19-03-2024, 11:34 AM
गरम रोजा (भाग 4)
मैं अपने मन के झंझावातों को अपने अंदर समेटे घर से कुछ दूर पार्क के बाहर एक बेंच पर सड़क की ओर मुंह करके बैठ गई। बार बार मेरी आंखों के सामने मां और घुसा के बीच जो वासना का खेल चला था, वही चलचित्र की भांति घूम रहा था। मन के अंदर काफी कुछ उमड़ घुमड़ रहा था। जिस पेड़ के नीचे मैं बेंच पर बैठी थी, उस पेड़ पर ढेर सारे पक्षियों का कलरव हो रहा था लेकिन मुझे और कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। मेरे अंदर उन पक्षियों के शोर से कहीं ज्यादा ज्यादा शोर मचा हुआ था। बड़ी बैचैनी की हालत में अपने स्थान पर बैठी पहलू बदल रही थी कि तभी मैंने हमारी कार को देखा जिसमें मां जा रही थी। निश्चय ही वह ऑफिस जा रही थी। मैं अनमने मन से उन्हें जाते हुए देखती रही। बेचारी मां।
मेरे मन में कई तरह के विचार आ जा रहे थे। बचपन से लेकर इस उम्र तक मैं संपन्नता के आधार पर और जाति के आधार पर भेदभाव देखती आ रही थी। रहन सहन के आधार पर भेदभाव देखती आ रही थी। लेकिन अब जब मैं देखती हूं तो पाती हूं कि जब अपने अपने मतलब निकालने की बात आती है तो यह भेदभाव नहीं दिखाई देता है। इसका सबसे सटीक उदाहरण वेश्यालय हैं। जब अपने शरीर की जरूरत की पूर्ति हेतु पुरुष, वेश्यालयों में जाते हैं तो वेश्याओं की जाति नहीं पूछते। वहां जातिगत आधार पर कोई भेदभाव नहीं रह जाता है। समाज में यह दोगलापन क्यों है, समझ नहीं आता है। पता नहीं समाज में लोगों के बीच खुलेआम बराबरी का व्यवहार कब आएगा। यह मैं इसलिए कह रही हूं क्योंकि एक नीची जाति का गरीब नौकर घुसा और ऊंची जाति की अमीर मालकिन, मेरी मां के बीच आज जो दैहिक संबंध स्थापित हुआ और उस संबंध से प्राप्त खुशी से दमकते घुसा और मेरी मां के चेहरे को देखकर सच में आपको भी ऐसे भेदभाव को ठोकर मारने का मन हो जाएगा।
अब मुझी को देख लीजिए। घुसा ने मेरे साथ अच्छा किया या बुरा किया, लेकिन अब हमारे बीच जो होता आ रहा था, उससे घुसा के साथ साथ मुझे जो खुशी मिल रही थी, उसके बाद तो मुझे इस प्रकार के भेदभाव से नफ़रत सी हो गई है। यह तो हुई जिस्मानी भूख शांत करने की बात को लेकर, लेकिन इसके अलावा भी कई ऐसी बातें हैं जहां हम अगर छुआछूत, ऊंच नीच और भेदभाव को लेकर चलें तो हमारा जीना हराम हो जाएगा। अब देखिए, रुपए पैसे के लेन-देन में, खाद्य सामग्रियों की खरीद बिक्री में, और भी हमारी कई जरूरत की चीजों के लेन-देन और खरीद बिक्री में तो हम यह भेदभाव नहीं करते हैं। कपड़े खरीदते समय ट्रायल के नाम पर न जाने कितने लोगों के शरीर से उतरन को हम खरीदने में नहीं हिचकिचाते हैं। रुपए पैसे और कई प्रकार के हमारे जरूरत के सामान न जाने किस किस तरह के लोगों के हाथों से होते हुए हमारे हाथों में आते हैं, जिन्हें लेने में हम आनाकानी नहीं करते हैं फिर सामाजिक जीवन में आपसी व्यवहार में इस तरह का भेदभाव क्यों करते हैं? काश कि इंसान इन बातों को समझ कर सबके साथ सामान्य व्यवहार करने लगे तो यह धरती ही स्वर्ग बन जाए! यह आपस में दिखावे का जातिभेद, रंगभेद क्यों? स्वर्ग नर्क किसने देखा है? क्यों न हम इस धरती को ही आपसी सौहार्द से स्वर्ग बना दें।
अरे यह मैं भी पागल यह क्या बोले जा रही हूं। हां तो मैं अपनी मां के बारे में कह रही थी कि कुछ देर पहले तो वह घुसा के साथ रंगरेलियां मना रही थी और अभी ही उसे ऑफिस से बुलावा आ गया। क्या मन: स्थिति ले कर जा रही थी होगी। मन ही मन खीझ रही थी होगी। खैर मेरी मां के मन की स्थिति जैसी भी थी, मेरी मानसिक स्थिति से तो अलग ही थी होगी। मेरी मां के तन की आग तो बुझ चुकी थी लेकिन उनके बीच जो कुछ हो रहा था उसे देख कर मेरे तन बदन में जो आग लगी हुई थी उसका क्या? मैं ऐसे ही बैठे बैठे यही सब आलतू फालतू बातें सोच सोच कर अपने तन की जलन को बहला फुसलाकर शांत रखने की कोशिश कर रही थी लेकिन साली यह देह के अंदर की गर्मी मुझे परेशान किए जा रही थी। वहां अच्छी खासी ठंढी हवा बह रही थी लेकिन उस ठंढी हवा की शीतलता भी मुझे आंतरिक तपिश से मुक्त करने में असफल सिद्ध हो रही थी।
मैं अपने मन के झंझावातों को अपने अंदर समेटे घर से कुछ दूर पार्क के बाहर एक बेंच पर सड़क की ओर मुंह करके बैठ गई। बार बार मेरी आंखों के सामने मां और घुसा के बीच जो वासना का खेल चला था, वही चलचित्र की भांति घूम रहा था। मन के अंदर काफी कुछ उमड़ घुमड़ रहा था। जिस पेड़ के नीचे मैं बेंच पर बैठी थी, उस पेड़ पर ढेर सारे पक्षियों का कलरव हो रहा था लेकिन मुझे और कुछ सुनाई नहीं दे रहा था। मेरे अंदर उन पक्षियों के शोर से कहीं ज्यादा ज्यादा शोर मचा हुआ था। बड़ी बैचैनी की हालत में अपने स्थान पर बैठी पहलू बदल रही थी कि तभी मैंने हमारी कार को देखा जिसमें मां जा रही थी। निश्चय ही वह ऑफिस जा रही थी। मैं अनमने मन से उन्हें जाते हुए देखती रही। बेचारी मां।
मेरे मन में कई तरह के विचार आ जा रहे थे। बचपन से लेकर इस उम्र तक मैं संपन्नता के आधार पर और जाति के आधार पर भेदभाव देखती आ रही थी। रहन सहन के आधार पर भेदभाव देखती आ रही थी। लेकिन अब जब मैं देखती हूं तो पाती हूं कि जब अपने अपने मतलब निकालने की बात आती है तो यह भेदभाव नहीं दिखाई देता है। इसका सबसे सटीक उदाहरण वेश्यालय हैं। जब अपने शरीर की जरूरत की पूर्ति हेतु पुरुष, वेश्यालयों में जाते हैं तो वेश्याओं की जाति नहीं पूछते। वहां जातिगत आधार पर कोई भेदभाव नहीं रह जाता है। समाज में यह दोगलापन क्यों है, समझ नहीं आता है। पता नहीं समाज में लोगों के बीच खुलेआम बराबरी का व्यवहार कब आएगा। यह मैं इसलिए कह रही हूं क्योंकि एक नीची जाति का गरीब नौकर घुसा और ऊंची जाति की अमीर मालकिन, मेरी मां के बीच आज जो दैहिक संबंध स्थापित हुआ और उस संबंध से प्राप्त खुशी से दमकते घुसा और मेरी मां के चेहरे को देखकर सच में आपको भी ऐसे भेदभाव को ठोकर मारने का मन हो जाएगा।
अब मुझी को देख लीजिए। घुसा ने मेरे साथ अच्छा किया या बुरा किया, लेकिन अब हमारे बीच जो होता आ रहा था, उससे घुसा के साथ साथ मुझे जो खुशी मिल रही थी, उसके बाद तो मुझे इस प्रकार के भेदभाव से नफ़रत सी हो गई है। यह तो हुई जिस्मानी भूख शांत करने की बात को लेकर, लेकिन इसके अलावा भी कई ऐसी बातें हैं जहां हम अगर छुआछूत, ऊंच नीच और भेदभाव को लेकर चलें तो हमारा जीना हराम हो जाएगा। अब देखिए, रुपए पैसे के लेन-देन में, खाद्य सामग्रियों की खरीद बिक्री में, और भी हमारी कई जरूरत की चीजों के लेन-देन और खरीद बिक्री में तो हम यह भेदभाव नहीं करते हैं। कपड़े खरीदते समय ट्रायल के नाम पर न जाने कितने लोगों के शरीर से उतरन को हम खरीदने में नहीं हिचकिचाते हैं। रुपए पैसे और कई प्रकार के हमारे जरूरत के सामान न जाने किस किस तरह के लोगों के हाथों से होते हुए हमारे हाथों में आते हैं, जिन्हें लेने में हम आनाकानी नहीं करते हैं फिर सामाजिक जीवन में आपसी व्यवहार में इस तरह का भेदभाव क्यों करते हैं? काश कि इंसान इन बातों को समझ कर सबके साथ सामान्य व्यवहार करने लगे तो यह धरती ही स्वर्ग बन जाए! यह आपस में दिखावे का जातिभेद, रंगभेद क्यों? स्वर्ग नर्क किसने देखा है? क्यों न हम इस धरती को ही आपसी सौहार्द से स्वर्ग बना दें।
अरे यह मैं भी पागल यह क्या बोले जा रही हूं। हां तो मैं अपनी मां के बारे में कह रही थी कि कुछ देर पहले तो वह घुसा के साथ रंगरेलियां मना रही थी और अभी ही उसे ऑफिस से बुलावा आ गया। क्या मन: स्थिति ले कर जा रही थी होगी। मन ही मन खीझ रही थी होगी। खैर मेरी मां के मन की स्थिति जैसी भी थी, मेरी मानसिक स्थिति से तो अलग ही थी होगी। मेरी मां के तन की आग तो बुझ चुकी थी लेकिन उनके बीच जो कुछ हो रहा था उसे देख कर मेरे तन बदन में जो आग लगी हुई थी उसका क्या? मैं ऐसे ही बैठे बैठे यही सब आलतू फालतू बातें सोच सोच कर अपने तन की जलन को बहला फुसलाकर शांत रखने की कोशिश कर रही थी लेकिन साली यह देह के अंदर की गर्मी मुझे परेशान किए जा रही थी। वहां अच्छी खासी ठंढी हवा बह रही थी लेकिन उस ठंढी हवा की शीतलता भी मुझे आंतरिक तपिश से मुक्त करने में असफल सिद्ध हो रही थी।