09-03-2024, 11:31 AM
चित्रा और मैं
जिस्मों की आग
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काफी पुरानी बात है। मैं कक्षा 11 में था, और 18 की उम्र पार करके ही ग्यारहवीं में पहुंचा था। उस उम्र के लगभग सभी लड़कों की तरह मैं भी हर समय काफी हॉर्नी रहता था। क्लास में अपनी पेंसिल या रबर नीचे गिरा देता सिर्फ इसलिए, कि पीछे बैठी लड़की अगर ज़रा भी टांगें चौड़ी करके बैठी हो, तो पेंसिल उठाने के लिए जब झुकूंगा तो उसकी स्कर्ट के नीचे झाँक कर देख सकूं।
ज़्यादातर तो स्कर्ट लम्बी होने की वजह से उसके नीचे दिखता ही नहीं था, या कभी इत्तेफ़ाक़ से सफ़ेद या लाल पैंटी दिख जाती थी। परन्तु इस चक्कर में तो एक बार पीछे बैठी चंद्रा की झांटें दिख गयी थी, जब उसकी पैंटी एक साइड से एक-दम ऊपर उसकी चूत की फांकों के बीच तक खिसक गयी थी। उस दिन मुझसे वही पेंसिल दो बार नीचे गिरी थी।
पापा के ऑफिस चले जाने के बाद छुप कर मम्मी को नंगा नहाते हुए देखने के लिए कभी-कभी कोई बहाना बना कर कॉलेज ना जाता, और उन्हें देख कर लौड़े (जिसे मैं अपना प्यारा मुन्ना कहता हूँ ) को निकाल कर रूमाल में मुठ मार लिया करता था।
ख़ास मज़ा तो मम्मी को अपनी झाटों से भरी चूत धोते हुए देखने में आता था, जब वह टांगें चौड़ी किये हुए पटले पर बैठी अपनी चूत की फांकें अलग करती, और झुक कर लोटे से उस पर पानी डालती थीं। वोह भी क्या दिन थे। चूत से झांटें कोई औरत शेव नहीं करती थी।
और ठीक ही तो है, बिना झांटों के चूत तो एक बेकार सी दरार जैसी ही दिखती है, जैसे किसी बच्ची की। मम्मी की जैसी झांटों से ढकी नंगी चूत का ख्याल आते ही मेरे लौड़े का सुपाड़ा फूल कर लाल हो जाता और उसकी टोपी गीली होने लगती।
एक बात और, घर मैं केवल 2 घंटे के लिए सुबह 6 से 8 तक ही पानी आता था और 7 से 8 तक कम प्रेशर पर, तो हम सब का नहाना सुबह ही हो जाता था। पापा जल्दी ऑफिस चले जाते थे, और मम्मी नहाने के बाद केवल साड़ी लपेट कर बिना ब्लाउज और पेटीकोट पहने किचन में खाना वगैरह के सिलसिले में लगी रहती थी, या कभी अगर नहाई ना होती तो केवल नाइटी में (बिना ब्लाउज और पैंटी के) होती थी।
अक्सर नाइटी पीछे से मम्मी के चूतड़ों के बीच दरार में फंसी होती थी और सामने से बड़े-बड़े मम्मों की क्लीवेज और दोनों नोकीले निप्पल दिखते थे।
बाजार घूमते हुए भी मेरी नज़र हमेशा आंटियों और लड़कियों की चूची और चूतड़ों पर ही रहती थी, और लौड़े को काफी मुश्किल से काबू में रख पाता था।
कुछ औरतों की हिप्स काफी चौड़ी होती, और चलते समय उनके चूतड़ ऊपर-नीचे होते देख तो बड़ा मज़ा आता था। मैंने कई पैंटों में तो जेब में छेद कर लिया था, जिससे कि ज़रुरत पड़ने पर जेब में हाथ डाल कर लौड़ा काबू में कर सकूं।
कभी कभार जब किसी औरत या लड़की को चलते-चलते अनायास अपनी चूत पल भर के लिए खुजाते अगर देख लेता, तो फ़ौरन जेब में हाथ डाल कर थिरकते लंड को संभालना पड़ता था, और उसी समय मुट्ठ मारने को जी करता था।
बेहद इच्छा थी कि कोई काली झांट वाली लड़की नंगी होकर मुझे अपनी चूत अच्छी तरह देखने, छूने, और सूंघने और चाट या चूस लेने दे। और मैं भी उसे अपना लौड़ा और लटकन अच्छी तरह और खूब देर तक सहला लेने दूँ और खूब चुसवाऊँ। पर ये सब ख्याली पुलाव तो तब तक सिर्फ सोच ही में था।
उस ज़माने में औरतों की बाजार वाली पैंटी या मर्दों के अंडरवियर तो थे ही नहीं, घरों के बाहर बाकी कपड़ों के साथ औरतों की लाल या सफ़ेद घर की बनी हुई चड्ढी और मर्दों के ढ़ीले जांघिये सूखा करते थे।
चड्ढी पर अक्सर चूत के पानी का हल्का पीला सा निशान भी नज़र आ जाता था और थोड़े ज्यादा पीले निशान में तो थोड़ी चूत की महक भी मैंने सूंघी थी। ज़ाहिर है, सूंघ कर चेहरे पर मुस्कान और लौड़े मैं सुरसुराहट भी हुई थी, ख्यालों मैं झांटों से भरी चूत जो दिख गयी थी।
ज़्यादातर तो स्कर्ट लम्बी होने की वजह से उसके नीचे दिखता ही नहीं था, या कभी इत्तेफ़ाक़ से सफ़ेद या लाल पैंटी दिख जाती थी। परन्तु इस चक्कर में तो एक बार पीछे बैठी चंद्रा की झांटें दिख गयी थी, जब उसकी पैंटी एक साइड से एक-दम ऊपर उसकी चूत की फांकों के बीच तक खिसक गयी थी। उस दिन मुझसे वही पेंसिल दो बार नीचे गिरी थी।
पापा के ऑफिस चले जाने के बाद छुप कर मम्मी को नंगा नहाते हुए देखने के लिए कभी-कभी कोई बहाना बना कर कॉलेज ना जाता, और उन्हें देख कर लौड़े (जिसे मैं अपना प्यारा मुन्ना कहता हूँ ) को निकाल कर रूमाल में मुठ मार लिया करता था।
ख़ास मज़ा तो मम्मी को अपनी झाटों से भरी चूत धोते हुए देखने में आता था, जब वह टांगें चौड़ी किये हुए पटले पर बैठी अपनी चूत की फांकें अलग करती, और झुक कर लोटे से उस पर पानी डालती थीं। वोह भी क्या दिन थे। चूत से झांटें कोई औरत शेव नहीं करती थी।
और ठीक ही तो है, बिना झांटों के चूत तो एक बेकार सी दरार जैसी ही दिखती है, जैसे किसी बच्ची की। मम्मी की जैसी झांटों से ढकी नंगी चूत का ख्याल आते ही मेरे लौड़े का सुपाड़ा फूल कर लाल हो जाता और उसकी टोपी गीली होने लगती।
एक बात और, घर मैं केवल 2 घंटे के लिए सुबह 6 से 8 तक ही पानी आता था और 7 से 8 तक कम प्रेशर पर, तो हम सब का नहाना सुबह ही हो जाता था। पापा जल्दी ऑफिस चले जाते थे, और मम्मी नहाने के बाद केवल साड़ी लपेट कर बिना ब्लाउज और पेटीकोट पहने किचन में खाना वगैरह के सिलसिले में लगी रहती थी, या कभी अगर नहाई ना होती तो केवल नाइटी में (बिना ब्लाउज और पैंटी के) होती थी।
अक्सर नाइटी पीछे से मम्मी के चूतड़ों के बीच दरार में फंसी होती थी और सामने से बड़े-बड़े मम्मों की क्लीवेज और दोनों नोकीले निप्पल दिखते थे।
बाजार घूमते हुए भी मेरी नज़र हमेशा आंटियों और लड़कियों की चूची और चूतड़ों पर ही रहती थी, और लौड़े को काफी मुश्किल से काबू में रख पाता था।
कुछ औरतों की हिप्स काफी चौड़ी होती, और चलते समय उनके चूतड़ ऊपर-नीचे होते देख तो बड़ा मज़ा आता था। मैंने कई पैंटों में तो जेब में छेद कर लिया था, जिससे कि ज़रुरत पड़ने पर जेब में हाथ डाल कर लौड़ा काबू में कर सकूं।
कभी कभार जब किसी औरत या लड़की को चलते-चलते अनायास अपनी चूत पल भर के लिए खुजाते अगर देख लेता, तो फ़ौरन जेब में हाथ डाल कर थिरकते लंड को संभालना पड़ता था, और उसी समय मुट्ठ मारने को जी करता था।
बेहद इच्छा थी कि कोई काली झांट वाली लड़की नंगी होकर मुझे अपनी चूत अच्छी तरह देखने, छूने, और सूंघने और चाट या चूस लेने दे। और मैं भी उसे अपना लौड़ा और लटकन अच्छी तरह और खूब देर तक सहला लेने दूँ और खूब चुसवाऊँ। पर ये सब ख्याली पुलाव तो तब तक सिर्फ सोच ही में था।
उस ज़माने में औरतों की बाजार वाली पैंटी या मर्दों के अंडरवियर तो थे ही नहीं, घरों के बाहर बाकी कपड़ों के साथ औरतों की लाल या सफ़ेद घर की बनी हुई चड्ढी और मर्दों के ढ़ीले जांघिये सूखा करते थे।
चड्ढी पर अक्सर चूत के पानी का हल्का पीला सा निशान भी नज़र आ जाता था और थोड़े ज्यादा पीले निशान में तो थोड़ी चूत की महक भी मैंने सूंघी थी। ज़ाहिर है, सूंघ कर चेहरे पर मुस्कान और लौड़े मैं सुरसुराहट भी हुई थी, ख्यालों मैं झांटों से भरी चूत जो दिख गयी थी।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.