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Thriller आश्रम के गुरुजी मैं सावित्री – 07
#81
औलाद की चाह

CHAPTER 6 - पांचवा दिन

महायज्ञ की तैयारी-

‘महायज्ञ परिधान'

Update -27

तंत्र ज्ञान





मैं काफ़ी लंबे समय तक पुस्तक से चिपकी रही सबसे पहले पुस्तक में तांत्रिक क्रियाओ के बारे में संक्षेप में बताया था की लिंग पुराण में सृष्टि के नैसर्गिक सामंजस्य का तात्विक ज्ञान भगवान् शिव ने दिया है। सभी ग्रन्थ मनुष्य मात्र के लिए ध्यान योग के अभ्यास से ही आत्मज्ञान पाने का सहज मार्ग दिखलाते हैं ।

  लिंग देव गुरु-जी ने कहा है कि क्रिया की साधना के द्वारा गृहस्थ भी साधू है, और धारण न करने योग्य कर्म ही अधर्म है । मैं लिंग में ही ध्यान करने योग्य हूँ । मुझ से उत्पन्न यह स्त्री जगत की योनी है, प्रकृति है । लिंग  वेदी महा स्त्री  हैं और लिंग स्वयं  लिंग  लिंग देव हैं। पुर अर्थात देह में शयन करने के कारण पुरुष कहा जाता है। मैं पुरुष रूप हूँ और स्त्री प्रकृति है, सब नरों के शरीर में दिव्य रूप से लिंग देव विराजमान हैं, इसमें संदेह नहीं करना चाहिए. सब मनुष्यों का शरीर लिंग देव का दिव्य शरीर है ।शुभ भावना से युक्त योगियों का शरीर तो लिंग देव का साक्षात् शरीर है। जब समरस में स्थित योगी ध्यान यज्ञ में रत होता है तो लिंग देव उसके समीप ही होते हैं" ।

योनी तंत्र के अनुसार (जो माता और लिंग देव का संवाद है)  तीनों शक्तियों का निवास प्रत्येक नारी की योनी में है क्योंकि हर स्त्री  योनी का ही अंश है । दश महाविद्या अर्थात स्त्री के दस पूजनीय रूप भी योनी में निहित है। अतः पुरुष को अपना आध्यात्मिक उत्थान करने के लिए मन्त्र उच्चारण के साथ स्त्री के दस रूपों की अर्चना योनी पूजा द्वारा करनी चाहिए ।

योनी तंत्र में लिंग देव ने स्पष्ट कहा है कि  लिंग देव स्वयं भी योनी पूजा से ही शक्तिमान हुए हैं ।   लिंग देव भी योनी पूजा कर योनी तत्त्व को सादर मस्तक पर धारण करते थे ऐसा योनी तंत्र में कहा गया है क्योंकि बिना योनी की दिव्य उपासना के पुरुष की आध्यात्मिक उन्नति संभव नहीं है । सभी स्त्रियाँ योनी का अंश होने के कारण इस सम्मान की अधिकारिणी हैं" । अतः अपना भविष्य उज्ज्वल चाहने वाले पुरुषों को कभी भी स्त्रियों का तिरस्कार या अपमान नहीं करना चाहिए ।

यह वैज्ञानिक सत्य है कि पुरुष शरीर में निर्मित होने वाले शुक्राणु किसी अज्ञात शक्ति से चालित होकर अंडाणु से संयोग करने के लिए गुरुत्वाकर्षण के नियम का उल्लंघन करके आगे बढ़ते हैं। योग और अध्यात्म विज्ञान के अनुसार शुक्राणु जीव आत्मा होते हैं जो शरीर पाने के लिए अंडाणु से संयोग करने के लिए भागते हैं। इस सत्य से यह सिद्ध होता है कि अरबों खरबों शुक्राणुओं में से किसी दुर्लभ को ही मनुष्य शरीर प्राप्त होता है । इस भयानक संग्राम में विजयी होना निश्चय ही जीव आत्मा की सब से बड़ी उपलब्धि है जो हमारी समरण शक्ति में नहीं टिकती।

योग के अनुसार मानव शरीर प्रकृति के चौबीस तत्वों से बना है जो हैं-पांच ज्ञानेन्द्रियाँ (आँख, नाक, कान, जीभ व त्वचा) , पांच कर्मेन्द्रियाँ (हाथ, पैर, जननेद्रिय, मलमूत्र द्वार और मूंह) , पञ्च कोष (अन्नमय, प्राण मय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय) , पञ्च प्राण (पान, अपान, सामान, उदान, व्यादान) , मन, बुद्धि, चित्त और अहंकार । आत्मा इनका आधार और दृष्टा है और ईश्वर का ही प्रतिबिम्ब है जो दिव्य प्रकाश स्वरूप है जिसका दर्शन ध्यान और समाधि में किसी को भी हो सकता है।

जब तक कोई भी व्यक्ति स्वयं आत्मज्ञान पाने के लिए आत्म ध्यान नहीं करता तब तक कोई ग्रन्थ और गुरु उसका कल्याण नहीं कर सकते यह  लिंग देव ने स्पष्ट रूप से ज्ञान संकलिनी तंत्र में कहा है, -"यह तीर्थ है वह तीर्थ है, ऐसा मान कर पृथ्वी के तीर्थों में केवल तामसी व्यक्ति ही भ्रमण करते हैं। आत्म तीर्थ को जाने बिना मोक्ष कहाँ संभव है?" युद्ध में शर शैय्या पर  यही उपदेश दिया की सब से श्रेष्ठ तीर्थ मनुष्य का अंतःकरण और सब से पवित्र जल आत्मज्ञान ही है ।

इस ज्ञान को धारण कर जब पति पत्नी आध्यात्मिक तादात्म्य स्थापित कर दैहिक सम्बन्ध द्वारा किसी अन्य जीव आत्मा का आव्हान संतान के रूप में करते हैं तो वह सृष्टि के कल्याण के लिए महान यग्य संपन्न करते हैं । इसी ज्ञान को चरितार्थ करने के लिए भगवान् लिंग देव  के पुत्र ने जब विश्व की परिक्रमा करने का आदेश अपने पिताश्री से पाया तो चुप चाप अपने मूषक पर बैठ कर माता-पिता की परिक्रमा कर ली क्योंकि आध्यात्मिक ज्ञान के अनुसार माता पृथ्वी से अधिक गौरवशालिनी और पिता आकाश के सामान व्यापक कहा जाता है ।

 लिंग देव ने ज्ञान दिया है और मनुष्य देह में स्थित चक्रों और आत्मज्योति रूपी परमात्मा के साक्षात्कार का मार्ग बताया है ।स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर प्रत्येक मनुष्य के अस्तित्व में हैं ।सूक्ष्म शारीर में मन और बुद्धि हैं ।मन सदा संकल्प-विकल्प में लगा रहता है; बुद्धि अपने लाभ के लिए मन के सुझावों को तर्क-वितर्क से विश्लेषण करती रहती है । कारण या लिंग शरीर ह्रदय में स्थित होता है जिसमें अहंकार और चित्त मंडल के रूप में दिखाई देते हैं ।

अहंकार अपने को श्रेष्ठ और दूसरों के नीचा दिखने का प्रयास करता है और चित्त पिछले अनेक जन्मोंके घनीभूत अनुभवों, को संस्कार के रूप में संचित रखता है ।आत्मा जो एक ज्योति है इससे परे है किन्तु आत्मा के निकलते ही स्थूल शरीर से सूक्ष्म और कारण शरीर अलग हो जाते हैं ।कारण शरीर को लिंग शरीर भी कहा गया हैं क्योंकि इसमें निहित संस्कार ही आत्मा के अगले शरीर का निर्धारण करते हैं ।

आत्मा से आकाश; आकाश से वायु; वायु से अग्नि ' अग्नि से जल और जल से पृथ्वी की उत्पत्ति शिवजी ने बतायी है ।पिछले कर्म द्वारा प्रेरित जीव आत्मा, वीर्य जो की खाए गए भोजन का सूक्ष्मतम तत्व है, के र्रूप में परिणत हो कर माता के गर्भ में प्रवेश करता है जहाँ मान के स्वभाव के अनुसार उसके नए व्यक्तित्व का निर्माण होता ह। गर्भ में स्थित शिशु अपने हाथों से कानों को बंद करके अपने पूर्व कर्मों को याद करके पीड़ित होता और-और अपने को धिक्कार कर गर्भ से मुक्त होने का प्रयास करता है ।

जन्म लेते ही बाहर की वायु का पान करते ही वह अपने पिछले संस्कार से युक्त होकर पुरानी स्मृतियों को भूल जाता है । शरीर में सात धातु हैं त्वचा, रक्त, मांस, वसा, हड्डी, मज्जा और वीर्य (नर शरीर में) या रज (नारी शरीर में) । देह में नो छिद्र हैं, -दो कान, दो नेत्र, दो नासिका, मुख, गुदा और लिंग ।स्त्री शरीर में दो स्तन और एक भग यानी गर्भ का छिद्र अतिरिक्त छिद्र हैं ।स्त्रियों में बीस पेशियाँ पुरुषों से अधिक होती हैं । उनके वक्ष में दस और भग में दस और पेशियाँ होती हैं ।

योनी में तीन चक्र होते हैं, तीसरे चक्र में गर्भ शैय्या स्थित होती है ।लाल रंग की पेशी वीर्य को जीवन देती है ।शरीर में एक सो सात मर्म स्थान और तीन करोड़ पचास लाख रोम कूप होते हैं ।जो व्यक्ति योग अभ्यास में निरत रहता है वह नाद और तीनों लोकों को सुखपूर्वक जानता और भोगता है । मूल आधार, स्वाधिष्ठान, मणिपूरक, अनाहत, विशुद्ध, आज्ञा और सहस्त्रार नामक साथ ऊर्जा केंद्र शरीर में हैं जिन पर ध्यान का अभ्यास करने से  शक्ति प्राप्त होती है ।

सहस्रार में प्रकाश दीखने पर वहाँ से अमृत वर्षा का-सा आनंद प्राप्त होता है जो मनुष्य शरीर की परम उपलब्धि है । जिसको अपने शरीर में दिव्य आनंद मिलने लगता है वह फिर चाहे भीड़ में रहे या अकेले में; चाहे इन्द्रियों से विषयों को भोगे या आत्म ध्यान का अभ्यास करे उसे सदा परम आनंद और मोह से मुक्ति का अनुभव होता है ।

मनुष्य का शरीर अनु-परमाणुओं के संघटन से बना है । जिस तरह इलेक्ट्रौन, प्रोटोन, सदा गति शील रहते हैं किन्तु प्रकाश एक ऊर्जा मात्र है जो कभी तरंग और कभी कण की तरह व्यवहार करता है उसी तरह आत्म सूर्य के प्रकाश से भी अधिक सूक्ष्म और व्यापक है । यह इस तरह सिद्ध होता है कि सूर्य के प्रकाश को पृथ्वी तक आने में कुछ मिनट लगे हैं जब की मनुष्य उसे आँख खोलते ही देख लेता है ।अतः आत्मा प्रकाश से भी सूक्ष्म है जिसका अनुभव और दर्शन केवल ध्यान के माध्यम से होता है ।

जब तक मन उस आत्मा का साक्षात्कार नहीं कर लेता उसे मोह से मुक्ति नहीं मिल सकती । मोह मनुष्य को भय भीत करता है क्योंकि जो पाया है उसके खोने का भय उसे सताता रहता है जबकि आत्म दर्शन से दिव्य प्रेम की अनुभूति होती है जो व्यक्ति को निर्भय करती है क्योंकि उसे सब के अस्तित्व में उसी दिव्य ज्योति का दर्शन होने लगता है।


[b]जिन्हे इस विषय पर कोई भी आपत्ति है वो इस अंश के लिए योनि तंत्र नामक पुस्तक पढ़े उसे बाद पुस्तक में  पूरी विधि और नियम और गर्भदान की कहानिया विस्तार से समझायी हुई है


कहानी जारी रहेगी[/b]
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RE: आश्रम के गुरुजी मैं सावित्री – 07 - by aamirhydkhan1 - 27-08-2022, 03:27 AM



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