16-08-2022, 01:09 PM
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सिंदबाद जहाजी की छठी यात्रा ~ अलिफ लैला
0 Nisheeth Ranjan
सिंदबाद ने हिंदबाद और अन्य लोगों से कि आप लोग स्वयं ही सोच सकते हैं कि मुझ पर कैसी मुसीबतें पड़ीं और साथ ही मुझे कितना धन प्राप्त हुआ। मुझे स्वयं इस पर आश्चर्य होता था। एक वर्ष बाद मुझ पर फिर यात्रा का उन्माद चढ़ा। मेरे सगे-संबंधियों ने मुझे बहुत रोका किंतु मैं न माना। आरंभ में मैंने बहुत-सी यात्रा थल मार्ग से की और फारस के कई नगरों में जाकर व्यापार किया। फिर एक बंदरगाह पर एक जहाज पर बैठा और नई समुद्र यात्रा शुरू की।
कप्तान की योजना तो लंबी यात्रा पर जाने की थी किंतु वह कुछ समय बाद रास्ता भूल गया। वह बराबर अपनी यात्रा पुस्तकों और नक्शों को देखा करता था ताकि उसे यह पता चले कि कहाँ है। एक दिन वह पुस्तक पढ़ कर रोने-चिल्लाने लगा। उसने पगड़ी फेंक दी और बाल नोचने लगा। हमने पूछा कि तुम्हें यह क्या हो गया है, तो उसने कुछ देर में बताया कि यहाँ एक समुद्री धारा हमें एक ओर लिए जाती हैं, वह हमें एक तट पर ऐसा पटकेगी कि हमारा जहाज टूट जाएगा और हम सब उसी तट पर मर जाएँगे। यह कहकर उसने जहाज के पाल उतरवा दिए।
उससे कुछ न हुआ। धारा के वेग से उछल कर जहाज पहाड़ी से टकराया और शीशे की तरह बिखर गया। चूँकि तट ही पर यह हुआ था इसीलिए हम लोग खाद्य सामग्री और अन्य सामान किनारे पर ले आए। कप्तान ने कहा 'भाग्य पर किसी का वश नहीं है। अब हम सब लोग एक-दूसरे के गले लगकर रो लें और अपनी-अपनी कब्रें खोद लें क्योंकि यहाँ से कोई बचकर नही गया है।' यह सुनकर हम लोग एक-दूसरे के गले लगकर रोने लगे क्योंकि हमने देखा कि किनारे पर दूर-दूर तक जहाजों के टुकड़े और मानव कंकाल बिखरे पड़े थे। मालूम होता था कि हजारों यात्री वहाँ आकर मर गए हैं। चारों ओर उनके व्यापार की वस्तुएँ बिखरी पड़ी थीं।
उस पहाड़ पर बिल्लौर और लाल की खदान थीं। पास ही कई नदियाँ एक स्थान पर मिलकर एक गुफा के अंदर जाती थीं। उस पहाड़ से राल टपक कर समुद्र में गिरती थी और मछलियाँ उसे खाकर कुछ समय बाद उसे उगल देती थीं। वही अभ्रक बन जाती थी। उस अभ्रक के ढेर भी वहाँ थे। समुद्र में समुद्री धारा से बचना इसीलिए असंभव था कि पहाड़ की ऊँचाई के कारण जहाजों को विपरीत दिशा में खींच ले जाने वाली तेज हवा रुक जाती थी। पहाड़ इतना ऊँचा था कि उस पर चढ़कर दूसरी ओर जा निकलना भी असंभव था।
हम लोग अपने दुर्भाग्य पर रोते रहे और अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा करते रहे। जहाज पर से लाया हुआ खाना हमने बराबर बाँट लिया। हममें से जो भी मरता बाकी लोग कब्र खोदकर उसे दफन कर देते थे। मैं ही सबसे अधिक मुर्दे गाड़ा करता और उनका बचा हुआ भोजन ले लेता। इस प्रकार मेरे पास खाद्य सामग्री काफी हो गई। धीरे- धीरे मेरे सभी साथी मर गए। अकेला रह जाने के कारण मैं और भी दुखी हुआ। मैंने भी अपनी कब्र खोद ली ताकि मरने का समय आए तो उसमें जा लेटूँ।
मैं रात-दिन अपने को धिक्कारता था कि घर पर इतना सुख का जीवन छोड़कर यहाँ मंदगामी मौत मरने के लिए क्यों आया। किंतु पछताने से क्या होना था। भगवान की दया से एक रात अचानक एक विचार मेरे मन में आया। मैंने सोचा कि नदियाँ मिलकर एक बड़ी नदी के रूप में जब खोह के अंदर बहती ही जाती हैं तो खोह के बाद कहीं और निकलती भी होंगी। इसीलिए मैंने सोचा कि किसी तरह इस नदी के सहारे ही किसी देश में जा निकलूँ। किनारे पर बीसियों जहाज टूटे पड़े थे। मैंने तख्तों को जोड़- जाड़कर एक नाव बनाई। मैंने सोचा कि किनारे पर तो मरना निश्चित ही है, नदी में जाने पर भी अधिक से अधिक मौत ही होगी और हो सकता है कि बच ही जाऊँ।
बचने की आशा में मैंने नाव पर खाद्य सामग्री के अलावा वहाँ पड़े हुए असंख्य रत्नों और मृत यात्रियों के बिखरे हुए सामान की बहुमूल्य वस्तुओं में से चुन-चुनकर चीजें जमा की ओर उनकी कई गठरियाँ बनाईं। नाव को नदी के किनारे लाकर मैंने उसके दोनों ओर गठरियाँ रखीं ताकि नाव बहुत हल्की भी न रहे और संतुलित भी रहे। यह करने के बाद मैंने डाँड़ सँभाली और ईश्वर का नाम लेकर नदी में नाव छोड़ दी।
नाव गुफा में गई तो बिल्कुल अँधेरे में आ गई। मुझे दिखाई न देता था। नाव को कभी धारा पर छोड़कर सुस्ताने लगता, कभी खेने लगता। कहीं-कहीं गुफा की छत इतनी नीचे थी कि मेरे सिर पर टकराती थी। अपने पास जो मैंने रख लिया था उसमें से बहुत थोड़ा-थोड़ा खाता था ताकि जीवित भर रह सकूँ। कुछ समय के बाद मुझ पर निद्रा का ऐसा प्रकोप हुआ कि मैं सो गया तो घंटों तक सोता रहा। जब जागा तो देखा कि नाव खुले में नगर के समीप नदी के तट पर बँधी हुई है। मैंने देखा कि मेरे चारों ओर बहुत- से श्याम वर्ण लोग हैं। मैंने इन्हें सलाम करके उनका हाल-चाल पूछा।
सिंदबाद जहाजी की छठी यात्रा ~ अलिफ लैला
0 Nisheeth Ranjan
सिंदबाद ने हिंदबाद और अन्य लोगों से कि आप लोग स्वयं ही सोच सकते हैं कि मुझ पर कैसी मुसीबतें पड़ीं और साथ ही मुझे कितना धन प्राप्त हुआ। मुझे स्वयं इस पर आश्चर्य होता था। एक वर्ष बाद मुझ पर फिर यात्रा का उन्माद चढ़ा। मेरे सगे-संबंधियों ने मुझे बहुत रोका किंतु मैं न माना। आरंभ में मैंने बहुत-सी यात्रा थल मार्ग से की और फारस के कई नगरों में जाकर व्यापार किया। फिर एक बंदरगाह पर एक जहाज पर बैठा और नई समुद्र यात्रा शुरू की।
कप्तान की योजना तो लंबी यात्रा पर जाने की थी किंतु वह कुछ समय बाद रास्ता भूल गया। वह बराबर अपनी यात्रा पुस्तकों और नक्शों को देखा करता था ताकि उसे यह पता चले कि कहाँ है। एक दिन वह पुस्तक पढ़ कर रोने-चिल्लाने लगा। उसने पगड़ी फेंक दी और बाल नोचने लगा। हमने पूछा कि तुम्हें यह क्या हो गया है, तो उसने कुछ देर में बताया कि यहाँ एक समुद्री धारा हमें एक ओर लिए जाती हैं, वह हमें एक तट पर ऐसा पटकेगी कि हमारा जहाज टूट जाएगा और हम सब उसी तट पर मर जाएँगे। यह कहकर उसने जहाज के पाल उतरवा दिए।
उससे कुछ न हुआ। धारा के वेग से उछल कर जहाज पहाड़ी से टकराया और शीशे की तरह बिखर गया। चूँकि तट ही पर यह हुआ था इसीलिए हम लोग खाद्य सामग्री और अन्य सामान किनारे पर ले आए। कप्तान ने कहा 'भाग्य पर किसी का वश नहीं है। अब हम सब लोग एक-दूसरे के गले लगकर रो लें और अपनी-अपनी कब्रें खोद लें क्योंकि यहाँ से कोई बचकर नही गया है।' यह सुनकर हम लोग एक-दूसरे के गले लगकर रोने लगे क्योंकि हमने देखा कि किनारे पर दूर-दूर तक जहाजों के टुकड़े और मानव कंकाल बिखरे पड़े थे। मालूम होता था कि हजारों यात्री वहाँ आकर मर गए हैं। चारों ओर उनके व्यापार की वस्तुएँ बिखरी पड़ी थीं।
उस पहाड़ पर बिल्लौर और लाल की खदान थीं। पास ही कई नदियाँ एक स्थान पर मिलकर एक गुफा के अंदर जाती थीं। उस पहाड़ से राल टपक कर समुद्र में गिरती थी और मछलियाँ उसे खाकर कुछ समय बाद उसे उगल देती थीं। वही अभ्रक बन जाती थी। उस अभ्रक के ढेर भी वहाँ थे। समुद्र में समुद्री धारा से बचना इसीलिए असंभव था कि पहाड़ की ऊँचाई के कारण जहाजों को विपरीत दिशा में खींच ले जाने वाली तेज हवा रुक जाती थी। पहाड़ इतना ऊँचा था कि उस पर चढ़कर दूसरी ओर जा निकलना भी असंभव था।
हम लोग अपने दुर्भाग्य पर रोते रहे और अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा करते रहे। जहाज पर से लाया हुआ खाना हमने बराबर बाँट लिया। हममें से जो भी मरता बाकी लोग कब्र खोदकर उसे दफन कर देते थे। मैं ही सबसे अधिक मुर्दे गाड़ा करता और उनका बचा हुआ भोजन ले लेता। इस प्रकार मेरे पास खाद्य सामग्री काफी हो गई। धीरे- धीरे मेरे सभी साथी मर गए। अकेला रह जाने के कारण मैं और भी दुखी हुआ। मैंने भी अपनी कब्र खोद ली ताकि मरने का समय आए तो उसमें जा लेटूँ।
मैं रात-दिन अपने को धिक्कारता था कि घर पर इतना सुख का जीवन छोड़कर यहाँ मंदगामी मौत मरने के लिए क्यों आया। किंतु पछताने से क्या होना था। भगवान की दया से एक रात अचानक एक विचार मेरे मन में आया। मैंने सोचा कि नदियाँ मिलकर एक बड़ी नदी के रूप में जब खोह के अंदर बहती ही जाती हैं तो खोह के बाद कहीं और निकलती भी होंगी। इसीलिए मैंने सोचा कि किसी तरह इस नदी के सहारे ही किसी देश में जा निकलूँ। किनारे पर बीसियों जहाज टूटे पड़े थे। मैंने तख्तों को जोड़- जाड़कर एक नाव बनाई। मैंने सोचा कि किनारे पर तो मरना निश्चित ही है, नदी में जाने पर भी अधिक से अधिक मौत ही होगी और हो सकता है कि बच ही जाऊँ।
बचने की आशा में मैंने नाव पर खाद्य सामग्री के अलावा वहाँ पड़े हुए असंख्य रत्नों और मृत यात्रियों के बिखरे हुए सामान की बहुमूल्य वस्तुओं में से चुन-चुनकर चीजें जमा की ओर उनकी कई गठरियाँ बनाईं। नाव को नदी के किनारे लाकर मैंने उसके दोनों ओर गठरियाँ रखीं ताकि नाव बहुत हल्की भी न रहे और संतुलित भी रहे। यह करने के बाद मैंने डाँड़ सँभाली और ईश्वर का नाम लेकर नदी में नाव छोड़ दी।
नाव गुफा में गई तो बिल्कुल अँधेरे में आ गई। मुझे दिखाई न देता था। नाव को कभी धारा पर छोड़कर सुस्ताने लगता, कभी खेने लगता। कहीं-कहीं गुफा की छत इतनी नीचे थी कि मेरे सिर पर टकराती थी। अपने पास जो मैंने रख लिया था उसमें से बहुत थोड़ा-थोड़ा खाता था ताकि जीवित भर रह सकूँ। कुछ समय के बाद मुझ पर निद्रा का ऐसा प्रकोप हुआ कि मैं सो गया तो घंटों तक सोता रहा। जब जागा तो देखा कि नाव खुले में नगर के समीप नदी के तट पर बँधी हुई है। मैंने देखा कि मेरे चारों ओर बहुत- से श्याम वर्ण लोग हैं। मैंने इन्हें सलाम करके उनका हाल-चाल पूछा।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.