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Thriller छलावा
#6
अहमद अपने बिस्तर पर लेटा हुआ था, रात का सन्नाटा कमरे में गहरी चुप्पी बनाए हुए था। उसकी आँखें बंद थीं, लेकिन उसके मन में हलचल मची हुई थी। कुछ अजीब और उलझी हुई सोचें उसकी मस्तिष्क में घूम रही थीं। अमीना—उसकी अम्मी—का चेहरा बार-बार उसकी आँखों के सामने आ रहा था।

आज, दिनभर जो कुछ भी हुआ था, वह उसे समझ नहीं पा रहा था। उसका दिल भारी था, जैसे उसने कुछ ऐसा किया हो जो नहीं करना चाहिए था। आज कुछ ऐसा घटित हुआ था, जो उसके लिए गलत था, लेकिन वह इसे रोक नहीं सका। जब भी वह अमीना के बारे में सोचता, उसके मन में कुछ और ही उथल-पुथल होती थी। एक खींचतान, एक अजीब आकर्षण। उसकी अम्मी का शरीर, उसके रूप और उसकी उपस्थिति, जैसे वह उसके मन को एक जगह पर जकड़ लेती थी।

वह अपनी आँखें बंद करके सिर के नीचे तकिये को दबा रहा था, और फिर अचानक कुछ छवियाँ उसकी आँखों के सामने आ गईं। उसकी अम्मी का बुर्का, जो पानी से भीगा हुआ था, और जो कपड़े थे वे थोड़े पारदर्शी हो गए थे। वह छवि उसे अंदर तक तोड़ रही थी, और वह सोचने लगा कि क्या यह सही था, क्या उसे इन विचारों को महसूस करना चाहिए था?

उसने अपने सिर को हाथों से पकड़ लिया और दो बार अपनी मस्तिष्क पर मारा। उसकी स्थिति इतनी कमजोर और निराशाजनक हो चुकी थी कि वह खुद से भी नफरत करने लगा। उसकी कमजोरी, उसकी असहायता, ये सब उसे भीतर से घेर रहे थे।

फिर अचानक, एक ख्याल आया। उसका दोस्त मोहित। मोहित, जो पढ़ाई में बहुत अच्छा था, और जो हमेशा उसे समझाता था, उसे मदद करता था। मोहित के पास सलाह होती थी, मोहित हमेशा सेंसिबल और स्मार्ट दिखता था। वह और अहमद अच्छे दोस्त नहीं थे, वह बहुत समय एक-दूसरे के साथ नहीं बिताते थे, लेकिन कॉलेज में मिलते रहते थे। जब भी अहमद को पढ़ाई से जुड़ी कोई समस्या होती, मोहित हमेशा मदद करता था। अहमद के लिए मोहित एक आदर्श था, जिसे वह अपनी स्थिति से बाहर निकलने का तरीका मानता था।

"क्या मैं मोहित से अपनी परेशानी शेयर कर सकता हूँ?" यह सवाल अहमद के दिमाग में गूंजने लगा। फिर वह झिझकते हुए सोचने लगा, "क्या मुझे अपनी अम्मी के बारे में बात करनी चाहिए? क्या यह सही है?" लेकिन उसकी मानसिक स्थिति इतनी बिगड़ चुकी थी कि उसे अब कोई और रास्ता नज़र नहीं आ रहा था। उसकी हालत इतनी कमजोर हो चुकी थी कि वह सोचने लगा कि शायद मोहित की सलाह से कुछ हल मिल सकता है।

आखिरकार, उसने फैसला किया कि वह मोहित से बात करेगा। शायद वह उसे इस उलझन से बाहर निकाल सके।

सुबह का वक्त था, अहमद ने अपने दिमाग में कई बार यही सोचा था कि उसे मोहित से बात करनी चाहिए, लेकिन फिर भी एक डर और असमंजस उसके दिल में था। कल रात जो उसने महसूस किया था, उसे किसी से शेयर करना आसान नहीं था। मोहित उसकी मदद कर सकता था, लेकिन क्या वह समझ पाएगा? क्या वो इसे ठीक से सुन पाएगा? अहमद अपने विचारों में उलझा हुआ था।

उसने मोहित को कॉल किया। मोहित खुशी-खुशी बोला, "क्या हाल है यार? कुछ पूछना है क्या?"

अहमद ने धीरे से कहा, "मोहित, क्या तुम फ्री हो?"

"हाँ, बिल्कुल! आज तो रविवार है, चलो नदी के किनारे मिलते हैं। वहाँ चाय पिएंगे और थोड़ा आराम से बात करेंगे। जो भी जानना है, तुझे।" मोहित का यही अंदाज अहमद को थोड़ा सुकून देता था। मोहित का आत्मविश्वास, उसका ठंडा और आरामदायक तरीके से बात करने का तरीका, अहमद के लिए मददगार था।

अहमद ने मोहित के साथ मिलने की सहमति दी और थोड़ी देर में वे नदी के किनारे उस पुराने पेड़ के नीचे बैठ गए, जहाँ मोहित ने चाय मंगवाई थी। दोनों चाय पी रहे थे और हवा में हलकी ठंडक थी। लेकिन अहमद का मन अभी भी पूरी तरह से अशांत था।

मोहित ने ध्यान से अहमद को देखा और पूछा, "बोल भाई, क्या दिक्कत है?"

अहमद एक पल के लिए चुप रहा। शब्द उसके मुंह से बाहर नहीं निकल रहे थे। वह सोच रहा था, "कैसे कहूँ, कैसे समझाऊँ? क्या यह कहना सही होगा?"

मोहित ने उसे फिर से प्रोत्साहित किया, "क्या है? बोल ना, जो भी हो, हम कोई हल निकाल लेंगे।"

इससे अहमद को थोड़ा साहस मिला, लेकिन फिर भी उसकी आवाज कांप रही थी। उसने एक गहरी सांस ली और कहा, "मुझे कुछ अजीब सा महसूस हो रहा है, बहुत ही अजीब... मैं... मैं समझ नहीं पा रहा हूँ।"

मोहित ने एक पल के लिए उसकी आंखों में देखा, फिर धीरे से पूछा, "क्या अजीब? क्या महसूस हो रहा है?"

अहमद का दिल तेज़-तेज़ धड़क रहा था। "कभी-कभी जब मैं, जब मैं…अम्मी को देखता हूँ, तो... मुझे एक अजीब सा फीलिंग महसूस होता है।"

मोहित का चेहरा तुरंत बदल गया, वह चौंक गया। "क्या? ये क्या बोल रहा है?"

अहमद ने झट से कहा, "नहीं! मैं... जानबूझकर ऐसा नहीं करता, ये बस... खुद-ब-खुद हो जाता है, मोहित... मुझे नहीं पता कैसे समझाऊं। ऐसा लगता है जैसे जब भी मैं घर पर होता हूँ, बस इन्हीं के बारे में सोचता रहता हूँ... अम्मी... ऐसा लगता है जैसे मेरा दिमाग बार-बार वहीं चला जाता है। मेरी आँखें... बस वहीं जाती हैं, और मैं इसे रोक नहीं पाता। जैसे वह हमेशा मेरे ख्यालों में रहती हैं, और मैं इसे हटा नहीं पाता जब मैं उन्हें देखता हूँ...।

मोहित की आंखों में और भी हैरानी थी, "उन्हें देखता हूँ! क्या मतलब है उन्हें देखता हूँ?"

अहमद की आंखें जमीन पर गड़ी हुई थीं। "मतलब... कभी-कभी... जैसे...जैसे वह पानी से...भींग जाती है... या...या ... कपड़े थोड़ा खींच जाते हैं, तो मैं उन्हें देखता हूँ...मतलब ऐसे अच्छा। ये बहुत अजीब है, और... मैं जब उन्हें बुर्का...बुर्का पहने देखता हूँ... तो मुझे लगता है... जैसे वह बहुत हसीन हैं...और...और उनका जिस्म उम्दा है। और फिर, मेरा ध्यान उनकी छाती की ओर, उनके बदन की तरफ चला जाता है।"

मोहित की आँखें चौड़ी हो गईं, वह थोड़ा असहज महसूस कर रहा था। वह कुछ कहने के लिए सोच ही रहा था, तब अहमद ने और भी जारी किया, "एक दिन जब वह बाजार से वापस आईं, मैं ऊपर अपने कमरे में था तू तो जनता है छत में सिर्फ मेरा कमरा और एक वॉशरूम है, जाते वक्त उस दिन साफिया दीदी घर का दरवाजा बाहर से बंद कर दी थी, मैं ऊपर ही सो रहा था।

आवाज सुनकर मैं नीचे आया, मुझे लगा अम्मी किचन में हैं, मैं किचन की तरफ बढ़ा। जैसे ही मैंने सामने देखा किचन के अंदर, अम्मी...अम्मी..वहां बैठी थीं, शायद उन्हें लगा था घर में कोई नहीं है। घर में बाहर से ताला लगा था तो शायद उन्होंने ज्यादा सोचा भी नहीं, और आते वक्त को दरवाजा अंदर से बंद कर आई थी।

मैं वहां पहुंचा तो देखा.... वो....फर्श में...अपना दोनों पैर किचन के दरवाजे की ओर ही करके बैठी हुईं थीं, उनका दोनों हाथ पीछे था....और.... और वो अपना सिर ऊपर उठा कर देख रहीं थीं...... उन्होंने बदन से... बुर्का निकाल कर वही रख दिया था और.... उन्होंने अपना कुर्ता भी निकाल दिया था..अम्मी....वो सिर्फ ब्रा में थीं....अहमद की आवाज में एक गहरी हिचक थी,  
... मैं.... उन्हें देख रहा था और मुझे ऐसा अजीब सा लगा। और मुझे समझ में नहीं आया कि क्या हुआ मुझे, लेकिन मैं उनको देखे जा रहा था।

अहमद ने थोड़ी देर चुप रहते हुए फिर कहा, "मैं वहाँ खड़ा था, बस उन्हें देख रहा था, हैरान होकर। मैं उनका पूरा बदन देख रहा था, मैं उनको ऐसे देखने से अपने आप को रोक नहीं पा रहा था, और फिर अचानक मुझे एहसास हुआ कि वह अपना सिर थोड़ा हिला रही हैं। मुझे डर था कि वह मुझे देख लेगी, इसलिए मैं भागकर वहां से निकल गया। उस दिन के बाद, बस... सब कुछ अजीब हो गया और उसने हिम्मत कर रात वाली बात मोहित को बताई।"

अहमद की आवाज धीरे-धीरे धीमी हो गई और वह सिर झुका कर चुप हो गया। इस सारी बात को कहने में उसे काफी संकोच हो रहा था, लेकिन अब जैसे ही उसने यह सब कह दिया, उसे थोड़ी राहत महसूस हुई। वह हल्का महसूस कर रहा था, जैसे किसी से साझा किया हो जो उसकी बात समझेगा।

मोहित कुछ देर चुप रहा। अहमद के शब्दों को सुनते हुए, उसका मन भी भटकने लगा था। मोहित के भीतर भी एक हलचल मच गई थी, जैसे ही अहमद ने उस दिन का दृश्य बताया, मोहित के मन में उन क्षणों की कल्पना आ गई। उसकी आँखों के सामने अमीना आंटी का वह दृश्य उभरने लगा—वह रसोई में बैठी हुई थी, उसकी आँखें ऊपर की ओर थीं, और उसके पैरों की स्थिति, जैसे वह आराम से बैठी हो, थोड़ा खिंच कर। मोहित ने खुद को उस दृश्य में खोते हुए महसूस किया, जैसे वह खुद अमीना आंटी को देख रहा हो। उसके भीतर एक अजीब-सी बेचैनी महसूस हो रही थी, जैसे वह इस दृश्य से बाहर नहीं निकल पा रहा था। अमीना आंटी का बदन, उनकी आँखों में असमंजस और उसकी शांति, इन सबकी कल्पना करते हुए, मोहित ने महसूस किया कि वह खुद को खो रहा है। उसके मन में यह सवाल भी आ रहा था कि अमीना आंटी कैसी दिख रही होंगी उस स्थिति में, और उनका बदन, उनका भरा हुआ शरीर—यह सब उसके दिमाग में एक तस्वीर की तरह तैरने लगा था।

मोहित के अंदर कुछ हलचल हुई, और एक क्षण के लिए उसे यह महसूस हुआ कि वह इस विचार से बाहर नहीं निकल पा रहा था। लेकिन फिर उसने खुद को संभाला और एक गहरी सांस ली। "अहमद, देखो," उसने आवाज को शांत रखते हुए कहा, "तू अकेला नहीं है। ये सब समझना बहुत मुश्किल है, और तेरी स्थिति भी ऐसी है कि तू इन चीज़ों को समझने में उलझा हुआ है। यार, अमीना आंटी का आकर्षण समझना मुश्किल नहीं है। खासकर जब वो बुर्का पहनती हैं... उनकी मौजूदगी ही कुछ और होती है। लेकिन यह ठीक नहीं है, यार। इन सब में ज्यादा नहीं फसना चाहिए तुझे।" (उसकी आवाज में एक अजीब सी गंभीरता थी, जैसे वह अहमद को और गहराई से टटोल रहा हो।

मोहित ने खुद को पूरी तरह से संयमित किया, लेकिन उसके भीतर की भावना को दबाना आसान नहीं था। वह अहमद को सांत्वना देने की कोशिश कर रहा था, जबकि वह खुद उन विचारों को खारिज करने में संघर्ष कर रहा था। पर अंदर ही अंदर उसका शातिर दिमाग चल रहा था।

मोहित: "देख यार, मैं समझता हूँ कि तू अमीना आंटी के बारे में क्या महसूस करता है, पर... जब वो बुर्का पहनती हैं, तो उनकी शारीरिक बनावट को देखते हुए... सच कहूँ तो, कोई भी अजनबी उनकी तरफ देखे बिना नहीं रह सकता।" "तेरी स्थिति समझ सकता हूँ, लेकिन इससे बाहर निकलने के लिए तुझे खुद को संभालना पड़ेगा। हमें इसका हल ढूँढना होगा, कुछ तो करना होगा, समझे?" मोहित ने अपनी आवाज में संयम बनाए रखते हुए कहा।

अहमद की आँखों में फिर से एक राहत थी, जैसे उसने पहली बार अपने अंदर का दर्द बाहर निकाला हो। उसकी स्थिति अब थोड़ी हलकी हो गई थी।

मोहित की बातों ने उसे थोड़ा सहारा दिया, लेकिन उसके अंदर हलचल कम नहीं हुई थी। वह बार बार सोच रहा था, क्या उनसे मोहित को बता कर सही किया?


एक अजीब सी खामोशी छाई हुई थी, जैसे सूरज की ढलती रोशनी छनकर आ रही हो। अहमद टूटा हुआ सा खड़ा था, उसकी उंगलियां बालों में उलझी हुई थीं, आंखें लाल और बेचैन, अपने इकबाल की बोझ से दबी हुईं। मौन उनके बीच भारी था, जैसे हर सांस किसी अनकही बात का बोझ उठाए हुए हो। मोहित वहीँ खड़ा था, चेहरा बाहरी तौर पर शांत, लेकिन मन के अंदर तस्वीरों की बाढ़ उमड़ रही थी जिसे वह दबाने की कोशिश कर रहा था।

मोहित ने आवाज में चिंता और चालाकी का मिश्रण लाते हुए खामोशी को तोड़ा, "अहमद, तुम्हें यह बात अपनी अम्मी से कहनी चाहिए। शायद उनके पास इसका कोई हल हो," उसने धीरे से कहा, अपनी आवाज में एक मासूमियत का लहज़ा घोलते हुए।

अहमद की आंखें डर से चौड़ी हो गईं। "मुझमें इतनी हिम्मत नहीं है कि उनसे इस बारे में बात कर सकूं," उसने फुसफुसाते हुए कहा, उसके शब्दों में शर्म का असर साफ था।

मोहित के होंठों पर एक हल्की सी मुस्कान उभरने को थी, जिसे उसने जल्दी से दबा लिया। वह थोड़ा झुककर और गंभीरता से बोला, "ठीक है, अगर तुम नहीं कर सकते, तो मैं तुम्हारी मदद कर देता हूं। मैं उनसे बात करूंगा," उसने कहा, उसकी आंखें अहमद की आंखों में एक ऐसी गहराई से टकरा रही थीं जो एक पल के लिए बेचैन कर देने वाली थी। "कम से कम उन्हें पता तो चलेगा कि तुम्हारे मन में क्या चल रहा है, और हो सकता है, वे समझें और तुम्हें इससे बाहर निकालने में मदद करें।"

अहमद के चेहरे पर एक पल के लिए संकोच की झलक आई, जो जल्द ही राहत की सांस में बदल गई। वह थकी हुई कुर्सी पर वापस झुका। मोहित ने मौके का फायदा उठाया, थोड़ा और झुकते हुए बोला, "और सुनो, अहमद, ये उतना अजीब नहीं है जितना तुम सोचते हो। आंटी... वो खूबसूरत हैं। ऐसे ख्यालों को रोकना मुश्किल है। मुझे यकीन है, वे समझेंगी, शायद ये जानकर खुश भी हों कि तुम उन्हें इतनी गहराई से महसूस करते हो।"

कुछ पल के लिए, फिर से खामोसी छा गयी। मोहित के शब्दों के मायने हवा में तैरते रहे, अनदेखे और प्रभावशाली। अहमद ने सिर हिलाया, अपनी उलझनों में इतना डूबा हुआ कि उसने मोहित की आँखों में छुपे उस चमक को नहीं देखा—एक चमक जो राज़ और गहरी दबी हुई इच्छाओं की गवाह थी।

अहमद की आँखों में अब कोई शक नहीं था। मोहित ने उसके दिल में धीरे-धीरे वो बीज बो दिए थे, जो अब उसके मन में ख्वाबों के रूप में पनप रहे थे। अहमद ने जो महसूस किया था, उसकी गहरी ग़लतफ़हमियाँ अब उसे पूरी तरह से घेरने लगीं। मोहित की बातों ने उसके मन में एक अजीब सी उम्मीद और शंका पैदा कर दी थी—उसने सोचा, शायद सचमुच अम्मी से ये सब बात करनी चाहिए, शायद सचमुच वह उसकी मदद कर सकती हैं। लेकिन वह खुद में इतना कमजोर था कि अपने डर और लज्जा को पार नहीं कर सका।

"तुम ठीक कहते हो मोहित," अहमद ने धीरे से कहा, "मुझे लगता है, मुझे अम्मी से बात करनी चाहिए। पर... मुझे यकीन नहीं है कि वह समझ पाएंगी।"

मोहित ने उसे समझाने के अंदाज में जवाब दिया, "नहीं यार, तुम समझ नहीं रहे। यह तो एक ऐसा एहसास है जो हम सब कभी न कभी महसूस करते हैं। तुम अकेले नहीं हो। और अगर तुम चाहो तो मैं इस बारे में बात कर सकता हूँ, ताकि आंटी को पता चले।"

अहमद की नजरें गड़ी हुई थीं, लेकिन उसकी दिमागी हालत में एक अजीब सा भ्रम था। मोहित के शब्द उसे शांत करने के बजाय और उलझा रहे थे, लेकिन उसे लगा कि शायद यह वही रास्ता है जो उसे चाहिए था।

मोहित के मन में एक अलग ही दुनिया चल रही थी। अहमद की बातों को सुनते हुए, वह अंदर ही अंदर मुस्कुरा रहा था। उसे खुद पर गर्व था कि उसने अहमद को इतना आसानी से समझा लिया। लेकिन जो सच्चाई उसकी आँखों में छिपी थी, वह कहीं और थी—उसका दिमाग उस पर काबू पाने को बेताब था।

उसने कल्पना की कि अमीना आंटी घर पर अकेली होंगी—एकदम शांत, आराम से। उसका मन तेजी से दौड़ रहा था, सोचते हुए कि वह क्या कर सकता है। उसकी आँखों के सामने अमीना की छवि उभर आई—वह अक्सर अपने घर में एक सादा सलवार-कुर्ता पहनती थी, लेकिन उसने कल्पना की, क्या होगा अगर वह सिर्फ ब्रा में हो, हल्की सी... उसकी शारीरिकता के हर हिस्से को महसूस करने की इच्छा उसे चुपके से सता रही थी। वह जानता था कि यह सब एक खतरनाक खेल है, लेकिन यह उसकी मानसिक स्थिति का हिस्सा था। उसने खुद को यह समझाने की कोशिश की कि इस सब का एक उद्देश्य था—अहमद की मदद करने के लिए। लेकिन अंदर ही अंदर, एक गहरी चाहत थी, जो उसे नहीं रोक पा रही थी।

“यह समय और अहमद दोनों ही मेरे हाथ में हैं,” मोहित ने सोचा। “अगर मैं इस मौके को सही तरीके से इस्तेमाल करूं, तो अमीना आंटी का ध्यान अपनी तरफ खींच सकता हूँ। वह जो भी करें, मुझे इससे कोई फर्क नहीं पड़ेगा... लेकिन ये पल मेरे लिए बहुत मायने रखते हैं।”

अहमद: (थोड़ी दबी आवाज में) ठीक है, तुम बात करो अम्मी से, तुम उन्हें बता दो, फिर तुम मुझे बताना, क्या कहा उन्होंने

अब मोहित के मन में एक और योजना चल रही थी—एक योजना जो बहुत जटिल थी, और जो उसके खुद के इरादों को पूरा करने के लिए थी। उसकी आँखों में जो चमक थी, वह अब और भी तीव्र हो गई थी। वह जानता था कि अहमद का विश्वास हासिल करने के बाद, वह अमीना आंटी तक अपनी पहुँच बना सकता था। एक ऐसा समय जब अमीना घर पर अकेली होती—आधे दिन के बीच का वह समय जब वह आम तौर पर आराम करती, जब अमीना किसी से कोई उम्मीद नहीं करती थी, यही वह समय था जब मोहित ने खुद को तैयार किया था।

"देखो, अहमद," मोहित ने हसरत भरे अंदाज में कहा, "हम वक्त तय करते हैं। जब आंटी अकेली होतीं हैं, ये एक मौका हो सकता है...मैं जाऊंगा और उन्हें बताऊंगा की तुम्हारी तबियत ऐसे ख़राब रहती है, मतलब उन्हें बताऊंगा कि कैसे तुम परेशान रहते हो, क्यों परेशान रहते हो, मुझे लगता है, अमीना आंटी को यह सब जानने का हक है। वह समझेंगी। शायद वह खुश भी होंगी कि तुम उन्हें इतनी इज्जत देते हो।"

अहमद थोड़ा चौंका, लेकिन उसे लगा कि मोहित की बातें शायद सच हो सकती हैं। उसे खुद को यकीन दिलाने की कोशिश करने में मदद मिली थी।
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छलावा - by rashmimandal - 03-11-2024, 02:41 PM
RE: छलावा - by sri7869 - 03-11-2024, 10:31 PM
RE: छलावा - by rashmimandal - 04-11-2024, 03:07 PM
RE: छलावा - by rashmimandal - 06-11-2024, 07:21 PM
RE: छलावा - by rashmimandal - 07-11-2024, 06:00 PM
RE: छलावा - by rashmimandal - 08-11-2024, 06:39 PM



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