23-06-2019, 08:27 AM
बावरा साजन
मेरे हाथ भी उनके हाथों की देखादेखी बदमाशी सीख रहे थे ,
उन्होंने हलके से मूसलचंद को दबा दिया , बस हलके से और थोड़ी देर ,...
फिर तो वही हुआ , जो होना था ,
मैं नीचे , मेरी दोनों टाँगे उनके कंधे पर , ..
और मेरे एक हाथ ने तकिया हलके से सरका कर इशारा कर दिया , वैसलीन की शीशी कहाँ रखी है , ...
रजाई कब की फर्श पर जा चुकी थी
वैसलीन की शीशी खुली ,
पहले मेरी चुनमुनिया के बीच ,... मैंने खुद अपनी जाँघे पूरी तरह फैला दी ,... भले ही शर्म से मेरी आंखे अपने आप मुंद गयी
( पर कनखियों से देख रही थी , कैसे उन्होंने अपने उस दुष्ट मोटे मूसलचंद के मुंह पर ,.. और मुंह तो उसका मैंने ही खोल दिया था , सहलाते दबाते ,... ढेर सारी वैसलीन चुपड़ ली ,... )
और वो मोटा मूसल ,...
उईईई हलके से मैं चीखी , और साथ ही इन्हे कस के पकड़ लिया ,
अब इन्हे बहुत जल्दी नहीं थी , कभी हलके हलके हलके कभी जोर से ,
कभी मैं सिसकती कभी चीखती
कभी मेरी चूड़ियां चुरमुर करतीं , तो कभी उनके कंधो पर सवार पायल रुनझुन करती , ...
उनके दोनों हाथ जो शुरू में मेरी पतली कमर को पकड़ के पूरी तेजी से धक्के मार रहे थे ,
मूसलचंद के अंदर घुस जाने के बाद , अब दोनों जोबनों की रगड़ाई कर रहे थे ,
होंठ कौन कम बदमाश थे , कभी मेरे सिसकते होंठों को कचकचा के काट लेते , तो कभी मेरे उरोजों को ऐसे चूसने लगते की बस ,...
लेकिन सबसे दुष्ट थे उनके भोले नैन ,... मुझसे पूछिए ,...
जब वो मीठी मीठी निगाहों से देखते तो बस मैं पिघल जाती ,
इन्ही चोरों ने तो मुझसे मुझी को चुरा लिया था।
मैं कभी अपने नैनों की सांकल बंद कर लेती थी , पर जब सब कुछ लुट गया था , पहले मन फिर तन , तो अब बचने बचाने को बचा भी क्या था , और फिर मेरा मन तो उन नैनो स नैना चार करने को करता था , ...
इस लिए कभी कनखियों से तो कभी खुल के अपनी दीयली ऐसे आँखे खोल लेती थीं , ...
और उनके चेहरे के की ख़ुशी , उनकी आँखों में नाचती छलकती ,... जैसी उनकी कबकी चाहत पूरी हो रही है ,... इसके लिए तो मैं इस चितचोर की सब बात मानने को तैयार थी ,
हम दोनों साथ आनंद के सागर में गोते लगाते , ... हाँ पहले मैं ही ,.. मेरी देह कागज की नाव की तरह बूड़ती उतरती , शिथिल हो उठती , कुछ भी होश नहीं रहता , सिर्फ उस बदमाश दुष्ट मूसलचंद का जो मेरी देह के अंदर पूरी तरह घुसा ,...
मेरी फटती जाँघे , टीसती ,... लेकिन उनके होंठ , उनकी उँगलियाँ , कभी मेरे होंठों पर , कभी मेरे जोबन पर ,...
और धीरे धीरे मेरी देह फिर उन्ही के सुर ताल पर जुगलबंदी करती ,...
और अगली बार , ... जब मेरी आँखे एक बार मुंद ही रही थी ,
मेरे सासु के पूत ने ,... मेरे साथ साथ ,... जैसे ज्वालामुखी फूटा ,... कोई बाँध टूट गया हो ,....
मैं और किसके सहारे जाती , मेरे मायके वालों ने जिसके सहारे कर दिया था , ...
बस उसी को मैंने जोर से पकड़ लिया ,... बिना इस बात की परवाह किये की मेरी ये दुरगत करने वाला भी तो वही है ,...
और एक बार मैं फिर सिर्फ अपनी जाँघों के बीच महसूस कर रही थी , उन्हें झड़ते , गिरते ,
रोप रही थी अपनी देह की अंजुरी में , उनकी देह से झरते देह रस को ,...
सिर्फ हम दोनों की साँसों की आवाजें सुनाई दे रही थीं , मेरी आँखे बंद थी , मैं कस के उन्हें भींचे थी , ...
और जब मेरे नैनो के दरवाजे थोड़े से खुले , मैंने गवाक्ष से उन्हें झांकते देखा ,... और लजा कर मैंने आँख बंद कर ली ,...
ये अजब बात थी ,...
केलि क्रीड़ा के पलों में मेरी लाज जो मुझसे कुछ दूर होकर , ...
फिर वापस तुरंत मेरी देह पर मन पर कब्जा कर लेती थी।
बहुत देर तक हम दोनों एक दूसरे को पकडे दबोचे रहे।
लाज की तरह रजाई भी लौटी , लेकिन अब जैसे लाज का राज धीरे धीरे कम होता जा रहा था , रजाई भी ,...
उन्होंने मुझे मेरे उरोजों को ढकने नहीं दिया , मैंने बस एक दो बार हलकी सी कोशिश की ,... फिर हार मान ली।
मेरे हाथ भी उनके हाथों की देखादेखी बदमाशी सीख रहे थे ,
उन्होंने हलके से मूसलचंद को दबा दिया , बस हलके से और थोड़ी देर ,...
फिर तो वही हुआ , जो होना था ,
मैं नीचे , मेरी दोनों टाँगे उनके कंधे पर , ..
और मेरे एक हाथ ने तकिया हलके से सरका कर इशारा कर दिया , वैसलीन की शीशी कहाँ रखी है , ...
रजाई कब की फर्श पर जा चुकी थी
वैसलीन की शीशी खुली ,
पहले मेरी चुनमुनिया के बीच ,... मैंने खुद अपनी जाँघे पूरी तरह फैला दी ,... भले ही शर्म से मेरी आंखे अपने आप मुंद गयी
( पर कनखियों से देख रही थी , कैसे उन्होंने अपने उस दुष्ट मोटे मूसलचंद के मुंह पर ,.. और मुंह तो उसका मैंने ही खोल दिया था , सहलाते दबाते ,... ढेर सारी वैसलीन चुपड़ ली ,... )
और वो मोटा मूसल ,...
उईईई हलके से मैं चीखी , और साथ ही इन्हे कस के पकड़ लिया ,
अब इन्हे बहुत जल्दी नहीं थी , कभी हलके हलके हलके कभी जोर से ,
कभी मैं सिसकती कभी चीखती
कभी मेरी चूड़ियां चुरमुर करतीं , तो कभी उनके कंधो पर सवार पायल रुनझुन करती , ...
उनके दोनों हाथ जो शुरू में मेरी पतली कमर को पकड़ के पूरी तेजी से धक्के मार रहे थे ,
मूसलचंद के अंदर घुस जाने के बाद , अब दोनों जोबनों की रगड़ाई कर रहे थे ,
होंठ कौन कम बदमाश थे , कभी मेरे सिसकते होंठों को कचकचा के काट लेते , तो कभी मेरे उरोजों को ऐसे चूसने लगते की बस ,...
लेकिन सबसे दुष्ट थे उनके भोले नैन ,... मुझसे पूछिए ,...
जब वो मीठी मीठी निगाहों से देखते तो बस मैं पिघल जाती ,
इन्ही चोरों ने तो मुझसे मुझी को चुरा लिया था।
मैं कभी अपने नैनों की सांकल बंद कर लेती थी , पर जब सब कुछ लुट गया था , पहले मन फिर तन , तो अब बचने बचाने को बचा भी क्या था , और फिर मेरा मन तो उन नैनो स नैना चार करने को करता था , ...
इस लिए कभी कनखियों से तो कभी खुल के अपनी दीयली ऐसे आँखे खोल लेती थीं , ...
और उनके चेहरे के की ख़ुशी , उनकी आँखों में नाचती छलकती ,... जैसी उनकी कबकी चाहत पूरी हो रही है ,... इसके लिए तो मैं इस चितचोर की सब बात मानने को तैयार थी ,
हम दोनों साथ आनंद के सागर में गोते लगाते , ... हाँ पहले मैं ही ,.. मेरी देह कागज की नाव की तरह बूड़ती उतरती , शिथिल हो उठती , कुछ भी होश नहीं रहता , सिर्फ उस बदमाश दुष्ट मूसलचंद का जो मेरी देह के अंदर पूरी तरह घुसा ,...
मेरी फटती जाँघे , टीसती ,... लेकिन उनके होंठ , उनकी उँगलियाँ , कभी मेरे होंठों पर , कभी मेरे जोबन पर ,...
और धीरे धीरे मेरी देह फिर उन्ही के सुर ताल पर जुगलबंदी करती ,...
और अगली बार , ... जब मेरी आँखे एक बार मुंद ही रही थी ,
मेरे सासु के पूत ने ,... मेरे साथ साथ ,... जैसे ज्वालामुखी फूटा ,... कोई बाँध टूट गया हो ,....
मैं और किसके सहारे जाती , मेरे मायके वालों ने जिसके सहारे कर दिया था , ...
बस उसी को मैंने जोर से पकड़ लिया ,... बिना इस बात की परवाह किये की मेरी ये दुरगत करने वाला भी तो वही है ,...
और एक बार मैं फिर सिर्फ अपनी जाँघों के बीच महसूस कर रही थी , उन्हें झड़ते , गिरते ,
रोप रही थी अपनी देह की अंजुरी में , उनकी देह से झरते देह रस को ,...
सिर्फ हम दोनों की साँसों की आवाजें सुनाई दे रही थीं , मेरी आँखे बंद थी , मैं कस के उन्हें भींचे थी , ...
और जब मेरे नैनो के दरवाजे थोड़े से खुले , मैंने गवाक्ष से उन्हें झांकते देखा ,... और लजा कर मैंने आँख बंद कर ली ,...
ये अजब बात थी ,...
केलि क्रीड़ा के पलों में मेरी लाज जो मुझसे कुछ दूर होकर , ...
फिर वापस तुरंत मेरी देह पर मन पर कब्जा कर लेती थी।
बहुत देर तक हम दोनों एक दूसरे को पकडे दबोचे रहे।
लाज की तरह रजाई भी लौटी , लेकिन अब जैसे लाज का राज धीरे धीरे कम होता जा रहा था , रजाई भी ,...
उन्होंने मुझे मेरे उरोजों को ढकने नहीं दिया , मैंने बस एक दो बार हलकी सी कोशिश की ,... फिर हार मान ली।