02-07-2024, 11:32 AM
"अब क्यों मुस्कुरा रही हो?" घनश्याम मुझे मुस्कुराते हुए देख कर बोला।
"बस यूं ही।" मैं सकपका गई।
"तुम पागल हो गई हो। कोई सामान्य व्यक्ति यूं ही मुस्कुराता है क्या?" वह बोला।
"हां, पागल हो गई हूं। अच्छा आप बैठिए, मैं अभी आई।" कहकर उसकी बात की प्रतीक्षा किए बगैर अपनी जगह से उठ गयी और पीछे के दरवाजे की ओर बढ़ गई। जब मैं चल रही थी तो मुझे महसूस हो रहा था कि मेरी चूत अभी भी सूखी नहीं है। कुछ घुसा का वीर्य और कुछ मेरी योनि का लसलसा रस चिपचिप कर रहा था। मैं चाहती थी कि जब बाहर निकलूंगी तो कोई कपड़े के टुकड़े से यह गीलापन पोंछ लूंगी लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा कोई कपड़ा नहीं मिला। मैं उसी अवस्था में उस चिपचिपे पन को महसूस करती हुई चलती चली गई। यह गंदा लेकिन बड़ा अजीब सा मजेदार अनुभव था। चलते या उठते बैठते समय मैं पूरी तरह सावधान थी कि मेरी नाईटी में किसी प्रकार का गीला दाग न लगे। पीछे का दरवाजा खोल कर मैंने अपने मोबाईल की लाईट की सहायता से सबसे बड़ा एक खीरा और एक बड़ा सा बैंगन तोड़ कर चुपके से पीछे वाले गलियारे के कोने में पड़े डिब्बे में डाल आई। खीरा तो अच्छा खासा लंबा था लेकिन बैंगन उतना लंबा नहीं था। लंबाई में बैंगन अपेक्षाकृत थोड़ा कम था लेकिन अच्छा खासा मोटा जरूर था। इन दोनों का इस्तेमाल करके अपनी दोनों छेदों की अधिकतम क्षमता का परीक्षण करना मेरी समझ से अवश्य संभव होगा, यह सोचकर मैं अपनी बुद्धिमत्ता की दाद देने लगी। यह काम खत्म करके मैं पुनः ड्राईंगरूम में आ गई।
अभी मैं सोफे पर बैठी ही थी कि मां अपने कमरे से निकल कर वहां आ गयी। अब वह तरोताजा और ठीक ठाक नजर आ रही थी। मुझे उनसे कुछ देर पहले वाली स्थिति के बारे में कुछ भी पूछना उचित नहीं लग रहा था क्योंकि मुझे पता था कि उनकी उस स्थिति का कारण घनश्याम के अलावा और कोई नहीं हो सकता था। मैं कभी मां को देखती कभी घनश्याम को।
"हमलोग डाइनिंग हॉल में चलें?" मां की बातों से वहां की शांति भंग हुई।
"हां हां, चलिए सब लोग। खाना तैयार है।" घुसा ने किचन से बाहर आ कर घोषणा की और हम सभी डाइनिंग हॉल में खाने के लिए हाजिर हो गये।
"याद है ना कि कल से आप हमारे घर में रहेंगे?" खाना खाते खाते मां ने घनश्याम से कहा।
"याद है मैडमजी।" घनश्याम बोला।
खाना खाने के बाद घनश्याम जब जाने को हुआ तो मैं भी उसके साथ बाहर जाने को उठी।
"तुम कहां चली?" मां ने मुझे टोका।
"बस बाहर तक इन्हें छोड़ कर आती हूं।" मैं बोली।
"नहीं, मैं चला जाऊंगा।" घनश्याम बोला लेकिन उसकी नजरें मेरी मां पर थीं और मेरी मां भी उसे ही देख रही थी। घनश्याम बोलने के साथ रुका नहीं और बाहर निकल गया। मैं जानती थी कि मेरी मां के मन में क्या चल रहा था। उसे अवश्य संदेह हो रहा था कि मैं घनश्याम से कुछ न कुछ सवाल जवाब करूंगी और घनश्याम पता नहीं मेरे सवालों का क्या उत्तर देने वाला था। मैं फिर चुपचाप हाथ धोने के लिए वाश बेसिन की ओर बढ़ गयी और घनश्याम के पीछे जाना उचित नहीं समझी। आखिर कल तो मेरी जिज्ञासा शांत होनी ही थी। हम इधर-उधर की बातें करने के बाद अपने अपने कमरे में जाने को उठे। मैं मां को अपने कमरे में जाते हुए देखती रही। घुसा भी मां को ही देख रहा था लेकिन मां ने एक बार भी हमारी ओर मुड़ कर नहीं देखा। जैसे ही मां अपने कमरे में दाखिल हुई, मेरी और घुसा की नजरें चार हुईं।
"बस यूं ही।" मैं सकपका गई।
"तुम पागल हो गई हो। कोई सामान्य व्यक्ति यूं ही मुस्कुराता है क्या?" वह बोला।
"हां, पागल हो गई हूं। अच्छा आप बैठिए, मैं अभी आई।" कहकर उसकी बात की प्रतीक्षा किए बगैर अपनी जगह से उठ गयी और पीछे के दरवाजे की ओर बढ़ गई। जब मैं चल रही थी तो मुझे महसूस हो रहा था कि मेरी चूत अभी भी सूखी नहीं है। कुछ घुसा का वीर्य और कुछ मेरी योनि का लसलसा रस चिपचिप कर रहा था। मैं चाहती थी कि जब बाहर निकलूंगी तो कोई कपड़े के टुकड़े से यह गीलापन पोंछ लूंगी लेकिन दुर्भाग्यवश ऐसा कोई कपड़ा नहीं मिला। मैं उसी अवस्था में उस चिपचिपे पन को महसूस करती हुई चलती चली गई। यह गंदा लेकिन बड़ा अजीब सा मजेदार अनुभव था। चलते या उठते बैठते समय मैं पूरी तरह सावधान थी कि मेरी नाईटी में किसी प्रकार का गीला दाग न लगे। पीछे का दरवाजा खोल कर मैंने अपने मोबाईल की लाईट की सहायता से सबसे बड़ा एक खीरा और एक बड़ा सा बैंगन तोड़ कर चुपके से पीछे वाले गलियारे के कोने में पड़े डिब्बे में डाल आई। खीरा तो अच्छा खासा लंबा था लेकिन बैंगन उतना लंबा नहीं था। लंबाई में बैंगन अपेक्षाकृत थोड़ा कम था लेकिन अच्छा खासा मोटा जरूर था। इन दोनों का इस्तेमाल करके अपनी दोनों छेदों की अधिकतम क्षमता का परीक्षण करना मेरी समझ से अवश्य संभव होगा, यह सोचकर मैं अपनी बुद्धिमत्ता की दाद देने लगी। यह काम खत्म करके मैं पुनः ड्राईंगरूम में आ गई।
अभी मैं सोफे पर बैठी ही थी कि मां अपने कमरे से निकल कर वहां आ गयी। अब वह तरोताजा और ठीक ठाक नजर आ रही थी। मुझे उनसे कुछ देर पहले वाली स्थिति के बारे में कुछ भी पूछना उचित नहीं लग रहा था क्योंकि मुझे पता था कि उनकी उस स्थिति का कारण घनश्याम के अलावा और कोई नहीं हो सकता था। मैं कभी मां को देखती कभी घनश्याम को।
"हमलोग डाइनिंग हॉल में चलें?" मां की बातों से वहां की शांति भंग हुई।
"हां हां, चलिए सब लोग। खाना तैयार है।" घुसा ने किचन से बाहर आ कर घोषणा की और हम सभी डाइनिंग हॉल में खाने के लिए हाजिर हो गये।
"याद है ना कि कल से आप हमारे घर में रहेंगे?" खाना खाते खाते मां ने घनश्याम से कहा।
"याद है मैडमजी।" घनश्याम बोला।
खाना खाने के बाद घनश्याम जब जाने को हुआ तो मैं भी उसके साथ बाहर जाने को उठी।
"तुम कहां चली?" मां ने मुझे टोका।
"बस बाहर तक इन्हें छोड़ कर आती हूं।" मैं बोली।
"नहीं, मैं चला जाऊंगा।" घनश्याम बोला लेकिन उसकी नजरें मेरी मां पर थीं और मेरी मां भी उसे ही देख रही थी। घनश्याम बोलने के साथ रुका नहीं और बाहर निकल गया। मैं जानती थी कि मेरी मां के मन में क्या चल रहा था। उसे अवश्य संदेह हो रहा था कि मैं घनश्याम से कुछ न कुछ सवाल जवाब करूंगी और घनश्याम पता नहीं मेरे सवालों का क्या उत्तर देने वाला था। मैं फिर चुपचाप हाथ धोने के लिए वाश बेसिन की ओर बढ़ गयी और घनश्याम के पीछे जाना उचित नहीं समझी। आखिर कल तो मेरी जिज्ञासा शांत होनी ही थी। हम इधर-उधर की बातें करने के बाद अपने अपने कमरे में जाने को उठे। मैं मां को अपने कमरे में जाते हुए देखती रही। घुसा भी मां को ही देख रहा था लेकिन मां ने एक बार भी हमारी ओर मुड़ कर नहीं देखा। जैसे ही मां अपने कमरे में दाखिल हुई, मेरी और घुसा की नजरें चार हुईं।


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