05-10-2024, 11:18 AM
हे भगवान, यह मुझे क्या होता जा रहा था। मेरे अंदर सेक्स की इतनी भूख कैसे बढ़ती जा रही थी? मन के झंझावातों से मुक्ति के और भी तो विकल्प हो सकते थे लेकिन घूम फिरकर फिर विकल्प के रूप में एकमात्र चुदाई का रास्ता ही क्यों सूझता था मुझे? मैं अपने रौ में इसी रास्ते को अख्तियार करते हुए बहाव में बहती जा रही थी। बस फिर क्या था, मैंने तत्काल निर्णय कर लिया कि अब जो होना है हो जाय। तत्काल तो मेरी शारीरिक भूख मिटाने के लिए सुलभता से उपलब्ध था रघु। समस्या यह थी कि मैं अपना मनोभाव उसके सामने व्यक्त कैसे करूं। मनोभाव व्यक्त कर भी दूं तो क्या वह इस वक्त मेरी मनोकामना पूर्ण करने के लिए अपनी ड्यूटी छोड़ सकता था? यह यक्षप्रश्न मुंह बाए खड़ा था। फिर भी स्पष्ट नहीं तो घुमा फिरा कर अपने मन की बात प्रकट तो कर ही सकती हूं और इस तरह बात बन गई तो बन गई और नहीं भी बनी तो भी बेशर्म वासना की पुजारन होने का तोहमत तो मुझ पर नहीं लग सकता था। देखती हूं परिणाम क्या निकलता है, मैं अभी यह सोचती हुई धीमी चाल से चल रही थी कि मानो बिल्ली के भाग से छींका टूटा।
"क्या हम आपकी कोई सहायता कर सकते हैं?" रघु ने मेरी झिझक को ताड़ कर कहा। मेरे पैर वहीं जम गये। मेरा दिल धाड़ धाड़ धड़कने लगा।
"तुम्हें क्यों लगता है कि मुझे किसी सहायता की जरूरत है?" मैं घबराकर चारों ओर देखती हुई धीमी आवाज में बोली।
"आपको देखकर हम सोचे कि शायद आपको कोई समस्या है और किसी तरह की सहायता की जरूरत है। अगर नहीं है तो कोई बात नहीं।" रघु बोला। लेकिन उसे अब भी आशा थी कि मैं मुंह खोल कर बोलूंगी। लेकिन ऐसी बात भला कोई लड़की अपने मुंह से कैसे खुल कर बोल सकती है, भले ही कितनी भी चंचल, वाचाल और खिलंदड़ी लड़की क्यों न हो।
"तुम्हें क्या पता कि मुझे कोई समस्या है? अगर समस्या है भी तो तुम्हें उससे क्या मतलब?" मैं बोली। हालांकि मैं जानती थी कि जो समस्या इस वक्त मेरे अंदर थी, उसका समाधान रघु ही के पास था लेकिन मैं मुंह खोल कर कैसे बोल देती।
"न बताना हो तो न बताओ लेकिन हम शायद जानते हैं कि आपकी समस्या क्या है इसलिए बोले थे। आगे आपकी मर्जी।" रघु मुझे घूरते हुए बोला। वह खेला खाया लौंडिबाज था, उससे भला मेरी स्थिति का भान कैसे न होता। वह इधर-उधर देखा और अचानक उसका हाथ अपने पैंट के सामने चला गया, ठीक उसके लंड के ऊपर। मैं भौंचक्की रह गई उसकी हिमाकत देखकर। निश्चय ही उसे मेरी मन: स्थिति का सटीक आभास हो चुका था।
"तुम क्या जानते हो और क्या सोच रहे हो उससे मुझे क्या लेना देना है?" मैं कांपती आवाज़ में इधर उधर देखती हुई बोली।
"हम समझ गए। अपने मुंह से बोलिएगा नहीं तो हम का समझेंगे नहीं? लेना देना तो है मैडमजी। जो हम जानते हैं और जो हम सोच रहे हैं, हमारा विश्वास है कि हम बिल्कुल सही जान रहे हैं और सही सोच रहे हैं। चलिएगा वहीं? लेना देना हो जाएगा।" वह थोड़ा हिम्मत करके बोला। वह इधर-उधर देख रहा था और अब अपना लंड भी सहला रहा था।
"कहां?" मैं हड़बड़ा कर बोली। मैं घबरा भी गयी थी कि कोई रघु की हरकत को देखकर मेरे बारे मे क्या सोचेगा। हालांकि उसकी हरकत से मेरा मन मयूर नाच उठा था। मैं भीतर तक सनसना उठी थी।
"और कहां? लेन देन के लिए वही तो ठीक जगह है।" वह अब खुलकर अपनी मंशा प्रकट करते हुए बोला।
"मैं कुछ समझी नहीं।" मैं अनजान बनने का झूठ-मूठ ढोंग करते हुए बोली।
"वहीं चलकर समझा देंगे मैडमजी।" वह धीरे से अपने पपलू को सहला दिया था। मैं चौकीदार के केबिन की आड़ में हो गई ताकि उससे बातें करते हुए कोई देख न ले। क्लास जाने की बात तो मैंने कब का मन से निकाल दिया था। वह भी समझ गया कि मैं और लोगों से छुपकर उससे बात करना चाह रही थी।"कहां चलने की बात कर रहे हो, मैं अब भी नहीं समझी?" मैंने उसकी हरकत को अनदेखा करते हुए कहा।
"आप लोगों का एही समस्या है। चाहते भी हैं और खुलकर बोलते भी नहीं। हम जैसे लोग आप लोगों का 'मदद' करें भी तो कईसे करें।" वह तनिक मायूस स्वर में बोला।
"तुम क्या समझ रहे हो, बताओगे भी?" मैं भी धीरे धीरे हिम्मत जुटाने लगी थी।
"सबकुछ तो दिखाई दे रहा है। अब हम ना समझें इत्ता भी भकलोल नहीं हैं हम। तो चलें।" वह लार टपकाती नजरों से मुझे ऊपर से नीचे देखते हुए बोला। उसकी नजरें बार बार मेरी चूचियों पर जा कर टिक रही थीं। मैं उसकी नज़रों की ताब न ला सकी और मेरी चूचियों के निप्पल्स ब्लाऊज को छेद देने की जद्दोजहद करने लगीं। मेरी चूत से रिसाव नियंत्रण में नहीं रह गया था। मैं बड़ी शर्मिंदा महसूस करने लगी थी। मेरा शरीर चीख चीखकर मेरे मन की इच्छा को जाहिर कर रहा था और मैं उस साधारण से चौकीदार के सामने शर्म से पानी-पानी हो रही थी।
"और यहां गेट पर?" मैं सर झुकाए हुए बड़ी मुश्किल से बोल पाई। मेरी बात सुनकर वह खुश हो गया। इसका मतलब मैं रजामंद थी।
"इसका फिकर मत करो मैडमजी, एकाध घंटा के लिए हम गायब भी रहेंगे तो कोई हमको कुच्छ नहीं कहेगा। फिर भी हम सावधानी का तौर पर एक अऊर आदमी को तबतक के लिए बुला लेते हैं।" कहकर वह किसी को फोन करने लगा। "अरे भाई जधू, कुच्छ देर के लिए गेट पर आ जाओ। हम कुच्छ अरजेंट काम से थोड़ा भित्तर जा रहे हैं।" फिर मेरी ओर मुखातिब होकर बोला, "हां, अब ठीक है। पहिले हम आगे चलते हैं, पीछे पीछे आप आ जाओ। चिंता मत करो, कसम से इत्ता अच्छा से देंगे कि आप अऊर लेना चाहेंगी।" कहते हुए मुदित मन वह आगे बढ़ कर झाड़ियों को चीरता हूआ पुराने लैब की ओर तेजी से चल पड़ा। वह इतने विश्वास के साथ आगे बढ़ गया कि मैं देखती रह गई। उसे पूरा विश्वास था कि मैं उसके पीछे पीछे खिंचती चली आऊंगी। मैं कुछ देर वहां ठिठकी रही फिर जैसे किसी सम्मोहन के वशीभूत मेरे कदम यंत्रवत उसी दिशा में बढ़ चले। मन ही मन मना रही थी कि कोई इस वक्त मुझे देख न ले इसलिए चारों ओर चोर दृष्टि दौड़ा कर तेजी से उन झाड़ियों को चीरती हुई सामने से पलक झपकते गुम हो गयी और लैब की ओर भाग निकली। यह क्या था? अपरिपक्व उम्र में चुदाई का चस्का ही तो था। हवस की भूख ही तो थी। तन में लगी आग के आगे मैं अंधों की भांति बिना आगा पीछा सोचे लैब की ओर भागी थी जैसे वहां जाकर मुझे कोई कारूं का खजाना मिलने वाला हो।
"क्या हम आपकी कोई सहायता कर सकते हैं?" रघु ने मेरी झिझक को ताड़ कर कहा। मेरे पैर वहीं जम गये। मेरा दिल धाड़ धाड़ धड़कने लगा।
"तुम्हें क्यों लगता है कि मुझे किसी सहायता की जरूरत है?" मैं घबराकर चारों ओर देखती हुई धीमी आवाज में बोली।
"आपको देखकर हम सोचे कि शायद आपको कोई समस्या है और किसी तरह की सहायता की जरूरत है। अगर नहीं है तो कोई बात नहीं।" रघु बोला। लेकिन उसे अब भी आशा थी कि मैं मुंह खोल कर बोलूंगी। लेकिन ऐसी बात भला कोई लड़की अपने मुंह से कैसे खुल कर बोल सकती है, भले ही कितनी भी चंचल, वाचाल और खिलंदड़ी लड़की क्यों न हो।
"तुम्हें क्या पता कि मुझे कोई समस्या है? अगर समस्या है भी तो तुम्हें उससे क्या मतलब?" मैं बोली। हालांकि मैं जानती थी कि जो समस्या इस वक्त मेरे अंदर थी, उसका समाधान रघु ही के पास था लेकिन मैं मुंह खोल कर कैसे बोल देती।
"न बताना हो तो न बताओ लेकिन हम शायद जानते हैं कि आपकी समस्या क्या है इसलिए बोले थे। आगे आपकी मर्जी।" रघु मुझे घूरते हुए बोला। वह खेला खाया लौंडिबाज था, उससे भला मेरी स्थिति का भान कैसे न होता। वह इधर-उधर देखा और अचानक उसका हाथ अपने पैंट के सामने चला गया, ठीक उसके लंड के ऊपर। मैं भौंचक्की रह गई उसकी हिमाकत देखकर। निश्चय ही उसे मेरी मन: स्थिति का सटीक आभास हो चुका था।
"तुम क्या जानते हो और क्या सोच रहे हो उससे मुझे क्या लेना देना है?" मैं कांपती आवाज़ में इधर उधर देखती हुई बोली।
"हम समझ गए। अपने मुंह से बोलिएगा नहीं तो हम का समझेंगे नहीं? लेना देना तो है मैडमजी। जो हम जानते हैं और जो हम सोच रहे हैं, हमारा विश्वास है कि हम बिल्कुल सही जान रहे हैं और सही सोच रहे हैं। चलिएगा वहीं? लेना देना हो जाएगा।" वह थोड़ा हिम्मत करके बोला। वह इधर-उधर देख रहा था और अब अपना लंड भी सहला रहा था।
"कहां?" मैं हड़बड़ा कर बोली। मैं घबरा भी गयी थी कि कोई रघु की हरकत को देखकर मेरे बारे मे क्या सोचेगा। हालांकि उसकी हरकत से मेरा मन मयूर नाच उठा था। मैं भीतर तक सनसना उठी थी।
"और कहां? लेन देन के लिए वही तो ठीक जगह है।" वह अब खुलकर अपनी मंशा प्रकट करते हुए बोला।
"मैं कुछ समझी नहीं।" मैं अनजान बनने का झूठ-मूठ ढोंग करते हुए बोली।
"वहीं चलकर समझा देंगे मैडमजी।" वह धीरे से अपने पपलू को सहला दिया था। मैं चौकीदार के केबिन की आड़ में हो गई ताकि उससे बातें करते हुए कोई देख न ले। क्लास जाने की बात तो मैंने कब का मन से निकाल दिया था। वह भी समझ गया कि मैं और लोगों से छुपकर उससे बात करना चाह रही थी।"कहां चलने की बात कर रहे हो, मैं अब भी नहीं समझी?" मैंने उसकी हरकत को अनदेखा करते हुए कहा।
"आप लोगों का एही समस्या है। चाहते भी हैं और खुलकर बोलते भी नहीं। हम जैसे लोग आप लोगों का 'मदद' करें भी तो कईसे करें।" वह तनिक मायूस स्वर में बोला।
"तुम क्या समझ रहे हो, बताओगे भी?" मैं भी धीरे धीरे हिम्मत जुटाने लगी थी।
"सबकुछ तो दिखाई दे रहा है। अब हम ना समझें इत्ता भी भकलोल नहीं हैं हम। तो चलें।" वह लार टपकाती नजरों से मुझे ऊपर से नीचे देखते हुए बोला। उसकी नजरें बार बार मेरी चूचियों पर जा कर टिक रही थीं। मैं उसकी नज़रों की ताब न ला सकी और मेरी चूचियों के निप्पल्स ब्लाऊज को छेद देने की जद्दोजहद करने लगीं। मेरी चूत से रिसाव नियंत्रण में नहीं रह गया था। मैं बड़ी शर्मिंदा महसूस करने लगी थी। मेरा शरीर चीख चीखकर मेरे मन की इच्छा को जाहिर कर रहा था और मैं उस साधारण से चौकीदार के सामने शर्म से पानी-पानी हो रही थी।
"और यहां गेट पर?" मैं सर झुकाए हुए बड़ी मुश्किल से बोल पाई। मेरी बात सुनकर वह खुश हो गया। इसका मतलब मैं रजामंद थी।
"इसका फिकर मत करो मैडमजी, एकाध घंटा के लिए हम गायब भी रहेंगे तो कोई हमको कुच्छ नहीं कहेगा। फिर भी हम सावधानी का तौर पर एक अऊर आदमी को तबतक के लिए बुला लेते हैं।" कहकर वह किसी को फोन करने लगा। "अरे भाई जधू, कुच्छ देर के लिए गेट पर आ जाओ। हम कुच्छ अरजेंट काम से थोड़ा भित्तर जा रहे हैं।" फिर मेरी ओर मुखातिब होकर बोला, "हां, अब ठीक है। पहिले हम आगे चलते हैं, पीछे पीछे आप आ जाओ। चिंता मत करो, कसम से इत्ता अच्छा से देंगे कि आप अऊर लेना चाहेंगी।" कहते हुए मुदित मन वह आगे बढ़ कर झाड़ियों को चीरता हूआ पुराने लैब की ओर तेजी से चल पड़ा। वह इतने विश्वास के साथ आगे बढ़ गया कि मैं देखती रह गई। उसे पूरा विश्वास था कि मैं उसके पीछे पीछे खिंचती चली आऊंगी। मैं कुछ देर वहां ठिठकी रही फिर जैसे किसी सम्मोहन के वशीभूत मेरे कदम यंत्रवत उसी दिशा में बढ़ चले। मन ही मन मना रही थी कि कोई इस वक्त मुझे देख न ले इसलिए चारों ओर चोर दृष्टि दौड़ा कर तेजी से उन झाड़ियों को चीरती हुई सामने से पलक झपकते गुम हो गयी और लैब की ओर भाग निकली। यह क्या था? अपरिपक्व उम्र में चुदाई का चस्का ही तो था। हवस की भूख ही तो थी। तन में लगी आग के आगे मैं अंधों की भांति बिना आगा पीछा सोचे लैब की ओर भागी थी जैसे वहां जाकर मुझे कोई कारूं का खजाना मिलने वाला हो।