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Adultery रीमा की दबी वासना
सुबह की शाम हो गयी, थक हारकर रोहित वापस क़स्बे पहुँच गया । उसने सूर्यदेव के दिए दो फ़ोटो से जितेश और उसके आदमी को ढूँढने में लग गया । उसके पास बस अभी यही अंतिम सुराग था जो रीमा तक पहुँचा सकता था । लेकिन इन्स्पेक्टर के दिमाग़ में कुछ और भी चल रहा था लेकिन उसने रोहित को बताना वो ज़रूरी नहीं समझा ।

इधर शाम होते ही रीमा को ज़ोरों की भूख लग आयी । सूरज अभी डूबा नहीं था लेकिन घना जंगल होने के कारण काफ़ी अंधेरा हो गया था यही अंधेरा रीमा की सामने भी छाया था अब क्या करे कहाँ जाए । न फ़ोन न खाना न कपड़े न सर छुपाने की कोई जगह । आख़िर कब तक इस कम्बल में लिपटी रहती । विवेक शून्य वही बैठी रही फिर नदी की तरफ़ देखा, सोचा कम से कम नदी के किनारे पानी तो मिलेगा पीने को, यही सोचकर चट्टान की चोटी से उतर आयी और कल कल बहती नदी की आवाज़ की दिशा का अंदाज़ा लगाकर चलने लगी । नदी की धारा का प्रवाह तेज था इसीलिए रीमा को यहाँ तक आवाज़ सुनायी पड़ रही थी लेकिन जब वह घूमते घूमते नदी के किनारे तक पहुँची तो घनघोर अंधेरा हो चुका था । हालाँकि नदी के आस पास पेड़ दूर थे तो सूरज की बची मध्यिम लालिमा अभी पानी पर पड़ रही थी । एक दो जगह अंदाज़ा लगाने के बाद एक छिछले किनारे पहुँच उसने कम्बल एक किनारे रख दिया और नदी की तरफ़ बढ़ चली। 

मन में कई शंकाए थी डर भी था, अनजान जगह और पानी में पता नहीं कौन सा जानवर हो  लेकिन क्या करती कब तक डरती और डर में जीती । धीरे धीरे पथरो से उतर कर एक रेतीले किनारे पर आ गयी और पानी की शीतलता महसूस करने लगी । अपने पैर पानी में घुसा दिए और अपने  हाथ पैर धुलने लगी । 
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कुछ देर तक पानी में पैर भिगोए रखने के बाद धीरे धीरे उसके अंदर उतरने लगी । दिन भर की ऊहापोह थकान चिंता सब ने रीमा को थका डाला था । नीद के बाद भी शरीर भारी था । आख़िर अपने डर पर क़ाबू पाकर धीरे धीरे आगे पानी में बढ़ने लगी । पानी ठंडा था साफ़ था । धारा में आगे बढ़ते बढ़ते पीछे भी देखती जाती, कही उसका कम्बल कोई जंगली जानवर न उठा ले जाए वरना फिर पूरी आदम रूप में घूमना पड़ेगा । वैसी भी अभी तो आदम रूप में ही तो थी । वही गुलाबी संगमरमर की तरह चमकता गोरा दूधिया बदन, जिसको एक ठीक से अगर कब्र के मुर्दे देख ले तो बाहर निकल आए । ऐसा जिस्म ही था रीमा का जो बड़े बड़े तपस्वी की हसरतें जगा दे । बस जैसे हाथी को उसकी विशाल ताक़त का अंदाज़ा नहीं होता वैसे ही रीमा को अपने जिस्म के हुस्नो  शबाब का अंदाज़ा नहीं था । उसके वही रसीले ओंठ, किसी नयी कली की तरह उठे हुए उरोज और उसकी नुकीली चोटियाँ, मादकता में लचकती कमर और भरे ठोस मांसल चूतड, जिन्हें देखते ही दादा के उम्र के लोगों की कमर में उठान आ जाए। ऐसी थी रीमा और उसका बदन। 
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जैसे जैसे उसका कामुकता भरा  जिस्म पानी में उतरता गया, उसका जिस्म की रंगत और खिलने लगी । बदन में तरावट और फुर्ती महसूस होने लगी । मन हल्का होने लगा, मन के डर निकल कर बाहर जाने लगे या कही कोने में दब गए । मन प्रफुल्लित हो उठा और जिस्म तरोताज़ा । प्रक्रति को माँ का दर्जा दिया गया और नदी को भी माँ माना जाता है । जैसे एक बच्चा माँ  की गोद में पहुँचते ही अठखेलियाँ करने लगता है वैसे ही रीमा नदी की गोद में पहुँच कर पूरी तरह बच्चा बन गयी । 
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सारी चिंता तनाव डर अवसाद सब कही गुम हो गया । बहती लहरो की अठखेलियों से खुद भी खेलने लगी । चेहरे की उदासी, मन का अवसाद सब ग़ायब हो गया । अगर उसे क्लिनिक से भागना न होता तो आज इतनी सुरम्य हरियाली के बीच में नदी की शीतलता का अहसास भी नहीं कर रही होती । उसके हाथ पाँव चलने लगे, चलने लगे, उछलने  लगे, नाचने लगे, पानी में छलकने लगे ।
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दुबकियाँ लगने लगी, रीमा मछली बन गयी । जैसे मछली पानी में उन्मुक्त होकर घूमती है आगे पीछे इधर इधर, वैसे ही रीमा भी पानी में विचरने लगी, हालाँकि उसे अपनी सीमा के बाहर नहीं जाना था लेकिन कम सेकम उतने में तो जी भरके गोते  लगा सकती थी और लगा रही थी । नहाने के बाद प्रफुल्लित मन से तितली की भाँति चहकती हुई रीमा किनारे की तरफ़ चल दी । 
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पानी से निकलते ही गर्दन घुमाकर चारों तरफ़ निगाह डाली और फिर एक पथर की टेक लेकर खुद के जिस्म की निहारने लगी । वही गुलाबी रंगत, वही गोरा दमकता बदन, वही चिकनी जाँघे और गुलाबी रंगत वाले गाल । रीमा खुद के अस्तित्व के अहसास से ही शर्मा गयी, उसके गाल सुर्ख़ हो गए । उसने धीरे से नीचे के तरफ़ उँगलियाँ बढ़ायी । हल्की हल्की घास जम आयी थी लेकिन वो भी घाटी की चमक रोक पाने में नाकाम थी । अपने जिस्म की ख़ूबसूरती पर इतरा कर रीमा ने  खुद के आदम रूप में होने से लज़ा गयी । हाय हाय मुझे रत्ती भर भी न शर्म है नंगी पुंगी खड़ी हूँ । कोई जानवर ही देख ले और हमला कर दे तो । अपनी  बिलकुल प्राक़्रतिक़ अवस्था में और चारों ओर घना  होता अंधियारा फिर से रीमा को शंका से भर गया । पल में ही अपने रूप लावण्य का ख़याल करके स्त्री की सहज प्रव्रत्ति के कारण खुद से ही लज़ा  गयी ।
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कही कोई देख न ले इसलिए जल्दी से कम्बल में खुद को लपेट लिया । अब कहाँ जाए, कुछ देर वही नदी की कल कल सुनती रही, भूख तो उसे पहले भी लग रही थी लेकिन नहाने के बाद ये और बढ़ गयी । इस अंधकार में कहाँ खाना रखा, आज तो ख़ाली पेट पकड़ ही सोना पड़ेगा । वापस जाने का रास्ता भी तो नहीं खोज सकती थी, क्या करे , कब तक इस ठंडी रेत  में नदी के किनारे पर बैठी रहे, मन तो किया यही लेट जाए लेकिन बिछाने को भी तो कुछ नहीं था और जिसे बिछा सकती थी वो शरीर की लाज ढके हुए था । बैठे बैठे ही उसकी आँख लग गयी । ठंडी रेत नदी का किनारा और शीतल हवा में झपकी खा गयी । फिर अचानक उसकी आँख खुली तो उसे दूर कही एक आग की रोशनी दिखायी थी । रीमा सतर्क वो गयी, आग की चमक कुछ ही देर में खो गयी । लेकिन अभी फिर से एक तेज लपट निकली और फिर घनघोर अंधेरे में खो गयी । 
रीमा ने मन ही मन सोचा - क्या कोई वहाँ है । पता नहीं लेकिन आग का मतलब है कोई इंसान ही होगा । ऐसे घनघोर जंगल में लेकिन कौन होगा जहाँ आगे जाने आने का कोई रास्ता नहीं है । उसे डर लगने लगा, कही कोई चोर डाकू लुटेरे तो यहाँ देर नहीं जमाए है । कही तरह की आशंकाओं  ने मन घिर गया । खुद में ही सिमट कर बैठ गयी । और कर भी क्या सकती थी । रात गहराने के साथ आसमान में चाँद अपनी लगभग पूरी  शकल के साथ चमकने लगा । दूधिया चाँदनी की रोशनी पर्याप्त थी चारों  तरफ़ देखने के लिए । रीमा भी अब खुले में नहीं बैठना चाहती थी ऊपर से मन की जिज्ञासा उसे शांत रहने नहीं दे रही थी । अपनी जगह से उठी और कुछ देर इधर उधर घूमने के बाद उसे एक मोटी लकड़ी का डंडा मिल गया । धीरे धीरे कदमों से वो उस उठी रोशनी की तरफ़ चली, नदी के बहाव की कल कल आवाज़ की धारा के साथ वो भी आगे बढ़ने लगी । आधे घंटे चलने के बाद समझ आया ये आग नदी के दूसरी छोर पर उठी थी । जब थोड़ा और नज़दीक गयी तो वहाँ इस छोर से दूसरे छोर तक नदी सबसे संकरी थी और पथरो पर से आसानी से इधर से उधर ज़ाया जा सकता था । एक ठंडे के  सहारे आदमी नदी की तेज धारा में इधर से उधर जा सकता था । खड़े खड़े कुछ देर सोचती रही, अपने मन के डर को सम्भालती रही फिर जो होगा देखा जाएगा सोचकर आगे बढ़ गयी । 
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फ़िलहाल चाँद की चाँदनी में उसके सामने एक और दुविधा थी, अगर वो कम्बल ओढ़कर पार करती तो वो भीग जाता और कपड़े के नाम पर बस वही था उसके पास । इसलिए उसने कम्बल को उतार कर गठरी बना ली और फिर से अपनी प्राक्रतिक अवस्था में दूसरी तरफ़ बढ़ने लगी । कम्बल को उसने अपने बालों  की चोटी बनाकर सर में बांध लिया था । जैसे जैसे आगे बढ़ती गयी नदी की गहरायी बढ़ती गयी, लेकिन फिर भी पानी कमर से ऊपर नहीं गया। पीछे से ऊँचायी से बहाव के कारण स्पीड तेज थी लेकिन फिर भी रीमा ने जैसे तैसे नदी पार कर ली  । नदी पार करके उसने फिर से कम्बल अपने शरीर पर लपेट लिया और आगे बढ़ने लगी । 
यहाँ उसे नदी से निकलते ही पगडंडी मिल गयी । कुछ देर चलने के बाद वो ठीक उसी जगह पहुँच गयी जहाँ आग जल रही थी, वहाँ आस पास कोई मौजूद नहीं था । थोड़ा आगे बढ़ते ही उसे एक गुफा दिखी और बेहद सतर्क कदमों से जब आगे बढ़ी तो वहाँ का नजारा देख चौक गयी, वहाँ भयानक चेहरे वाले कुछ जंगली आदम जैसे लोग मौजूद थे । भयानक क्या महाभयानक, किसी होरर फ़िल्म की तरह, जटाए रस्सी बन गयी थी, चेहरे भभूत से सने, आँखे रक्त सी लाल, गले में हड्डियों  की माला, कमर में छाल । औरतें बच्चे तो छोड़ें  जवान आदमी डर जायँ ऐसी भयानक वेशभूषा बना रखी थी । इनके बारे में ही अफ़वाह थी ये आदमखोर है इंसान को ज़िंदा ही आग में भूनते है और खा जाते है । सच क्या था किसी को नहीं पता लेकिन इनसे डरना ही समझदारी थी ।
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    बीच में एक हवन कुंड और आस पास कौवा चील मरे पड़े थे और मांस की घनघोर बदबू आ रही थी, कुंड के सामने बैठा आदम एक ख़रगोश का रक्त एक प्याली में इकट्ठा कर रहा था । रीमा से वहाँ रुका न गया । वो पलट बाहर आने लगी तभी उसे बाहर से किसी के आने की आहट  हुई तो वो गुफा के एक अंधेरे कोने में छुप  गयी और उसके गुजरने के बाद बाहर निकल गयी । बाहर दायी तरफ़ थोड़ा चलने पर एक कुटिया थी वहाँ भी एक हवन कुंड था और एक बूढ़ा आदम संभावी मुद्रा में ध्यान मग्न था और हवन कुंड में अग्नि जल रही थी । वहाँ आस पास काफ़ी फल रखे हुए थे, साथ में एक पात्र में जल और कुछ विशेष पदार्थ रखे हुए थे । एक आदम का चेहरा झुर्रियों से पटा पड़ा था शरीर पर वस्त्र के नाम पर बस कमर में एक छाल पहने था, सर की जटाए उलझ कर मोटी रस्सियाँ बन चुकी थी और चेहरे पर एक विशेष आभा थी । रीमा दूर से ही उसे काफ़ी देर तक देखती रही, सामने रखे फलो को देख उसके मुहँ में पानी आ रहा था, भूख भी बहुत तेज लगी थी  लेकिन करे तो क्या करे । तभी बूढ़े की तंद्रा टूटी । सामने से कोई आ रहा था । बूढ़े ने आँखे खोली निर्विकार भाव से सामने देखा और आँखें बंद कर ध्यान मग्न हो गया ।
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तभी किसी की आहत पाते ही वो एक पेड़ की आड़ में हो गयी, वो आदमी आया, उसने कुछ गुलगुला कर बोला लेकिन उस बूढ़े आदम ने सुना नहीं तो उस पर एक टोकरी का सामान फेंक कर पैर फटकता हुआ चला गया । उसका चेहरा तो इससे भी भयानक था चेहरे पर भस्म और रक्त लगा था, शरीर पर कंकाल के आभूषण और कमर पर छाल, जाते वक्त वो कोई कच्चे मांस का टुकड़ा खाकर फेंकता हुआ चला गया । रीमा के शरीर का एक एक रोया खड़ा हो गया । पहला शब्द जो उसके दिमाग़ में आया आदमखोर, हाय यहाँ कहाँ फँस गयी । रीमा निकल यहाँ से वरना तेरा नरम मांस तो ये बड़े प्रेम से खायेंगे । वो वापस जाने वाली थी तभी उसके दिमाग़ में के ख़्याल आया, वो तेज़ी से हवन कुंड की तरफ़ बढ़ी और एक डलिया उठाकर उसी तरह उलटे पाँव लौट भागी । बूढ़ा आदम अभी भी ध्यान मग्न था । रीमा नदी के किनारे आकर एक जगह बैठकर, डलिया के सारे फल खा डाले । फल खाते ही उसे एक शुरूर चढ़ने लगा, पहले तो लगा वो नीद  का नशा है लेकिन ये कुछ और था । उसकी भूख बढ़ गयी वो नशे में झूमती हुई फिर से वापस चली और फिर उसी जगह पहुँच गयी जहां से डलिया लायी थी, उसने एक डलिया चुपके से और उठायी और फिर भाग निकली । नदी के किनारे आकार उसने थोड़ी दूर पर जाकर डकारे मार मार कर उसने डलिया में रखे जंगली फल खाए और  वही एक पेड़ के किनारे घने पत्ते की छाया में  कम्बल बिछाकर लुढ़क गयी। 
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इधर रोहित जितेश की तलाश में क़स्बे में घूमने लगा, शाम तक उसे ये पता चल गया इस आदमी का पता लगाने के लिए इसे अपराधियों की बस्ती में जाना होगा वो वहाँ जाने की तैयारी कर ही रहा था की उसके साथ आया इन्स्पेक्टर के अख़बार की खबर दिखाने लगा, तू जहां जाने की बाद कर रहा है उस जगह का नाम इस पेपर में लिखा है । बड़ी पेशवेर अपराधियों की पनाहगाह है, किसी के मर्डर और ख़ुफ़िया सुरंग की की खबर लिखी है । 
इन्स्पेक्टर - हमें लगता है हमें किसी लोकल को साथ लेकर चलना चाहिए, ऐसी जगह पर जाना ख़तरनाक  हो सकता है ।
रोहित - हूँ ।
इन्स्पेक्टर - क्यूँ  न सूर्यदेव से इसकी जानकारी ली जाय आख़िर वो यहाँ का माफिया जो है ।  
रोहित - सूर्यदेव को हमारी मदद करनी होती तो अब तक कर चुका होता ।
इन्स्पेक्टर - ठीक है मैंने एक दो लोकल के सिपाहियों से बात की है, उनके साथ ही निकलते है ।
रोहित - हाँ ये ठीक रहेगा ।
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RE: रीमा की दबी वासना - by vijayveg - 19-06-2022, 03:08 PM



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