13-05-2022, 05:06 PM
नाम है कामिनी देवी, एक प्राईवेट फर्म में उप प्रबंधक। चेहरे मोहरे और अपने सुगठित शरीर के कारण वह आज भी ३५ से ४० की लगती है। लंबा कद ५’ ७”, रंग गेहुंआ, चेहरा लंबोतरा, पतले रसीले गुलाबी होंठ, नशीली आंखें, घने काले कमर से कुछ ऊपर तक खुले बलखाते रेशमी बाल और ३८”, ३०”, ४०” नाप के अति उत्तेजक खूबसूरत काया की स्वामिनी। जिसे देखते ही मानव प्रजाती के किसी भी नर की आंखें उसके शरीर से चिपक जाएं, ऐसी है कामिनी। वह सिर्फ आंखें सेंकने की चीज नहीं है, कई पुरुषों की अंकशायिनी भी बन चुकी है। जितने पुरुषों की हमबिस्तर बन चुकी है उनमें हर उम्र के लोग शामिल हैं, युवा, अधेड़, वृद्ध। अपने यौवन का रस पान कराने में कामिनी नें कोई कंजूसी नहीं बरती और वह भी बिना किसी भेद भाव के। इसके लिए जिम्मेदार है खुद उसकी अदम्य उद्दात्त काम पिपाशा। अपने इस उत्तेजक खूबसूरती और कामेच्छा का उसने कई मौकों पर बड़ी होशियारी से इस्तेमाल भी किया और अपने कैरियर को संवारा। कैरियर में तरक्की के लिए कुछ कुरूप, बदशक्ल और बेढब बेडौल सीनियर्स की कुत्सित विकृत कामेच्छा की तृप्ती के लिए अपने तन को समर्पित करने में भी कत्तई परहेज नहीं किया।
एक विधवा की कमाई से मजे की जिंदगी जी रहे उसके ससुराल वालों को उसके रहन सहन, पहनाव ओढ़ाव और असमय आने जाने पर कोई ऐतराज क्यों होता भला? भले ही दुनिया वाले कुछ भी बोलें, बोलने वाले तो कुछ भी बोलेंगे, हमारा सुख जो उनसे देखा नहीं जाता, यही बोल कर ससुराल वाले, जिसमें उसके सास ससुर और दादा ससुर हैं, चुप कर देते, हालांकि उन्हें अपने बहु के चाल चलन पर भरोसा रत्ती भर भी नहीं है, किंतु अपनी आंखें बंद रखते, आखिर दुधारू गाय जो ठहरी।
लेकिन क्या कामिनी हमेशा से ऐसा थी? कत्तई नहीं। वह तो परिस्थितियों नें उसे आज इस मुकाम पर ला खड़ा किया था।
अब मैं इससे आगे की कहानी कामिनी के आत्मकथा के रूप में लिखना चाहूंगी अन्यथा मैं कामिनी के भावनाओं और उसके जीवन में हुए घटनाक्रम को, जिन कारणों से आज वह इस मोड़ पर अपने आप को खड़ी पा रही है, असरदार रूप में व्यक्त नहीं कर पाऊंगी।
हां तो मेरे प्रिय पाठको, मैं कामिनी अब अपने जीवन के उन घटनाओं से आपको रूबरू कराऊंगी जिन के परिणाम स्वरूप आज मैं इस मोड़ पर खड़ी हूं। दरअसल यह कहानी शुरू होती है मेरे पैदा होने के पहले से। मेरे पैदा होने से पहले ही मेरे माता पिता, जो कहने को तो पढ़े लिखे और संपन्न थे मगर दकियानूसी खयालात के थे, पता चल गया था कि मैं कन्या हूं। उन्हें तो पुत्र रत्न की चाह थी, अत: गर्भपात कराने की काफी कोशिश की गई, मगर मैं ठहरी एक नंबर की ढीठ। सारी कोशिशों के बावजूद एकदम स्वस्थ और शायद उन गर्भपात हेतु दी गई दवाओं का उल्टा असर था कि मैं रोग निरोधक क्षमताओं से लैस पैदा हुई। लेकिन चूंकि मैं अपने माता पिता की अवांछित संतान थी, मुझे बचपन से उपेक्षा का शिकार होना पड़ा। फिर हमारे परिवार में मेरे पैदा होने के ४ साल बाद एक बालक का आगमन हुआ और मेरे माता पिता तो लगभग भूल ही गए कि उनकी एक पुत्री भी है। पुत्र रत्न की प्राप्ति पर घर में उत्सव का माहौल बन गया। बधाईयों का तांता लग गया और उस माहौल में मैंने खुद को बिल्कुल अकेली, अलग थलग और उपेक्षित पाया।
समय बीतता गया और मैंने अपने आप को विपरीत परिस्थितियों के बावजूद और मजबूत बनाना शुरू कर दिया। मेरे अंदर के आक्रोश नें भी मेरे हौसले को बढ़ावा दिया। पढ़ाई में सदा अव्वल रही, खेल कूद में भी कई ट्रॉफियां और उपलब्धियां हासिल की। कॉलेज में कुंगफू कराटे की चैंपियन रही। लेकिन मेरे घर वालों नें बधाई देना तो दूर मेरी तमाम उपलब्धियों की ओर कोई तवज्जो कर नहीं दी। इस के विपरीत मेरा भाई मां बाप के अत्यधिक लाड़ प्यार से बिगड़ता चला गया। आवारा लड़कों की सोहबत में पड़ कर पढ़ाई लिखाई में फिसड्डी रह गया मगर माता पिता उसकी हर गलतियों को नजरअंदाज करते गये नतीजतन वह बिल्कुल आवारा निखट्टू और मां बाप का बिगड़ैल कपूत बन कर रह गया।
मैंने एक तरह से अपने परिवार के मामलों से अपने आप को अलग कर लिया और अपने तौर पर जीना शुरू कर दिया।
एक विधवा की कमाई से मजे की जिंदगी जी रहे उसके ससुराल वालों को उसके रहन सहन, पहनाव ओढ़ाव और असमय आने जाने पर कोई ऐतराज क्यों होता भला? भले ही दुनिया वाले कुछ भी बोलें, बोलने वाले तो कुछ भी बोलेंगे, हमारा सुख जो उनसे देखा नहीं जाता, यही बोल कर ससुराल वाले, जिसमें उसके सास ससुर और दादा ससुर हैं, चुप कर देते, हालांकि उन्हें अपने बहु के चाल चलन पर भरोसा रत्ती भर भी नहीं है, किंतु अपनी आंखें बंद रखते, आखिर दुधारू गाय जो ठहरी।
लेकिन क्या कामिनी हमेशा से ऐसा थी? कत्तई नहीं। वह तो परिस्थितियों नें उसे आज इस मुकाम पर ला खड़ा किया था।
अब मैं इससे आगे की कहानी कामिनी के आत्मकथा के रूप में लिखना चाहूंगी अन्यथा मैं कामिनी के भावनाओं और उसके जीवन में हुए घटनाक्रम को, जिन कारणों से आज वह इस मोड़ पर अपने आप को खड़ी पा रही है, असरदार रूप में व्यक्त नहीं कर पाऊंगी।
हां तो मेरे प्रिय पाठको, मैं कामिनी अब अपने जीवन के उन घटनाओं से आपको रूबरू कराऊंगी जिन के परिणाम स्वरूप आज मैं इस मोड़ पर खड़ी हूं। दरअसल यह कहानी शुरू होती है मेरे पैदा होने के पहले से। मेरे पैदा होने से पहले ही मेरे माता पिता, जो कहने को तो पढ़े लिखे और संपन्न थे मगर दकियानूसी खयालात के थे, पता चल गया था कि मैं कन्या हूं। उन्हें तो पुत्र रत्न की चाह थी, अत: गर्भपात कराने की काफी कोशिश की गई, मगर मैं ठहरी एक नंबर की ढीठ। सारी कोशिशों के बावजूद एकदम स्वस्थ और शायद उन गर्भपात हेतु दी गई दवाओं का उल्टा असर था कि मैं रोग निरोधक क्षमताओं से लैस पैदा हुई। लेकिन चूंकि मैं अपने माता पिता की अवांछित संतान थी, मुझे बचपन से उपेक्षा का शिकार होना पड़ा। फिर हमारे परिवार में मेरे पैदा होने के ४ साल बाद एक बालक का आगमन हुआ और मेरे माता पिता तो लगभग भूल ही गए कि उनकी एक पुत्री भी है। पुत्र रत्न की प्राप्ति पर घर में उत्सव का माहौल बन गया। बधाईयों का तांता लग गया और उस माहौल में मैंने खुद को बिल्कुल अकेली, अलग थलग और उपेक्षित पाया।
समय बीतता गया और मैंने अपने आप को विपरीत परिस्थितियों के बावजूद और मजबूत बनाना शुरू कर दिया। मेरे अंदर के आक्रोश नें भी मेरे हौसले को बढ़ावा दिया। पढ़ाई में सदा अव्वल रही, खेल कूद में भी कई ट्रॉफियां और उपलब्धियां हासिल की। कॉलेज में कुंगफू कराटे की चैंपियन रही। लेकिन मेरे घर वालों नें बधाई देना तो दूर मेरी तमाम उपलब्धियों की ओर कोई तवज्जो कर नहीं दी। इस के विपरीत मेरा भाई मां बाप के अत्यधिक लाड़ प्यार से बिगड़ता चला गया। आवारा लड़कों की सोहबत में पड़ कर पढ़ाई लिखाई में फिसड्डी रह गया मगर माता पिता उसकी हर गलतियों को नजरअंदाज करते गये नतीजतन वह बिल्कुल आवारा निखट्टू और मां बाप का बिगड़ैल कपूत बन कर रह गया।
मैंने एक तरह से अपने परिवार के मामलों से अपने आप को अलग कर लिया और अपने तौर पर जीना शुरू कर दिया।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.
