14-04-2024, 03:32 PM
"अब हम का कहें मैडमजी। हमारे पास कहने को अब बचा ही क्या है। गलती हो गई हमसे और रंगे हाथों पकड़े भी गए हैं। अब जो सजा देना है दे दीजिए, हमको सब मंजूर है।" वह बड़ी बेचारगी भरे स्वर में बोला।
"तुम इतनी उम्र के होकर एक बार भी नहीं सोचे कि इस छोटी बच्ची के साथ इस तरह की गलत हरकत का परिणाम क्या होगा? तुमने मेरी बेटी की जिंदगी खराब कर दी और इसकी कोई माफी नहीं हो सकती है। समझ रहे हो ना मैं क्या कह रही हूं?"
"समझ रहे हैं मैडमजी, इसलिए तो कह रहे हैं, हमको जो सजा देना है दे दीजिए, रोजा बिटिया को कुछ मत कहिए।"
"अब इसको बिटिया किस मुंह से कह रहे हो कलमुहे। यह सब करते समय यह तुम्हारी बिटिया नहीं थी क्या? मैं तुम्हें माफ नहीं कर सकती हूं।"
"मम्मी अब......" मैं कुछ कहना चाहती थी लेकिन मां ने मुझे डांटते हुए कहा,
"चुप हरामजादी, एकदम चुप। अब एक शब्द मुंह से निकाली तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा, कुलटा कहीं की।" मम्मी ने मेरी बात काट कर कहा।
"रोजा बिटिया कुछ मत बोलो। सब गलती मेरी है। हमको जो सजा मिलेगी हमें मंजूर है।" घुसा बोला।
"सोच लो अंकल।" मैं बोली।
"सोच लिया।" वह सर झुका कर बोला। मुझे उसके लिए बड़ा बुरा लग रहा था। आखिर गलती उसकी अकेली थोड़ी न थी। मैं भी तो बराबर की भागीदार थी, फिर अकेले उसे ही सजा क्यों मिले? मैं सोचने लगी कि इस स्थिति से खुद को और घुसा को कैसे बचाया जाए।
"तो एक काम करो, अपना बोरिया बिस्तर बांधो और निकलो यहां से, अब तुम इस घर में नहीं रह सकते।" मम्मी तैश में आ कर बोली।
"सोच लो मम्मी।" मैं बोली।
"सबकुछ सोच समझकर बोल रही हूं।" मां गुस्से से बोली।
"इस वक्त तुम गुस्से में हो। कुछ देर शांति से सोफे पर बैठ कर सोच लो, फिर बोलना कि घुसा को यहां रहना है कि जाना है। कहीं उसके जाने से आपका कोई नुक्सान तो नहीं होगा ना?" मैं अर्थपूर्ण दृष्टि से मां को देखती हुई बोली। मेरी बात सुन कर जैसे उसे होश आया। उसे भी समझ में आ गया कि घुसा को निकाल कर वह क्या खोने जा रही है लेकिन गुस्से में उसके मुंह से निकल गया और अब अपने शब्द वापस ले भी तो कैसे। वह एक बार मुझे देखी और फिर घुसा को देखते हुए चुपचाप उठ कर सोफे पर बैठ गई और कुछ देर उसी तरह चिंतामग्न बैठी रही। शायद सोच रही थी होगी कि गुस्से में आकर उसने जो कुछ कहा, वह सचमुच अमल में आ जाएगा तो उसका कितना बड़ा नुक्सान हो जाएगा। उसके तन की भूख अब कौन मिटाएगा। अबतक तो पति की अनुपस्थिति में घुसा ही उसका एकमात्र सहारा था। इसी उधेड़बुन में पड़ी शायद अपने मुंह से निकले शब्दों पर पछता रही थी होगी। इधर हम सब मां को चुपचाप देखते रहे। हम सब का मतलब घनश्याम चाचा भी शामिल थे। कुछ देर की शांति से मेरे अंदर हिम्मत पैदा हुई और मुझे लगा कि अब मुझे अपने और घुसा के बचाव में कुछ नया पैंतरा खेलने की जरूरत है। मैं सोच चुकी थी मुझे क्या कहना है। मुझे जो कुछ कहना था उसका ठोस आधार, सबूत के साथ मेरे पास मौजूद था, जिसे कोई नकार नहीं सकता था।
"ओके मम्मी, जब तुम सोच चुकी हो कि घुसा को इस घर से जाना ही इस समस्या का एकमात्र समाधान है तो मैं कुछ नहीं बोलूंगी लेकिन इस तरह घुसा को ही इस घटना का दोषी ठहरा कर निकालना सर्वथा अनुचित है।" मैं बोली।
"तुम फिर......" मेरी मां मेरी बात को काटते हुए बोलना चहती थी लेकिन मैंने उसे बीच में ही टोक कर कहा,
"पहले मेरी बात सुन लो फिर खुद निर्णय करना।" कहकर आज मेरे साथ कॉलेज में जो कुछ घटा, उसे सविस्तार बताती चली गई। जो कुछ मैंने बताया उसे सुनकर सभी के मुंह खुले के खुले रह गये। उस मुसीबत से मैं कैसे बच कर निकल आई वह सुनने में जितना रोमांचक था उतना ही अविश्वसनीय था लेकिन उन्हें विश्वास करना ही था क्योंकि मेरे हाथों में रफीक का मोबाइल था। मेल प्रेम से इतना महत्वपूर्ण सबूत मेरे हाथ लगना संभव ही नहीं था इसलिए मेरी बातों पर उन्हें विश्वास करना ही पड़ा। उस मोबाइल में उनकी सारी कारगुजारियों का कच्चा चिट्ठा भरा हुआ था।
"तुम इतनी उम्र के होकर एक बार भी नहीं सोचे कि इस छोटी बच्ची के साथ इस तरह की गलत हरकत का परिणाम क्या होगा? तुमने मेरी बेटी की जिंदगी खराब कर दी और इसकी कोई माफी नहीं हो सकती है। समझ रहे हो ना मैं क्या कह रही हूं?"
"समझ रहे हैं मैडमजी, इसलिए तो कह रहे हैं, हमको जो सजा देना है दे दीजिए, रोजा बिटिया को कुछ मत कहिए।"
"अब इसको बिटिया किस मुंह से कह रहे हो कलमुहे। यह सब करते समय यह तुम्हारी बिटिया नहीं थी क्या? मैं तुम्हें माफ नहीं कर सकती हूं।"
"मम्मी अब......" मैं कुछ कहना चाहती थी लेकिन मां ने मुझे डांटते हुए कहा,
"चुप हरामजादी, एकदम चुप। अब एक शब्द मुंह से निकाली तो मुझसे बुरा कोई नहीं होगा, कुलटा कहीं की।" मम्मी ने मेरी बात काट कर कहा।
"रोजा बिटिया कुछ मत बोलो। सब गलती मेरी है। हमको जो सजा मिलेगी हमें मंजूर है।" घुसा बोला।
"सोच लो अंकल।" मैं बोली।
"सोच लिया।" वह सर झुका कर बोला। मुझे उसके लिए बड़ा बुरा लग रहा था। आखिर गलती उसकी अकेली थोड़ी न थी। मैं भी तो बराबर की भागीदार थी, फिर अकेले उसे ही सजा क्यों मिले? मैं सोचने लगी कि इस स्थिति से खुद को और घुसा को कैसे बचाया जाए।
"तो एक काम करो, अपना बोरिया बिस्तर बांधो और निकलो यहां से, अब तुम इस घर में नहीं रह सकते।" मम्मी तैश में आ कर बोली।
"सोच लो मम्मी।" मैं बोली।
"सबकुछ सोच समझकर बोल रही हूं।" मां गुस्से से बोली।
"इस वक्त तुम गुस्से में हो। कुछ देर शांति से सोफे पर बैठ कर सोच लो, फिर बोलना कि घुसा को यहां रहना है कि जाना है। कहीं उसके जाने से आपका कोई नुक्सान तो नहीं होगा ना?" मैं अर्थपूर्ण दृष्टि से मां को देखती हुई बोली। मेरी बात सुन कर जैसे उसे होश आया। उसे भी समझ में आ गया कि घुसा को निकाल कर वह क्या खोने जा रही है लेकिन गुस्से में उसके मुंह से निकल गया और अब अपने शब्द वापस ले भी तो कैसे। वह एक बार मुझे देखी और फिर घुसा को देखते हुए चुपचाप उठ कर सोफे पर बैठ गई और कुछ देर उसी तरह चिंतामग्न बैठी रही। शायद सोच रही थी होगी कि गुस्से में आकर उसने जो कुछ कहा, वह सचमुच अमल में आ जाएगा तो उसका कितना बड़ा नुक्सान हो जाएगा। उसके तन की भूख अब कौन मिटाएगा। अबतक तो पति की अनुपस्थिति में घुसा ही उसका एकमात्र सहारा था। इसी उधेड़बुन में पड़ी शायद अपने मुंह से निकले शब्दों पर पछता रही थी होगी। इधर हम सब मां को चुपचाप देखते रहे। हम सब का मतलब घनश्याम चाचा भी शामिल थे। कुछ देर की शांति से मेरे अंदर हिम्मत पैदा हुई और मुझे लगा कि अब मुझे अपने और घुसा के बचाव में कुछ नया पैंतरा खेलने की जरूरत है। मैं सोच चुकी थी मुझे क्या कहना है। मुझे जो कुछ कहना था उसका ठोस आधार, सबूत के साथ मेरे पास मौजूद था, जिसे कोई नकार नहीं सकता था।
"ओके मम्मी, जब तुम सोच चुकी हो कि घुसा को इस घर से जाना ही इस समस्या का एकमात्र समाधान है तो मैं कुछ नहीं बोलूंगी लेकिन इस तरह घुसा को ही इस घटना का दोषी ठहरा कर निकालना सर्वथा अनुचित है।" मैं बोली।
"तुम फिर......" मेरी मां मेरी बात को काटते हुए बोलना चहती थी लेकिन मैंने उसे बीच में ही टोक कर कहा,
"पहले मेरी बात सुन लो फिर खुद निर्णय करना।" कहकर आज मेरे साथ कॉलेज में जो कुछ घटा, उसे सविस्तार बताती चली गई। जो कुछ मैंने बताया उसे सुनकर सभी के मुंह खुले के खुले रह गये। उस मुसीबत से मैं कैसे बच कर निकल आई वह सुनने में जितना रोमांचक था उतना ही अविश्वसनीय था लेकिन उन्हें विश्वास करना ही था क्योंकि मेरे हाथों में रफीक का मोबाइल था। मेल प्रेम से इतना महत्वपूर्ण सबूत मेरे हाथ लगना संभव ही नहीं था इसलिए मेरी बातों पर उन्हें विश्वास करना ही पड़ा। उस मोबाइल में उनकी सारी कारगुजारियों का कच्चा चिट्ठा भरा हुआ था।