17-03-2024, 09:44 AM
तभी फिर मेरी मां का फोन दुबारा बजने लगा। मेरी मां खीझ उठी। "यह कौन हरामी बार बार फोन किए जा रहा है, कुत्ता का बच्चा कहीं का।" कहकर अलसाई सी उठी और उसी तरह नंगी ही बेशर्मी से फोन उठाने बढ़ी। हाय राआआआआआम, क्या नजारा था। बाल बिखरे हुए थे। चेहरा लाल भभूका हो रहा था। मैं ने अपनी मां को इस तरह नंगी देखने की कल्पना भी नहीं की थी। कितने बड़े बड़े स्तन थे। इतने भारी स्तन इस उम्र में भी लटके नहीं थे और उनके चलने से उछल रहे थे। घुसा ने इनको दबा दबा कर और चूस चूस कर लाल कर दिया था। निप्पल काफी बड़े बड़े और खड़े थे। अब मैं बेशर्मी और कौतूहल से मेरी मां की चुद चुद कर फूली रसीली चूत को देख रही थी। चूत के मुंह पर अब भी घुसा का वीर्य लिथड़ा हुआ था, जिसे उसने पोंछ कर साफ करने की भी जहमत नहीं उठाई थी। उसकी चाल भी थोड़ी बदल गई थी। यह शायद थकान और घुसा के मोटे लंड से धुआंधार चुदाई का असर था। हाय रे मेरी मां। तकलीफ़ से चल रही थी लेकिन कितनी निर्द्वन्द, बेफिक्री, निर्लज्जता के साथ एक पराए मर्द, घुसा जैसे नौकर के सामने नंग धड़ंग चल रही थी, इस बात से बेखबर कि एक जोड़ी और आंखें उनकी नग्नावस्था का दीदार कर रही थीं।
मेरी मां ने अपना फोन जैसे ही उठाया तो कॉल करने वाले का नाम देखकर झल्ला उठी। "अरे भाई, अब क्या हुआ? छुट्टी के दिन भी चैन नहीं लेने देते हो तुमलोग। जल्दी बोलो क्या बात है।" खीझ और नाराजगी भरे स्वर में बोली। फिर उधर से उतर सुनकर उनके चेहरे का रंग बदल गया। "ठीक है ठीक है, एक घंटे में पहुंच रही हूं" कहकर उन्होंने फोन काट दिया। फिर बड़बड़ाने लगी, "इधर यह कमीना मुझे निचोड़ कर रख दिया और उधर कमीना बॉस को भी अभी ही काम पड़ गया। छुट्टी के दिन भी घर में चैन से नहीं रहने ने देते हैं ये ऑफिस वाले।" फोन पर उस छोटे से वार्तालाप के बाद मेरी मां के शरीर पर अचानक फुर्ती आ गई।
"और तू घुसा, अब उठेगा की इसी तरह पड़ा रहेगा। साला चोद चोद के मेरा कचूमर निकाल दिया और अब आराम फरमा रहा है। उठो और काम में लग जाओ। मैं नहा धोकर अभी तुरंत ऑफिस के लिए निकलूंगी।" कहते हुए मेरी मां अपने कपड़े समेट कर अपने कमरे में चली गई।
अब यहां का रोमांचक खेल खत्म हो चुका था। बड़ा उत्तेजक खेल था यह। उस उत्तेजक खेल को देखते देखते मैं बेहद उत्तेजित हो चुकी थी और उत्तेजना के अतिरेक में अपने तन के यौनांगो से खेलती हुई एक बार स्खलित भी हो गई, लेकिन उस लंबे खेल को देखती हुई जब दुबारा मुझपर उत्तेजना का बुखार चढ़ने लगा तो वह खेल खत्म हो गया और मेरे अंदर एक अतृप्ति का अहसास घर कर गया था। खैर चलो जो हुआ सो हुआ, मुझे वहां से चुपके से खिसकने में ही अपनी भलाई नजर आई, क्योंकि मेरी मां वहां से गायब हो कर अपने कमरे में चली गई थी। जबतक घुसा उठ कर अपने कपड़े पहनता, मैं दबे पांव उस कमरे से निकली और पिछले दरवाजे से बाहर आ गई। मैं घूम कर घर के पिछवाड़े से सामने आई और चुपके से गेट खोल कर बाहर खुली हवा में सांस लेने लगी। मैं वहां रुकी नहीं बल्कि घर से कुछ दूर तक पैदल ही निकल पड़ी ताकि बाहर की ठंडी हवाएं मेरे अंदर धधकती ज्वाला को ठंढी कर सके।
आगे की घटना अगली कड़ी में
मेरी मां ने अपना फोन जैसे ही उठाया तो कॉल करने वाले का नाम देखकर झल्ला उठी। "अरे भाई, अब क्या हुआ? छुट्टी के दिन भी चैन नहीं लेने देते हो तुमलोग। जल्दी बोलो क्या बात है।" खीझ और नाराजगी भरे स्वर में बोली। फिर उधर से उतर सुनकर उनके चेहरे का रंग बदल गया। "ठीक है ठीक है, एक घंटे में पहुंच रही हूं" कहकर उन्होंने फोन काट दिया। फिर बड़बड़ाने लगी, "इधर यह कमीना मुझे निचोड़ कर रख दिया और उधर कमीना बॉस को भी अभी ही काम पड़ गया। छुट्टी के दिन भी घर में चैन से नहीं रहने ने देते हैं ये ऑफिस वाले।" फोन पर उस छोटे से वार्तालाप के बाद मेरी मां के शरीर पर अचानक फुर्ती आ गई।
"और तू घुसा, अब उठेगा की इसी तरह पड़ा रहेगा। साला चोद चोद के मेरा कचूमर निकाल दिया और अब आराम फरमा रहा है। उठो और काम में लग जाओ। मैं नहा धोकर अभी तुरंत ऑफिस के लिए निकलूंगी।" कहते हुए मेरी मां अपने कपड़े समेट कर अपने कमरे में चली गई।
अब यहां का रोमांचक खेल खत्म हो चुका था। बड़ा उत्तेजक खेल था यह। उस उत्तेजक खेल को देखते देखते मैं बेहद उत्तेजित हो चुकी थी और उत्तेजना के अतिरेक में अपने तन के यौनांगो से खेलती हुई एक बार स्खलित भी हो गई, लेकिन उस लंबे खेल को देखती हुई जब दुबारा मुझपर उत्तेजना का बुखार चढ़ने लगा तो वह खेल खत्म हो गया और मेरे अंदर एक अतृप्ति का अहसास घर कर गया था। खैर चलो जो हुआ सो हुआ, मुझे वहां से चुपके से खिसकने में ही अपनी भलाई नजर आई, क्योंकि मेरी मां वहां से गायब हो कर अपने कमरे में चली गई थी। जबतक घुसा उठ कर अपने कपड़े पहनता, मैं दबे पांव उस कमरे से निकली और पिछले दरवाजे से बाहर आ गई। मैं घूम कर घर के पिछवाड़े से सामने आई और चुपके से गेट खोल कर बाहर खुली हवा में सांस लेने लगी। मैं वहां रुकी नहीं बल्कि घर से कुछ दूर तक पैदल ही निकल पड़ी ताकि बाहर की ठंडी हवाएं मेरे अंदर धधकती ज्वाला को ठंढी कर सके।
आगे की घटना अगली कड़ी में