15-06-2024, 08:49 AM
"बड़ी औरतें मतलब? तुम बड़ी औरतों के बारे में जानती ही कितना हो?"
"जानती हूं तभी तो बोल रही हूं। न जाने कितनी शादीशुदा औरतें अपने पति से महिनों दूर रहने को मजबूर रहती हैं। उनको मन नहीं करता होगा? लेकिन वे बोलें तो कैसे बोलें और किससे बोलें।" मैं बोली।
"जैसे?"
"जैसे मेरी....." हाय राम, अपनी धुन में यह मैं क्या बोल रही थी। मैं चुप हो गई।
"हां हां बोलो बोलो, चुप क्यों हो गयी, जैसे तुम्हारी कौन?" घनश्याम का कान खड़ा हो गया था।
"नहीं नहीं कोई नहीं।" मैं झट से बोली।
"देखो, तुम्हीं बोल रही थी ना कि आधी बात बोलने वाले पसंद नहीं हैं, फिर तुम्हीं आधी बात बोल कर चुप क्यों हो गयी?" मेरी बात मुझी पर लागू करते हुए बोला। उसकी बातों में जानने की उत्सुकता साफ झलक रही थी।
"छोड़िए, कोई और बात कीजिए।" मैं बात बदलने की कोशिश करने लगी।
"छोड़ कैसे दूं? बताना तो पड़ेगा ही तुम्हें।" अब वह जिद पर अड़ गया।
"सुने बिना मानिएगा नहीं?"
"नहीं, बिल्कुल नहीं। सुने बिना मानूंगा नहीं।" वह बोला।
"जैसे, जैसे.. " मैं बोलने में झिझक रही थी। पता नहीं वह क्या सोचेगा, यही सोच कर रुक गई।
"हां हां बोलो बोलो जैसे?"
"जैसे कि मेरी मां।" हाय राम। बोलने को तो बोल गयी। अब उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी? मेरा दिल जोरों से धड़कने लगा।
"ओह, मैं तो सोच भी नहीं सका। कितना बेवकूफ हूं मैं भी। अंदाजा लगाना कितना आसान था। तुम बिल्कुल सच बोल रही हो। बेचारी मैडम तुम्हारे पिता के बिना कैसे दिन बिता रही होगी। चार चार, पांच पांच महीने बिना पति के किसी शादीशुदा महिला के लिए दिन बिताना, सचमुच कितना तकलीफदेह है, यह अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। बेचारी।" घनश्याम की बातों में मेरी मां के लिए सहानुभूति तो थी, लेकिन जब उसने मेरी ओर देखा तो उसकी आंखों में एक अनोखी चमक भी मैंने देख ली थी। उसके होंठों पर एक अजीब सी मुस्कान भी तैर रही थी।
"पता नहीं मुझे यह बात कहनी चाहिए थी या नहीं। आप भी क्या सोच रहे होंगे कि कैसी बेटी हूं मैं जो अपनी मां के लिए ऐसी बातें सोच रही हूं।" मैं बोली। कहीं पराए मर्द के सामने मैं अपनी मां के बारे में गलत तो नहीं बोल बैठी थी, यह सोच कर चिंतित हो रही थी लेकिन घनश्याम की बातों से ऐसा लगा कि मैंने जो कुछ कहा उसमें कुछ गलत नहीं था। उस समय तो मुझे ऐसा ही लगा।
"जो सच है वही तो तुमने कहा। अपने पति से दूर रह कर पति संसर्ग से वंचित रहने की पीड़ा कोई स्त्री किसी और के सामने कैसे व्यक्त कर सकती है? तुम इतनी कम उम्र में ही उस पीड़ा को महसूस कर सकती हो इससे अच्छी बात तुम्हारी मां के लिए और क्या हो सकती है? अपनी मर्यादा के बंधन में बंधे रहने की मजबूरी के कारण तुम्हारी मां अपनी कामना व्यक्त नहीं कर सकती है और घुट घुट कर जीने को बाध्य है, यह तुझ जैसी समझदार बेटी समझ गई यह बहुत बड़ी बात है और इतने दिनों से तुम लोगों की जिंदगी का हिस्सा बने रह कर भी मेरी आंखों में पट्टी बंधी हुई थी। और देखो तो, तुमने क्या किया? मुझे अपना समझते हुए इतनी अच्छी तरह से यह बात मेरे सामने रख कर मेरी आंखों पर से वह पट्टी उतार दी।" वह अजीब सी दृष्टि से मुझे देखते हुए बोला।
"सचमुच आपकी आंखों पर पट्टी पड़ी हुई थी या पट्टी पड़े रहने का ढोंग कर रहे थे?" मैं सवालिया निगाहों से घनश्याम को घूरते हुए बोली। मैं जान गई थी कि वह कितना बड़ा औरतखोर है और उसके मुंह से इस तरह की बातें सुनकर मुझे विश्वास नहीं हो रहा था।
"मैं पहले ही बता चुका हूं कि मैं पहले बहुत बड़ा हरामी था, लेकिन यहां कई सालों से नौकरी करते हुए शराफत की जिंदगी बसर करते करते सचमुच मैंने पराई औरतों को उस नज़र से देखना छोड़ दिया था, इसलिए शायद मुझे तुम्हारी मां का दर्द दिखाई नहीं दिया। अब, जब मेरे अंदर के हरामी को तुमने जगा दिया और अभी जो कुछ तुमने कहा, उससे जैसे मेरी आंखें खुल गईं और मुझे सबकुछ साफ दिखाई देने लगा और सबकुछ समझ में आ गया।" वह बोला।
"आपकी बातों से पता चल रहा है कि आपके दिमाग में कुछ न कुछ खिचड़ी पकना शुरू हो गया है।" मैं समझ गई कि मेरी मां के लिए उसकी नीयत डोल गयी है।
"जानती हूं तभी तो बोल रही हूं। न जाने कितनी शादीशुदा औरतें अपने पति से महिनों दूर रहने को मजबूर रहती हैं। उनको मन नहीं करता होगा? लेकिन वे बोलें तो कैसे बोलें और किससे बोलें।" मैं बोली।
"जैसे?"
"जैसे मेरी....." हाय राम, अपनी धुन में यह मैं क्या बोल रही थी। मैं चुप हो गई।
"हां हां बोलो बोलो, चुप क्यों हो गयी, जैसे तुम्हारी कौन?" घनश्याम का कान खड़ा हो गया था।
"नहीं नहीं कोई नहीं।" मैं झट से बोली।
"देखो, तुम्हीं बोल रही थी ना कि आधी बात बोलने वाले पसंद नहीं हैं, फिर तुम्हीं आधी बात बोल कर चुप क्यों हो गयी?" मेरी बात मुझी पर लागू करते हुए बोला। उसकी बातों में जानने की उत्सुकता साफ झलक रही थी।
"छोड़िए, कोई और बात कीजिए।" मैं बात बदलने की कोशिश करने लगी।
"छोड़ कैसे दूं? बताना तो पड़ेगा ही तुम्हें।" अब वह जिद पर अड़ गया।
"सुने बिना मानिएगा नहीं?"
"नहीं, बिल्कुल नहीं। सुने बिना मानूंगा नहीं।" वह बोला।
"जैसे, जैसे.. " मैं बोलने में झिझक रही थी। पता नहीं वह क्या सोचेगा, यही सोच कर रुक गई।
"हां हां बोलो बोलो जैसे?"
"जैसे कि मेरी मां।" हाय राम। बोलने को तो बोल गयी। अब उसकी प्रतिक्रिया क्या होगी? मेरा दिल जोरों से धड़कने लगा।
"ओह, मैं तो सोच भी नहीं सका। कितना बेवकूफ हूं मैं भी। अंदाजा लगाना कितना आसान था। तुम बिल्कुल सच बोल रही हो। बेचारी मैडम तुम्हारे पिता के बिना कैसे दिन बिता रही होगी। चार चार, पांच पांच महीने बिना पति के किसी शादीशुदा महिला के लिए दिन बिताना, सचमुच कितना तकलीफदेह है, यह अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। बेचारी।" घनश्याम की बातों में मेरी मां के लिए सहानुभूति तो थी, लेकिन जब उसने मेरी ओर देखा तो उसकी आंखों में एक अनोखी चमक भी मैंने देख ली थी। उसके होंठों पर एक अजीब सी मुस्कान भी तैर रही थी।
"पता नहीं मुझे यह बात कहनी चाहिए थी या नहीं। आप भी क्या सोच रहे होंगे कि कैसी बेटी हूं मैं जो अपनी मां के लिए ऐसी बातें सोच रही हूं।" मैं बोली। कहीं पराए मर्द के सामने मैं अपनी मां के बारे में गलत तो नहीं बोल बैठी थी, यह सोच कर चिंतित हो रही थी लेकिन घनश्याम की बातों से ऐसा लगा कि मैंने जो कुछ कहा उसमें कुछ गलत नहीं था। उस समय तो मुझे ऐसा ही लगा।
"जो सच है वही तो तुमने कहा। अपने पति से दूर रह कर पति संसर्ग से वंचित रहने की पीड़ा कोई स्त्री किसी और के सामने कैसे व्यक्त कर सकती है? तुम इतनी कम उम्र में ही उस पीड़ा को महसूस कर सकती हो इससे अच्छी बात तुम्हारी मां के लिए और क्या हो सकती है? अपनी मर्यादा के बंधन में बंधे रहने की मजबूरी के कारण तुम्हारी मां अपनी कामना व्यक्त नहीं कर सकती है और घुट घुट कर जीने को बाध्य है, यह तुझ जैसी समझदार बेटी समझ गई यह बहुत बड़ी बात है और इतने दिनों से तुम लोगों की जिंदगी का हिस्सा बने रह कर भी मेरी आंखों में पट्टी बंधी हुई थी। और देखो तो, तुमने क्या किया? मुझे अपना समझते हुए इतनी अच्छी तरह से यह बात मेरे सामने रख कर मेरी आंखों पर से वह पट्टी उतार दी।" वह अजीब सी दृष्टि से मुझे देखते हुए बोला।
"सचमुच आपकी आंखों पर पट्टी पड़ी हुई थी या पट्टी पड़े रहने का ढोंग कर रहे थे?" मैं सवालिया निगाहों से घनश्याम को घूरते हुए बोली। मैं जान गई थी कि वह कितना बड़ा औरतखोर है और उसके मुंह से इस तरह की बातें सुनकर मुझे विश्वास नहीं हो रहा था।
"मैं पहले ही बता चुका हूं कि मैं पहले बहुत बड़ा हरामी था, लेकिन यहां कई सालों से नौकरी करते हुए शराफत की जिंदगी बसर करते करते सचमुच मैंने पराई औरतों को उस नज़र से देखना छोड़ दिया था, इसलिए शायद मुझे तुम्हारी मां का दर्द दिखाई नहीं दिया। अब, जब मेरे अंदर के हरामी को तुमने जगा दिया और अभी जो कुछ तुमने कहा, उससे जैसे मेरी आंखें खुल गईं और मुझे सबकुछ साफ दिखाई देने लगा और सबकुछ समझ में आ गया।" वह बोला।
"आपकी बातों से पता चल रहा है कि आपके दिमाग में कुछ न कुछ खिचड़ी पकना शुरू हो गया है।" मैं समझ गई कि मेरी मां के लिए उसकी नीयत डोल गयी है।