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Thriller सिंदबाद जहाजी की पाँचवीं यात्रा
#32
किंतु खुले समुद्र में आकर भी हमें चैन न मिला। तेज हवा हमारी छोटी-सी नाव को तिनके की तरह पानी पर उछालने लगी। चौबीस घंटे हम इसी दशा में रहे। फिर हमारी नाव एक द्वीप में पहुँच गई। हम लोग प्रसन्नतापूर्वक उस द्वीप पर उतरे और तट पर लगे पेड़ों से पेट भर फल खाने के बाद हमारे शरीरों में कुछ शक्ति आई। रात को हम लोग समुद्र के तट ही पर सो रहे। अचानक एक जोर की सरसराहट से नींद खुली तो मैंने देखा कि एक साँप जो नारियल के पेड़ जितना लंबा था हमारे एक साथी को खाए जाता है। उसने पहले हमारे साथी के शरीर को चारों ओर से कस कर तोड़ डाला फिर उसे निगल गया। कुछ देर में साँप ने उसकी हड्डियाँ उगल दीं और चला गया। हम दो बचे हुए आदमियों ने बड़े दुख और चिंता में रात बिताई। कितनी मुश्किलों से राक्षस से छूटे थे तो यह मुसीबत आ गई जिससे छुटकारा ही नहीं दिखाई देता था। दिन में हमने फल खाकर गुजारा किया। शाम तक हमने अपने बचने के लिए एक पेड़ खोज लिया था। और रात होते ही उस पर चढ़ गए।

मैं तो वृक्ष पर काफी ऊँचे पहुँच गया था किंतु मेरा साथी उतने ऊँचे न जा सका और नीचे की एक मोटी डाल पर लेट गया। साँप फिर रात को आया। पेड़ की जड़ पर पहुँच कर उसने अपना शरीर ऊँचा किया और मेरे साथी को पकड़ कर खा गया और फिर वहाँ से चला गया। मैं सारी रात भय से अधमरा-सा रहा। सूर्योदय होने पर मैं पेड़ से उतरा और फिर कुछ फल आदि खाकर पेट भरा। मुझे विश्वास था कि आज मैं अवश्य ही उस साँप का ग्रास बनूँगा क्योंकि उसने मुझे देख तो लिया ही है। मैंने काफी सोच-विचार के बाद यह तरकीब निकाली कि पेड़ के चारों ओर ढेर सारी कँटीली झाड़ियाँ रख दीं और ऊपर भी काँटों की ऐसी ओट कर ली कि किसी को दिखाई न दूँ।
रात को साँप आया। वह झाड़ियों के कारण पेड़ की जड़ तक न पहुँच पाया किंतु सारी रात घात लगाकर बैठा रहा। सवेरे वह चला गया। मैं रातों की जगाई और जान के डर और रात भर साँप की फुँफकार सुनने से इतना अशक्त और निराश हो गया था कि सोचने लगा कि ऐसे जीने से तो समुद्र में डूब जाना अच्छा है। इसी इरादे से समुद्र तट पर गया। किंतु सौभाग्यवश किनारे कुछ ही दूर पर एक जहाज दिखाई दिया। मैंने चिल्लाकर आवाज देना और पगड़ी को हवा में हिलाना शुरू किया। जहाज के लोगों ने मुझे देखा और कप्तान ने एक नाव भेजकर मुझे जहाज पर चढ़ा लिया।

वे लोग मुझसे पूछने लगे कि मैं उस द्वीप में कैसे पहुँचा। एक बूढ़े आदमी ने कहा कि, 'मुझे आश्चर्य है कि तुम जीवित किस तरह बचे हो। मैंने तो सुना है कि इन द्वीपों में नरभक्षी राक्षस रहते हैं जो आदमियों को भूनकर खाते हैं। इसके अलावा यहाँ विशालकाय सर्प भी हैं जो दिन में गुफाओं में सोते रहते हैं और रात में शिकार के लिए निकलते हैं और कोई आदमी पाते हैं तो उसे निगल जाते हैं।'

मैं उनकी बातों का उत्तर न दे सका क्योंकि भूख और जगाई के कारण निढाल हो रहा था। उन्होंने मुझे भोजन कराया और चूँकि मेरे वस्त्र तार-तार हो रहे थे इसलिए एक जोड़ा कपड़ा भी मुझे दिया। फिर मैंने विस्तारपूर्वक अपनी विपत्तियों का वर्णन किया और बताया कि किस प्रकार राक्षस और साँप से बचा। सबने कहा कि तुम पर भगवान की बड़ी कृपा है जिससे तुम जीवित बच रहे।

हम लोगों का जहाज सिलहट द्वीप में पहुँचा जहाँ चंदन होता है जो बहुत-सी दवाओं में डाला जाता है। जहाज ने वहाँ लंगर डाला और व्यापारीगण अपना सामान लेकर द्वीप पर क्रय-विक्रय करने के लिए उतर गए। कप्तान ने मुझसे कहा, 'भाई, तुम बगदाद के निवासी हो। वहाँ के एक व्यापारी का बहुत-सा माल बहुत दिनों से मेरे जहाज पर पड़ा है। तुम उसकी गठरियाँ ले जाकर उसके स्त्री-बच्चों को दे देना। मैं चिट्ठी लिख दूँगा तो वे लोग तुम्हारी लदान की मजदूरी दे देंगे।'

मैंने उसको धन्यवाद दिया कि उसने मुझे काम तो दिलाया। उसने अपने लिपिक से कहा कि उस व्यापारी का माल इस आदमी को सौंप दे।

लिपिक ने पूछा कि उस व्यापारी का नाम क्या था। कप्तान ने कहा कि माल का मालिक सिंदबाद जहाजी था। मुझे इस बात पर इतना आश्चर्य हुआ कि कप्तान का मुँह देखने लगा। कुछ देर में मैंने पहचाना कि मेरी दूसरी यात्रा में भी जहाज का कप्तान यही था। उस द्वीप पर मुझे सोता हुआ छोड़कर मेरे साथी जहाज पर चले गए थे और सभी ने समझ लिया था कि मैं कहीं मर खप-गया हूँ। यद्यपि इस घटना को बहुत दिन नहीं हुए थे तथापि इधर लगातार पड़ने वाली विपत्तियों के कारण मेरे चेहरे का रंग और नक्श इतने बदल गए थे कि कप्तान मुझे पहचान नहीं सका।

मैंने पूछा कि यह सामान क्या सिंदबाद जहाजी का है। कप्तान ने कहा, 'यह सामान निःसंदेह सिंदबाद का है। वह बगदाद का निवासी था और बसरा बंदरगाह से हमारे जहाज पर माल लेकर चढ़ा था। एक दिन हम लोग एक द्वीप पर पहुँचे और जहाज का लंगर डाला ताकि द्वीप से लेकर मीठा पानी जहाज पर भर लें। कई व्यापारी भी घूमने-फिरने को उतर गए। उनमें सिंदबाद भी था। कुछ देर में अन्य लोग तो जहाज पर आ गए लेकिन सिंदबाद न आया। मैंने चार घड़ी तक उसकी राह देखी किंतु जब हवा अनुकूल देखी तो मैंने पाल खोल दिए और जहाज को आगे बढ़ा दिया।'

मैंने पूछा कि तुम्हें क्या पूरा विश्वास है कि सिंदबाद मर गया है। कप्तान ने कहा कि मुझे इसमें कोई संदेह नहीं हैं कि सिंदबाद अब दुनिया में नहीं है। मैंने उससे कहा, 'तुम मुझे पूरे ध्यान से देखो और पहचानो कि मैं ही सिंदबाद हूँ कि नहीं। हुआ यह था कि द्वीप पर उतर कर मैं एक स्रोत के निकट खा-पीकर गहरी नींद सो गया था। मेरे साथियों ने मुझे जगाया ही नहीं। शायद उन्हें यह मालूम भी न था कि मैं कहाँ सो रहा हूँ। जब मेरी आँख खुली ओर मैं समुद्र तट पर पहुँचा तो देखा कि तुम्हारा जहाज दूर चला गया है।'

कप्तान ने यह सुनकर मुझे ध्यानपूर्वक देखा और मुझे पहचान गया। उसने मुझे गले लगाया और भगवान को धन्यवाद दिया कि मैं जीवित हूँ हालाँकि मुझे मरा हुआ समझ रहा था। उसने कहा, 'तुम्हारे माल को भी मैंने हर जगह व्यापार में लगाया और इस पर हर सौदे में मुनाफा हुआ है। अब मैं तुम्हारे माल को तुम्हारे मुनाफे के साथ तुम्हें सौंपता हूँ।' यह कहकर उसने मुझे मेरी गठरियाँ सौंप दीं और वह नगद राशि भी दे दी जो मेरे माल के व्यापार के लाभ के रूप में उसके पास थी। मुझे यह सब मिलने की कोई आशा नहीं थी और मैंने भगवान को लाख-लाख धन्यवाद दिया।

फिर हमारा जहाज सिलहट द्वीप से अन्य द्वीपों में गया जहाँ से हमने लौंग, दारचीनी आदि खरीदा। हमने दूर-दूर की यात्रा की। एक जगह हमने इतने बड़े कछुए देखे जिनकी लंबाई चौड़ाई पचास-पचास हाथ की थी और अजीब मछलियाँ भी जो गाय की तरह दूध देती हैं। कछुओं का चमड़ा बहुत कड़ा होता है, उसकी ढालें बनाई जाती हैं। हमने एक और अजीब किस्म की मछलियाँ देखीं। इसका रंग और मुँह ऊँट जैसा होता है। घूमते-फिरते हमारा जहाज बसरा के बंदरगाह में आया। वहाँ से मैं बगदाद आ गया।

मैं कुशल-क्षेम से अपने घर आने पर भगवान को लाख-लाख धन्यवाद दिया। इस खुशी में मैंने बहुत-सा धन भिखारियों को तथा निर्धनों के सहायतार्थ दिया। इस यात्रा में मुझे इतना लाभ हुआ कि जिसकी गिनती नहीं की जा सकती। मैंने दान आदि करने के अतिरिक्त कई सुंदर भवन तथा आराम-आसाइश की चीजें भी खरीदीं।

तीसरी समुद्र यात्रा का वर्णन करने के बाद सिंहबाद ने हिंदबाद को चार सौ दीनारें दीं। उससे यह भी कहा कि कल तुम फिर इसी समय आना और तब मैं तुम्हें अपनी चौथी यात्रा का हाल सुनाऊँगा। चुनांचे सिंदबाद तथा अन्य उपस्थित लोग सिंदबाद के घर से विदा हुए। दूसरे दिन निश्चित समय पर सब लोग आए और भोजनोपरांत सिंदबाद ने कहना शुरू किया।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी  हम अकेले हैं.



thanks
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RE: सिंदबाद जहाजी की पाँचवीं यात्रा - by neerathemall - 16-08-2022, 01:25 PM



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