10-05-2024, 11:06 PM
"जी मैडम जी, अभी आया।" घुसा की आवाज आई। मां की आवाज सुनकर घुसा का 'पाईप' कैसे उछल पड़ा होगा, इसकी कल्पना करना मुश्किल नहीं था। मैं मुस्कुरा उठी और अपने बिस्तर पर लंबी हो गई। बिस्तर पर पड़ते ही शीला के घर में जो कुछ हुआ, वह मेरी बंद आंखों के बावजूद चलचित्र की भांति दिखाई दे रहा था। उस घटना के पश्चात घनश्याम से जो बातचीत हुई, वह मेरे जेहन में फिर से ताजा हो गई। वह सिर्फ एक औपचारिक बातचीत नहीं थी, एक तरह से एक अलिखित अनुबंध था जिसे परवान चढ़ना तय था। लेकिन यह कब होगा और कैसे होगा, यही तय नहीं था।इसी उधेड़बुन में थी कि मुझे ख्याल आया कि रफीक के मोबाइल से जो फोटोग्राफ्स और वीडियोज मैंने अपने मोबाईल में ट्रांसफर किया था उसे रेखा, शीला और रश्मि को भेजना था। मैंने अपनी नग्न तस्वीरों और वीडियो को छोड़कर बाकी उनको भेज दी। उसके बाद कब मेरी आंख लग गई मुझे पता ही नहीं चला।
सुबह उठ कर प्रात: कालीन नित्यकर्म से निवृत्त होकर जब मैं कमरे से बाहर निकली, मेरा सामना घुसा से हो गया। वह मुझे देख कर मुस्कुरा उठा। मैं उसका चेहरा देखकर ही समझ गई कि रात उसकी बड़ी मजेदार गुजरी है। आस पास मां नहीं थी। मैं उसके पास पहुंच कर बोली,
"बड़े खुश नजर आ रहे हो?"
"खुश होने वाली बात ही है।" वह मुस्कुरा कर बोला।
"लगता है रात बड़ी मजेदार रही।" मैं बोली।
"हां, उम्मीद से ज्यादा।"
"ऐसा क्या हुआ?"
"पीछे का दरवाजा खोल दिया।" वह पहेलियों में बोला।
"साला हरामी, मां का भी?" मैं ऐसी पहेली न समझूं, इतनी भोली नहीं रह गई थी।
"हां, पीछे का दरवाजा तो सामने के दरवाजे से भी जबरदस्त है।" वह होंठों पर जुबान फेरते हुए बोला।
"आराम से तो दी नहीं होगी?"
"हां वो तो है।"
"फिर जबरदस्ती?"
"नहीं, थोड़ा बहला फुसलाकर।"
"चिल्लाई नहीं?"
"थोड़ा रोई, थोड़ा चिल्लाई, लेकिन फिर कुछ देर बाद खुशी-खुशी सब कुछ हुआ। सचमुच बहुत मजा आया।"
"कमीना कहीं का। साला, फाड़ कर रख दिया होगा।"
"पता नहीं।" वह इतना ही बोला कि हमने मां को अपने कमरे से निकलते देखा। मैं झट से घुसा के पास से गुजर कर डाइनिंग टेबल की ओर बढ़ गयी। मैं डाइनिंग टेबल पर बैठ कर अपनी मां को आते हुए देख रही थी लेकिन मेरी मां की संदेह भरी दृष्टि घुसा पर थी जो किचन की ओर जा रहा था। मां की चाल देख कर मुझे मन ही मन बड़ी हंसी आ रही थी। बेचारी, थोड़ी सी पैरों को फैला कर चल रही थी। चेहरे से जाहिर नहीं कर रही थी लेकिन मैं जानती थी कि उसको चलने में थोड़ी तकलीफ़ तो जरूर हो रही थी।
"क्या हुआ मम्मी, पैरों में कोई तकलीफ़ है क्या?" मैं अनजान बन कर बोली।
"पता नहीं। आज सबेरे बाथरूम में फिसली थी, शायद उसी का असर हो। दाहिने पैर में थोड़ा दर्द है।" मेरे सवाल से उसका चेहरा थोड़ा सफेद हो गया था लेकिन खुद को संभाल कर डाइनिंग टेबल की कुर्सी पर बैठते हुए बोली। मैं ने गौर किया कि उन्हें बैठने में भी तकलीफ़ हो रही थी।
"कहीं चोट तो नहीं आई?" मैं चिंता व्यक्त करते हुए बोली।
"नहीं, कोई बाहरी चोट तो नहीं है। थोड़ा झटका लगा होगा, उसी का असर हो। वैसे चिंताजनक कोई बात नहीं लग रही है।" मां अब संभल गई थी।
तभी घुसा नाश्ता लेकर कर आ गया। मैं घूर कर उसे देख रही थी। घुसा मेरी नज़र को नजरंदाज करते हुए शरारत से मुस्कुरा उठा था जिसे मम्मी देख नहीं पाई। बदमाश कहीं का, मेरी मम्मी की गांड़ मारते समय कम से कम इतना तो ख्याल रखता कि पहली बार उसकी गांड़ का उद्घाटन हो रहा था और वह भी गधे जैसे लंड से। मुझे अपनी गांड़ की दशा का ध्यान हो आया। कैसे बहला फुसलाकर मां बेटी, दोनों की गांड़ खोल कर रख दिया था हरामी। मैं बड़ी अच्छी तरह से अपनी मां की हालत समझ सकती थी। मैं मां से और ज्यादा कुछ कह कर उससे ज्यादा झूठ नहीं बुलवाना चाहती थी इसलिए मैं चुपचाप नाश्ता करने लगी। हम नाश्ता करने के बाद अपनी अपनी तैयारी के लिए अपने कमरों में चले गए। मां का ऑफिस दस बजे से था इसलिए उन्हें साढ़े नौ बजे घर से निकलना था। मेरी क्लास ग्यारह बजे से शुरू होती थी, इसलिए साढ़े दस बजे मुझे निकलना होता था। हालांकि मेरी मां का ऑफिस आठ किलोमीटर और मेरा कॉलेज दस किलोमीटर की दूरी पर था लेकिन ट्रैफिक में संभावित रुकावटों के कारण थोड़ा जल्दी निकलना पड़ता था। पहले मां को बैंक छोड़ कर फिर घनश्याम मुझे कॉलेज छोड़ता था। इसी तरह चूंकि कॉलेज आम तौर पर चार बजे खत्म होता था तो मैं साढ़े चार बजे तक घर पहुंच जाती थी और मां की छुट्टी पांच बजे होती थी इसलिए वह करीब साढ़े पांच बजे घर पहुंचती थी। कुछ विशेष अवसरों को छोड़कर सामान्य स्थिति में हम इसी समय सारिणी का पालन करते थे।
सुबह उठ कर प्रात: कालीन नित्यकर्म से निवृत्त होकर जब मैं कमरे से बाहर निकली, मेरा सामना घुसा से हो गया। वह मुझे देख कर मुस्कुरा उठा। मैं उसका चेहरा देखकर ही समझ गई कि रात उसकी बड़ी मजेदार गुजरी है। आस पास मां नहीं थी। मैं उसके पास पहुंच कर बोली,
"बड़े खुश नजर आ रहे हो?"
"खुश होने वाली बात ही है।" वह मुस्कुरा कर बोला।
"लगता है रात बड़ी मजेदार रही।" मैं बोली।
"हां, उम्मीद से ज्यादा।"
"ऐसा क्या हुआ?"
"पीछे का दरवाजा खोल दिया।" वह पहेलियों में बोला।
"साला हरामी, मां का भी?" मैं ऐसी पहेली न समझूं, इतनी भोली नहीं रह गई थी।
"हां, पीछे का दरवाजा तो सामने के दरवाजे से भी जबरदस्त है।" वह होंठों पर जुबान फेरते हुए बोला।
"आराम से तो दी नहीं होगी?"
"हां वो तो है।"
"फिर जबरदस्ती?"
"नहीं, थोड़ा बहला फुसलाकर।"
"चिल्लाई नहीं?"
"थोड़ा रोई, थोड़ा चिल्लाई, लेकिन फिर कुछ देर बाद खुशी-खुशी सब कुछ हुआ। सचमुच बहुत मजा आया।"
"कमीना कहीं का। साला, फाड़ कर रख दिया होगा।"
"पता नहीं।" वह इतना ही बोला कि हमने मां को अपने कमरे से निकलते देखा। मैं झट से घुसा के पास से गुजर कर डाइनिंग टेबल की ओर बढ़ गयी। मैं डाइनिंग टेबल पर बैठ कर अपनी मां को आते हुए देख रही थी लेकिन मेरी मां की संदेह भरी दृष्टि घुसा पर थी जो किचन की ओर जा रहा था। मां की चाल देख कर मुझे मन ही मन बड़ी हंसी आ रही थी। बेचारी, थोड़ी सी पैरों को फैला कर चल रही थी। चेहरे से जाहिर नहीं कर रही थी लेकिन मैं जानती थी कि उसको चलने में थोड़ी तकलीफ़ तो जरूर हो रही थी।
"क्या हुआ मम्मी, पैरों में कोई तकलीफ़ है क्या?" मैं अनजान बन कर बोली।
"पता नहीं। आज सबेरे बाथरूम में फिसली थी, शायद उसी का असर हो। दाहिने पैर में थोड़ा दर्द है।" मेरे सवाल से उसका चेहरा थोड़ा सफेद हो गया था लेकिन खुद को संभाल कर डाइनिंग टेबल की कुर्सी पर बैठते हुए बोली। मैं ने गौर किया कि उन्हें बैठने में भी तकलीफ़ हो रही थी।
"कहीं चोट तो नहीं आई?" मैं चिंता व्यक्त करते हुए बोली।
"नहीं, कोई बाहरी चोट तो नहीं है। थोड़ा झटका लगा होगा, उसी का असर हो। वैसे चिंताजनक कोई बात नहीं लग रही है।" मां अब संभल गई थी।
तभी घुसा नाश्ता लेकर कर आ गया। मैं घूर कर उसे देख रही थी। घुसा मेरी नज़र को नजरंदाज करते हुए शरारत से मुस्कुरा उठा था जिसे मम्मी देख नहीं पाई। बदमाश कहीं का, मेरी मम्मी की गांड़ मारते समय कम से कम इतना तो ख्याल रखता कि पहली बार उसकी गांड़ का उद्घाटन हो रहा था और वह भी गधे जैसे लंड से। मुझे अपनी गांड़ की दशा का ध्यान हो आया। कैसे बहला फुसलाकर मां बेटी, दोनों की गांड़ खोल कर रख दिया था हरामी। मैं बड़ी अच्छी तरह से अपनी मां की हालत समझ सकती थी। मैं मां से और ज्यादा कुछ कह कर उससे ज्यादा झूठ नहीं बुलवाना चाहती थी इसलिए मैं चुपचाप नाश्ता करने लगी। हम नाश्ता करने के बाद अपनी अपनी तैयारी के लिए अपने कमरों में चले गए। मां का ऑफिस दस बजे से था इसलिए उन्हें साढ़े नौ बजे घर से निकलना था। मेरी क्लास ग्यारह बजे से शुरू होती थी, इसलिए साढ़े दस बजे मुझे निकलना होता था। हालांकि मेरी मां का ऑफिस आठ किलोमीटर और मेरा कॉलेज दस किलोमीटर की दूरी पर था लेकिन ट्रैफिक में संभावित रुकावटों के कारण थोड़ा जल्दी निकलना पड़ता था। पहले मां को बैंक छोड़ कर फिर घनश्याम मुझे कॉलेज छोड़ता था। इसी तरह चूंकि कॉलेज आम तौर पर चार बजे खत्म होता था तो मैं साढ़े चार बजे तक घर पहुंच जाती थी और मां की छुट्टी पांच बजे होती थी इसलिए वह करीब साढ़े पांच बजे घर पहुंचती थी। कुछ विशेष अवसरों को छोड़कर सामान्य स्थिति में हम इसी समय सारिणी का पालन करते थे।