23-08-2022, 05:53 PM
मेरे पैर किवाड़ की ही तरफ थे। बदन में सिहरन-सी दौड़ गई। केले को देखा। वह भी जैसे बालों के बीच मुँह घुसाकर छिपने की कोशिश कर रहा था लेकिन बालों की घनी कालिमा के बीच उसका पीला शरीर एकदम प्रकट दिख रहा था। डर के बीच भी उस दृश्य को देखकर मुझे हँसी आ गई, हालाँकि मन में डर ही व्याप्त था।
लेकिन यौनांगों से उठती पुकार सम्मोहनकारी थी। मैंने बायाँ हाथ डर में ही हटा लिया था। केवल दाहिना हाथ चला रही थी। केला बंद होठों को अपनी मोटाई से ही फैलाता अंदर के कोमल मांस को ऊपर से नीचे तक मालिश कर रहा था। भगनासा के अत्यधिक संवेदनशील स्नायुकेन्द्र पर उसकी रगड़ से चारों ओर के बाल रोमांचित होकर खड़े हो गए थे। स्त्रीत्व के कोमलतम केन्द्र पर केले के नरम कठोर गूदे का टकराव बड़ा मोहक लग रहा था।
कोई निर्जीव वस्तु भी इतने प्यार से प्यार कर सकती है ! आश्चर्य हुआ।
हीना ठीक कहती है, केले का जोड़ नहीं होगा।
मैंने योनि के छेद पर उंगली फिराई। थोड़ा-सा गूदा घिसकर उसमें जमा हो गया था। ‘तुम्हें भी केले का स्वाद लग गया है !’ मैंने उससे हँसी की।
मैंने उस जमे गूदे को उंगली से योनि के अंदर ठेल दिया। थोड़ी सी जो उंगली पर लगी थी उसको उठाकर मुँह में चख भी लिया। एक क्षण को हिचक हुई, लेकिन सोचा नहा-धोकर साफ तो हूँ। वही परिचित मीठा, थोड़ा कसैला स्वाद, लेकिन उसके साथ मिली एक और गंध- योनि के अंदर की मुसाई गंध।
मैंने केले को उठाकर देखा, छिलके के अन्दर मुँह घिस गया था। मैंने छिलका अलग कर फिर से गूदे में नाखून से खोद दिया। देखकर मन में एक मौज-सी आई और मैंने योनि में उंगली घुसाकर कई बार कसकर रगड़ दिया।
उस घर्षण ने मुझे थरथरा दिया और बदन में बिजली की लहरें दौड़ गईं। हूबहू मोटे लिंग-से दिखते उस केले के मुँह को मैंने पुचकार कर चूम लिया।
और उसी क्षण लगा, मन से सारी चिंता निकल गई है, कोई डर या संकोच नहीं।
मैंने बेफिक्र होकर केले को योनि के मुँह पर लगा दिया और उसे रगड़ने लगी। दूसरे हाथ की तर्जनी अपने आप भगांकुर पर घूमने लगी। आनन्द की लहरों में नौका बहने लगी, साँसें तेज होने लगीं। मैंने खुद अपने यौवन कपोतों को तेज तेज उठते बैठते देख मैंने उन्हें एक बार मसल दिया।
मेरा छिद्र एक बड़े घूमते भँवर की तरह केले को अदंर लेने की कोशिश कर रहा था। मैंने केले को थपथपाया, ‘अब और इंतजार की जरूरत नहीं। जाओ ऐश करो।’
मैंने उसे अन्दर दबा दिया। उसका मुँह द्वार को फैलाकर अन्दर उतरने लगा। डर लगा, लेकिन दबाव बनाए रही। उतरते हुए केले के साथ हल्का सा दर्द होने लगा था लेकिन यह दर्द उस मजे में मिलकर उसे और स्वादिष्ट बना रहा था। दर्द ज्यादा लगता तो केले को थोड़ा ऊपर लाती और फिर उसे वापस अन्दर ठेल देती।
धीरे धीरे मुझमें विश्वास आने लगा- कर लूँगी।
जब केला कुछ आश्वस्त होने लायक अन्दर घुस गया तब मैं रुकी, केले का छिलका योनि के ऊपर पत्ते की तरह फैला हुआ था। मेरी देह पसीने-पसीने हो रही थी।
अब और अन्दर नहीं लूँगी, मैंने सोचा। लेकिन पहली बार का रोमांच और योनि का प्रथम फैलाव उतने कम प्रवेश से मानना नहीं चाह रहे थे।
थोड़ा-सा और अन्दर जा सकता है !
अगर ज्यादा अन्दर चला गया तो?
मैं उतने ही पर संतोष करके केले को पिस्टन की तरह चलाने लगी।
आधे अधूरे कौर से मुँह नही भरता, उल्टे चिढ़ होती है। मैंने सोचा, थोड़ा सा और… !
सुरक्षित रखते हुए मैंने गहराई बढ़ाई और फिर उतने ही तक से अन्दर बाहर करने लगी। ऊपर बायाँ हाथ लगातार भग-मर्दन कर रहा था। शरीर में दौड़ते करंट की तीव्रता और बढ़ गई। पहले कभी इस तरह से किया नहीं था। केवल उंगली अन्दर डाली थी, उसमें वो संतोष नहीं हुआ था।
अब समझ में आ रहा था औरत के शरीर की खूबी क्या होती है, हीना क्यों इसके पीछे पागल रहती है। जब केले से इतना अच्छा लग रहा था तो वास्तविक सम्भोग कितना अच्छा लगता होगा !?!
मेरे चेहरे पर खुशी थी। पहली बार यह चिकना-चिकना घर्षण एक नया ही एहसास था, उंगली की रगड़ से अलग, बेकार ही मैं इससे डर रही थी।
मुझे केले के भाग्य से ईर्ष्या होने लगी थी, केला निश्चिंत अन्दर-बाहर हो रहा था। अब उसे योनि से बिछड़ने का डर नहीं था। मैं उसके आवागमन का मजा ले रही थी। केले के बाहर निकलते समय योनि भिंचकर अन्दर खींचने की कोशिश करती। मैं योनि को ढीला कर उसे पुन: अन्दर ठेलती। इन दो विरोधी कोशिशों के बीच केला आराम से आनन्द के झोंके लगा रहा था। मैं धीरे-धीरे सावधानी से उसे थोड़ा थोड़ा और अन्दर उतार रही थी। आनन्द की लहरें ऊँची होती जा रही थीं, भगांकुर पर उंगलियों की हरकत बढ़ रही थी, सनसनाहट बढ़ रही थी और अब किसी अंजाम तक पहुँचने की इच्छा सर उठाने लगी थी।
बहुत अच्छा लग रहा था। जी करता था केले को चूम लूँ। एक बार उसे निकालकर चूम भी लिया और पुन: छेद पर लगा दिया। अन्दर जाते ही शांति मिली। योनि जोर जोर से भिंच रही थी। मैंने अपने कमर की उचक भी महसूस की।
धीरे धीरे करके मैंने आधे से भी अधिक अन्दर उतार दिया। डर लग रहा था, कहीं टूट न जाए। हालाँकि केले में पर्याप्त सख्ती थी। मैं उसे ठीक से पकड़े थी। योनि भिंच-भिंचकर उसे और अन्दर खींचना चाह रही थी। केला भी जैसे पूरा अन्दर जाने के लिए जोर लगा रहा था। मैं भरसक नियंत्रण रखते ही अन्दर बाहर करने की गति बढ़ा रही थी। योनि की कसी चिकनी दीवारों पर आगे पीछे सरकता केला बड़ा ही सुखद अनुभव दे रहा था।
कितना अच्छा लग रहा था !! एक अलग दुनिया में खो रही थी मैं ! एक लय में मेरा हाथ और सांसें और धड़कनें चल रही थीं, तीनों धीरे धीरे तेज हो रहे थे। मैं धरती से मानो ऊपर उठ रही थी। वातावरण में मेरी आह आह की फुसफुसाहटों का संगीत गूंज रहा था। कोई मीठी सी धुन दिमाग में बज रही थी…..
“आज मदहोश हुआ जाए रे मेरा मन, मेरा मन
शरारत करने को ललचाए रे मेरा मन, मेरा मन ….
धीरे धीरे दाहिने हाथ ने स्वत: ही अन्दर-बाहर करने की गति सम्हाल ली। मैं नियंत्रण छोड़कर उसके उसके बहाव में बहने लगी। मैंने बाएँ हाथ से अपने स्तनों को मसलना शुरू कर दिया। उसकी नोकों पर नाइटी के ऊपर से ही उंगलियाँ गड़ाने, उन्हें चुटकी में पकड़कर दबाने की कोशिश करने लगी। योनि में कम्पन सा महसूस होने लगा। गति निरंतर बढ़ रही थी – अन्दर-बाहर, अन्दर-बाहर… सनसनी की ऊँची होती तरंगें …. ‘चट’ ‘चट’ की उत्तेजक आवाज… सुखद घर्षण.. भगनासा पर चोट से उत्पन्न बिजली की लहरें… चरम बिन्दु का क्षितिज कहीं पास दिख रहा था। मैंने उस तक पहुँचने के लिए और जोर लगा दिया …..
कोई लहर आ रही है… कोई मुझे बाँहों में कस ले, मुझे चूर दे…………… ओह……
कि तभी ‘खट : खट : खट’…..
मेरी साँस रुक गई। योनि एकदम से भिंची, झटके से हाथ खींच लिया….
खट खट खट…..
हाथ में केवल डंठल और छिलका था। मैं बदहवास हो गई। अब क्या करूँ?
“पिहू, दरवाजा खोलो !”…. खट खट खट…
मैंने तुरंत नाइटी खींची और उठ खड़ी हुई। केला अन्दर महसूस हो रहा था। चलकर दरवाजे के पास पहुँची और चिटकनी खोल दी।
हीना मेरे उड़े चेहरे को देखकर चौंक पड़ी- क्या बात है?
मैं ठक ! मुँह में बोल नहीं थे।
“क्या हुआ, बोलो ना?”
क्या बोलती? केला अन्दर गड़ रहा था। मैंने सिर झुका लिया। आँखें डबडबा आईं।
हीना घबराई, कुछ गड़बड़ है, कमरे में खोजने लगी। केले का छिलका बिस्तर पर पड़ा था। नाश्ते की दोनों प्लेटें एक साथ स्टडी टेबल पर रखी थीं।
“क्या बात है? कुछ बोलती क्यों नहीं?”
मेरा घबराया चेहरा देखकर संयमित हुई,”आओ, पहले बैठो, घबराओ नहीं।”
मेरा कंधा पकड़कर लाई और बिस्तर पर बिठा दिया। मैं किंचित जांघें फैलाए चल रही थी और फैलाए ही बैठी।
“अब बोलो, क्या बात है?”
मैंने भगवान से अत्यंत आर्त प्रार्थना की- प्रभो ….. बचा लो।
अचानक उसके दिमाग में कुछ कौंधा। उसने मेरी चाल और बैठने के तरीके में कुछ फर्क महसूस किया था। केले का छिलका उठाकर बोली, “क्या मामला है?”
मैं एकदम शर्म से गड़ गई, सिर एकदम झुका लिया, आँसू की बूंदें नाइटी पर टपक पड़ी।
“अन्दर रह गया है?”
मैंने हथेलियों में चेहरा छिपा लिया। बदन को संभालने की ताकत नहीं रही। बिस्तर पर गिर पड़ी।
हीना ठठाकर हँस पड़ी।
“मिस पिहू, आपसे तो ऐसी उम्मीद नहीं थी। आप तो बड़ी सुशील, मर्यादित और सो कॉल्ड क्या क्या हैं?” उसकी हँसी बढ़ने लगी।
मुझे गुस्सा आ गया- बेदर्द लड़की ! मैं इतनी बड़ी मुश्किल में हूँ और तुम हँस रही हो?
“हँसूं न तो क्या करूँ? मुझसे तो बड़ी बड़ी बातें कहती हो, खुद ऐसा कैसे कर लिया?”
मैंने शर्म और गुस्से से मुँह फेर लिया।
लेकिन यौनांगों से उठती पुकार सम्मोहनकारी थी। मैंने बायाँ हाथ डर में ही हटा लिया था। केवल दाहिना हाथ चला रही थी। केला बंद होठों को अपनी मोटाई से ही फैलाता अंदर के कोमल मांस को ऊपर से नीचे तक मालिश कर रहा था। भगनासा के अत्यधिक संवेदनशील स्नायुकेन्द्र पर उसकी रगड़ से चारों ओर के बाल रोमांचित होकर खड़े हो गए थे। स्त्रीत्व के कोमलतम केन्द्र पर केले के नरम कठोर गूदे का टकराव बड़ा मोहक लग रहा था।
कोई निर्जीव वस्तु भी इतने प्यार से प्यार कर सकती है ! आश्चर्य हुआ।
हीना ठीक कहती है, केले का जोड़ नहीं होगा।
मैंने योनि के छेद पर उंगली फिराई। थोड़ा-सा गूदा घिसकर उसमें जमा हो गया था। ‘तुम्हें भी केले का स्वाद लग गया है !’ मैंने उससे हँसी की।
मैंने उस जमे गूदे को उंगली से योनि के अंदर ठेल दिया। थोड़ी सी जो उंगली पर लगी थी उसको उठाकर मुँह में चख भी लिया। एक क्षण को हिचक हुई, लेकिन सोचा नहा-धोकर साफ तो हूँ। वही परिचित मीठा, थोड़ा कसैला स्वाद, लेकिन उसके साथ मिली एक और गंध- योनि के अंदर की मुसाई गंध।
मैंने केले को उठाकर देखा, छिलके के अन्दर मुँह घिस गया था। मैंने छिलका अलग कर फिर से गूदे में नाखून से खोद दिया। देखकर मन में एक मौज-सी आई और मैंने योनि में उंगली घुसाकर कई बार कसकर रगड़ दिया।
उस घर्षण ने मुझे थरथरा दिया और बदन में बिजली की लहरें दौड़ गईं। हूबहू मोटे लिंग-से दिखते उस केले के मुँह को मैंने पुचकार कर चूम लिया।
और उसी क्षण लगा, मन से सारी चिंता निकल गई है, कोई डर या संकोच नहीं।
मैंने बेफिक्र होकर केले को योनि के मुँह पर लगा दिया और उसे रगड़ने लगी। दूसरे हाथ की तर्जनी अपने आप भगांकुर पर घूमने लगी। आनन्द की लहरों में नौका बहने लगी, साँसें तेज होने लगीं। मैंने खुद अपने यौवन कपोतों को तेज तेज उठते बैठते देख मैंने उन्हें एक बार मसल दिया।
मेरा छिद्र एक बड़े घूमते भँवर की तरह केले को अदंर लेने की कोशिश कर रहा था। मैंने केले को थपथपाया, ‘अब और इंतजार की जरूरत नहीं। जाओ ऐश करो।’
मैंने उसे अन्दर दबा दिया। उसका मुँह द्वार को फैलाकर अन्दर उतरने लगा। डर लगा, लेकिन दबाव बनाए रही। उतरते हुए केले के साथ हल्का सा दर्द होने लगा था लेकिन यह दर्द उस मजे में मिलकर उसे और स्वादिष्ट बना रहा था। दर्द ज्यादा लगता तो केले को थोड़ा ऊपर लाती और फिर उसे वापस अन्दर ठेल देती।
धीरे धीरे मुझमें विश्वास आने लगा- कर लूँगी।
जब केला कुछ आश्वस्त होने लायक अन्दर घुस गया तब मैं रुकी, केले का छिलका योनि के ऊपर पत्ते की तरह फैला हुआ था। मेरी देह पसीने-पसीने हो रही थी।
अब और अन्दर नहीं लूँगी, मैंने सोचा। लेकिन पहली बार का रोमांच और योनि का प्रथम फैलाव उतने कम प्रवेश से मानना नहीं चाह रहे थे।
थोड़ा-सा और अन्दर जा सकता है !
अगर ज्यादा अन्दर चला गया तो?
मैं उतने ही पर संतोष करके केले को पिस्टन की तरह चलाने लगी।
आधे अधूरे कौर से मुँह नही भरता, उल्टे चिढ़ होती है। मैंने सोचा, थोड़ा सा और… !
सुरक्षित रखते हुए मैंने गहराई बढ़ाई और फिर उतने ही तक से अन्दर बाहर करने लगी। ऊपर बायाँ हाथ लगातार भग-मर्दन कर रहा था। शरीर में दौड़ते करंट की तीव्रता और बढ़ गई। पहले कभी इस तरह से किया नहीं था। केवल उंगली अन्दर डाली थी, उसमें वो संतोष नहीं हुआ था।
अब समझ में आ रहा था औरत के शरीर की खूबी क्या होती है, हीना क्यों इसके पीछे पागल रहती है। जब केले से इतना अच्छा लग रहा था तो वास्तविक सम्भोग कितना अच्छा लगता होगा !?!
मेरे चेहरे पर खुशी थी। पहली बार यह चिकना-चिकना घर्षण एक नया ही एहसास था, उंगली की रगड़ से अलग, बेकार ही मैं इससे डर रही थी।
मुझे केले के भाग्य से ईर्ष्या होने लगी थी, केला निश्चिंत अन्दर-बाहर हो रहा था। अब उसे योनि से बिछड़ने का डर नहीं था। मैं उसके आवागमन का मजा ले रही थी। केले के बाहर निकलते समय योनि भिंचकर अन्दर खींचने की कोशिश करती। मैं योनि को ढीला कर उसे पुन: अन्दर ठेलती। इन दो विरोधी कोशिशों के बीच केला आराम से आनन्द के झोंके लगा रहा था। मैं धीरे-धीरे सावधानी से उसे थोड़ा थोड़ा और अन्दर उतार रही थी। आनन्द की लहरें ऊँची होती जा रही थीं, भगांकुर पर उंगलियों की हरकत बढ़ रही थी, सनसनाहट बढ़ रही थी और अब किसी अंजाम तक पहुँचने की इच्छा सर उठाने लगी थी।
बहुत अच्छा लग रहा था। जी करता था केले को चूम लूँ। एक बार उसे निकालकर चूम भी लिया और पुन: छेद पर लगा दिया। अन्दर जाते ही शांति मिली। योनि जोर जोर से भिंच रही थी। मैंने अपने कमर की उचक भी महसूस की।
धीरे धीरे करके मैंने आधे से भी अधिक अन्दर उतार दिया। डर लग रहा था, कहीं टूट न जाए। हालाँकि केले में पर्याप्त सख्ती थी। मैं उसे ठीक से पकड़े थी। योनि भिंच-भिंचकर उसे और अन्दर खींचना चाह रही थी। केला भी जैसे पूरा अन्दर जाने के लिए जोर लगा रहा था। मैं भरसक नियंत्रण रखते ही अन्दर बाहर करने की गति बढ़ा रही थी। योनि की कसी चिकनी दीवारों पर आगे पीछे सरकता केला बड़ा ही सुखद अनुभव दे रहा था।
कितना अच्छा लग रहा था !! एक अलग दुनिया में खो रही थी मैं ! एक लय में मेरा हाथ और सांसें और धड़कनें चल रही थीं, तीनों धीरे धीरे तेज हो रहे थे। मैं धरती से मानो ऊपर उठ रही थी। वातावरण में मेरी आह आह की फुसफुसाहटों का संगीत गूंज रहा था। कोई मीठी सी धुन दिमाग में बज रही थी…..
“आज मदहोश हुआ जाए रे मेरा मन, मेरा मन
शरारत करने को ललचाए रे मेरा मन, मेरा मन ….
धीरे धीरे दाहिने हाथ ने स्वत: ही अन्दर-बाहर करने की गति सम्हाल ली। मैं नियंत्रण छोड़कर उसके उसके बहाव में बहने लगी। मैंने बाएँ हाथ से अपने स्तनों को मसलना शुरू कर दिया। उसकी नोकों पर नाइटी के ऊपर से ही उंगलियाँ गड़ाने, उन्हें चुटकी में पकड़कर दबाने की कोशिश करने लगी। योनि में कम्पन सा महसूस होने लगा। गति निरंतर बढ़ रही थी – अन्दर-बाहर, अन्दर-बाहर… सनसनी की ऊँची होती तरंगें …. ‘चट’ ‘चट’ की उत्तेजक आवाज… सुखद घर्षण.. भगनासा पर चोट से उत्पन्न बिजली की लहरें… चरम बिन्दु का क्षितिज कहीं पास दिख रहा था। मैंने उस तक पहुँचने के लिए और जोर लगा दिया …..
कोई लहर आ रही है… कोई मुझे बाँहों में कस ले, मुझे चूर दे…………… ओह……
कि तभी ‘खट : खट : खट’…..
मेरी साँस रुक गई। योनि एकदम से भिंची, झटके से हाथ खींच लिया….
खट खट खट…..
हाथ में केवल डंठल और छिलका था। मैं बदहवास हो गई। अब क्या करूँ?
“पिहू, दरवाजा खोलो !”…. खट खट खट…
मैंने तुरंत नाइटी खींची और उठ खड़ी हुई। केला अन्दर महसूस हो रहा था। चलकर दरवाजे के पास पहुँची और चिटकनी खोल दी।
हीना मेरे उड़े चेहरे को देखकर चौंक पड़ी- क्या बात है?
मैं ठक ! मुँह में बोल नहीं थे।
“क्या हुआ, बोलो ना?”
क्या बोलती? केला अन्दर गड़ रहा था। मैंने सिर झुका लिया। आँखें डबडबा आईं।
हीना घबराई, कुछ गड़बड़ है, कमरे में खोजने लगी। केले का छिलका बिस्तर पर पड़ा था। नाश्ते की दोनों प्लेटें एक साथ स्टडी टेबल पर रखी थीं।
“क्या बात है? कुछ बोलती क्यों नहीं?”
मेरा घबराया चेहरा देखकर संयमित हुई,”आओ, पहले बैठो, घबराओ नहीं।”
मेरा कंधा पकड़कर लाई और बिस्तर पर बिठा दिया। मैं किंचित जांघें फैलाए चल रही थी और फैलाए ही बैठी।
“अब बोलो, क्या बात है?”
मैंने भगवान से अत्यंत आर्त प्रार्थना की- प्रभो ….. बचा लो।
अचानक उसके दिमाग में कुछ कौंधा। उसने मेरी चाल और बैठने के तरीके में कुछ फर्क महसूस किया था। केले का छिलका उठाकर बोली, “क्या मामला है?”
मैं एकदम शर्म से गड़ गई, सिर एकदम झुका लिया, आँसू की बूंदें नाइटी पर टपक पड़ी।
“अन्दर रह गया है?”
मैंने हथेलियों में चेहरा छिपा लिया। बदन को संभालने की ताकत नहीं रही। बिस्तर पर गिर पड़ी।
हीना ठठाकर हँस पड़ी।
“मिस पिहू, आपसे तो ऐसी उम्मीद नहीं थी। आप तो बड़ी सुशील, मर्यादित और सो कॉल्ड क्या क्या हैं?” उसकी हँसी बढ़ने लगी।
मुझे गुस्सा आ गया- बेदर्द लड़की ! मैं इतनी बड़ी मुश्किल में हूँ और तुम हँस रही हो?
“हँसूं न तो क्या करूँ? मुझसे तो बड़ी बड़ी बातें कहती हो, खुद ऐसा कैसे कर लिया?”
मैंने शर्म और गुस्से से मुँह फेर लिया।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
