08-06-2024, 12:25 AM
गरम रोजा (भाग 9)
उस बियाबान घने जंगल के बीच स्थित गंजू दादा की झोपड़ी के तहखाने में ड्राईवर घनश्याम और अनाकर्षक बूढ़े गंजू के बीच पिसती हुई युगल चुदाई के एक निहायत ही अनोखे आनंद से रूबरू हुई। एक साथ दो बूढ़ों ने जिस तरह मुझे चोदा था वह मेरी जिंदगी की यादगार चुदाई बन गई थी साथ ही मेरे सेक्स जीवन में एक नया अध्याय जुड़ गया था। पहले पहल घुसा ने अकेले मेरे साथ संभोग किया था और संभोग सुख से परिचित कराया था, तब मैं सोचने लगी थी कि मनुष्य के जीवन का यह अति आनंददायक खेल है। अब, जब यहां दो लोगों ने एक साथ मेरे साथ संभोग किया तो मैं अचंभे में आ गई थी कि दो मर्द एक नारी के साथ संयुक्त रूप से भी संभोग कर सकते हैं। उस संयुक्त संभोग में भागीदारी निभाना घुसा के साथ पहली एकल चुदाई से भी अधिक रोमांचक और आनंदप्रद था। एक से भले दो, दो से भले..... नहीं नहीं, यह मैं क्या फालतू बात सोचने लगी। उस रोमांचक चुदाई की मधुर याद को सीने में दबाए मैं घनश्याम के साथ वहां से निकल पड़ी। चलने में मुझे अब भी तकलीफ़ थी लेकिन उस तकलीफ़ में एक अलग तरह का अच्छा अच्छा सा अहसास हो रहा था। चलते समय मेरी चूत की दोनों फांकें आपस में रगड़ खा कर मुझे उस चुदाई की मस्ती की मीठी मीठी सी कसक भरी याद दिला रही थीं और साथ ही मेरी गुदा द्वार मेरे नितंबों के बीच पिसती हुई एक मीठी खुजली के रूप में उस मिठास को और बढ़ा रही थी। मैं उन्हीं यादगार अहसासों के रस में डूबी हुई चुपचाप घनश्याम के साथ कार तक आई और कार में बैठ गई। कार में मैं सामने की ही सीट पर बैठी थी और बार बार अपनी जांघों को सटा कर आपस में घिस रही थी। ऐसा करने से मुझे बड़ा अच्छा लग रहा था। कभी टांगें फैलाती कभी जांघों को आपस में भींचती रास्ते भर उसी चुदाई के रस में भीगती रही। वापस घर लौटते वक्त मैं रास्ता समझने की कोशिश कर रही थी। कार होने के बावजूद हमें जंगल से बाहर सड़क तक आने में पंद्रह मिनट लग गया था। मुझे ताज्जुब हो रहा था कि उस वक्त जंगल के इतने अंदर तक पहुंचने का मुझे पता ही नहीं चला था। उसका कारण यही था कि उस समय मैं रास्ता समझने की बजाय आंखें बंद कर दूसरी ही दुनिया में थी।
अब इसे मेरी नादानी ही समझ लीजिए कि खेलने कूदने की इतनी कम उम्र में ही मुझे सेक्स का चस्का लग गया था या यों कहिए कि लगा दिया गया था। उस नादान उम्र में पहली बार उस कृत्रिम आकस्मिक दुर्घटना की आड़ में मुझे बेवकूफ बना कर घुसा ने मेरे साथ जो कुछ किया, तकलीफदेह था लेकिन मुझे वह खेल जैसा ही लगा था, जो बाद में बेहद आनंददायक खेल लगने लगा था, लेकिन बाद में पता चला कि वह तो व्यस्कों वाला खेल है। वैसे मैं बचपन से निर्भीक स्वभाव की हूं लेकिन इस मामले में (चुदाई के मामले में), जिससे मैं सर्वथा अनभिज्ञ थी। मेरे स्तनों का आकार पूरी तरह विकसित हो चुका था और मेरी योनि के ऊपर हल्के रोयें उग आए थे लेकिन संभोग से बिल्कुल अनभिज्ञ थी। घुसा मेरे साथ पहली बार जो कुछ कर रहा था उससे मैं उत्तेजना का अनुभव तो कर रही थी लेकिन अंततः वह क्या करना चाह रहा था वह मेरे लिए सर्वथा नया था। उसका मेरे जननांगों से खेलना मुझे उत्तेजित किए जा रहा था और चूंकि मैं नादान थी, उस उत्तेजना के आवेग में घुसा के लिए बड़ी आसान शिकार बन गई। उस समय मेरे साथ जो कुछ हो रहा था उससे थोड़ी सशंकित थी लेकिन शंका और झिझक के बावजूद मैं घुसा की कुचेष्टा के सामने समर्पण कर बैठी। कौमार्य को खोने वाली उस पहली चुदाई में मुझे कष्ट तो हुआ लेकिन एक नये तरह का मजा मिला। जब चुदाई का खुमारी उतरा तो मुझे अहसास भी हुआ था कि जो कुछ हुआ गलत हुआ इसलिए थोड़ा डर भी था लेकिन दूसरी, तीसरी चुदाई के बाद मुझे लगने लगा कि नहीं, जो हो रहा है उससे मुझे मजा भी तो बहुत आ रहा है और अगर गलत भी है तो उतना भी गलत नहीं है कि उसको लेकर मैं चिंता करूं। सही ग़लत के पचड़े में पड़ कर इतने आनंददायक खेल से क्यों वंचित रहूं और इसी सोच के चलते मुझे चुदाई का चस्का लग गया। गलत सही के बारे में मुझे ज्यादा सोचना बेमानी लगने लगा था। मेरे अंदर के अपराधबोध को मैं एक कोने में दफन करती चली गई और मेरे अंदर थोड़ा बहुत जो डर था वह भी खत्म होता चला गया। सेक्स के प्रति थोड़ी बहुत लाज शर्म एवं डर भय, थोड़ा बहुत जो मेरे अंदर था वह, कुछ मेरी चुड़ैल सहेलियों की संगति से और अभी कुछ देर पहले घनश्याम और गंजू के साथ बेशर्मी भरी सामूहिक चुदाई से खत्म हो गया।
उस बियाबान घने जंगल के बीच स्थित गंजू दादा की झोपड़ी के तहखाने में ड्राईवर घनश्याम और अनाकर्षक बूढ़े गंजू के बीच पिसती हुई युगल चुदाई के एक निहायत ही अनोखे आनंद से रूबरू हुई। एक साथ दो बूढ़ों ने जिस तरह मुझे चोदा था वह मेरी जिंदगी की यादगार चुदाई बन गई थी साथ ही मेरे सेक्स जीवन में एक नया अध्याय जुड़ गया था। पहले पहल घुसा ने अकेले मेरे साथ संभोग किया था और संभोग सुख से परिचित कराया था, तब मैं सोचने लगी थी कि मनुष्य के जीवन का यह अति आनंददायक खेल है। अब, जब यहां दो लोगों ने एक साथ मेरे साथ संभोग किया तो मैं अचंभे में आ गई थी कि दो मर्द एक नारी के साथ संयुक्त रूप से भी संभोग कर सकते हैं। उस संयुक्त संभोग में भागीदारी निभाना घुसा के साथ पहली एकल चुदाई से भी अधिक रोमांचक और आनंदप्रद था। एक से भले दो, दो से भले..... नहीं नहीं, यह मैं क्या फालतू बात सोचने लगी। उस रोमांचक चुदाई की मधुर याद को सीने में दबाए मैं घनश्याम के साथ वहां से निकल पड़ी। चलने में मुझे अब भी तकलीफ़ थी लेकिन उस तकलीफ़ में एक अलग तरह का अच्छा अच्छा सा अहसास हो रहा था। चलते समय मेरी चूत की दोनों फांकें आपस में रगड़ खा कर मुझे उस चुदाई की मस्ती की मीठी मीठी सी कसक भरी याद दिला रही थीं और साथ ही मेरी गुदा द्वार मेरे नितंबों के बीच पिसती हुई एक मीठी खुजली के रूप में उस मिठास को और बढ़ा रही थी। मैं उन्हीं यादगार अहसासों के रस में डूबी हुई चुपचाप घनश्याम के साथ कार तक आई और कार में बैठ गई। कार में मैं सामने की ही सीट पर बैठी थी और बार बार अपनी जांघों को सटा कर आपस में घिस रही थी। ऐसा करने से मुझे बड़ा अच्छा लग रहा था। कभी टांगें फैलाती कभी जांघों को आपस में भींचती रास्ते भर उसी चुदाई के रस में भीगती रही। वापस घर लौटते वक्त मैं रास्ता समझने की कोशिश कर रही थी। कार होने के बावजूद हमें जंगल से बाहर सड़क तक आने में पंद्रह मिनट लग गया था। मुझे ताज्जुब हो रहा था कि उस वक्त जंगल के इतने अंदर तक पहुंचने का मुझे पता ही नहीं चला था। उसका कारण यही था कि उस समय मैं रास्ता समझने की बजाय आंखें बंद कर दूसरी ही दुनिया में थी।
अब इसे मेरी नादानी ही समझ लीजिए कि खेलने कूदने की इतनी कम उम्र में ही मुझे सेक्स का चस्का लग गया था या यों कहिए कि लगा दिया गया था। उस नादान उम्र में पहली बार उस कृत्रिम आकस्मिक दुर्घटना की आड़ में मुझे बेवकूफ बना कर घुसा ने मेरे साथ जो कुछ किया, तकलीफदेह था लेकिन मुझे वह खेल जैसा ही लगा था, जो बाद में बेहद आनंददायक खेल लगने लगा था, लेकिन बाद में पता चला कि वह तो व्यस्कों वाला खेल है। वैसे मैं बचपन से निर्भीक स्वभाव की हूं लेकिन इस मामले में (चुदाई के मामले में), जिससे मैं सर्वथा अनभिज्ञ थी। मेरे स्तनों का आकार पूरी तरह विकसित हो चुका था और मेरी योनि के ऊपर हल्के रोयें उग आए थे लेकिन संभोग से बिल्कुल अनभिज्ञ थी। घुसा मेरे साथ पहली बार जो कुछ कर रहा था उससे मैं उत्तेजना का अनुभव तो कर रही थी लेकिन अंततः वह क्या करना चाह रहा था वह मेरे लिए सर्वथा नया था। उसका मेरे जननांगों से खेलना मुझे उत्तेजित किए जा रहा था और चूंकि मैं नादान थी, उस उत्तेजना के आवेग में घुसा के लिए बड़ी आसान शिकार बन गई। उस समय मेरे साथ जो कुछ हो रहा था उससे थोड़ी सशंकित थी लेकिन शंका और झिझक के बावजूद मैं घुसा की कुचेष्टा के सामने समर्पण कर बैठी। कौमार्य को खोने वाली उस पहली चुदाई में मुझे कष्ट तो हुआ लेकिन एक नये तरह का मजा मिला। जब चुदाई का खुमारी उतरा तो मुझे अहसास भी हुआ था कि जो कुछ हुआ गलत हुआ इसलिए थोड़ा डर भी था लेकिन दूसरी, तीसरी चुदाई के बाद मुझे लगने लगा कि नहीं, जो हो रहा है उससे मुझे मजा भी तो बहुत आ रहा है और अगर गलत भी है तो उतना भी गलत नहीं है कि उसको लेकर मैं चिंता करूं। सही ग़लत के पचड़े में पड़ कर इतने आनंददायक खेल से क्यों वंचित रहूं और इसी सोच के चलते मुझे चुदाई का चस्का लग गया। गलत सही के बारे में मुझे ज्यादा सोचना बेमानी लगने लगा था। मेरे अंदर के अपराधबोध को मैं एक कोने में दफन करती चली गई और मेरे अंदर थोड़ा बहुत जो डर था वह भी खत्म होता चला गया। सेक्स के प्रति थोड़ी बहुत लाज शर्म एवं डर भय, थोड़ा बहुत जो मेरे अंदर था वह, कुछ मेरी चुड़ैल सहेलियों की संगति से और अभी कुछ देर पहले घनश्याम और गंजू के साथ बेशर्मी भरी सामूहिक चुदाई से खत्म हो गया।