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मुंशी प्रेमचंद्र की कहानियाँ
#14
यह सब तुम्हारा प्रसाद है। सत्तर चूहे खाके बिल्ली हज को चली ! कितनी बेवफा जात है। ऐसों को तो गोली मार दे। जिस पर सारा घर लुटा दिया, जिसके पीछे सारे शहर में बदनाम हुआ, वह आज मुझे उपदेश करने चली है ! जरूर इसमें कोई-न-कोई रहस्य है। कोई नया शिकार फँसा होगा; मगर मुझसे भागकर जायगी कहाँ, ढूँढ़ न निकालूँ तो नाम नहीं। कम्बख्त कैसी प्रेम-भरी बातें करती थी कि मुझ पर घड़ों नशा चढ़ जाता था। बस, कोई नया शिकार फँस गया। यह बात न हो, मूँछ मुड़ा लूँ।

दयाकृष्ण उसके सफाचट चेहरे की ओर देखकर मुस्कराया तुम्हारी मूँछें तो पहले ही मुड़ चुकी हैं। इस हलके-से विनोद ने जैसे सिंगारसिंह के घाव पर मरहम रख दिया। वह बे-सरो-सामान घर, वह फटा फर्श, वे टूटी-फूटी चीज़ें देखकर उसे दयाकृष्ण पर दया आ गयी। चोट की तिलमिलाहट में वह जवाब देने के लिए ईंट-पत्थर ढूँढ़ रहा था; पर अब चोट ठण्डी पड़ गयी थी और दर्द घनीभूत हो रहा था।

दर्द के साथ-साथ सौहार्द भी जाग रहा था। जब आग ही ठंडी हो गयी तो धुआँ कहाँ से आता ?
उसने पूछा, सच कहना, तुमसे भी कभी प्रेम की बातें करती थी ?
दयाकृष्ण ने मुस्कराते हुए कहा, मुझसे ? मैं तो खाली उसकी सूरत देखने जाता था।
'सूरत देखकर दिल पर काबू तो नहीं रहता।'
'यह तो अपनी-अपनी रुचि है।'
'है मोहनी, देखते ही कलेजे पर छुरी चल जाती है।'
'मेरे कलेजे पर तो कभी छुरी नहीं चली। यही इच्छा होती थी कि इसके पैरों पर गिर पङूँ।'
'इसी शायरी ने तो यह अनर्थ किया। तुम-जैसे बुद्धुओं को किसी देहातिन से शादी करके रहना चाहिए। चले थे वेश्या से प्रेम करने !'
एक क्षण के बाद उसने फिर कहा, मगर है बेवफा, मक्कार !
'तुमने उससे वफा की आशा की, मुझे तो यही अफसोस है।'
'तुमने वह दिल ही नहीं पाया, तुमसे क्या कहूँ।'
एक मिनट के बाद उसने सह्रदय-भाव से कहा, अपने पत्र में उसने बातें तो सच्ची लिखी हैं, चाहे कोई माने या न माने ? सौन्दर्य को बाजारू चीज समझना कुछ बहुत अच्छी बात तो नहीं है।
दयाकृष्ण ने पुचारा दिया, ज़ब स्त्री अपना रूप बेचती है, तो उसके खरीदार भी निकल आते हैं। फिर यहाँ तो कितनी ही जातियाँ हैं, जिनका यही पेशा है।
'यह पेशा चला कैसे ?'
‘स्त्रियों की दुर्बलता से।'
'नहीं, मैं समझता हूँ, बिस्मिल्लाह पुरुषों ने की होगी।'
इसके बाद एकाएक जेब से घड़ी निकालकर देखता हुआ बोला, ओहो !
दो बज गये और अभी मैं यहीं बैठा हूँ। आज शाम को मेरे यहाँ खाना खाना।
जरा इस विषय पर बातें होंगी। अभी तो उसे ढूँढ़ निकालना है। वह है कहीं इसी शहर में। घरवालों से भी कुछ नहीं कहा,। बुढ़िया नायका सिर पीट रही थी। उस्तादजी अपनी तकदीर को रो रहे थे। न-जाने कहाँ जाकर छिप रही।
उसने उठकर दयाकृष्ण से हाथ मिलाया और चला।
दयाकृष्ण ने पूछा, मेरी तरफ से तो तुम्हारा दिल साफ हो गया ?
सिंगार ने पीछे फिरकर कहा, हुआ भी और नहीं भी हुआ। और बाहर निकल गया।
सात-आठ दिन तक सिंगारसिंह ने सारा शहर छाना, सिक्युरिटी में रिपोर्ट की, समाचारपत्रों में नोटिस छपायी, अपने आदमी दौड़ाये; लेकिन माधुरी का कुछ भी सुराग न मिला कि फिर महफिल गर्म होती। मित्रवृन्द सुबह-शाम हाजिरी देने आते और अपना-सा मुँह लेकर लौट जाते। सिंगार के पास उनके साथ गप-शप करने का समय न था।

गरमी के दिन, सजा हुआ कमरा भट्ठी बना हुआ था। खस की टट्टियाँ भी थीं, पंखा भी; लेकिन गरमी जैसे किसी के समझाने-बुझाने की परवाह नहीं करना चाहती, अपने दिल का बुखार निकालकर ही रहेगी।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



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RE: मुंशी प्रेमचंद्र की कहानियाँ - by neerathemall - 16-08-2022, 01:37 PM



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