13-05-2024, 06:35 AM
"बहुत बढ़िया। देखो तुम्हारी बातें सुनकर मेरी पैंटी भी गीली हो गई। मां सच ही बोली, तुम लुच्चे हो। तुम्हारे जैसा लुच्चा हमें बड़ी किस्मत से मिला है। तुम बोल रहे हो कि मेरी मां बड़ी खुश हुई, लेकिन उस खुशी की कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ी यह तुम्हें दिखाई नहीं दे रहा है? वह बेचारी आज सबेरे कितनी मुश्किल से चल रही थी यह तुम्हें दिखाई नहीं दिया? बदमाश कहीं के। अब मां के ज़ख्म पर कैसे मरहम लगाना है, यह सोचो। उसकी गांड़ खोलकर गांड़ चुदाई के मजे से अवगत करा कर एक तरह से तुमने अच्छा ही किया। अब आगे उसे खुश रखने के लिए तुम अपने मनमाफिक जो करना चाहो जरूर करो, उसमें यथासंभव मेरा पूरा सहयोग मिलेगा, लेकिन सिर्फ मेरी मां को ही खुश रखने की सोचोगे तो यह मैं होने नहीं दूंगी। इधर मैं भी हूं, समझ गये ना? अरे, अब देखो तो, तुमसे बात करते करते कैसे समय निकल गया पता ही नहीं चला। मेरा कॉलेज जाने का समय हो गया है। फिलहाल तो मैं चलती हूं। शाम को तुमसे मिलती हूं।" कहकर जैसे ही जाने के लिए मुड़ी,
"ऐसे ही चली जाओगी छुटकी मालकिन?" वह मेरा हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींचा। मैं इसके लिए तैयार नहीं थी। उस झटके से मैं खिंची उसके सीने से जा चिपकी। उसने मुझे बांहों में भर कर चूम लिया। मेरी चूत पर घुसा के सख्त खंभे की दस्तक को महसूस करके मैं गनगना उठी।
"छोड़ कमीने।" मैं उसकी छाती पर मुक्के मारती हुई बोली।
"जा, छोड़ दिया।" कहकर उसने मुझे छोड़ दिया। "तुझे तो मैं शाम को देखती हूं।" कहती हुई अपने कमरे में चली गई। सबेरे सबेरे घुसा के मुंह से इतनी उत्तेजक घटना का वृत्तांत सुनकर मेरे तन मन की कामना बेलगाम हुई जा रही थी। बड़ी मुश्किल से मैंने खुद को काबू में किया। सबसे पहले मुझे अपनी गीली पैंटी को बदलना था। जल्दी जल्दी तैयार हो कर जैसे ही बाहर निकली, घनश्याम मेरा इंतजार करता हुआ मिला। मेरे मन में एक झमाका सा हुआ। घनश्याम को देख कर मेरे मन में कुछ कुछ होने लगा। इस वक्त अगर मुझे कॉलेज नहीं जाना होता तो निश्चय ही घनश्याम का अरमान इसी वक्त पूरा हो जाता। फिर भी मेरे मन में कुछ उमड़ने घुमड़ने लगा था। साला ठर्की बुढ़ऊ घनश्याम इस वक्त मुझे ऐसी हसरत भरी निगाहों से देख रहा था, मानो उसी की गोद में बैठने आ रही हूं।
"चलिए।" कार में मैं सामने वाली सीट पर ही बैठती हुई बोली।
"कहां चलूं?" शरारत से वह बोला।
"अब यह भी बताने की जरूरत है?" मैं बोली।
"जरूरत है। आज तुम्हारा हुलिया रोज की तरह कॉलेज जाने जैसा नहीं है, इसलिए सोचा कि पूछ लूं।" वह अर्थपूर्ण दृष्टि मुझपर डालते हुए बोला।
"कॉलेज जाने से मेरे हुलिए का क्या ताल्लुक है" मैं समझ रही थी कि घनश्याम ऐसा क्यों बोल रहा था।
"ताल्लुक तो है, तभी तो पूछ लिया।"
"आप कार स्टार्ट कीजिए, ज्यादा मनोवैज्ञानिक बनने की जरूरत नहीं है।" अपनी मन: स्थिति को छिपा पाने की अपनी असफलता से मैं अपनी खीझ निकालती हुई बोली।
"जैसी तुम्हारी मर्जी।" कहकर घनश्याम कार स्टार्ट करके आगे बढ़ा दिया। मेरा चेहरा अपेक्षाकृत ज्यादा लाल हो चुका था। घुसा की बातें सुनकर मेरे मन के अंदर जो उथल-पुथल चल रही थी, यह उसी का परिणाम था। आज कॉलेज जाऊं कि न जाऊं, यह द्वंद्व मन में चल रहा था। मन वैसे ही बड़ा चंचल हो रहा था और अब घनश्याम के टोकने से तो मैं बड़ी असमंजस की स्थिति में फंस गई। आज शारीरिक उपस्थिति क्लास में तो जरूर रहेगी लेकिन मेरा ध्यान पढ़ाई में बिल्कुल ही नहीं लगने वाला था। मेरी हालत अपनी कमीनी सहेलियों से छिपाना भी नामुमकिन सा लग रहा था। वे तो हाथ धो कर मेरे पीछे ही पड़ जाने वाली थी। इसी उहापोह की स्थिति में मैं कॉलेज भी पहुंच गयी। जैसे ही मैं कार से उतर रही थी कि,
"आ गई आ गई, हमारी हिरोइन आ गई।" मैं आवाज की तरफ दृष्टि फेरी तो सामने शीला को खड़ी पाई।
"अरे, हमारी हिरोइन का हुलिया तो देखो। क्या हुआ मेरी जान, आज आईने में चेहरा नहीं देखी हो क्या?" यह रश्मि की आवाज थी। मैं समझ गई कि आज मेरी शामत आने वाली है। इधर घनश्याम अब भी कार रोका हुआ था और हमारी ओर देख कर मुस्कुरा रहा था।
"ऐसे ही चली जाओगी छुटकी मालकिन?" वह मेरा हाथ पकड़ कर अपनी ओर खींचा। मैं इसके लिए तैयार नहीं थी। उस झटके से मैं खिंची उसके सीने से जा चिपकी। उसने मुझे बांहों में भर कर चूम लिया। मेरी चूत पर घुसा के सख्त खंभे की दस्तक को महसूस करके मैं गनगना उठी।
"छोड़ कमीने।" मैं उसकी छाती पर मुक्के मारती हुई बोली।
"जा, छोड़ दिया।" कहकर उसने मुझे छोड़ दिया। "तुझे तो मैं शाम को देखती हूं।" कहती हुई अपने कमरे में चली गई। सबेरे सबेरे घुसा के मुंह से इतनी उत्तेजक घटना का वृत्तांत सुनकर मेरे तन मन की कामना बेलगाम हुई जा रही थी। बड़ी मुश्किल से मैंने खुद को काबू में किया। सबसे पहले मुझे अपनी गीली पैंटी को बदलना था। जल्दी जल्दी तैयार हो कर जैसे ही बाहर निकली, घनश्याम मेरा इंतजार करता हुआ मिला। मेरे मन में एक झमाका सा हुआ। घनश्याम को देख कर मेरे मन में कुछ कुछ होने लगा। इस वक्त अगर मुझे कॉलेज नहीं जाना होता तो निश्चय ही घनश्याम का अरमान इसी वक्त पूरा हो जाता। फिर भी मेरे मन में कुछ उमड़ने घुमड़ने लगा था। साला ठर्की बुढ़ऊ घनश्याम इस वक्त मुझे ऐसी हसरत भरी निगाहों से देख रहा था, मानो उसी की गोद में बैठने आ रही हूं।
"चलिए।" कार में मैं सामने वाली सीट पर ही बैठती हुई बोली।
"कहां चलूं?" शरारत से वह बोला।
"अब यह भी बताने की जरूरत है?" मैं बोली।
"जरूरत है। आज तुम्हारा हुलिया रोज की तरह कॉलेज जाने जैसा नहीं है, इसलिए सोचा कि पूछ लूं।" वह अर्थपूर्ण दृष्टि मुझपर डालते हुए बोला।
"कॉलेज जाने से मेरे हुलिए का क्या ताल्लुक है" मैं समझ रही थी कि घनश्याम ऐसा क्यों बोल रहा था।
"ताल्लुक तो है, तभी तो पूछ लिया।"
"आप कार स्टार्ट कीजिए, ज्यादा मनोवैज्ञानिक बनने की जरूरत नहीं है।" अपनी मन: स्थिति को छिपा पाने की अपनी असफलता से मैं अपनी खीझ निकालती हुई बोली।
"जैसी तुम्हारी मर्जी।" कहकर घनश्याम कार स्टार्ट करके आगे बढ़ा दिया। मेरा चेहरा अपेक्षाकृत ज्यादा लाल हो चुका था। घुसा की बातें सुनकर मेरे मन के अंदर जो उथल-पुथल चल रही थी, यह उसी का परिणाम था। आज कॉलेज जाऊं कि न जाऊं, यह द्वंद्व मन में चल रहा था। मन वैसे ही बड़ा चंचल हो रहा था और अब घनश्याम के टोकने से तो मैं बड़ी असमंजस की स्थिति में फंस गई। आज शारीरिक उपस्थिति क्लास में तो जरूर रहेगी लेकिन मेरा ध्यान पढ़ाई में बिल्कुल ही नहीं लगने वाला था। मेरी हालत अपनी कमीनी सहेलियों से छिपाना भी नामुमकिन सा लग रहा था। वे तो हाथ धो कर मेरे पीछे ही पड़ जाने वाली थी। इसी उहापोह की स्थिति में मैं कॉलेज भी पहुंच गयी। जैसे ही मैं कार से उतर रही थी कि,
"आ गई आ गई, हमारी हिरोइन आ गई।" मैं आवाज की तरफ दृष्टि फेरी तो सामने शीला को खड़ी पाई।
"अरे, हमारी हिरोइन का हुलिया तो देखो। क्या हुआ मेरी जान, आज आईने में चेहरा नहीं देखी हो क्या?" यह रश्मि की आवाज थी। मैं समझ गई कि आज मेरी शामत आने वाली है। इधर घनश्याम अब भी कार रोका हुआ था और हमारी ओर देख कर मुस्कुरा रहा था।