04-04-2024, 06:14 PM
"छि छि, यह कैसा मजाक है? बड़ी शैतान हो गई हो तुम। वैसे तुम बहुत बड़ी बड़ी बातें करना सीख गई हो।" मां मुझे गौर से देखते हुए बोली।
"बड़ी हो रही हूं और कॉलेज जाने लगी हूं तो कुछ तो असर होना ही चाहिए ना।" मैं बोली।
"अच्छा है, दिमाग खुल रहा है तुम्हारा। ठीक है, तो अब मैं भी थोड़ा फ्रेश हो लूं। ऑफिस में दिमाग चटवा कर आ रही हूं और अब तुम मेरा दिमाग चाट रही हो।" कहकर वह उठी और अपने कमरे में चली गई। मैं अपनी मम्मी की मनोदशा समझ रही थी। कहीं न कहीं मेरी मम्मी के मन में चोर भी था शायद, इसलिए इस प्रकार की बातों को और ज्यादा खींचना नहीं चाहती थी होगी।
"यह तुम अपनी मां के सामने क्या बोल रही थी रोज मैडम? हमको तो डरा ही दिया था तुमने।" मां के वहां से जाते ही घुसा बोला।
"क्या बोल रही थी मैं? सच नहीं है क्या?" मैं उसे छेड़ते हुए बोली।
"सच है लेकिन..... ऐसी बात अपनी मां के सामने?"
"लेकिन क्या? मजाक कर रही थी हरामी, इतना भी नहीं समझते?" मैं बोली।
"मजाक मजाक में मेरी जान निकल जाएगी किसी दिन।"
"अच्छा छोड़ो। अब नहीं बोलूंगी ऐसी बात। अब खुश?"
"हां यही बेहतर होगा, हम सबके लिए।" कहकर वह किचन की ओर बढ़ गया।
शाम को जब हम सब चाय पीने के लिए बैठे थे तो मैंने गौर किया कि मेरी मां चोरी चोरी घुसा की हरेक गतिविधियों को देख रही थी। मुझे मेरी मां की हालत पर बड़ा तरस आ रहा था, लेकिन मैं कर भी क्या सकती थी। अब मेरी मां की प्यासी देह की प्यास बुझाने के लिए बैठे बिठाए आकस्मिक रूप से अपने ही घर में एक मनोवांछित, सुलभ साधन मिल चुका था जिसका मधुर स्वाद भी वह चख चुकी थी। इसके चलते उनकी वर्षों की दमित कामना अंगड़ाई लेने लगी थी लेकिन वह ठहरी समाज की एक सम्मानित, संभ्रांत महिला। वह यह भलीभांति जानती थी कि घुसा जैसे पराए मर्द के साथ सोना समाज की नजरों में अनैतिक था, फलस्वरूप आगे उसे यह संबंध जारी रखना था तो चोरी छिपे ही जारी रह सकता था। नैतिकता और अनैतिकता के पहरेदार इस निष्ठुर समाज को मेरी मां के दर्द से क्या लेना-देना था। इस के अलावा मुझ जैसी बाधा भी तो थी, जिसकी उपस्थिति में उनका यह अनैतिक संबंध निर्बाध रूप से चल नहीं सकता था। मेरी जानकारी में कैसे वे एक ही कमरे में सो सकते थे? अब यह तो उसकी अपनी सोच थी। काश कि उसे यह पता चलता कि मुझे उनके इस अनैतिक संबंध के बारे में अच्छी तरह से पता था मगर मुझे इसपर कोई आपत्ती नहीं थी, लेकिन यह मैं अपने मुंह से कैसे बता देती। लेकिन भविष्य के गर्भ में क्या छिपा हुआ था किसे पता था? मन ही मन मैंने निश्चय किया कि अब आगे से मेरी कोशिश यही रहेगी कि उन्हें भरसक एकांत का अवसर मिलता रहे और वह घुसा के साथ संसर्ग सुख का उपभोग करती हुई संपूर्णता के साथ जीवन जीती रहे। हां यह और बात है कि उनकी अनभिज्ञता में घुसा के साथ मैं भी मज़े लेती रही।
घुसा की तो मानो लॉटरी लग गई थी। मेरी अनुपस्थिति में मां के साथ और मां की अनुपस्थिति में मेरे साथ चुदाई का सिलसिला चल निकला था। एक आदर्श परिवार की परिभाषा और क्या होती है? यही ना, कि परिवार के सारे सदस्य आपस में मिल जुल कर प्रेम से रहें और एक दूसरे की खुशी को ध्यान में रखकर घर में जो कुछ है उसे मिल बांट कर खाएं और प्रसन्न रहें। यही तो हो रहा था यहां। घुसा एक खाना ही तो था हमारे लिए, जिसे हम मां बेटी आपस में मिल बांट कर खा रही थीं। यह और बात थी कि मैं अपनी मां की खुशी के लिए मां के साथ घुसा को बांट कर खा रही थी और मेरी मां इस बात से बिल्कुल बेखबर, अपने हिस्से के घुसा को खा कर तृप्ति के आनंद में मगन थी।
"बड़ी हो रही हूं और कॉलेज जाने लगी हूं तो कुछ तो असर होना ही चाहिए ना।" मैं बोली।
"अच्छा है, दिमाग खुल रहा है तुम्हारा। ठीक है, तो अब मैं भी थोड़ा फ्रेश हो लूं। ऑफिस में दिमाग चटवा कर आ रही हूं और अब तुम मेरा दिमाग चाट रही हो।" कहकर वह उठी और अपने कमरे में चली गई। मैं अपनी मम्मी की मनोदशा समझ रही थी। कहीं न कहीं मेरी मम्मी के मन में चोर भी था शायद, इसलिए इस प्रकार की बातों को और ज्यादा खींचना नहीं चाहती थी होगी।
"यह तुम अपनी मां के सामने क्या बोल रही थी रोज मैडम? हमको तो डरा ही दिया था तुमने।" मां के वहां से जाते ही घुसा बोला।
"क्या बोल रही थी मैं? सच नहीं है क्या?" मैं उसे छेड़ते हुए बोली।
"सच है लेकिन..... ऐसी बात अपनी मां के सामने?"
"लेकिन क्या? मजाक कर रही थी हरामी, इतना भी नहीं समझते?" मैं बोली।
"मजाक मजाक में मेरी जान निकल जाएगी किसी दिन।"
"अच्छा छोड़ो। अब नहीं बोलूंगी ऐसी बात। अब खुश?"
"हां यही बेहतर होगा, हम सबके लिए।" कहकर वह किचन की ओर बढ़ गया।
शाम को जब हम सब चाय पीने के लिए बैठे थे तो मैंने गौर किया कि मेरी मां चोरी चोरी घुसा की हरेक गतिविधियों को देख रही थी। मुझे मेरी मां की हालत पर बड़ा तरस आ रहा था, लेकिन मैं कर भी क्या सकती थी। अब मेरी मां की प्यासी देह की प्यास बुझाने के लिए बैठे बिठाए आकस्मिक रूप से अपने ही घर में एक मनोवांछित, सुलभ साधन मिल चुका था जिसका मधुर स्वाद भी वह चख चुकी थी। इसके चलते उनकी वर्षों की दमित कामना अंगड़ाई लेने लगी थी लेकिन वह ठहरी समाज की एक सम्मानित, संभ्रांत महिला। वह यह भलीभांति जानती थी कि घुसा जैसे पराए मर्द के साथ सोना समाज की नजरों में अनैतिक था, फलस्वरूप आगे उसे यह संबंध जारी रखना था तो चोरी छिपे ही जारी रह सकता था। नैतिकता और अनैतिकता के पहरेदार इस निष्ठुर समाज को मेरी मां के दर्द से क्या लेना-देना था। इस के अलावा मुझ जैसी बाधा भी तो थी, जिसकी उपस्थिति में उनका यह अनैतिक संबंध निर्बाध रूप से चल नहीं सकता था। मेरी जानकारी में कैसे वे एक ही कमरे में सो सकते थे? अब यह तो उसकी अपनी सोच थी। काश कि उसे यह पता चलता कि मुझे उनके इस अनैतिक संबंध के बारे में अच्छी तरह से पता था मगर मुझे इसपर कोई आपत्ती नहीं थी, लेकिन यह मैं अपने मुंह से कैसे बता देती। लेकिन भविष्य के गर्भ में क्या छिपा हुआ था किसे पता था? मन ही मन मैंने निश्चय किया कि अब आगे से मेरी कोशिश यही रहेगी कि उन्हें भरसक एकांत का अवसर मिलता रहे और वह घुसा के साथ संसर्ग सुख का उपभोग करती हुई संपूर्णता के साथ जीवन जीती रहे। हां यह और बात है कि उनकी अनभिज्ञता में घुसा के साथ मैं भी मज़े लेती रही।
घुसा की तो मानो लॉटरी लग गई थी। मेरी अनुपस्थिति में मां के साथ और मां की अनुपस्थिति में मेरे साथ चुदाई का सिलसिला चल निकला था। एक आदर्श परिवार की परिभाषा और क्या होती है? यही ना, कि परिवार के सारे सदस्य आपस में मिल जुल कर प्रेम से रहें और एक दूसरे की खुशी को ध्यान में रखकर घर में जो कुछ है उसे मिल बांट कर खाएं और प्रसन्न रहें। यही तो हो रहा था यहां। घुसा एक खाना ही तो था हमारे लिए, जिसे हम मां बेटी आपस में मिल बांट कर खा रही थीं। यह और बात थी कि मैं अपनी मां की खुशी के लिए मां के साथ घुसा को बांट कर खा रही थी और मेरी मां इस बात से बिल्कुल बेखबर, अपने हिस्से के घुसा को खा कर तृप्ति के आनंद में मगन थी।