05-05-2024, 04:41 PM
गरम रोजा (भाग 8)
शीला के घर से वापस आते आते रात का सात बज रहा था। शीला के घर में धमाल मचाने के बाद मैंने रश्मि और रेखा को अपनी कार में लिफ्ट दिया और उन्हें रास्ते में पड़ने वाले उनके घरों पर ड्रॉप करते हुए घर पहुंची थी। शीला के घर में हम सहेलियों ने जो कुछ किया वह एक अविस्मरणीय घटना के रूप में दिमाग में अंकित हो चुका था। समलैंगिक सेक्स का यह मेरा पहला अनुभव था जिसका मैंने भरपूर लुत्फ उठाया था। मैंने गौर किया था कि घर लौटने के दौरान घनश्याम न सिर्फ मुझपर, बल्कि रश्मि और रेखा पर भी अपनी आंखें सेंक रहा था। रश्मि और रेखा को भी इस बात का अच्छी तरह से पता था, तभी तो रेखा मुझसे विदा लेती हुई घनश्याम के प्रति विचार को मेरे सामने व्यक्त किया था। पहले घनश्याम ऐसा नहीं था लेकिन मैं जानती थी कि मेरी हरकतों की वजह से उसके मन की सुषुप्त कामनाएं फिर से अंगड़ाइयां लेने लगी थीं। अब उसकी नजरें बदल चुकी थीं। पूरे रास्ते मैं अपनी स्कर्ट को ऊपर खिसका कर अपनी जांघों का प्रदर्शन करके घनश्याम को ललचाने की कोई कसर नहीं छोड़ी थी। ऊपर से मैंने अपने हाथों से उसकी जांघ सहला कर मानो आग में घी डाल दिया था। घनश्याम तो पहले ही मेरी मनःस्थिति से परिचित था, मेरी इस हरकत से उसकी उत्तेजना कहां तक पहुंची, उसकी मैं कल्पना ही कर सकती थी। घनश्याम पूरे रास्ते किस अवस्था में कार चला रहा था इसकी कल्पना ही की जा सकती थी।
घर में प्रविष्ट होते ही, मेरी मां से सामना हो गया। बगल में घुसा भी खड़ा था। मां चिंतित स्वर में पूछी,
"क्या बात है? इतनी देर क्यों हुई? तुम्हें मालूम है ना कि कल की घटना के बाद मुझे तुम्हारी कितनी चिंता होने लगी है?"
"कल की घटना के बाद तुम्हें अपनी बेटी पर विश्वास तो हो ही जाना चाहिए कि मैं आत्मरक्षा करने में पूरी तरह सक्षम हूं।" मैं बोली।
"और यहां घर में जो हुआ सो?"
"वह एक परिस्थितिजन्य आकस्मिक और एकमात्र दुर्घटना के रूप में सोच कर भूल नहीं सकती हो तुम?" मैं कल घर में रंग हाथ पकड़े जाने की घटना पर अपनी स्वीकारोक्ति के साथ एक क्षम्य घटना का रूप देती हुई बोली।
"ठीक है चलो भूल गयी लेकिन मुझे अब भी रह रह कर इस घुसा पर गुस्सा आता है उसका क्या करूं?"
"इसकी भी एकमात्र गलती समझ कर भूल जाना भी हमारे लिए उचित होगा। मैंने गलती मान ली, इसने मान ली, अब उस बात को इतना तूल देकर क्या लाभ होगा। ठंढे दिमाग से सोच लो और बात खत्म करो ना, और नहीं तो निकाल बाहर कर दो हम दोनों को, सारा किस्सा ही खत्म।" मैं जानती थी कि वह ऐसा किसी भी हालत में नहीं कर सकती थी इसलिए ऐसा बोली। उसे घुसा का मजा मिल गया था, जिसे वह किसी भी हालत में खो नहीं सकती थी और मैं तो खैर उसकी बेटी ठहरी, जिसके साथ ऐसा करने की सोच भी नहीं सकती थी।
"ओके ओके। चलो बात खत्म। आज यह बात फाइनली यहीं दफन करते हैं। लेकिन तुमने बताया नहीं कि आज इतनी देर क्यों हुई?" मां फिर बोली।
"अरे बाबा मैं बताई थी तो, कि मैं शीला के घर होती हुई आऊंगी। भूल गयी क्या?" मैं बोली।
"ओह। कल की घटना के बाद मेरा दिमाग भी ठीक से काम नहीं कर रहा है।" मां अपना माथा ठोकती हुई बोली।
"कल की घटना भूतकाल हो चुका है मम्मी। वर्तमान में आ जाओ।" कहकर मैं अपने कमरे में चली गई। जाते जाते मैंने एक नजर घुसा को देखा तो वह मुझे आभार व्यक्त करने वाली दृष्टि से मुझे देख रहा था। उसे मेरा आभारी होना ही चाहिए था क्योंकि मैंने अपनी चमड़ी बचाते बचाते घुसा की चमड़ी भी बचाई थी। मुझे अफसोस तो बस इस बात का हो रहा था कि मेरे अहसान के बोझ तले दबे हुए घुसा में शायद अब वह पहले जैसी निर्भीकता नहीं रहेगी। खैर मुझे क्या। मैं तो उसका बिंदास इस्तेमाल कर ही सकती थी। घुसा के अलावा अब मेरे पास घनश्याम चाचा और कॉलेज का गेटकीपर जैसे विकल्प भी मौजूद थे। वैसे घुसा को भी क्या फर्क पड़ता था, मेरी मां तो उसे छोड़ने वाली थी नहीं, आखिर उसका स्वाद जो चख चुकी थी। यही सब सोचते हुए मैं अपने कमरे में दाखिल हुई और शीला के घर में आज जो कुछ हुआ, उसके बारे में सोच सोच कर रोमांचित हुई जा रही थी। क्या सोच कर गयी थी और क्या हो गया। लेकिन जो भी हुआ बहुत बढ़िया हुआ। एक नया रोमांचक अनुभव तो हुआ। कुल मिलाकर मजा आ गया।
शीला के घर से वापस आते आते रात का सात बज रहा था। शीला के घर में धमाल मचाने के बाद मैंने रश्मि और रेखा को अपनी कार में लिफ्ट दिया और उन्हें रास्ते में पड़ने वाले उनके घरों पर ड्रॉप करते हुए घर पहुंची थी। शीला के घर में हम सहेलियों ने जो कुछ किया वह एक अविस्मरणीय घटना के रूप में दिमाग में अंकित हो चुका था। समलैंगिक सेक्स का यह मेरा पहला अनुभव था जिसका मैंने भरपूर लुत्फ उठाया था। मैंने गौर किया था कि घर लौटने के दौरान घनश्याम न सिर्फ मुझपर, बल्कि रश्मि और रेखा पर भी अपनी आंखें सेंक रहा था। रश्मि और रेखा को भी इस बात का अच्छी तरह से पता था, तभी तो रेखा मुझसे विदा लेती हुई घनश्याम के प्रति विचार को मेरे सामने व्यक्त किया था। पहले घनश्याम ऐसा नहीं था लेकिन मैं जानती थी कि मेरी हरकतों की वजह से उसके मन की सुषुप्त कामनाएं फिर से अंगड़ाइयां लेने लगी थीं। अब उसकी नजरें बदल चुकी थीं। पूरे रास्ते मैं अपनी स्कर्ट को ऊपर खिसका कर अपनी जांघों का प्रदर्शन करके घनश्याम को ललचाने की कोई कसर नहीं छोड़ी थी। ऊपर से मैंने अपने हाथों से उसकी जांघ सहला कर मानो आग में घी डाल दिया था। घनश्याम तो पहले ही मेरी मनःस्थिति से परिचित था, मेरी इस हरकत से उसकी उत्तेजना कहां तक पहुंची, उसकी मैं कल्पना ही कर सकती थी। घनश्याम पूरे रास्ते किस अवस्था में कार चला रहा था इसकी कल्पना ही की जा सकती थी।
घर में प्रविष्ट होते ही, मेरी मां से सामना हो गया। बगल में घुसा भी खड़ा था। मां चिंतित स्वर में पूछी,
"क्या बात है? इतनी देर क्यों हुई? तुम्हें मालूम है ना कि कल की घटना के बाद मुझे तुम्हारी कितनी चिंता होने लगी है?"
"कल की घटना के बाद तुम्हें अपनी बेटी पर विश्वास तो हो ही जाना चाहिए कि मैं आत्मरक्षा करने में पूरी तरह सक्षम हूं।" मैं बोली।
"और यहां घर में जो हुआ सो?"
"वह एक परिस्थितिजन्य आकस्मिक और एकमात्र दुर्घटना के रूप में सोच कर भूल नहीं सकती हो तुम?" मैं कल घर में रंग हाथ पकड़े जाने की घटना पर अपनी स्वीकारोक्ति के साथ एक क्षम्य घटना का रूप देती हुई बोली।
"ठीक है चलो भूल गयी लेकिन मुझे अब भी रह रह कर इस घुसा पर गुस्सा आता है उसका क्या करूं?"
"इसकी भी एकमात्र गलती समझ कर भूल जाना भी हमारे लिए उचित होगा। मैंने गलती मान ली, इसने मान ली, अब उस बात को इतना तूल देकर क्या लाभ होगा। ठंढे दिमाग से सोच लो और बात खत्म करो ना, और नहीं तो निकाल बाहर कर दो हम दोनों को, सारा किस्सा ही खत्म।" मैं जानती थी कि वह ऐसा किसी भी हालत में नहीं कर सकती थी इसलिए ऐसा बोली। उसे घुसा का मजा मिल गया था, जिसे वह किसी भी हालत में खो नहीं सकती थी और मैं तो खैर उसकी बेटी ठहरी, जिसके साथ ऐसा करने की सोच भी नहीं सकती थी।
"ओके ओके। चलो बात खत्म। आज यह बात फाइनली यहीं दफन करते हैं। लेकिन तुमने बताया नहीं कि आज इतनी देर क्यों हुई?" मां फिर बोली।
"अरे बाबा मैं बताई थी तो, कि मैं शीला के घर होती हुई आऊंगी। भूल गयी क्या?" मैं बोली।
"ओह। कल की घटना के बाद मेरा दिमाग भी ठीक से काम नहीं कर रहा है।" मां अपना माथा ठोकती हुई बोली।
"कल की घटना भूतकाल हो चुका है मम्मी। वर्तमान में आ जाओ।" कहकर मैं अपने कमरे में चली गई। जाते जाते मैंने एक नजर घुसा को देखा तो वह मुझे आभार व्यक्त करने वाली दृष्टि से मुझे देख रहा था। उसे मेरा आभारी होना ही चाहिए था क्योंकि मैंने अपनी चमड़ी बचाते बचाते घुसा की चमड़ी भी बचाई थी। मुझे अफसोस तो बस इस बात का हो रहा था कि मेरे अहसान के बोझ तले दबे हुए घुसा में शायद अब वह पहले जैसी निर्भीकता नहीं रहेगी। खैर मुझे क्या। मैं तो उसका बिंदास इस्तेमाल कर ही सकती थी। घुसा के अलावा अब मेरे पास घनश्याम चाचा और कॉलेज का गेटकीपर जैसे विकल्प भी मौजूद थे। वैसे घुसा को भी क्या फर्क पड़ता था, मेरी मां तो उसे छोड़ने वाली थी नहीं, आखिर उसका स्वाद जो चख चुकी थी। यही सब सोचते हुए मैं अपने कमरे में दाखिल हुई और शीला के घर में आज जो कुछ हुआ, उसके बारे में सोच सोच कर रोमांचित हुई जा रही थी। क्या सोच कर गयी थी और क्या हो गया। लेकिन जो भी हुआ बहुत बढ़िया हुआ। एक नया रोमांचक अनुभव तो हुआ। कुल मिलाकर मजा आ गया।