15-02-2025, 07:56 PM
कितना सुखद संतोष मिल रहा था मुझे। करीब एक मिनट तक मैं उन सुखद पलों को अपने अंदर आत्मसात करती रही।
"अब क्या सोच रही हो बिटिया? मेरे लौड़े को तो तूने जीत लिया। अब किस बात का इंतजार कर रही हो? अब तो पूरा लंड गटक गई, अब तो उठक बैठक शुरू कर। खुद भी ले ले मजा और मुझ बुड्ढे को भी दे दे मजा। आह आह...." वह अब बेसब्री से बोल उठा। उसकी आवाज से मेरी आनंदमई तंद्रा भंग हुई और मानो हवा में उड़ते उड़ते मेरे पैर जमीन पर आ थमे। अब कमान मेरे हाथों में थी। मैं धीरे धीरे पूरी सावधानी बरतते हुए ऊपर उठने लगी ओह ओह ओह, उसका लंड सरकता हुआ मेरी चूत की सख्त पकड़ छूट कर बाहर निकल रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे कोई बहुत बहुमूल्य वस्तु मेरी पकड़ से छूट रहा हो। जितनी पीड़ा मुझे लंड घुसते समय हुई, उससे कई गुणा ज्यादा आनंद अब हो रहा था।घुसते समय का घर्षण अगर पीड़ा दायक था तो अब का घर्षण उतना ही आनंद दायक था। सही कहा गया है कि कष्टकारी परिश्रम का फल सदा ही मीठा होता है।
"आआआआआहहहह....." मेरी आह निकल गई।
"क्या हुआ, अब भी दर्द हो रहा है?" उस खेले खाए चुदक्कड़ को भी शायद अहसास हो गया था कि अब मुझे मज़ा आने लगा है, क्योंकि पीड़ा की आह और आनंद की आह में फर्क तो होता ही है। वह तो बस ऐसे ही बोला जैसे मेरी हालत का मजा ले रहा हो।
"हां हां, न न न नहीं.... " मैं हां बोलूं कि ना बोलूं समझ नहीं पा रही थी।
"हां और नहीं में फर्क होता है बिटिया। दर्द हो रहा है तो हट जा और मजा आ रहा है तो उठक बैठक शुरू कर।" वह जानता था कि अब मैं मैदान छोड़कर भागने वाली नहीं थी।
"दर्द तो हो रहा है लेकिन आपकी खातिर कर रही हूं।" मैं झट से बोली। अब अपने मुंह से कैसे बोल दूं कि साले हरामी बुढ़ऊ, इतने दर्दनाक लम्हे झेलने के बाद अभी तो मजा आना शुरू हुआ है, ऐसे कैसे हट जाऊं। मैं ऊपर उठते उठते रुक गई। करीब चार इंच लंड बाहर निकल गया था लेकिन मैं उससे ज्यादा बाहर निकलने नहीं देना चाहती थी। इतने बड़े लंड के लिए मेरी चूत अभी अभी तो तैयार हुई थी। अभी ही तो चुदाई का मजा मिलने वाला था। वह मजा अभी ही तो मिलना शुरू हुआ था। ऐसे सुनहरे मौके में इस गधे जैसे लंड को अपने अंदर ही रख कर चुदने का मन हो रहा था। ऐसे भी इतने लंबे लंड की पूरी लंबाई से चुदने का मतलब होता मुझे ज्यादा ऊपर उठ कर बैठना, जो कि मेरे लिए थकान दिलाने वाला कसरत साबित होता। भलाई इसी में थी कि सिर्फ तीन चार इंच ही ऊपर नीचे हो कर चुदाई का मजा लूं, बाकी लंड मेरी चूत के अंदर ही रहकर हलचल मचाता रहे। यही चुदाई का संपूर्ण आनंद लेने का सर्वोत्तम तरीका मुझे समझ में आ रहा था। बस क्या था, मैं फिर से नीचे बैठने लगी। ओह ओह आह आह, कितना आनंददायक था वह। मेरा रोम रोम तरंगित हो रहा था। दो तीन बार इसी तरह धीरे धीरे ऊपर नीचे होती रही, फिर तो ये दिल मांगे मोर वाली स्थिति हो गई मेरी। मैं खुद पर से नियंत्रण खोने लगी।
भलोटिया की तो निकल पड़ी। उसे मेरी कमर पकड़ कर ऊपर नीचे करने की आवश्यकता अब नहीं थी। वह समझ गया कि अब मैं मस्ती में आ चुकी हूं। मैं यंत्रवत खुद ब खुद ऊपर नीचे होने लगी। मेरे मस्तिष्क में अजीब सी खुमारी आ चुकी थी। चुदने का पूरा मजा लेने का वह समय आ चुका था जिसके लिए इतनी देर से मेरा शरीर छटपटा रहा था। इधर भलोटिया अब मेरी चूचियों को पकड़ कर मसलने लगा। ओह ओह यह दोहरा आनंद था। इधर मेरी चूत में भलोटिया के लौड़े की और मेरी चूचियों पर उसके पंजे की करामात। चुदाई के साथ साथ मेरी चूचियों को भोंपुओं की तरह दबाना मुझे स्वर्ग का दर्शन कराने लगा था। मेरी नस नस में बिजली सी कौंध रही थी। आह आह।
"बहूऊऊऊऊत बढ़िया आह आह मेरी बिटिया रानी। गज्जब का मजा दे रही हो। उफ उफ साली जादूगरनी, बस यही तो मैं चाहता था। हरामजादी झूठ मूठ का नाटक कर रही थी मां की लौड़ी आह आह हां हां ऐसे ही।" भलोटिया मस्ती में भर गया था और वह भी नीचे से धक्का लगाना शुरू कर दिया था। तभी दो और हाथ मेरे कंधों पर आ गया। मैं चौंक गयी।
"अब यह कौन आ गया?" मैं जानती थी कि यह घनश्याम के अलावा और कौन हो सकता है।
"मेरे अलावा और कौन होगा साली रंडी।" यह घनश्याम ही था जो अबतक हमारे बीच जो कुछ चल रहा था उससे उत्तेजित होकर नियंत्रण में नहीं रह पाया और कुत्ते की तरह इस चुदाई में शामिल होने चला आया था।
"नहीं नहीं। तुम दूर रहो। हाथ मत लगाओ।" मैं गुस्से से बोली।
"अब क्या सोच रही हो बिटिया? मेरे लौड़े को तो तूने जीत लिया। अब किस बात का इंतजार कर रही हो? अब तो पूरा लंड गटक गई, अब तो उठक बैठक शुरू कर। खुद भी ले ले मजा और मुझ बुड्ढे को भी दे दे मजा। आह आह...." वह अब बेसब्री से बोल उठा। उसकी आवाज से मेरी आनंदमई तंद्रा भंग हुई और मानो हवा में उड़ते उड़ते मेरे पैर जमीन पर आ थमे। अब कमान मेरे हाथों में थी। मैं धीरे धीरे पूरी सावधानी बरतते हुए ऊपर उठने लगी ओह ओह ओह, उसका लंड सरकता हुआ मेरी चूत की सख्त पकड़ छूट कर बाहर निकल रहा था। ऐसा लग रहा था जैसे कोई बहुत बहुमूल्य वस्तु मेरी पकड़ से छूट रहा हो। जितनी पीड़ा मुझे लंड घुसते समय हुई, उससे कई गुणा ज्यादा आनंद अब हो रहा था।घुसते समय का घर्षण अगर पीड़ा दायक था तो अब का घर्षण उतना ही आनंद दायक था। सही कहा गया है कि कष्टकारी परिश्रम का फल सदा ही मीठा होता है।
"आआआआआहहहह....." मेरी आह निकल गई।
"क्या हुआ, अब भी दर्द हो रहा है?" उस खेले खाए चुदक्कड़ को भी शायद अहसास हो गया था कि अब मुझे मज़ा आने लगा है, क्योंकि पीड़ा की आह और आनंद की आह में फर्क तो होता ही है। वह तो बस ऐसे ही बोला जैसे मेरी हालत का मजा ले रहा हो।
"हां हां, न न न नहीं.... " मैं हां बोलूं कि ना बोलूं समझ नहीं पा रही थी।
"हां और नहीं में फर्क होता है बिटिया। दर्द हो रहा है तो हट जा और मजा आ रहा है तो उठक बैठक शुरू कर।" वह जानता था कि अब मैं मैदान छोड़कर भागने वाली नहीं थी।
"दर्द तो हो रहा है लेकिन आपकी खातिर कर रही हूं।" मैं झट से बोली। अब अपने मुंह से कैसे बोल दूं कि साले हरामी बुढ़ऊ, इतने दर्दनाक लम्हे झेलने के बाद अभी तो मजा आना शुरू हुआ है, ऐसे कैसे हट जाऊं। मैं ऊपर उठते उठते रुक गई। करीब चार इंच लंड बाहर निकल गया था लेकिन मैं उससे ज्यादा बाहर निकलने नहीं देना चाहती थी। इतने बड़े लंड के लिए मेरी चूत अभी अभी तो तैयार हुई थी। अभी ही तो चुदाई का मजा मिलने वाला था। वह मजा अभी ही तो मिलना शुरू हुआ था। ऐसे सुनहरे मौके में इस गधे जैसे लंड को अपने अंदर ही रख कर चुदने का मन हो रहा था। ऐसे भी इतने लंबे लंड की पूरी लंबाई से चुदने का मतलब होता मुझे ज्यादा ऊपर उठ कर बैठना, जो कि मेरे लिए थकान दिलाने वाला कसरत साबित होता। भलाई इसी में थी कि सिर्फ तीन चार इंच ही ऊपर नीचे हो कर चुदाई का मजा लूं, बाकी लंड मेरी चूत के अंदर ही रहकर हलचल मचाता रहे। यही चुदाई का संपूर्ण आनंद लेने का सर्वोत्तम तरीका मुझे समझ में आ रहा था। बस क्या था, मैं फिर से नीचे बैठने लगी। ओह ओह आह आह, कितना आनंददायक था वह। मेरा रोम रोम तरंगित हो रहा था। दो तीन बार इसी तरह धीरे धीरे ऊपर नीचे होती रही, फिर तो ये दिल मांगे मोर वाली स्थिति हो गई मेरी। मैं खुद पर से नियंत्रण खोने लगी।
भलोटिया की तो निकल पड़ी। उसे मेरी कमर पकड़ कर ऊपर नीचे करने की आवश्यकता अब नहीं थी। वह समझ गया कि अब मैं मस्ती में आ चुकी हूं। मैं यंत्रवत खुद ब खुद ऊपर नीचे होने लगी। मेरे मस्तिष्क में अजीब सी खुमारी आ चुकी थी। चुदने का पूरा मजा लेने का वह समय आ चुका था जिसके लिए इतनी देर से मेरा शरीर छटपटा रहा था। इधर भलोटिया अब मेरी चूचियों को पकड़ कर मसलने लगा। ओह ओह यह दोहरा आनंद था। इधर मेरी चूत में भलोटिया के लौड़े की और मेरी चूचियों पर उसके पंजे की करामात। चुदाई के साथ साथ मेरी चूचियों को भोंपुओं की तरह दबाना मुझे स्वर्ग का दर्शन कराने लगा था। मेरी नस नस में बिजली सी कौंध रही थी। आह आह।
"बहूऊऊऊऊत बढ़िया आह आह मेरी बिटिया रानी। गज्जब का मजा दे रही हो। उफ उफ साली जादूगरनी, बस यही तो मैं चाहता था। हरामजादी झूठ मूठ का नाटक कर रही थी मां की लौड़ी आह आह हां हां ऐसे ही।" भलोटिया मस्ती में भर गया था और वह भी नीचे से धक्का लगाना शुरू कर दिया था। तभी दो और हाथ मेरे कंधों पर आ गया। मैं चौंक गयी।
"अब यह कौन आ गया?" मैं जानती थी कि यह घनश्याम के अलावा और कौन हो सकता है।
"मेरे अलावा और कौन होगा साली रंडी।" यह घनश्याम ही था जो अबतक हमारे बीच जो कुछ चल रहा था उससे उत्तेजित होकर नियंत्रण में नहीं रह पाया और कुत्ते की तरह इस चुदाई में शामिल होने चला आया था।
"नहीं नहीं। तुम दूर रहो। हाथ मत लगाओ।" मैं गुस्से से बोली।