04-04-2024, 01:53 PM
गरम रोजा (भाग 5)
पिछली कड़ी में आप लोगों ने पढ़ा कि किस तरह घुसा और मेरी मां के बीच के शारीरिक संबंध को देखकर क्रोधित होने की बजाय मेरे अंदर जो वासना की चिंगारी सुलगी थी, उसके वशीभूत मैं ने घर की सफाई में घुसा को सहयोग करने के बहाने खुद को उसके आगे समर्पित करके सेक्स का अनूठा आनंद प्राप्त किया और अपनी काम क्षुधा को शांत किया। अब आगे: -
घुसा ने बिल्कुल किसी पशु (कुत्ते) की तरह मेरे साथ संभोग किया था और मैं सेक्स की गुड़िया, प्रथम बार उसके इस तरह चोदने से आह्लादित हो कर उसकी दीवानी बन बैठी थी। मन ही मन उसे दाद देती हुई मुदित मन उसके साथ घर की सफाई का बाकी कार्य पूरा करने में जुट गई थी। हम दोनों ने खुल कर गंदी गंदी बातें और चुहलबाज़ी करते हुए सफाई के कार्य को संपन्न किया ही था कि मेरी मां ऑफिस से घर आ गई। मां ऑफिस से थकी मांदी घर आकर धम्म से सोफे पर बैठ गई और घुसा तुरंत किचन से उसके लिए पानी लेकर आया। करीब तीन घंटे ही लगे थे मेरी मां को ऑफिस जा कर वापस आने में। इन तीन घंटों में यहां एक तूफान आ कर गुजर चुका था।
"मात्र तीन घंटों के लिए आपको ऑफिस जाने की आवश्यकता क्यों पड़ गयी थी मम्मी?" मैं बोली।
"अरे अब इन ऑफिस वालों को भी क्या बोलूं। एक छोटा सा काम भी इन गधों से होता नहीं है। झूठ मूठ मुझे परेशान किया उल्लू के पट्ठों ने। और तुम सुनाओ। तुम्हारा रिहर्सल कैसा रहा?" मां थके स्वर में बोली।
"बहुत अच्छा। आज तो एकांकी के रिहर्सल में मजा ही आ गया। पहली बार इतना मज़ा आया।" मैं घुसा को अर्थपूर्ण नजरों से देखती हुई बोली, जो वहीं खड़ा हमारी बातें सुन रहा था। मेरी बातों का अर्थ समझ कर वह भी हल्का सा मुस्कुरा उठा।
"अच्छा! तुम्हारे एकांकी का नाम क्या है?" मां ने पूछा।
"जानवर और इंसान।" मैं बोली।
"वाह, रोचक नाम है। क्या है इस एकांकी में, जरा मैं भी तो सुनूं।"
"मत सुनिए मम्मी। रहस्य खत्म हो जाएगा, फिर देखने में मजा नहीं आएगा।" मैं हड़बड़ा कर बोली।
"अरे कमसे कम सार तो बता ही सकती हो।"
"इंसान अच्छा और बुरा, दोनों तरह का होता है। जिस की सोच पर अच्छाई हावी है वह दूसरों का भला करता है और अच्छा काम करता है और उसे हम अच्छा इंसान कहते हैं। जिसकी सोच पर बुराई हावी है वह सदा दूसरों का बुरा चाहता है, बुरा करता है, बुरा काम करता है और हम उसे बुरा इंसान कहते हैं। जो आदमी बुरी सोच वाला है और हमेशा दूसरों का बुरा करता है वह असामाजिक होता है, उसे हम जानवर की श्रेणी में रख सकते हैं क्योंकि जानवर भी सामाजिक प्राणी नहीं होता है। इंसान के अंदर का छिपा हुआ जानवर जब बाहर आता है तो वह इंसान, जानवर बन जाता है। कहने को तो इंसान रहता है लेकिन व्यवहार में वह जानवर बन जाता है। बस यही दिखाया गया है।" मैं बोली।
"बड़ा रोचक होगा यह तो?"
"हां रोचक तो है लेकिन....।" मैं कहते कहते चुप हो गई।
"लेकिन क्या?" मां ने पूछा।
"मैं सोच रही हूं, कि समाज में बुरे कर्म के द्वारा जिसकी बुराई सामने आ जाती है उसे तो हम बुरा आदमी कहते हैं और हम उनसे बच कर रहते हैं लेकिन जिनके बुरे कर्म समाज में प्रकट रूप से सामने नहीं आते हैं उनका क्या? ऐसे बुरे लोग समाज के अंदर शराफत का चोला ओढ़े अपने कुकृत्य को अंजाम देते रहते हैं या अंजाम देने की ताक में रहते हैं उनसे कैसे बचा जाय?" मैं तिरछी नजरों से घुसा की ओर देखती हुई बोली। अनायास ही मेरी मां की नजरें भी घुसा की ओर उठीं और उनका चेहरा लाल हो उठा। उन्होंने नजरें नीची कर लीं। घुसा भी मेरी बातों का अर्थ समझ कर नजरें चुराते हुए इधर उधर देखने लगा। हमारे वार्तालाप के बीच में मां चोरी चोरी घुसा को देख रही थी और घुसा, जो मां के आने से पहले मुझे चोद चुका था, मेरी मां से नजरें चुरा रहा था। मैं इन बातों को ताड़ रही थी और मन ही मन मजा ले रही थी।
"हां सो तो है। फिर भी अपनी ओर से सावधान रहना हर व्यक्ति की अपनी जिम्मेदारी है।" मां बोली। यह सुनकर मुझे मन ही मन हंसी आ गई। वाह री सावधान मम्मी, फंस गयी नौकर से और उपदेश झाड़ रही है।
"सही कहा आपने। क्या पता हमारे परिचितों में भी ऐसे भेड़ की खाल में भेड़िए हों, या क्या पता ये घुसा भी......" मैं कहने को तो हल्के-फुल्के ढंग से मजाकिया लहजे में यह बात बोली, लेकिन सुनकर पल भर को तो घुसा और मम्मी के चेहरों का रंग ही उड़ गया था जिसे मेरी पैनी नजरों ने अच्छी तरह से पढ़ लिया था लेकिन मैं अनजान बनी रही।
"ह ह हे भगवान यह यह कैसी बात कह रही हैं रोज बिटिया। हम भला किसी के बारे में क्यों बुरा सोचेंगे?" घबराकर कर घुसा हकलाते हुए बोला।
"अरे अरे घबरा काहे रहे हो। मैं तो बस ऐसे ही मजाक में बोल रही थी।" मैं उसकी घबराहट को देख कर मन ही मन मुस्कुरा कर बोली।
पिछली कड़ी में आप लोगों ने पढ़ा कि किस तरह घुसा और मेरी मां के बीच के शारीरिक संबंध को देखकर क्रोधित होने की बजाय मेरे अंदर जो वासना की चिंगारी सुलगी थी, उसके वशीभूत मैं ने घर की सफाई में घुसा को सहयोग करने के बहाने खुद को उसके आगे समर्पित करके सेक्स का अनूठा आनंद प्राप्त किया और अपनी काम क्षुधा को शांत किया। अब आगे: -
घुसा ने बिल्कुल किसी पशु (कुत्ते) की तरह मेरे साथ संभोग किया था और मैं सेक्स की गुड़िया, प्रथम बार उसके इस तरह चोदने से आह्लादित हो कर उसकी दीवानी बन बैठी थी। मन ही मन उसे दाद देती हुई मुदित मन उसके साथ घर की सफाई का बाकी कार्य पूरा करने में जुट गई थी। हम दोनों ने खुल कर गंदी गंदी बातें और चुहलबाज़ी करते हुए सफाई के कार्य को संपन्न किया ही था कि मेरी मां ऑफिस से घर आ गई। मां ऑफिस से थकी मांदी घर आकर धम्म से सोफे पर बैठ गई और घुसा तुरंत किचन से उसके लिए पानी लेकर आया। करीब तीन घंटे ही लगे थे मेरी मां को ऑफिस जा कर वापस आने में। इन तीन घंटों में यहां एक तूफान आ कर गुजर चुका था।
"मात्र तीन घंटों के लिए आपको ऑफिस जाने की आवश्यकता क्यों पड़ गयी थी मम्मी?" मैं बोली।
"अरे अब इन ऑफिस वालों को भी क्या बोलूं। एक छोटा सा काम भी इन गधों से होता नहीं है। झूठ मूठ मुझे परेशान किया उल्लू के पट्ठों ने। और तुम सुनाओ। तुम्हारा रिहर्सल कैसा रहा?" मां थके स्वर में बोली।
"बहुत अच्छा। आज तो एकांकी के रिहर्सल में मजा ही आ गया। पहली बार इतना मज़ा आया।" मैं घुसा को अर्थपूर्ण नजरों से देखती हुई बोली, जो वहीं खड़ा हमारी बातें सुन रहा था। मेरी बातों का अर्थ समझ कर वह भी हल्का सा मुस्कुरा उठा।
"अच्छा! तुम्हारे एकांकी का नाम क्या है?" मां ने पूछा।
"जानवर और इंसान।" मैं बोली।
"वाह, रोचक नाम है। क्या है इस एकांकी में, जरा मैं भी तो सुनूं।"
"मत सुनिए मम्मी। रहस्य खत्म हो जाएगा, फिर देखने में मजा नहीं आएगा।" मैं हड़बड़ा कर बोली।
"अरे कमसे कम सार तो बता ही सकती हो।"
"इंसान अच्छा और बुरा, दोनों तरह का होता है। जिस की सोच पर अच्छाई हावी है वह दूसरों का भला करता है और अच्छा काम करता है और उसे हम अच्छा इंसान कहते हैं। जिसकी सोच पर बुराई हावी है वह सदा दूसरों का बुरा चाहता है, बुरा करता है, बुरा काम करता है और हम उसे बुरा इंसान कहते हैं। जो आदमी बुरी सोच वाला है और हमेशा दूसरों का बुरा करता है वह असामाजिक होता है, उसे हम जानवर की श्रेणी में रख सकते हैं क्योंकि जानवर भी सामाजिक प्राणी नहीं होता है। इंसान के अंदर का छिपा हुआ जानवर जब बाहर आता है तो वह इंसान, जानवर बन जाता है। कहने को तो इंसान रहता है लेकिन व्यवहार में वह जानवर बन जाता है। बस यही दिखाया गया है।" मैं बोली।
"बड़ा रोचक होगा यह तो?"
"हां रोचक तो है लेकिन....।" मैं कहते कहते चुप हो गई।
"लेकिन क्या?" मां ने पूछा।
"मैं सोच रही हूं, कि समाज में बुरे कर्म के द्वारा जिसकी बुराई सामने आ जाती है उसे तो हम बुरा आदमी कहते हैं और हम उनसे बच कर रहते हैं लेकिन जिनके बुरे कर्म समाज में प्रकट रूप से सामने नहीं आते हैं उनका क्या? ऐसे बुरे लोग समाज के अंदर शराफत का चोला ओढ़े अपने कुकृत्य को अंजाम देते रहते हैं या अंजाम देने की ताक में रहते हैं उनसे कैसे बचा जाय?" मैं तिरछी नजरों से घुसा की ओर देखती हुई बोली। अनायास ही मेरी मां की नजरें भी घुसा की ओर उठीं और उनका चेहरा लाल हो उठा। उन्होंने नजरें नीची कर लीं। घुसा भी मेरी बातों का अर्थ समझ कर नजरें चुराते हुए इधर उधर देखने लगा। हमारे वार्तालाप के बीच में मां चोरी चोरी घुसा को देख रही थी और घुसा, जो मां के आने से पहले मुझे चोद चुका था, मेरी मां से नजरें चुरा रहा था। मैं इन बातों को ताड़ रही थी और मन ही मन मजा ले रही थी।
"हां सो तो है। फिर भी अपनी ओर से सावधान रहना हर व्यक्ति की अपनी जिम्मेदारी है।" मां बोली। यह सुनकर मुझे मन ही मन हंसी आ गई। वाह री सावधान मम्मी, फंस गयी नौकर से और उपदेश झाड़ रही है।
"सही कहा आपने। क्या पता हमारे परिचितों में भी ऐसे भेड़ की खाल में भेड़िए हों, या क्या पता ये घुसा भी......" मैं कहने को तो हल्के-फुल्के ढंग से मजाकिया लहजे में यह बात बोली, लेकिन सुनकर पल भर को तो घुसा और मम्मी के चेहरों का रंग ही उड़ गया था जिसे मेरी पैनी नजरों ने अच्छी तरह से पढ़ लिया था लेकिन मैं अनजान बनी रही।
"ह ह हे भगवान यह यह कैसी बात कह रही हैं रोज बिटिया। हम भला किसी के बारे में क्यों बुरा सोचेंगे?" घबराकर कर घुसा हकलाते हुए बोला।
"अरे अरे घबरा काहे रहे हो। मैं तो बस ऐसे ही मजाक में बोल रही थी।" मैं उसकी घबराहट को देख कर मन ही मन मुस्कुरा कर बोली।