12-03-2024, 09:02 PM
कुछ पल तो वे दोनों उसी तरह पड़े रहे। मेरी मां नीचे और घुसा उसके ऊपर। मैं यह भी अच्छी तरह देख सकती थी कि घुसा की जांघों के बीच का विशाल उभार ठीक मेरी मां की जांघों के बीच टिका हुआ था। यह मैं अच्छी तरह से समझ सकती थी कि उस कठोर उभार की चुभन से मेरी मां बिल्कुल भी अनभिज्ञ नहीं थी होगी। यह एक प्रकार से मेरी मां की साड़ी के ऊपर से ही उसकी योनि पर एक दस्तक थी, फिर भी कुछ देर वैसी ही एक पराए मर्द, घुसा जैसे नौकर के नीचे पड़ी रहना क्या दर्शा रहा था? मेरी मां को तो तुरंत घुसा के नीचे से निकल कर उठ जाना चाहिए था लेकिन मेरी मां ने ऐसा नहीं किया, क्यों? उस नादान उम्र में उस वक्त मुझे समझ नहीं आया था लेकिन अब सब समझ सकती हूं।
एक शादी शुदा औरत महीने महीने भर अपने पति से दूर रहती है तो उसकी मनोदशा कैसी रहती है यह मैं बहुत अच्छी तरह से समझती हूं। उस चालीस की उम्र वाली महिला के लिए इतने समय के लिए पति से दूर रहना कितना कष्टकारी हो सकता है यह हम महिलाओं से बेहतर और कौन जान सकता है भला। मेरी मां कोई अपवाद तो थी नहीं और ऐसे कमजोर पलों का फायदा उठाने में घुसा जैसे औरतखोर मर्द कहां पीछे रहने वाले होते हैं। वही स्वर्णिम अवसर इस वक्त घुसा के पास था और वह इस अवसर को कहां हाथ से जाने दे सकता था भला। मेरी मां भले ही एक सम्मानित पद पर काम करने वाली महिला थीं, एक संभ्रांत वर्ग की महिला थी, लेकिन थी तो एक महिला ही। अपनी जिस्म की जरूरत भी तो कोई चीज होती है। मेरी मां की हसरत भरी नजरों का मतलब समझने में घुसा को तनिक भी देर नहीं लगी।
वह अच्छी तरह से जानता था कि बस एक बार मेरी मां के मन से झिझक नाम की दीवार को ढहा दिया जाय तो फिर माल पूरी तरह कब्जे में होगा। बस इस सुनहरे मौके को भुनाने का इससे अच्छा अवसर और कहां मिलता। आधा काम तो कर ही चुका था। बस लोहा को थोड़ा और गरम करना था और फिर हथौड़ा चला देना था।
"ओह, माफ कीजिएगा मैडमजी। आपको कहीं चोट तो नहीं लगी?" कहकर उसने इतने करीब से मेरी मां के शरीर को देखते हुए बोला। उसका एक हाथ मेरी मां की पीठ पर था और दूसरा हाथ अभी भी मेरी मां की खुली जांघ पर था। ऐसी आकस्मिक दुर्घटना में किसका हाथ कहां है, इसपर अगर ध्यान जाए भी तो व्यक्ति इसे हड़बड़ी और बेध्यानी का परिणाम ही समझेगा, और इस समय मेरी मां के साथ यही हुआ था। अबतक जो भी घटना घटित हुआ वह देखने में आकस्मिक था लेकिन मैं अच्छी तरह समझ रही थी कि घुसा ने यह सब जान बूझकर किया था जबकि मेरी मां इसे आकस्मिक घटना मान रही थी। लेकिन उसी स्थिति में मेरी मां का पड़ी रहना क्या दर्शा रहा था? अवश्य उस वक्त मेरी मां को अच्छा लग रहा था।
"न न न नहीं , नहीं, मुझे कहीं कोई चोट नहीं लगी है। मैं ठीक हूं।" घुसा की बात से मानो मेरी मां नींद से जाग उठी और बोली। वह तनिक घबरा भी गयी कि घुसा को उनकी मनोदशा का आभास तो नहीं हो गया है। उधर घुसा जैसा आदमी इतना मूर्ख कैसे हो सकता था कि उसकी बांहों में आई औरत के मन में क्या चल रहा है इस बात को समझ न सके। घुसा ने मेरी मां के चेहरे को देखा, उनकी आंखों को देखा और मेरी मां के देह की भाषा को समझा और उसे समझते देर नहीं लगी कि मेरी मां के अंदर चिंगारी सुलग चुकी है, बस थोड़ी और हवा देकर उस चिंगारी को आग में परिवर्तित करने की देर है कि गरमागरम लजीज व्यंजन उसकी थाली में खुद ब खुद गिर जाती और बोल पड़ती, अब मेहरबानी करके मुझे खा लो।
एक शादी शुदा औरत महीने महीने भर अपने पति से दूर रहती है तो उसकी मनोदशा कैसी रहती है यह मैं बहुत अच्छी तरह से समझती हूं। उस चालीस की उम्र वाली महिला के लिए इतने समय के लिए पति से दूर रहना कितना कष्टकारी हो सकता है यह हम महिलाओं से बेहतर और कौन जान सकता है भला। मेरी मां कोई अपवाद तो थी नहीं और ऐसे कमजोर पलों का फायदा उठाने में घुसा जैसे औरतखोर मर्द कहां पीछे रहने वाले होते हैं। वही स्वर्णिम अवसर इस वक्त घुसा के पास था और वह इस अवसर को कहां हाथ से जाने दे सकता था भला। मेरी मां भले ही एक सम्मानित पद पर काम करने वाली महिला थीं, एक संभ्रांत वर्ग की महिला थी, लेकिन थी तो एक महिला ही। अपनी जिस्म की जरूरत भी तो कोई चीज होती है। मेरी मां की हसरत भरी नजरों का मतलब समझने में घुसा को तनिक भी देर नहीं लगी।
वह अच्छी तरह से जानता था कि बस एक बार मेरी मां के मन से झिझक नाम की दीवार को ढहा दिया जाय तो फिर माल पूरी तरह कब्जे में होगा। बस इस सुनहरे मौके को भुनाने का इससे अच्छा अवसर और कहां मिलता। आधा काम तो कर ही चुका था। बस लोहा को थोड़ा और गरम करना था और फिर हथौड़ा चला देना था।
"ओह, माफ कीजिएगा मैडमजी। आपको कहीं चोट तो नहीं लगी?" कहकर उसने इतने करीब से मेरी मां के शरीर को देखते हुए बोला। उसका एक हाथ मेरी मां की पीठ पर था और दूसरा हाथ अभी भी मेरी मां की खुली जांघ पर था। ऐसी आकस्मिक दुर्घटना में किसका हाथ कहां है, इसपर अगर ध्यान जाए भी तो व्यक्ति इसे हड़बड़ी और बेध्यानी का परिणाम ही समझेगा, और इस समय मेरी मां के साथ यही हुआ था। अबतक जो भी घटना घटित हुआ वह देखने में आकस्मिक था लेकिन मैं अच्छी तरह समझ रही थी कि घुसा ने यह सब जान बूझकर किया था जबकि मेरी मां इसे आकस्मिक घटना मान रही थी। लेकिन उसी स्थिति में मेरी मां का पड़ी रहना क्या दर्शा रहा था? अवश्य उस वक्त मेरी मां को अच्छा लग रहा था।
"न न न नहीं , नहीं, मुझे कहीं कोई चोट नहीं लगी है। मैं ठीक हूं।" घुसा की बात से मानो मेरी मां नींद से जाग उठी और बोली। वह तनिक घबरा भी गयी कि घुसा को उनकी मनोदशा का आभास तो नहीं हो गया है। उधर घुसा जैसा आदमी इतना मूर्ख कैसे हो सकता था कि उसकी बांहों में आई औरत के मन में क्या चल रहा है इस बात को समझ न सके। घुसा ने मेरी मां के चेहरे को देखा, उनकी आंखों को देखा और मेरी मां के देह की भाषा को समझा और उसे समझते देर नहीं लगी कि मेरी मां के अंदर चिंगारी सुलग चुकी है, बस थोड़ी और हवा देकर उस चिंगारी को आग में परिवर्तित करने की देर है कि गरमागरम लजीज व्यंजन उसकी थाली में खुद ब खुद गिर जाती और बोल पड़ती, अब मेहरबानी करके मुझे खा लो।