13-03-2024, 12:23 PM
"देखिए हम से झूठ मत बोलिए मैडमजी। मुझ बेवकूफ के गिरने से आप जिस तरह गिरी हैं उससे आपको चोट लगना एकदम स्वाभाविक है और आप बोल रही हैं कि आपको जरा भी चोट नहीं लगा, ऐसे कैसे हो सकता है? आप जैसे गिरी हैं, वैसे में हाथ में और कमर में तो जरूर चोट लगा होगा।" घुसा पीठ के पीछे से मेरी मां की नंगी कमर को सहलाते हुए बोला, लेकिन अब भी वह मेरी मां के ऊपर से हटने का कोई उपक्रम नहीं किया था। हटने का उसका इरादा भी नहीं था शायद। उसी पोजीशन में घुसा थोड़ा सा कसमसाया और इस तरह से वह अपने खंभे को मेरी मां की योनि के ऊपर रगड़ा। निश्चित तौर पर मेरी मां उस खंभे की रगड़ को स्पष्ट तौर पर अनुभव कर चुकी थी लेकिन तब भी वह घुसा के नीचे से हटने की कोशिश नहीं कर रही थी। उफ उफ मेरी मां। अब मैं समझ सकती हूं कि मेरी मां के अंदर की सोई हुई कामना, या यों कहूं कि दबा कर रखी हुई कामना का बांध अवश्य फट पड़ने को आतुर था होगा। उस वक्त मेरी मां का चेहरा लाल हो चुका था। कैसा अनुभव कर रही थी होगी? क्या उसके मन की दबी हुई कामना अंगड़ाई लेने लगी थी? जरूर। जरूर वह चाह रही थी होगी कि वे उसी तरह पड़े रहें ताकि वह घुसा के शरीर को और अच्छी तरह महसूस कर सके लेकिन अपने मुंह से कहे तो कैसे कहे। एक शारीरिक भूख की मारी संभ्रांत परिवार की नारी, एक पराए मर्द, वह भी एक नौकर के सामने, खुल कर अपनी ऐसी कामना को व्यक्त करे भी तो कैसे करें। हाय रे मेरी मां की मजबूरी।
लेकिन मेरी मां की किस्मत अच्छी थी कि यहां उसका पाला एक शातिर औरतखोर से पड़ा था, जो अनपढ़ होते हुए भी एक घाघ मनौवैज्ञानिक से कम नहीं था। बिन कहे ही वह मेरी मां के अंदर मचल रही भावना के उफान को अच्छी तरह से समझ रहा था।
"यह यह तुम कककक्या कर रहे हो? मुझे कुछ नहीं हुआ है। छोड़ो मुझे।" घुसा के हाथ को अपनी नंगी कमर पर घूमते हुए पा कर मेरी मां ने बड़े कमजोर स्वर में कहा लेकिन घुसा के नीचे से खिसकने की कोई कोशिश नहीं कर रही थी।
"हुआ है मैडमजी। हमको पता है, कुछ तो जरूर हुआ है। कुछ चोट ऊपर से नहीं, अंदर से महसूस होता है। हम वही कर रहे हैं मैडमजी, जो इस समय हमको करना चाहिए। देखिए मना मत कीजिएगा। कुछ ही देर में आपको अच्छा लगने लगेगा।" घुसा उसी तरह मेरी मां की कमर को सहलाते हुए बोला। अब मेरी मां की जुबान पर एक तरह से ताला सा लग गया था। सच में मेरी मां को अच्छा लग रहा था क्योंकि मेरी मां के चेहरे पर एक सुकून दिखाई दे रहा था। उनके किस दर्द पर मरहम लग रहा था? शायद बाहरी भी और अंदरूनी भी। मेरी मां के चेहरे पर सुकून देखकर घुसा की हिम्मत बढ़ती जा रही थी।
"चलिए, थोड़ा सा पलट जाईए तो। हम आपका कमर दबा देंगे।" बोलने के साथ वह मेरी मां के बदन में कोई हरकत होने से पहले ही उठा और वहां से दो कदम दूर, जहां कालीन बिछा हुआ था, मां को पलट दिया।
"मैं बोल रही हूं ना कि मैं ठीक हूं। मुझे कोई चोट वोट नहीं लगी है।" मेरी मां बोली। उसने इस बात पर अब भी ध्यान नहीं दिया था कि उसकी साड़ी घुटनों से ऊपर उठी हुई थी और उसकी गोरी गोरी जबरदस्त जांघें बेपर्दा हालत में घुसा की आंखों में चमक पैदा कर चुकी थी। उसकी आंखों में वासना के लाल डोरे उभर आए थे। मुंह में लार आ गया था। वह तो जरूर कल्पना में मेरी मां की जांघों के बीच के सामान को देख रहा था शायद और उसकी बेताबी देखते ही बन रही थी। बड़ा धीरज वाला था वह। हड़बड़ी में सारा मामला को गड़बड़ नहीं करना चाह रहा था।
वह बहुत चालाकी से फूंक फूंक कर धीरे धीरे आगे बढ़ रहा था और इधर उत्तेजना के कारण मेरी हालत खराब हो रही थी। मेरी उतावली बढ़ती जा रही थी। जहां मेरा एक हाथ मेरी चूचियों पर आ गया था वहीं दूसरा हाथ मेरी चूत पर पहुंच चुका था। अरे जो होना है वह तो स्पष्ट हो चुका था लेकिन इतना धीरे धीरे हो रहा था कि आगे की घटना देखने के लिए मेरे सब्र का पैमाना छलक जा रहा था। खैर मेरी भी मजबूरी थी। चुपचाप देखते रहने के अलावा मेरे पास और कोई चारा नहीं था। उतावली में आकर मैं इतने उत्तेजक और मजेदार घटना में खलल नहीं डाल सकती थी नहीं तो सारा गुड़ गोबर हो जाता।
लेकिन मेरी मां की किस्मत अच्छी थी कि यहां उसका पाला एक शातिर औरतखोर से पड़ा था, जो अनपढ़ होते हुए भी एक घाघ मनौवैज्ञानिक से कम नहीं था। बिन कहे ही वह मेरी मां के अंदर मचल रही भावना के उफान को अच्छी तरह से समझ रहा था।
"यह यह तुम कककक्या कर रहे हो? मुझे कुछ नहीं हुआ है। छोड़ो मुझे।" घुसा के हाथ को अपनी नंगी कमर पर घूमते हुए पा कर मेरी मां ने बड़े कमजोर स्वर में कहा लेकिन घुसा के नीचे से खिसकने की कोई कोशिश नहीं कर रही थी।
"हुआ है मैडमजी। हमको पता है, कुछ तो जरूर हुआ है। कुछ चोट ऊपर से नहीं, अंदर से महसूस होता है। हम वही कर रहे हैं मैडमजी, जो इस समय हमको करना चाहिए। देखिए मना मत कीजिएगा। कुछ ही देर में आपको अच्छा लगने लगेगा।" घुसा उसी तरह मेरी मां की कमर को सहलाते हुए बोला। अब मेरी मां की जुबान पर एक तरह से ताला सा लग गया था। सच में मेरी मां को अच्छा लग रहा था क्योंकि मेरी मां के चेहरे पर एक सुकून दिखाई दे रहा था। उनके किस दर्द पर मरहम लग रहा था? शायद बाहरी भी और अंदरूनी भी। मेरी मां के चेहरे पर सुकून देखकर घुसा की हिम्मत बढ़ती जा रही थी।
"चलिए, थोड़ा सा पलट जाईए तो। हम आपका कमर दबा देंगे।" बोलने के साथ वह मेरी मां के बदन में कोई हरकत होने से पहले ही उठा और वहां से दो कदम दूर, जहां कालीन बिछा हुआ था, मां को पलट दिया।
"मैं बोल रही हूं ना कि मैं ठीक हूं। मुझे कोई चोट वोट नहीं लगी है।" मेरी मां बोली। उसने इस बात पर अब भी ध्यान नहीं दिया था कि उसकी साड़ी घुटनों से ऊपर उठी हुई थी और उसकी गोरी गोरी जबरदस्त जांघें बेपर्दा हालत में घुसा की आंखों में चमक पैदा कर चुकी थी। उसकी आंखों में वासना के लाल डोरे उभर आए थे। मुंह में लार आ गया था। वह तो जरूर कल्पना में मेरी मां की जांघों के बीच के सामान को देख रहा था शायद और उसकी बेताबी देखते ही बन रही थी। बड़ा धीरज वाला था वह। हड़बड़ी में सारा मामला को गड़बड़ नहीं करना चाह रहा था।
वह बहुत चालाकी से फूंक फूंक कर धीरे धीरे आगे बढ़ रहा था और इधर उत्तेजना के कारण मेरी हालत खराब हो रही थी। मेरी उतावली बढ़ती जा रही थी। जहां मेरा एक हाथ मेरी चूचियों पर आ गया था वहीं दूसरा हाथ मेरी चूत पर पहुंच चुका था। अरे जो होना है वह तो स्पष्ट हो चुका था लेकिन इतना धीरे धीरे हो रहा था कि आगे की घटना देखने के लिए मेरे सब्र का पैमाना छलक जा रहा था। खैर मेरी भी मजबूरी थी। चुपचाप देखते रहने के अलावा मेरे पास और कोई चारा नहीं था। उतावली में आकर मैं इतने उत्तेजक और मजेदार घटना में खलल नहीं डाल सकती थी नहीं तो सारा गुड़ गोबर हो जाता।