10-04-2024, 06:57 AM
"क्या बात है बिटिया, आज देर कर दी निकलने में?" उसने पूछा। पूछना तो शायद कुछ और भी चाहता था होगा लेकिन पूछा नहीं।
"कुछ नहीं, बस ऐसे ही एक छोटा सा काम था इसलिए जरा सी देर हो गई। चलिए।" मैं कार की पिछली सीट पर बैठते हुए बोली। अचानक मेरी नज़र कार के रीयर व्यू वाले आईने पर पड़ी तो मैंने पाया कि घनश्याम मुझे घूर रहा था। मैं समझ गई कि मेरे अस्त व्यस्त बाल और मेरे चेहरे पर उभर आई लालिमा पर उसकी पैनी नजर गड़ी हुई थी। मुझे उस वक्त इस बात का भी पता नहीं था कि मेरी चूचियां दबाने के चक्कर में विशाल के हाथों मेरे टॉप का ऊपरी बटन टूट चुका था और उसके कारण सामने से मेरे स्तनों का काफी हिस्सा दिखाई पड़ रहा था और स्तनों के बीच की गहरी घाटी भी दिखाई दे रही थी। उसकी नजरों में जो सवाल तैर रहा था उसे नजर अंदाज करके लापरवाह होने का दिखावा करने लगी लेकिन पता नहीं क्या हुआ मुझे और अचानक ही मेरा दिल मचल उठा। जी हां, उस ड्राइवर के लिए। पता नहीं वह बार-बार मुझे इस तरह क्यों देख रहा था लेकिन मेरी जो मनःस्थिति इस वक्त थी, उसमें मुझे और कुछ सूझ नहीं रहा था। मुझे तो बस इस वक्त एक ऐसे मर्द की जरूरत थी जो मेरे अंदर सुलग रही अग्नि को शांत कर सके। सोच रही थी कि काश यह घनश्याम इस वक्त किसी सुनसान जगह में कार लेकर मुझे दबोच ले और मेरे अंदर जो आग भड़क उठी है उसे अपनी मर्दानगी से बुझा दे। पता नहीं उसके मन में क्या चल रहा था लेकिन मेरे मन में तो बस यही चल रहा था।
मैं आज तक इसे मात्र एक ड्राईवर की तरह देखती थी। हां यह अलग बात है कि इसके साथ हम परिवार के सदस्य की तरह ही व्यवहार करते थे। मैं इन्हें घनश्याम चाचा कहती थी लेकिन घर के अंदरूनी मामलों से दूर ही रखते थे। इसे महीने महीने बीस हजार पेमेंट दिया करते थे। ये हमारे लिए बड़े ही समर्पित , विश्वसनीय और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति थे। ये भी मुझे बचपन से बिटिया बिटिया कहा करते थे लेकिन आज मैं इन्हें अलग ही नजर से देख रही थी। अभी मेरी नज़र में ये मात्र एक ऐसे मर्द थे जो इस वक्त मेरी नारी देह की जिस्मानी जरूरत को पूरी करने में मददगार हो सकते थे। पचास पचपन की उम्र में ये अच्छी खासी देहयष्टि के मालिक थे। कद करीब पांच फुट दस इंच होगा और शारीरिक रूप से अच्छे खासे हट्ठे कट्ठे थे। रंग थोड़ा सांवला था और इनके बाल भी आधे से ज्यादा पक चुके थे। ऐसे गौर से मैंने इन पर कभी ध्यान नहीं दिया था लेकिन अभी की बात कुछ और थी। इन पर मेरी नीयत खराब हो रही थी और इनके साथ जिस्मानी संबंध बनाने के लिए तन मन में एक अजीब सी ख्वाहिश जाग उठी थी। हालांकि यह परिस्थिति जन्य एक तत्कालिक ख्वाहिश थी लेकिन मन में चाहत का जन्म हो चुका था तो हो चुका था। जैसे जैसे रास्ता तय हो रहा था वैसे वैसे यह चाहत भी बढ़ती जा रही थी जिसे काबू में रखना मुझे बड़ा मुश्किल हो रहा था लेकिन करूं तो क्या करूं और कैसे करूं। पता नहीं ये मेरे बारे में क्या सोचते हैं। अब उसे क्या पता था कि घर के अंदर मेरी मां और मैं घुसा के साथ क्या गुल खिला रहे हैं। उसकी नजरों में तो मैं अब भी नादान और शरीफ बालिका ही थी। कहीं वासना के वशीभूत मेरी किसी प्रकार की पहल का प्रतिकूल परिणाम तो नहीं आ जाएगा? कहीं मेरे प्रति उसकी धारणा एकाएक धराशाई हो गयी और उसकी नजरों में गिर गई तो मेरी बड़ी फजीहत हो जाएगी। तो क्या करूं? अपने मन की इच्छा को उसके सामने किस तरह प्रकट करूं कि उसे बुरा भी नहीं लगे और मेरी मनोकामना भी पूर्ण हो जाए। इसी उधेड़बुन में उलझी हुई थी।
"कुछ नहीं, बस ऐसे ही एक छोटा सा काम था इसलिए जरा सी देर हो गई। चलिए।" मैं कार की पिछली सीट पर बैठते हुए बोली। अचानक मेरी नज़र कार के रीयर व्यू वाले आईने पर पड़ी तो मैंने पाया कि घनश्याम मुझे घूर रहा था। मैं समझ गई कि मेरे अस्त व्यस्त बाल और मेरे चेहरे पर उभर आई लालिमा पर उसकी पैनी नजर गड़ी हुई थी। मुझे उस वक्त इस बात का भी पता नहीं था कि मेरी चूचियां दबाने के चक्कर में विशाल के हाथों मेरे टॉप का ऊपरी बटन टूट चुका था और उसके कारण सामने से मेरे स्तनों का काफी हिस्सा दिखाई पड़ रहा था और स्तनों के बीच की गहरी घाटी भी दिखाई दे रही थी। उसकी नजरों में जो सवाल तैर रहा था उसे नजर अंदाज करके लापरवाह होने का दिखावा करने लगी लेकिन पता नहीं क्या हुआ मुझे और अचानक ही मेरा दिल मचल उठा। जी हां, उस ड्राइवर के लिए। पता नहीं वह बार-बार मुझे इस तरह क्यों देख रहा था लेकिन मेरी जो मनःस्थिति इस वक्त थी, उसमें मुझे और कुछ सूझ नहीं रहा था। मुझे तो बस इस वक्त एक ऐसे मर्द की जरूरत थी जो मेरे अंदर सुलग रही अग्नि को शांत कर सके। सोच रही थी कि काश यह घनश्याम इस वक्त किसी सुनसान जगह में कार लेकर मुझे दबोच ले और मेरे अंदर जो आग भड़क उठी है उसे अपनी मर्दानगी से बुझा दे। पता नहीं उसके मन में क्या चल रहा था लेकिन मेरे मन में तो बस यही चल रहा था।
मैं आज तक इसे मात्र एक ड्राईवर की तरह देखती थी। हां यह अलग बात है कि इसके साथ हम परिवार के सदस्य की तरह ही व्यवहार करते थे। मैं इन्हें घनश्याम चाचा कहती थी लेकिन घर के अंदरूनी मामलों से दूर ही रखते थे। इसे महीने महीने बीस हजार पेमेंट दिया करते थे। ये हमारे लिए बड़े ही समर्पित , विश्वसनीय और कर्तव्यनिष्ठ व्यक्ति थे। ये भी मुझे बचपन से बिटिया बिटिया कहा करते थे लेकिन आज मैं इन्हें अलग ही नजर से देख रही थी। अभी मेरी नज़र में ये मात्र एक ऐसे मर्द थे जो इस वक्त मेरी नारी देह की जिस्मानी जरूरत को पूरी करने में मददगार हो सकते थे। पचास पचपन की उम्र में ये अच्छी खासी देहयष्टि के मालिक थे। कद करीब पांच फुट दस इंच होगा और शारीरिक रूप से अच्छे खासे हट्ठे कट्ठे थे। रंग थोड़ा सांवला था और इनके बाल भी आधे से ज्यादा पक चुके थे। ऐसे गौर से मैंने इन पर कभी ध्यान नहीं दिया था लेकिन अभी की बात कुछ और थी। इन पर मेरी नीयत खराब हो रही थी और इनके साथ जिस्मानी संबंध बनाने के लिए तन मन में एक अजीब सी ख्वाहिश जाग उठी थी। हालांकि यह परिस्थिति जन्य एक तत्कालिक ख्वाहिश थी लेकिन मन में चाहत का जन्म हो चुका था तो हो चुका था। जैसे जैसे रास्ता तय हो रहा था वैसे वैसे यह चाहत भी बढ़ती जा रही थी जिसे काबू में रखना मुझे बड़ा मुश्किल हो रहा था लेकिन करूं तो क्या करूं और कैसे करूं। पता नहीं ये मेरे बारे में क्या सोचते हैं। अब उसे क्या पता था कि घर के अंदर मेरी मां और मैं घुसा के साथ क्या गुल खिला रहे हैं। उसकी नजरों में तो मैं अब भी नादान और शरीफ बालिका ही थी। कहीं वासना के वशीभूत मेरी किसी प्रकार की पहल का प्रतिकूल परिणाम तो नहीं आ जाएगा? कहीं मेरे प्रति उसकी धारणा एकाएक धराशाई हो गयी और उसकी नजरों में गिर गई तो मेरी बड़ी फजीहत हो जाएगी। तो क्या करूं? अपने मन की इच्छा को उसके सामने किस तरह प्रकट करूं कि उसे बुरा भी नहीं लगे और मेरी मनोकामना भी पूर्ण हो जाए। इसी उधेड़बुन में उलझी हुई थी।