13-03-2024, 10:42 AM
मन ही मन मैं भी खुश था कि बस एक मौके की ज़रुरत थी, और चित्रा पट तो जायगी ही। क्योंकि उसे भी तो बस एक मौके की ही तो तलाश होगी मेरी तरह। और फिर ख्यालों में मुझे हम दोनों नंगे होकर मेरे लौड़े और बॉल्स, और उसकी चूची और चूत से खेलते हुए महसूस होते।
बस यही समझ में नहीं आता कि चूत को आखिर किस तरह या कहाँ छूना पड़ता होगा मस्ती दिलाने के लिए? फिर नींद आ जाती और अगले दिन कॉलेज में दिन भर यही बात दिमाग में घूम रही होती थी और कई बार कॉलेज के बाथरूम में जाकर लौड़ा हिलाना पड़ता था। क्लास में भी फटी जेब में से लौड़े के सुपाड़े को कभी सहलाता, कभी खोलता/बंद करता और अगर चिपचिपा रस निकलने लगता, तो जेब से हाथ बाहर कर लेता।
अक्सर कॉलेज में अब मेरा लौड़ा हर समय खड़ा सा ही रहता था और दोपहर टिफ़िन खाने के टाइम भी मुझे अपनी डेस्क पर बैठे-बैठे ही खाना खा लेना पड़ता था।
कुछ दिन ऐसे ही चलता रहा, और फिर कॉलेज के दिनों में चित्रा और मैं या तो एक-आध मामूली सी बात कर लेते, या मैं दूर से उसका हाथ उसकी अपनी स्कर्ट की जेब में देख कर अपने लौड़े में सुरसुराहट महसूस कर लेता।
हर रात चित्रा हाथ से अपनी चूत से खेलती हुई तो मालूम देती ही थी। रोज़ यह भी सोचता कि उससे ऐसी-वैसी बातें करूं भी तो कैसे? एक लड़की से लंड-चूत की बातें करने के लिए तो बहुत हिम्मत से काम लेना पड़ता है,और सही मौक़ा भी तो चाहिए।
लेकिन एक बात तो तय थी, जब भी मेरा हाथ मेरी पैंट की जेब में होता तो उसकी नज़र मेरी पैंट की ज़िप पर और मेरी नज़र उसकी स्कर्ट के अंदर टटोली जा रही चूत पर जाती ही थी।
इसके बाद हम आपस में चाहे कुछ भी बातें ना भी करें, मगर हम दोनों के चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान तो रहती ही थी। मैं बस यही सोचता कि आखिर आगे कुछ बात कैसे और कब की जाए।
मन ही मन यह सोच कर खुश हो लेता था कि उसके चेहरे की हल्की मुस्कान का मतलब भी यही था, कि उसके दिमाग में भी कुछ मेरे साथ मज़े लिए जा सकते हैं यह ज़रूर होगा। और वो भी सोचती होगी कि बड़ी होने के नाते पहल करे भी तो कैसे? और कब, क्योंकि घर में हम दोनों का अकेले होना भी तो ज़रूरी था।
बस यही समझ में नहीं आता कि चूत को आखिर किस तरह या कहाँ छूना पड़ता होगा मस्ती दिलाने के लिए? फिर नींद आ जाती और अगले दिन कॉलेज में दिन भर यही बात दिमाग में घूम रही होती थी और कई बार कॉलेज के बाथरूम में जाकर लौड़ा हिलाना पड़ता था। क्लास में भी फटी जेब में से लौड़े के सुपाड़े को कभी सहलाता, कभी खोलता/बंद करता और अगर चिपचिपा रस निकलने लगता, तो जेब से हाथ बाहर कर लेता।
अक्सर कॉलेज में अब मेरा लौड़ा हर समय खड़ा सा ही रहता था और दोपहर टिफ़िन खाने के टाइम भी मुझे अपनी डेस्क पर बैठे-बैठे ही खाना खा लेना पड़ता था।
कुछ दिन ऐसे ही चलता रहा, और फिर कॉलेज के दिनों में चित्रा और मैं या तो एक-आध मामूली सी बात कर लेते, या मैं दूर से उसका हाथ उसकी अपनी स्कर्ट की जेब में देख कर अपने लौड़े में सुरसुराहट महसूस कर लेता।
हर रात चित्रा हाथ से अपनी चूत से खेलती हुई तो मालूम देती ही थी। रोज़ यह भी सोचता कि उससे ऐसी-वैसी बातें करूं भी तो कैसे? एक लड़की से लंड-चूत की बातें करने के लिए तो बहुत हिम्मत से काम लेना पड़ता है,और सही मौक़ा भी तो चाहिए।
लेकिन एक बात तो तय थी, जब भी मेरा हाथ मेरी पैंट की जेब में होता तो उसकी नज़र मेरी पैंट की ज़िप पर और मेरी नज़र उसकी स्कर्ट के अंदर टटोली जा रही चूत पर जाती ही थी।
इसके बाद हम आपस में चाहे कुछ भी बातें ना भी करें, मगर हम दोनों के चेहरे पर एक हल्की सी मुस्कान तो रहती ही थी। मैं बस यही सोचता कि आखिर आगे कुछ बात कैसे और कब की जाए।
मन ही मन यह सोच कर खुश हो लेता था कि उसके चेहरे की हल्की मुस्कान का मतलब भी यही था, कि उसके दिमाग में भी कुछ मेरे साथ मज़े लिए जा सकते हैं यह ज़रूर होगा। और वो भी सोचती होगी कि बड़ी होने के नाते पहल करे भी तो कैसे? और कब, क्योंकि घर में हम दोनों का अकेले होना भी तो ज़रूरी था।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
