03-10-2024, 07:38 PM
गरम रोज (भाग 13)
घनश्याम मुझे कॉलेज में छोड़ कर वापस चला गया। मैं कार से उतर कर कॉलेज गेट की ओर बढ़ी तो चलने में थोड़ी असुविधा का अनुभव कर रही थी। घनश्याम नें मुझे सबक सिखाने के चक्कर में शायद मेरी चुदाई के वक्त कुछ ज्यादा ही निर्दयता का परिचय दिया था शायद उसी का परिणाम हो। उसने जो कुछ किया सब कुछ असामान्य रूप से कुछ अतिरिक्त ही किया था, शायद मुझे अपनी शैतानी के लिए दंडित करने की नीयत से। अब महसूस हो रहा था कि उसने मेरी चूचियों को कितनी बेदर्दी से निचोड़ निचोड़ कर मसला था। अब भी दर्द कर रहा था और शायद कुछ फूल भी गया था या यों कहें सूज गया था। अपने असाधारण लंड से मेरी अगाड़ी और पिछाड़ी का जिस तरह खुन्नस निकालने वाले अंदाज से बाजा बजाया था उसका तो कहना ही क्या था। पूरा कस बल निकाल कर रख दिया था कमीने ने। शायद कुछ ज्यादा ही खोल दिया था और सुजा कर फुला दिया था जिसका मुझे अब अहसास हो रहा था। चलते वक्त मेरे नितंबों का आपस में घर्षण और खास करके मेरी चूत की पुत्तियों के बीच का घर्षण मुझमें एक अजीब तरह का रोमांचक अहसास करा रहा था। जो कुछ भी हुआ, मुझे उससे एक पीड़िता का अहसास होना चाहिए था लेकिन उसके बदले अच्छा अच्छा सा ही महसूस हो रहा था। उसके बाद वहां उन लफंगों से लड़ते हुए मेरा घुटना, लगता है थोड़ा चोटिल हो गया था जिसपर मैंने उस समय ध्यान नहीं दिया था। शायद मैं ने पहले वाले के चेहरे पर घुटने का प्रहार करते वक्त थोड़ी असावधानी बरती थी, जिसके कारण घुटने के जोड़ में थोड़ी पीड़ा का अनुभव कर रही थी। इन सबका मिला जुला असर मेरी चाल में लक्षित हो रहा था। मेरी चाल थोड़ी सी बदली बदली सी थी। मैं हल्का सा पैर फैला कर असामान्य रूप से चल रही थी। खैर मैं जानती थी कि यह तात्कालिक था।
कॉलेज गेट पर गेटकीपर रघु एक कुर्सी पर बैठा दिखाई दिया। मेरे तन मन में वैसे ही घनश्याम के बारे में जानकर और उसके साथ खंडहर में जो कुछ हुआ था उसे लेकर अजीब सी हलचल मची हुई थी, अब सामने रघु से सामना हो गया तो वह हलचल और बढ़ गई। दरअसल उस दिन कॉलेज के पुराने लैब में जो कुछ मेरे साथ राजू, विशाल, अशोक और रफीक कर रहे थे उस दौरान रघु ने मेरी नग्न देह का दर्शन किया था और उस दिन के बाद जब भी रघु को देखती थी तो इसी बात से मेरा मन आंदोलित होता था। उसकी हालत तो लगता था मुझसे भी बुरी थी।उसकी मानसिक स्थिति का अनुमान करना मुश्किल नहीं था। निश्चय ही जब भी मुझे देखता था होगा तो उसकी आंखों के सामने मेरी नग्न देह घूमने लगती थी होगी। निश्चय ही वह उत्तेजित हो उठता था होगा लेकिन वह यह भी अच्छी तरह से जानता था कि बिना मेरी ओर से हरी झंडी दिखाए वह मेरे तन को छू भी नहीं सकता था क्योंकि उसे मेरे विरोध और संघर्ष क्षमता का अंदाजा हो गया था। बेचारा, मन मसोस कर रह जाता था होगा। लेकिन उसके मन के किसी कोने में आशा की एक किरण थी, वह किरण थी उस घटना के बाद मेरा उसके लिए सहृदयता प्रदर्शित करना। मैंने उससे यह भी तो कहा था कि 'मुझे उसका पपलू भा गया है', यह बात उसे अवश्य आश्वासन देता था होगा कि मैं कभी न कभी उसके पपलू का स्वाद अवश्य चखना चाहूंगी। जब मैं घायलावस्था में उसे उस लैब से लेकर बाहर आ रही थी तो उसे अपनी चूची पर हाथ रखने दिया था, यह सब उसके मन में दबी कामना को जिंदा रखने के लिए काफी था।
सच कहूं तो मेरे मन के किसी कोने में रघु की अंकशायिनी बनने की तमन्ना थी। यह सब सोचते हुए मैं गेट के अंदर दाखिल हो रही थी तो मेरी नज़र रघु की नजरों से जा टकरायीं। इक्का दुक्का स्टूडेंट्स को छोड़कर सभी अपने अपने क्लास के अंदर थे और उस समय गेट के पास रघु और मुझको छोड़कर कोई नहीं था। हाय, कितनी हसरत भरी नजरों से मुझे देख रहा था बेचारा। उसकी नज़रों में न जाने क्या दिखाई दिया था मुझे कि मेरा पूरा शरीर चुनचुना उठा था और बिना ब्रा के मेरी चूचियों के निप्पल्स सख्त हो कर खड़े हो गए थे। मेरी ब्लाऊज के बाहर से ही मेरे निप्पल्स के नोंक स्पष्ट नुमायां हो रहे थे। घनश्याम से चुद चुद कर बेहाल अपनी गांड़ और चूत को पोंछने की भी जहमत नहीं उठाई थी या वहां हुए घटनाक्रम के चलते इसका ध्यान ही नहीं आया था, जो भी हुआ था, हुआ था, अब न चाहते हुए भी उस चूत से लसलसे पानी का रिसाव आरंभ होने लग गया था। बिना पैंटी के, चलते हुए वह लसलसापन मुझे अजीब सा अहसास करा रहा था। कम से कम पैंटी पहनी होती तो चूत से निकलते हुए लसलसेपन को सोखता तो, लेकिन स्कर्ट के अंदर नंगी चूत पर हवा का स्पर्श भी ठंढक का अहसास कराने में असफल हो रहा था। दर असल मेरी नंगी चूत पर जो हवा का स्पर्श हो रहा था उससे मिलने वाली ठंढक पर तन में सुलग उठी गर्मी हावी हो रही थी। यह मुझे क्या हो रहा था? इस स्थिति में मैं क्लास कैसे कर पाऊंगी? मेरी शारीरिक अवस्था के साथ ही साथ मन भी बहुत विचलित था। एक अजीब तरह की व्याकुलता मन में तारी थी। स्पष्ट तौर पर कह सकती हूं कि क्लास करने के लिए जो एकाग्रता की आवश्यकता होनी चाहिए वह चाह कर भी इस वक्त नहीं आ सकती थी। मन बड़ा उद्विग्न था और इस उद्विग्नता से मुक्ति का एकमात्र उपाय एक और अच्छी सी चुदाई ही हो सकती थी, उसके अलावा मुझे और कोई दूसरा विकल्प नहीं सूझ रहा था।
घनश्याम मुझे कॉलेज में छोड़ कर वापस चला गया। मैं कार से उतर कर कॉलेज गेट की ओर बढ़ी तो चलने में थोड़ी असुविधा का अनुभव कर रही थी। घनश्याम नें मुझे सबक सिखाने के चक्कर में शायद मेरी चुदाई के वक्त कुछ ज्यादा ही निर्दयता का परिचय दिया था शायद उसी का परिणाम हो। उसने जो कुछ किया सब कुछ असामान्य रूप से कुछ अतिरिक्त ही किया था, शायद मुझे अपनी शैतानी के लिए दंडित करने की नीयत से। अब महसूस हो रहा था कि उसने मेरी चूचियों को कितनी बेदर्दी से निचोड़ निचोड़ कर मसला था। अब भी दर्द कर रहा था और शायद कुछ फूल भी गया था या यों कहें सूज गया था। अपने असाधारण लंड से मेरी अगाड़ी और पिछाड़ी का जिस तरह खुन्नस निकालने वाले अंदाज से बाजा बजाया था उसका तो कहना ही क्या था। पूरा कस बल निकाल कर रख दिया था कमीने ने। शायद कुछ ज्यादा ही खोल दिया था और सुजा कर फुला दिया था जिसका मुझे अब अहसास हो रहा था। चलते वक्त मेरे नितंबों का आपस में घर्षण और खास करके मेरी चूत की पुत्तियों के बीच का घर्षण मुझमें एक अजीब तरह का रोमांचक अहसास करा रहा था। जो कुछ भी हुआ, मुझे उससे एक पीड़िता का अहसास होना चाहिए था लेकिन उसके बदले अच्छा अच्छा सा ही महसूस हो रहा था। उसके बाद वहां उन लफंगों से लड़ते हुए मेरा घुटना, लगता है थोड़ा चोटिल हो गया था जिसपर मैंने उस समय ध्यान नहीं दिया था। शायद मैं ने पहले वाले के चेहरे पर घुटने का प्रहार करते वक्त थोड़ी असावधानी बरती थी, जिसके कारण घुटने के जोड़ में थोड़ी पीड़ा का अनुभव कर रही थी। इन सबका मिला जुला असर मेरी चाल में लक्षित हो रहा था। मेरी चाल थोड़ी सी बदली बदली सी थी। मैं हल्का सा पैर फैला कर असामान्य रूप से चल रही थी। खैर मैं जानती थी कि यह तात्कालिक था।
कॉलेज गेट पर गेटकीपर रघु एक कुर्सी पर बैठा दिखाई दिया। मेरे तन मन में वैसे ही घनश्याम के बारे में जानकर और उसके साथ खंडहर में जो कुछ हुआ था उसे लेकर अजीब सी हलचल मची हुई थी, अब सामने रघु से सामना हो गया तो वह हलचल और बढ़ गई। दरअसल उस दिन कॉलेज के पुराने लैब में जो कुछ मेरे साथ राजू, विशाल, अशोक और रफीक कर रहे थे उस दौरान रघु ने मेरी नग्न देह का दर्शन किया था और उस दिन के बाद जब भी रघु को देखती थी तो इसी बात से मेरा मन आंदोलित होता था। उसकी हालत तो लगता था मुझसे भी बुरी थी।उसकी मानसिक स्थिति का अनुमान करना मुश्किल नहीं था। निश्चय ही जब भी मुझे देखता था होगा तो उसकी आंखों के सामने मेरी नग्न देह घूमने लगती थी होगी। निश्चय ही वह उत्तेजित हो उठता था होगा लेकिन वह यह भी अच्छी तरह से जानता था कि बिना मेरी ओर से हरी झंडी दिखाए वह मेरे तन को छू भी नहीं सकता था क्योंकि उसे मेरे विरोध और संघर्ष क्षमता का अंदाजा हो गया था। बेचारा, मन मसोस कर रह जाता था होगा। लेकिन उसके मन के किसी कोने में आशा की एक किरण थी, वह किरण थी उस घटना के बाद मेरा उसके लिए सहृदयता प्रदर्शित करना। मैंने उससे यह भी तो कहा था कि 'मुझे उसका पपलू भा गया है', यह बात उसे अवश्य आश्वासन देता था होगा कि मैं कभी न कभी उसके पपलू का स्वाद अवश्य चखना चाहूंगी। जब मैं घायलावस्था में उसे उस लैब से लेकर बाहर आ रही थी तो उसे अपनी चूची पर हाथ रखने दिया था, यह सब उसके मन में दबी कामना को जिंदा रखने के लिए काफी था।
सच कहूं तो मेरे मन के किसी कोने में रघु की अंकशायिनी बनने की तमन्ना थी। यह सब सोचते हुए मैं गेट के अंदर दाखिल हो रही थी तो मेरी नज़र रघु की नजरों से जा टकरायीं। इक्का दुक्का स्टूडेंट्स को छोड़कर सभी अपने अपने क्लास के अंदर थे और उस समय गेट के पास रघु और मुझको छोड़कर कोई नहीं था। हाय, कितनी हसरत भरी नजरों से मुझे देख रहा था बेचारा। उसकी नज़रों में न जाने क्या दिखाई दिया था मुझे कि मेरा पूरा शरीर चुनचुना उठा था और बिना ब्रा के मेरी चूचियों के निप्पल्स सख्त हो कर खड़े हो गए थे। मेरी ब्लाऊज के बाहर से ही मेरे निप्पल्स के नोंक स्पष्ट नुमायां हो रहे थे। घनश्याम से चुद चुद कर बेहाल अपनी गांड़ और चूत को पोंछने की भी जहमत नहीं उठाई थी या वहां हुए घटनाक्रम के चलते इसका ध्यान ही नहीं आया था, जो भी हुआ था, हुआ था, अब न चाहते हुए भी उस चूत से लसलसे पानी का रिसाव आरंभ होने लग गया था। बिना पैंटी के, चलते हुए वह लसलसापन मुझे अजीब सा अहसास करा रहा था। कम से कम पैंटी पहनी होती तो चूत से निकलते हुए लसलसेपन को सोखता तो, लेकिन स्कर्ट के अंदर नंगी चूत पर हवा का स्पर्श भी ठंढक का अहसास कराने में असफल हो रहा था। दर असल मेरी नंगी चूत पर जो हवा का स्पर्श हो रहा था उससे मिलने वाली ठंढक पर तन में सुलग उठी गर्मी हावी हो रही थी। यह मुझे क्या हो रहा था? इस स्थिति में मैं क्लास कैसे कर पाऊंगी? मेरी शारीरिक अवस्था के साथ ही साथ मन भी बहुत विचलित था। एक अजीब तरह की व्याकुलता मन में तारी थी। स्पष्ट तौर पर कह सकती हूं कि क्लास करने के लिए जो एकाग्रता की आवश्यकता होनी चाहिए वह चाह कर भी इस वक्त नहीं आ सकती थी। मन बड़ा उद्विग्न था और इस उद्विग्नता से मुक्ति का एकमात्र उपाय एक और अच्छी सी चुदाई ही हो सकती थी, उसके अलावा मुझे और कोई दूसरा विकल्प नहीं सूझ रहा था।