने में चुपचाप पसरी हो।

पर फिर भी, कुछ था जो बदलने लगा।

एक अहसास।

एक नज़र।

ना बोझिल, ना गंदी। पर लगातार।

तीसरे दिन से उसने महसूस करना शुरू किया।

कपड़े फोल्ड करते वक़्त बालकनी में खड़ी होती और पीठ पे जैसे कोई गर्म साँस सी महसूस होती, गर्दन के पिछले हिस्से पर झुनझुनाहट-सी होती। पलटती, तो कुछ नहीं। बस परदा कभी-कभी हिलता उस रूम से। एक बार तो खाँसी की आवाज़ आई — इतनी परफेक्ट टाइमिंग में कि लग गया जानबूझ के थी। कभी-कभी तो वो खुद को आइने में देखती, बाल ठीक करती और सोचती — क्या मैं कुछ ज़्यादा सोच रही हूँ? या कोई सचमुच देख रहा है?

उस रात, बेटे को सुला के जब वो बेडरूम में आई, पवन बेड पे बिना शर्ट के पड़ा था, फोन में घुसा हुआ।

"एक बुड्ढा है अगली तरफ़। घर के मालिक का बाप है शायद। चुपचाप रहता है। लेकिन लगता है कभी-कभी मुझे देखता है," साक्षी ने ड्रेसर के सामने बाल बाँधते हुए कहा।

पवन हँसा, "और देखेगा क्या! अगर मैं भी बुड्ढा होकर एक कमरे में बंद रहूँ और तू इस तरह लो-वेस्ट नाइटी में घूमती रहे, तो मेरी भी नज़र हटेगी नहीं।"

साक्षी ने तकिया दे मारा, "देई! बावले। मैं सीरियस हूँ।"

पवन ने तकिया पकड़ा और उसे अपनी तरफ खींचा, "ठीक है बाबा... हो सकता है वो अकेला हो। किसी को देखना भी शायद उसे थोड़ा ज़िंदा फील कराता हो।"

"हम्म..." वो उसकी बाँहों में समा गई। या फिर शायद बात अकेलेपन से कुछ आगे की है। और ये सोच... क्यों मुझे कुछ और सोचने पे मजबूर करती है?

साँसें धीमी हो गईं। लेकिन उसकी जाँघों के बीच धड़कन... अब भी तेज़ थी। वो उसे देखकर सोचने लगी, क्या बूढ़ी आँखों की नज़र भी वैसी ही चुभती है जैसी जवानी की? या उसमें कुछ और होता है — ठहरा हुआ, ठंडा, पर किसी भूख से भरा?

अगली सुबह, साड़ी का पल्लू ठीक करते हुए जैसे ही शीशे में खुद को देखा, तभी डोरबेल बजी। बेटा दौड़ के दरवाज़ा खोलने गया।

"वणक्कम, मा," सामने एक 30s की औरत खड़ी थी, हाथ में टिफिन। "मैं जाननी हूँ। नीचे रहते हैं — मेरे हज़बैंड इस घर के ओनर हैं। सोचा मिल लूँ।"

"अरे! थैंक यू अक्का, बहुत अच्छा किया आपने," साक्षी मुस्काई और अंदर बुलाया।

दोनों फर्श पर बिछे मैट पर बैठीं, बच्चा गोद में चढ़ गया। चाय रखी गई, बेसन के लड्डू निकले, थोड़ी इधर-उधर की बातों में वक्त बीतने लगा।

"और वो कॉरिडोर के आखिरी वाले कमरे में कोई रहता है? मैंने देखा हमेशा बंद रहता है," साक्षी ने casually पूछा, पर उसकी नज़रें जाननी के चेहरे पे जमी थीं।

जाननी का चेहरा थोड़े पल को बदला। "वो अप्पा का कमरा है। रामू। मेरे ससुरजी। अब ज़्यादा बाहर नहीं निकलते... हेल्थ भी ठीक नहीं रहती। बस अपने में रहते हैं। कभी-कभी गाना सुनते हैं, पुरानी फिल्मों की यादों में खोए रहते हैं।"

"टीवी बहुत देखते होंगे, हाँ?" साक्षी ने हँसते हुए पूछा।

जाननी भी हँसी, लेकिन थोड़ी झिझक के साथ। "बुज़ुर्ग हैं... अकेलेपन में लोग बातें देखना पसंद करते हैं। कभी-कभी आ सकते हैं बात करने... बुरा मत मानना।"

साक्षी की नज़र फिर उस बंद दरवाज़े पे चली गई। अकेले आदमी अजीब होते हैं। पर शायद... बस इंसान ही है। या शायद मैं ही कुछ ज़्यादा सोच रही हूँ।

उस शाम, जब वो प्याज़ काट रही थी, पवन पीछे से आकर उसकी कमर में बाहें डालकर चिपक गया।

"उफ्फ... इमली और नारियल की खुशबू! किचन queen तू तो sexy smell करती है।"

"छी! तू तो किचन वाला ठरकी निकला," साक्षी हँसी, उसे धक्का देने की कोशिश करते हुए।

"तेरे सारे फ्लेवर मुझे पसंद हैं। यहाँ तक कि सांभर वाला पसीना भी।"

वो मुस्काई, "जा नहाने, वरना तुझपे गरम गरम रसम फेंक दूँगी।"

पवन कान में फुसफुसाया, "बस एक बात बोल — उस बुड्ढे  को मुझसे ज़्यादा घूरने का मौका मत देना।"

"ओ हो, जलन हो रही है क्या?"

"बिल्कुल। तू पे आँखें गाड़ने का हक मैंने कमाया है।"

उसने आँख मारी, "तो फिर आज रात फिर से कमाना पड़ेगा।"

पर जैसे ही वो हँसे, साक्षी की नज़र फिर कॉरिडोर की तरफ गई।

परदा फिर हिला।

और अगली सुबह, जब वो छत पर चादर झाड़ने गई, उसने फिर देखा — खिड़की। परदा थोड़ा खुला।

रामू।

उसने नज़र नहीं हटाई।

और साक्षी ने भी नहीं।

इस बार उसने चादर थोड़ा धीरे फोल्ड की, पीठ थोड़ा ज्यादा टेढ़ी की, और साड़ी का पल्लू... बस यूँ ही सरक गया थोड़ा।

उसकी त्वचा पर हल्की-सी सिहरन दौड़ गई।

नज़रें।

हाँ।

अब उसे यकीन था।

और... उसे अब अच्छा लगने लगा था।

शायद उस नज़र में कोई भूख थी, पर वो भूख डराती नहीं थी। उल्टा, उसमें एक अजीब-सी गर्मी थी — जैसे आग जो बुझ चुकी हो, पर राख अब भी तप रही हो।

-----


रामू ने पिछले पाँच सालों में शायद ही कभी अपने कमरे से बीस मिनट से ज़्यादा बाहर कदम रखा हो। तब से, जब उसकी बीवी चली गई थी। ऊपर वाला छोटा सा कमरा ही अब उसकी पूरी दुनिया था। एक अकेला पलंग, फीके नीले चादरों के साथ। एक लकड़ी की मेज़ — दवाइयों की बोतलों से अटी पड़ी, एक स्टील का गिलास, पुराने घिसे-पिटे मैगज़ीन। कमरे में हमेशा एक हल्की सी बासी सी गंध रहती — चंदन, कपूर और पुराने पसीने की मिली-जुली। दरवाज़े के पास रखी एक पुरानी रेडियो भी थी, जो अब सिर्फ पंखे की तरह घूमती आवाज़ें निकालती थी।

उसकी खिड़की कॉमन कॉरिडोर की तरफ थी — और वही काफी था। बाहर की दुनिया को बिना उसमें कदम रखे देखने की एक खिड़की। वहीं से वो गली के बच्चों की चिल्लाहटें सुनता, बिजली कटने पर लोगों के कोसने की आवाज़ें, और कभी-कभी रात को दूर किसी कुत्ते की लंबी हिचकी जैसी भौंक।

हर सुबह, वो अपनी आसान कुर्सी पर बैठा रहता — लुंगी घुटनों तक चढ़ी हुई, आँखें गड़ाए जैसे कोई चौकीदार हो। कान अब ठीक से नहीं सुनते थे, पर आँखें... वो और तेज़ हो गई थीं। अकेलेपन से तराशी हुई, सालों की चुप्पी से तेज़। वो चींटियों को टाइल्स पर रेंगते देखता, कबूतरों को रेलिंग पे नाचते, मकड़ियों को कोनों में अपना भविष्य बुनते हुए। उसका शरीर जंग खा गया था, लेकिन उसकी नज़र हर हलचल पी जाती थी।

और अब... कुछ नया उसकी नज़रों की ज़द में आया था।

एक औरत।

साक्षी।

उसका आना जैसे किसी ठहरे हुए तालाब में पत्थर फेंक दिया गया हो। खामोशी में एक लहर दौड़ गई थी, जो उसके हर दिन को अलग रंग में रंगने लगी।

पहली बार उसने उसे किचन की फ्रॉस्टेड खिड़की से देखा — जैसे उबलते चावल की भाप हो। वो हँसती थी, वो नंगे पाँव चलती थी। उसके कूल्हों की हरकत में कोई लोरी थी — जैसे किसी बुड्ढे  मर्द के अंदर दबी तड़प को चुप कराने आई हो। जब उसने पहली बार उसे साफ़ देखा — दरवाज़े में खड़ी, पीठ पर सुबह की धूप, बाल गीले... रामू को लगा सपना देख रहा है। उसके कंधे गीले थे, उस धूप में चमक रहे थे जैसे सोने पर पानी।

वो औरों जैसी नहीं थी। जो आतीं, रहतीं और चली जातीं। वो कॉटन की साड़ियाँ पहनती थी जो हवा में चिपक जातीं। उसकी नाइटियाँ... बस एक इंच ज़्यादा खुली। और उसकी आवाज़ — बच्चे को डाँटते वक़्त भी शहद टपकता था। उसकी हँसी, कभी रसोई से, कभी बाथरूम के दरवाज़े के पास से, हर कोने में गूंजती थी।

रामू ने पहले भी सुंदरता देखी थी। बीवी बनाई थी, बच्चे पैदा किए थे, अंधेरे में सिसकियों की आवाज़ सुनी थी। कभी उसका भी वजूद था — जहाँ उसका शरीर कुछ करता था, हाथों में ताक़त थी, रातें ज़िंदा थीं। लेकिन ये... ये अलग था। ये बेरहम ज़िंदगी थी — लालच जो घर के कामों में छिपा बैठा था। शुरू में उसे साक्षी को चूमने का मन नहीं था — वो बस उसे समझना चाहता था। फिर समझना जुनून बन गया। फिर जुनून एक आदत — और आदत... अब ज़रूरत बन गई थी।

और इसीलिए... वो देखने लगा। चुपचाप। लगातार। एक अपराधी की तरह — जो हर बार उसी गुनाह की तरफ खिंचता चला जाए।

जब वो छत पर कपड़ों की टोकरी लेकर जाती, रामू का परदा हिलता। जब वो बेटे का खिलौना उठाने झुकती, रामू की साँस जैसे रुक जाती। जब वो फोन पर हँसती, वो आँखें बंद कर बस उसके होठों की मरोड़ सोचता। वो उसकी साड़ी बाँधने का तरीका देखता, कमर पर knot कसने का अंदाज़, ब्लाउज़ का गला, कपड़े सुखाते हुए पीठ की ऐंठन — सब कुछ।

वो रुकना नहीं चाहता था।

पर हर दिन... उसकी नज़रें उसे धोखा दे जातीं।

उसने उसकी दिनचर्या ऐसे याद कर ली थी जैसे कोई सुबह की पूजा हो:

सुबह 8:00 — एक हाथ में बेटा, दूसरे से दरवाज़े के बाहर झाड़ू लगाना। उसके पाँवों में पायल की झंकार होती थी, जैसे कोई राग बज रहा हो।

9:15 — नल के पास घुटनों पर बैठकर कपड़े धोना, भीगी बाँहें, और लटें जो चेहरे पर लुड़कती रहतीं।

12:30 — खिड़की के पास फर्श पर झपकी, साड़ी घुटनों से ऊपर खिसकी हुई। कभी-कभी तो एक पाँव मुड़ा होता, जिससे उसकी जाँघ की रेखा दिख जाती — इतनी नाज़ुक कि रामू की उँगलियाँ काँप जातीं।

रामू परछाईयों में बैठा रहता, वक़्त उसके पास से बहता रहता — बिना छुए। घड़ी की टिक-टिक और पंखे की खड़खड़ाहट ही उसकी संगत थीं।

उसका बेटा, सेल्वम, कभी-कभार आता। जाननी खाना रख देती, बिना सवाल पूछे। रामू को यही ठीक लगता था। लोगों ने उसे सुधारने की कोशिशें सालों पहले छोड़ दी थीं। अब कोई कोशिश नहीं करता था। वो खुद भी नहीं।

पर ये औरत...

उसके अंदर कुछ फिर से पिघलने लगा था।

इच्छा। जिज्ञासा। भूख। तड़प। और शायद... पागलपन।

एक बार वो इतना पास गया परदे के, कि उसकी गंध तक पकड़ ली — हल्दी, नारियल का तेल, और थोड़ा-सा पसीना। उसका लंड हिला — भारी, धीमा... जैसे वो ज़िंदगी याद कर रहा हो जो भूल चुका था। उसे शर्म आई। पर रुकने लायक नहीं। वो वहीं खड़ा रहा, साँस रोके, उसकी खुशबू को अपने अंदर भरता रहा। उसकी उँगलियाँ परदे की सिलवटों में कस गई थीं, जैसे किसी छिपे बदन को छू रही हों।

उसने पहली बार उसका नाम अपने होंठों पर लिया।

"साक्षी।"

जैसे कोई पुराना मसाला हो जो ज़ुबान पर फिर से चढ़ा हो। जैसे किसी भूले गीत की पहली लाइन जो फिर से दिमाग में गूंज उठे।

क्या कर रही है तू मेरे साथ लड़की? तू तो बस एक किरायेदार है। पर क्यों ऐसा लगता है जैसे जब तू चलती है तो दीवारें हिलती हैं?

मुझे देखना नहीं चाहिए। खिड़की बंद कर लेनी चाहिए। पर फिर तेरी पायल की आवाज़ आती है। वो भीगी साड़ी जो तेरे बदन से चिपकी रहती है। तेरी कमर की वो curve — इतना पवित्र, इतना अश्लील, कि मेरी हड्डियाँ दर्द करने लगती हैं।

मैं तो समझा था, नीचे कमर सब मर चुका है। सब अपनी साक्षी के साथ दफ़न हो गया। लेकिन अब... अब रातों में नींद से उठता हूँ, बदन में टीस के साथ। याद आता है — किसी मुलायम चमड़ी को मुँह से चूमने का अहसास। किसी औरत के नीचे मचलने का नशा। अब तो तेरा नाम भी ख्वाबों में बिना पूछे घुस आता है।

अब उसने ख्वाब बुनने शुरू कर दिए थे। वो — उसके कमरे में। उसके बिस्तर पर बैठी। उसकी आवाज़ — उसका नाम लेती हुई, धीमे से। वो उसे खिड़की के पास खड़ी सोचता — बाँहें ऊपर कर के बाल बाँधती हुई, उसकी चिकनी बगलें दिखतीं। वो वहाँ झुककर उसे चूमता, उसके पसीने को अपनी साँस में घोल देता। फिर वो उसकी गोद में सर रख के सोता, उसकी हथेलियाँ उसकी खोपड़ी पर फेरतीं। एक सपना जो कभी था, फिर खो गया था।

कभी-कभी तो बिना छुए भी खुद को छूता। सिर्फ वो याद — जब वो उसके कमरे के सामने से गुज़रती। सिर्फ वो गंध — जो उसके बाद कॉरिडोर में बच जाती। वो दीवार पर हाथ रखकर साँसें गिनता था।

उसने अब तक उसे देखा नहीं था। सीधा नहीं। पर उसे पता था — वो जानती है। उसने देखा — उसकी पीठ थोड़ी तन जाती है, उंगलियाँ रुक जाती हैं, साड़ी ज़्यादा ध्यान से ठीक की जाती है जब वो समझती है कोई नहीं देख रहा। उसका चलना थोड़ा और नर्म हो जाता, जैसे वो भी खेल में शामिल हो।

पता है तुझे, है ना? तू मुझे छेड़ रही है। तू बाल बाँधते हुए बाँहें धीरे उठाती है। तू बालकनी के उस धूप वाले टुकड़े में ज़्यादा देर खड़ी रहती है। तू चाहती है मैं जलूँ।

और मैं जलता हूँ, साक्षी। रोज़ जलता हूँ। सालों से यहाँ गल रहा था, लेकिन अब तूने राख में केरोसीन डाल दिया और माचिस जला दी। तुझसे नफ़रत है मुझे... और तेरा शुक्रिया भी।

रामू के हाथ अब पहले जैसे नहीं रहे। चम्मच पकड़ते वक्त काँपते हैं। पर उसका लंड अब भी याद रखता है। उसकी साँसें अब भी उस खास तस्वीरो पर तेज़ हो जाती हैं। कभी-कभी वो सोचता — एक दिन दरवाज़ा आधा खोल के छोड़ दूँ... क्या वो अंदर आएगी? क्या वो मुस्कुराएगी? या आँखें फेर लेगी?

नहीं। अभी नहीं।

लेकिन ख्वाब में तो आ ही जाती है। रोज़। कभी धुँधली, कभी साफ़। कभी उसकी साड़ी खुलती है, कभी उसकी आँखें।

और इस तरह, रामू बैठा रहता।

देखता।

इंतज़ार करता।

साँस लेता।

और अब... फिर से ज़िंदा था।

बुरी तरह। भूखेपन के साथ।
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यह रविवार की सुबह थी, दो हफ़्ते बाद जब ये परिवार इस घर में शिफ्ट हुआ था। सूरज की किरणें गलियारे की खिड़कियों से ऐसे उतर रही थीं जैसे सोना पिघल कर बिखर रहा हो। हवा में उड़ती धूल की कण उस रौशनी में चमक रही थीं। तवे पर डोसे का घोल सिंकता हुआ महक बिखेर रहा था। बालकनी में झुके नीम के पेड़ से चिड़ियों की चहचहाहट गूँज रही थी।

साक्षी स्टोव के पास खड़ी थी, डोसे पलट रही थी। उसके बाल एक ऊँचे बन में बँधे थे, जिस पर हल्की सी पसीने की चमक थी। वहीं लिविंग रूम के फ़र्श पर पवन और उनका बेटा प्लास्टिक के कपों की टॉवर बना रहे थे। कप गिरते, बेटा खिलखिलाता, पवन फिर से उन्हें सजाता। घर में एक हल्की, जीती-जागती गर्माहट थी।

तभी दरवाज़े पर दस्तक हुई।

तीन धीमी, लेकिन ठहराव भरी थपकियाँ। एक अजीब सी स्थिरता उस खटखट में थी।

"जाननी अक्का होगी," साक्षी ने अपनी साड़ी से हाथ पोंछते हुए कहा और दरवाज़े की ओर चली। उसने दुपट्टा ठीक किया, पैरों से लुंगी समेटी और दरवाज़ा खोला।

पर दरवाज़े पर जाननी नहीं थी।

रामू खड़ा था — एकदम प्रेस की हुई सफेद शर्ट और लुंगी में, बाल कंघी किए हुए, गाल साफ़। दोनों हाथों में एक स्टील का छोटा कटोरा, ऊपर से ढककर रखा हुआ। चेहरे पर झिझक और आँखों में कुछ अनकहा था।

"वणक्कम," उसने भरी हुई लेकिन मजबूत आवाज़ में कहा। "आज पोंगल ज़्यादा बन गया, सोचा थोड़ा ले आऊँ।"

साक्षी ने पलकें झपकाईं, थोड़ा चौंक गई। पहली बार थी जब वो उसे इतने पास से देख रही थी। पास से रामू की मौजूदगी अलग थी — कमज़ोर नहीं, भारी। उसकी आँखें इधर-उधर नहीं भागती थीं... टिक कर देखती थीं। और उन आँखों में बीते वक़्त की परतें दिखती थीं — थकान, तड़प और कुछ और गहराई जो साक्षी ने कभी महसूस नहीं की थी।

"अय्यो, थैंक यू अंकल! बहुत अच्छा लगा। अंदर आइए न," साक्षी बोली और एक तरफ हट गई। उसकी आवाज़ में हैरानी छिपी थी, लेकिन मुस्कान में गर्मजोशी भी।

पवन ने ऊपर देखा और झटपट खड़ा हो गया। "ओह! वणक्कम सर। आप वही हैं ना... बगल वाले कमरे से? जाननी मैडम ने बताया था।"

"हाँ हाँ, रामू," बुड्ढे  आदमी ने कहा और कटोरा साक्षी को थमाया। "वो कॉरिडोर के आखिरी वाला कमरा मेरा है। मिलने का मन तो था पहले ही, पर हड्डियों को वक्त लगता है।"

"आप तो एकदम सही समय पर आए हैं," साक्षी मुस्कराई। "ब्रेकफास्ट रेडी है। हमारे साथ खाइए।"

रामू थोड़ा झिझका। "अरे नहीं, टोकना नहीं चाहता था। बस एक नमस्ते कहने आया था।"

"अरे कैसी बात करते हैं," पवन बोला। "कोई टोकना-वोकना नहीं है। हमारे लिए तो सम्मान की बात है कि आप आए। आइए बैठिए।"

रामू की नज़र एक बार फिर साक्षी पर गई — उसका बाल तेल में सधा हुआ, एक मोटी चोटी में बंधा हुआ। ब्लाउज़ पंखे की हवा में हल्का-सा बदन से चिपका था। उसकी कलाई में चूड़ियाँ छनक रही थीं जब वह कटोरा रखने अंदर गई। 

"तो फिर... थोड़ा बैठ जाता हूँ," उसने कहा। उसने चप्पलें उतारीं और धीरे-धीरे भीतर आया। पवन ने उसके लिए एक तकिया खींच दिया।

सब मैट पर पालथी मार के बैठ गए, और साक्षी प्लेटें लेकर आई। उसने सबसे पहले रामू को परोसा। उसके हाथ थामे हुए, भाप उड़ती डोसे की प्लेट सामने रखी।

"सांभर या चटनी, अंकल?"

"दोनों चलेगा, अगर बुरा न मानो," उसने कहा, उसकी उंगलियाँ गौर से देखते हुए जब वो परोस रही थी। "तुम किचन में बड़ी लयबद्ध लगती हो। मेरी बीवी की याद आ गई। उसका हाथ भी ऐसा ही सधा हुआ था।"

पवन मुस्कराया। "पूरे खानदान में सबसे बढ़िया कुक है। मैं तो लकी हूँ।"

रामू की हँसी गहरी थी। "बिलकुल लकी हो। हर दिन ये खाना मिले तो उम्र और भी लंबी हो जाए।"

उनका बेटा साक्षी की गोद में चढ़ गया और रामू को बड़ी-बड़ी आँखों से देखने लगा।

"ये कौन है, अम्मा?"

"ये रामू तात है," साक्षी ने उसके बाल पीछे करते हुए कहा। "यहीं कॉरिडोर में रहते हैं। हेलो बोलो।"

"हाय तात!"

रामू मुस्कराया, उसकी आँखें पिघल गईं। "हेलो कन्ना। तू बड़ा स्ट्रॉन्ग लड़का है। खाना अच्छे से खाता है ना?"

"ये तो तभी खाता है जब मैं पहले डांस करूं," साक्षी ने नकली ग़ुस्से के साथ कहा।

सब हँस पड़े। रामू की नज़र फिर ठहर गई। उसकी हँसी की आवाज़... उसकी नाक की हल्की सिकुड़न। उसने गले में अटका कुछ निगला — जो डोसे से नहीं था।

कुछ देर तक वे सब खाते रहे, बातचीत होती रही — मौसम की, मोहल्ले की, पुराने मकान मालिकों की। लेकिन रामू की नज़र बार-बार साक्षी पर लौट आती। वह जब अपने बेटे को दुलारती, जब चटनी का प्याला पास करती, जब प्लेटों को समेटने के लिए झुकती — हर लम्हा एक दृश्य की तरह संजो लेता वो।

कुछ देर बाद, वो धीरे से उठा। "अब चलता हूँ। सुबह का समय आपका है। साथ देने के लिए धन्यवाद। बहुत अच्छा लगा।"

"नहीं अंकल, शुक्रिया आपको," पवन बोला। "घर जैसा ही समझिए।"

"कभी भी आइए तात," साक्षी ने जोड़ा। उसकी आवाज़ में अब एक आत्मीयता थी जो पहली बार से अलग थी — ज़रा और मुलायम, ज़रा और खुली।

रामू ने मुड़कर उसे देखा — एक नज़र जो बेहूदगी नहीं थी, पर भूख से खाली भी नहीं थी। उसकी आँखों में कुछ ऐसा था जो सिर्फ उम्र नहीं, तजुर्बा भी लाता है। और साक्षी उस नज़र से डरी नहीं। उल्टा, उसने हल्की मुस्कान के साथ उसे विदा किया।

"आ सकता हूँ..." उसने कहा। फिर धीरे-धीरे कॉरिडोर में चला गया — कदम धीमे थे, पर दिल की धड़कन तेज़।

उसके पीछे, साक्षी दरवाज़े के पास कुछ देर खड़ी रही। उसके नाखून प्लेट पर बज रहे थे, जैसे कोई धुन सोच रही हो।

फिर उसने सिर झटक कर दरवाज़ा बंद किया — पर एक खिड़की, कहीं अंदर, खुल गई थी।
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साक्षी की दुनिया - by yodam69420 - 02-05-2025, 11:20 AM



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