26-06-2019, 12:48 PM
उस सुरंग में सरकते हुए उसका शिश्न मानो किसी रुकावट से टकराया। कोई चीज दीवार की तरह उसका रास्ता रोक रही थी। वह चीज उसके नोंक के दबाव में खिँचती हुई भी आगे बढ़ने नहीं दे रही थी। मेरे भीतर मानों फटा जा रहा था। उसने बेरहमी से और जोर लगाया। भीतर का पर्दा मानों फटने लगा। दर्द की इन्तहा हो गई। मैंने जांघें भींच लीं। किस तरह छुड़ाऊँ। कई तरफ से जोर लगाया। मगर कुछ कर नहीं पाई। रस्सी से बंधे बकरे की तरह हलाल हो रही थी। विवशता में रो पड़ी। सिर्फ जांघों को भींचकर खुद को बचाने की कोशिश कर रही थी। मगर जांघ तो फैले थे। भींचने की कोशिश में छेद और सख्त हो रही थी, उससे और पीड़ा हो रही थी।
शायद उसे मुझपर तरस आया। उसने मेरे बहते आँसुओं पर अपने होंट रख दिए। मुझे उस दर्द में भी उसपर दया आई। यह आदमी फिर भी क्रूर नहीं है। मेरा दर्द समझ रहा है। उसने सारे आँसू चूस लिये। मेरी बंद पलकों पर जीभ फिराकर उन्हें भी सुखा दिया। कैसा विरोधाभास था! नीचे से लिंग की कठोर, जान निकाल देनेवाली क्रूरता, उपर से उसकी जीभ का कोमल सहानुभूतिभरा सांत्वनादायी प्यार। उसने मेरे चिड़िया की तरह अधखुले मुँह पर बार बार चुम्बन की मुहर लगाई। फिर ठुड्डी को, गले को, कॉलर की हड्डी को चूमता हुआ नीचे उतरा और प्रतीक्षा में फुरफुराती मेरी बाईं चूची को होंठों में अंदर गर्म घेरे में ले लिया। फिर मेरे दाएँ कंधे के नीचे से हाथ निकालकर मेरी प्रतीक्षारता दूसरी चूची को चुटकी में पकड़कर मसलने लगा। नीचे तड़तड़ाहट के दर्द के बावजूद आनंद की लहरें मुझमें दौड़ने लगीं। एक तरफ दर्द और दूसरे तरफ आनंद की लहर। किधर जाऊँ! एक तड़पा रही थी, दूसरी ललचा रही थी। कुछ क्षण आनंद के हिचकोले मुझे झुलाते रहे और उन हिचकोलों में चुभन की पीड़ा भी कुछ मध्दिम होती सी प्रतीत हुई। हालांकि वह मुझमें उतना ही घुसा हुआ था।
“मोना आई लव यू… आई लव यू ….” वह नीचे चूचियों को चूसते हुए वहीं से बुदबुदाया। ‘मोना!’ हाँ, मैं रिया नहीं मोना थी। उसके लिए मोना। संवेदनों की तेज सनसनाहट में मैं भूल गई थी कि मैं मोना नहीं रिया थी। वह इतना प्यार मुझपर बरसा रहा था कोई और समझकर। मुझे पछतावा हुआ। इच्छा हुई उसे बता दूं। मगर आनंद और दर्द की लहरों में यह खयाल मुझे निरर्थक लगा। जो कुछ मैं भोग रही थी, जो आनंद, जो दर्द मुझे मिल रहा था उसमें इससे क्या फर्क पड़ता था मैं कौन हूँ। वह भोगना ही था। वह स्त्री देह की अनिवार्य नियति थी। कोई और राह नहीं थी। नीचे उस अनजान अतिथि को मेरी योनि अपनी पहचान के रस में डुबोकर भीतर बुला ही चुकी थी। अब क्या बाकी रहा था?
शायद उसे मुझपर तरस आया। उसने मेरे बहते आँसुओं पर अपने होंट रख दिए। मुझे उस दर्द में भी उसपर दया आई। यह आदमी फिर भी क्रूर नहीं है। मेरा दर्द समझ रहा है। उसने सारे आँसू चूस लिये। मेरी बंद पलकों पर जीभ फिराकर उन्हें भी सुखा दिया। कैसा विरोधाभास था! नीचे से लिंग की कठोर, जान निकाल देनेवाली क्रूरता, उपर से उसकी जीभ का कोमल सहानुभूतिभरा सांत्वनादायी प्यार। उसने मेरे चिड़िया की तरह अधखुले मुँह पर बार बार चुम्बन की मुहर लगाई। फिर ठुड्डी को, गले को, कॉलर की हड्डी को चूमता हुआ नीचे उतरा और प्रतीक्षा में फुरफुराती मेरी बाईं चूची को होंठों में अंदर गर्म घेरे में ले लिया। फिर मेरे दाएँ कंधे के नीचे से हाथ निकालकर मेरी प्रतीक्षारता दूसरी चूची को चुटकी में पकड़कर मसलने लगा। नीचे तड़तड़ाहट के दर्द के बावजूद आनंद की लहरें मुझमें दौड़ने लगीं। एक तरफ दर्द और दूसरे तरफ आनंद की लहर। किधर जाऊँ! एक तड़पा रही थी, दूसरी ललचा रही थी। कुछ क्षण आनंद के हिचकोले मुझे झुलाते रहे और उन हिचकोलों में चुभन की पीड़ा भी कुछ मध्दिम होती सी प्रतीत हुई। हालांकि वह मुझमें उतना ही घुसा हुआ था।
“मोना आई लव यू… आई लव यू ….” वह नीचे चूचियों को चूसते हुए वहीं से बुदबुदाया। ‘मोना!’ हाँ, मैं रिया नहीं मोना थी। उसके लिए मोना। संवेदनों की तेज सनसनाहट में मैं भूल गई थी कि मैं मोना नहीं रिया थी। वह इतना प्यार मुझपर बरसा रहा था कोई और समझकर। मुझे पछतावा हुआ। इच्छा हुई उसे बता दूं। मगर आनंद और दर्द की लहरों में यह खयाल मुझे निरर्थक लगा। जो कुछ मैं भोग रही थी, जो आनंद, जो दर्द मुझे मिल रहा था उसमें इससे क्या फर्क पड़ता था मैं कौन हूँ। वह भोगना ही था। वह स्त्री देह की अनिवार्य नियति थी। कोई और राह नहीं थी। नीचे उस अनजान अतिथि को मेरी योनि अपनी पहचान के रस में डुबोकर भीतर बुला ही चुकी थी। अब क्या बाकी रहा था?