18-04-2022, 03:10 PM
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भाग 52
मनोरमा अपने मन में सरयू सिंह के छैल छबीले चेहरे और बलिष्ठ शरीर की छवि को बसाये हए अपने गर्भाशय में हो रहे वीर्य पात के अद्वितीय अनुभव को महसूस कर रही थी।
नियति मुस्कुरा रही थी कहानी का एक प्रमुख पात्र सृजित हो रहा था…..
अब आगे
सरयू सिंह द्वारा की गई जबरदस्त चुदाई से मनोरमा तृप्त हो चुकी थी और उसके गर्भ में सरयू सिंह के खानदान का एक अंश आ चुका था। तृप्ति का भाव मनोरमा और सरयू सिंह दोनों में ही था। जिस प्रेम भाव और अद्भुत मिलन से इस गर्भ का सृजन हुआ था उसने स्वतः ही इस मिलन की गुणवत्ता को आत्मसात कर लिया था। मनोरमा जैसी काबिल मां और सरयू सिंह जैसे विशेष व्यक्तित्व वाले पिता की संतान निश्चित ही विलक्षण होती।
मनोरमा, सरयू सिंह के लण्ड निकालने का इंतजार कर रही थी। सरयू सिंह पूरी तरह स्खलित होने के बावजूद उस मखमली एहसास को छोड़ना नहीं चाह रहे थे। वह अभी भी मनोरमा की पीठ को चूमे जा रहे थे और अपनी हथेलियों से उसकी चुचियों को मीस रहे थे।
शिलाजीत के असर से लण्ड में तनाव अभी भी बना हुआ था। परंतु अंडकोशों ने उसका साथ छोड़ दिया था और ढीले पड़ चुके थे।
वैसे भी वह दोनों द्वारपाल की तरह हमेशा इस क्रीडा में बाहर ही छोड़ दिए जाते थे। वह तो काम कला में दक्ष और पारखी सुगना थी जो इस द्वारपालों को भी अपनी कोमल उंगलियों का स्पर्श देकर उनकी उपयोगिता को बनाए रखती थी। परंतु मनोरमा वह तो अभी कामकला के पहले पायदान पर ही थी। उसने तो यह चरम सुख आज शायद पहली बार प्राप्त किया था।
स्खलित हो जाना ही चरमोत्कर्ष नहीं है। जिस सुख की अनुभूति आज मनोरमा ने की थी वह सामान्य स्खलन से कई गुणा बढ़कर था। मनोरमा के शरीर का रोम रोम अंग अंग सरयू सिंह के इस अद्भुत संभोग का कायल था।
सरयू सिंह अपना लण्ड निकालने के बाद अपनी धोती ढूंढने लगे। थोड़ा प्रयास करने पर उन्होंने अपना धोती और कुर्ता ढूंढ लिया परंतु लंगोट को ढूंढ पाना इतना आसान न था। वह बिजली आने से पहले ही कमरे से हट जाना चाहते थे। मनोरमा से आंखें मिला पाने की उनकी हिम्मत अब नहीं थी। यह अलग बात थी की कामवासना के दौरान उन्होंने उसे कस कर चोदा था परंतु उसके कद और अहमियत को वह भली-भांति जानते थे। सरयू सिंह ने आनन-फानन में अपनी धोती को मद्रासी तरीके से पहना और कुर्ता डालकर कमरे से बाहर आ गए।
मनोरमा अभी भी बिस्तर पर निढाल पड़ी हुई थी। उसकी बुर से रिस रहा वीर्य जांघों पर आ चुका था। मनोरमा के सारे कपड़े बिस्तर पर तितर-बितर थे। बिना प्रकाश के उन्हें ढूंढना और धारण करना असंभव था। वह नग्न अवस्था में लेटी हुई बिजली आने का इंतजार करने लगी। नियत ने मनोरमा को निराश ना किया और जब तक मनोरमा की सांसें सामान्य होतीं बनारस महोत्सव की लाइट वापस आ गई।
मनोरमा ने अपनी जांघों पर लगे वीर्य को पोछने की कोशिश नहीं की। वह सरयू सिंह की चुदाई और उनके प्रेम के हर चिन्ह को सजाकर रखना चाहती थी। उसने फटाफट अपने कपड़े पहने और बिस्तर पर पड़े लाल लंगोट को देख कर मुस्कुराने लगी।
सरयू सिंह ने आज नया लंगोट पहना हुआ था परंतु लंगोट में कसे हुए लण्ड की खुशबू समाहित हो चुकी थी। मनोरमा ने उसे अपने हाथों में उठाया और मुस्कुराते हुये उसे मोड़ कर अपने पर्स में रख लिया। उसके लिए यह एक यादगार भेंट बन चुकी थी।
भरपूर चुदाई के बाद स्त्री का शरीर अस्तव्यस्त हो जाता है। वह चाह कर भी तुरंत अपनी पूर्व अवस्था में नहीं आ सकती। मनोरमा का चेहरा और शरीर अलसा चुका था। उसने अपने बाल ठीक किए और कमरे से बाहर आ गयी पर उसकी हालत कतई ठीक नहीं थी। उसे अभी मीटिंग में भी जाना था। वह अनमने मन से मीटिंग हाल की तरफ बढ़ने लगी तभी उसे सुगना दिखाई दे गयी जो उसके कमरे की तरफ ही आ रही थी।
सुगना ने मनोरमा को देखा और अपने दोनों हाथ जोड़कर उसका अभिवादन किया।
"अरे मैडम जी इतनी रात को"
"हां सुगना आज मेरी मीटिंग कुछ ज्यादा ही लंबी चल रही है"
सुगना ने मनोरमा के ऐश्वर्य भरे चेहरे और कसी हुई काया में आया बदलाव महसूस कर लिया उसने मनोरमा से पूछा
"मैडम जी आपकी तबीयत ठीक है ना? आप काफी थकी हुई लग रही है।"
सुगना ने जो कहा था इसका एहसास मनोरमा को भी था उसने बड़ी सफाई से अपने आप को बचाते हुए बोला..
"अरे सुगना होटल का खाना मुझे सूट नहीं किया पेट भी खराब हो गया है इसी लिए कमरे में आना पड़ा"
सुगना ने मन ही मन मनोरमा की स्थिति का आकलन कर लिया और उस कमरे के उपयोग के औचित्य के बारे में भी अपने स्वविवेक से सोच लिया।
सुगना को संशय में देखकर मनोरमा सोच में पड़ गई कहीं सुगना ने उसकी शारीरिक स्थिति देखकर कुछ अंदाज तो नहीं लगा लिया उसने बात बदलने की कोशिश की..
"तुमने बनारस घूम लिया कि नहीं?"
"अभी है ना दो-तीन दिन घूम लूंगी'
"कल मैं अपनी गाड़ी भेज दूंगी अपने बाबू जी के साथ जाकर बनारस घूम लेना"
सुगना बेहद प्रसन्न हो गई। मनोरमा ने कहा
"तुम उस कमरे में जा सकती हो मैं अब वापस जा रही हूँ।"
मनोरमा अपने मीटिंग हॉल की तरफ बढ़ चली और सुगना कमरे की तरफ।
सुगना मन ही मन घबरा रही थी कि निश्चित ही उसके बाबू जी आज उसका इंतजार करते करते थक चुके होंगे.. परंतु वह क्या कर सकती थी. उसकी मां ने कुछ देर तक उसे सूरज के कंगन में उलझाये रखा तभी बत्ती गुल हो गई थी। अंधेरे में वहां से कमरे तक जाना संभव न था।
जवान स्त्री तब भी मनचलों के आकर्षण का केंद्र रहती थी और आज भी।
पद्मा ने सुगना को लाइट आने तक रोक लिया था।
उधर सरयू सिंह कमरे से बाहर निकलने के पश्चात कुछ दूर पर जाकर खड़े हो गए थे। वह मनोरमा के कमरे से चले जाने का इंतजार कर रहे थे। उन्हें अपना लंगोट भी लेना था।
उन्हें पूरा विश्वास था कि सुगना अवश्य आएगी। निश्चित ही वह बिजली गुल हो जाने होने की वजह से समय पर नहीं आ पाई थी।
सुगना को कमरे की तरफ आता देख सरयू सिंह सुगना की तरफ बढ़ चले उन्होंने सुगना पर झूठी नाराजगी दिखाते हुए कहा..
"सुगना बाबू कहां रह गईलू हा..?" अपने झूठे क्रोध में यह प्यार सिर्फ सरयू सिंह ही दिखा सकते थे।
सुगना ने अपना सच स्पष्ट शब्दों में बयान कर दिया. सरयू सिंह ने सुगना से कहा
"लागा ता आज देर हो गईल बा तोहार उपहार के भोग आज ना लाग पायी "
सचमुच देर हो चुकी थी सुगना तो पूरी तरह उत्तेजित थी और चुदना भी चाहती थी परंतु इस क्रिया में लगने वाला समय उन दोनों की हकीकत पूरे परिवार के सामने ला देता। खाने के समय न पहुंचने पर कजरी पदमा को लेकर उसे ढूंढती हुई यहां आ जाती।
सुगना ने अपना मन मसोसकर कहा
ठीक बा बाबू जी "काल एहि बेरा (बेरा मतलब समय)"
सरयू सिंह ने सुगना से चाबी मांगी और दरवाजा खोलकर अपना लंगोट ढूंढने लगे।
सुगना ने दरवाजे पर खड़े खड़े पूछा
" ...का खोजा तानी?".
सरयू सिंह क्या जवाब देते जो वह खोज रहे थे वह मनोरमा ले जा चुकी थी।
सुगना और शरीर सिंह धीरे-धीरे वापस पंडाल की तरफ आ रहे थे।
सूरज के परिवार का एक अभिन्न अंग मनोरमा के गर्भ में आ चुका था काश कि यह बात सुगना जान पाती तो अपने गर्भधारण को लेकर उसकी अधीरता थोड़ा कम हो जाती। हो सकता था की सूरज की जिस बहन की तलाश में वह गर्भधारण करना चाह रही थी वह मनोरमा की कोख में सृजित हो चुकी हो….
बनारस महोत्सव के बिजली विभाग के कर्मचारियों की एक गलती ने नियति को नया मौका दे दिया था।
सुगना से मिलने के बाद मनोरमा मीटिंग में पहुंची तो जरूर परंतु उसका मन मीटिंग में कतई नहीं लग रहा था। बिजली गुल होने की वजह से मीटिंग का तारत्म्य बिगड़ गया था और सभी प्रतिभागी घर जाने को आतुर थे।
अंततः मीटिंग समाप्त कर दी गई और मनोरमा एक बार फिर अपने पांच सितारा होटल की तरफ चल पड़ी।
कमरे में पहुंचकर उसने अपने वस्त्र उतारे और अपनी जाँघों और बूर् के होठों पर लगे श्वेत गाढ़े वीर्य के धब्बे को देख कर मुस्कुराने लगी। उसे अपने शरीर और चरित्र पर लगे दाग से कोई शिकायत न थी। उसने सरयू सिंह के साथ हुए इस अद्भुत संभोग को भगवान का वरदान मान लिया था। उसकी काम पिपासा कई वर्षों के लिए शांत हो चुकी थी। वह अपनी फूली और संवेदनशील हो चुकी बुर को अपनी हथेलियों से सहला रही थी और मन ही मन आनंद का अनुभव कर रही थी।
मनोरमा ने अपने हाथ पैर और चेहरे को धुला परंतु स्नान करने का विचार त्याग दिया। सरयू सिंह के वीर्य को अपने शरीर से वह कतई अलग नहीं करना चाह रही थी। अनजाने में ही सही मनोरमा ने पुरुष का वह दिव्य स्वरूप देख लिया था। वह मन ही मन भगवान के प्रति कृतज्ञ थी और इस संभोग को अपने गर्भधारण का आधार बनाना चाह रही थी।
मनोरमा ने अपने इष्ट देव को याद किया और अपने गर्भधारण की अर्जी लगा दी। सरयू सिंह जैसे बलिष्ठ और स्वस्थ पुरुष की संतान निश्चित ही उनके जैसी ही होगी।
मनोरमा के गर्भ से पुत्र होगा या पुत्री इसका निर्धारण नियति ने नियंता के हाथों छोड़ दिया।
बनारस महोत्सव का चौथा दिन……
बनारस महोत्सव के इन 3 दिनों में कथा के दो पात्रों का सृजन हो चुका था एक लाली के गर्भ में और दूसरा एसडीएम मनोरमा के गर्भ में नियति ने इन दोनों पात्रों का लिंग निर्धारण अपनी योजना के अनुसार कर दिया था। परंतु सुगना अभी भी अपने गर्भधारण का इंतजार कर रही थी। कल का सुनहरा अवसर उसने अनायास ही गवां दिया था और सरयू सिंह के प्यार और अद्भुत चुदाई का आनंद लेते हुए गर्भवती का होने का सुख सुगना की जगह मनोरमा ने उठा लिया था।
बनारस महोत्सव के चौथे दिन महिलाओं का एक विशेष व्रत था घर की सभी महिलाओं ने व्रत रखा हुआ था। सुगना भी उस से अछूती न थी। सुगना ही क्या उसकी दोनों छोटी बहनें भी आज व्रत थी सुगना को आज के व्रत का ध्यान ही नहीं आया था। कल शाम उसने अपने बाबू जी से मिलने के लिए आज का दिन मुकर्रर किया था। परंतु अब यह व्रत... जिसे वह छोड़ नहीं सकती थी।
परंतु व्रत के दौरान संभोग क्या यह उचित होगा? सुगना अपनी अंतरात्मा से एक बार फिर लड़ रही थी।
क्या बनारस महोत्सव का चौथा दिन क्या यूं ही बीत जाएगा?
हे भगवान अब मैं क्या करूं। सुगना ने इससे पहले भी व्रत रखा था परंतु उस दौरान वह संभोग से सर्वथा दूर रही थी। बातों ही बातों में कजरी ने उसे व्रत की अहमियत और व्रत के दौरान पालन किए जाने वाले दिशा निर्देशों की जानकारी बखूबी दी हुई थी। परंतु आज का दिन वह किस प्रकार व्यर्थ जाने दे सकती थी।
यदि वह गर्भवती ना हुई तो?? सुगना की रूह कांप उठी। सूरज को मुक्ति दिलाने के लिए वह हर हाल में गर्भवती होना चाहती थी।
उसकी अंतरात्मा ने आवाज दी
व्रत के पावन दिन यदि तू संभोग कर गर्भवती होना भी चाहेगी तो भगवान तेरा मनोरथ कभी नहीं पूर्ण करेंगे। हो सकता है तेरे गर्भ में आने वाला तेरी मनोकामना की पूर्ति न कर तुझे और मुसीबत में डाल दे।
सुगना एक बार फिर कांप उठी यदि सचमुच उसके गर्भ में पुत्री की जगह पुत्र का सृजन हुआ तो वह आने वाले समय में सूरज को मुक्ति किस प्रकार दिला पाएगी। क्या उसे स्वयं सूरज से …. इस विचार से ही उसके शरीर में कंपन उत्पन्न हो गए।
"मैं भगवान से प्रार्थना करूंगी मेरी मजबूरी और मनोदशा को समझ कर वह मुझे माफ कर देंगे सुगना ने खुद को समझाने की कोशिश की"
"यदि भगवान चाहेंगे तो तेरा यह संभोग कल और परसों भी हो सकता है आज व्रत के दिन तुझे निश्चित ही इस से दूर रहना चाहिए।" अंतरात्मा ने फिर अपनी बात रखी।
सुगना चाह कर भी व्रत के नियम तोड़ पाने में स्वयं को असहज महसूस कर रही थी परंतु जैसे-जैसे समय बीत रहा था उसकी अधीरता बढ़ती जा रही थी।
सरयू सिंह को भी महिलाओं के व्रत का पता चल चुका था उनकी उत्तेजना भी व्रत के नाम पर शांत हो चुकी वैसे भी पिछले शाम उन्होंने अपनी मनोरमा मैडम की जी भर कर चुदाई की थी और उनकी कामोत्तेजना कुछ समय के लिए तृप्त हो गई थी।
सुबह-सुबह मनोरमा मैडम की गाड़ी विद्यानंद के पांडाल के सामने आ गई थी। सुगना ने इसकी सूचना पहले ही अपनी मां पदमा और सास कजरी को दे दी थी। सोनी और मोनी दोनों भी बनारस घूमने के नाम से बेहद उत्साहित थी।
सबको बनारस घूमने के कार्यक्रम के बारे में पता था परंतु यह बात सरयू सिंह को पता न थी कल शाम की मुलाकात में वह यह बात सरयू सिंह को बताना भूल गई थी।
पंडाल के सामने गाड़ी खड़ी देख सरयू सिंह उठ कर गाड़ी की तरफ गए उन्हें लगा जैसे मनोरमा मैडम स्वयं आई हैं। उन्हें देखकर ड्राइवर बाहर आया और अदब से बोला
" मैडम ने यह गाड़ी आप लोगों को बनारस घुमाने के लिए भेजी है शायद सुगना मैडम से उनकी बात हुई है"
सरयू सिंह ने पांडाल की तरफ देखा और अपने परिवार की सजी धजी महिलाओं को देखकर वह बेहद भाव विभोर हो उठे।
सोनी और मोनी युवावस्था की दहलीज लांघने को तैयार थी परंतु सरयू सिंह का सारा ध्यान अपनी जान सुगना पर ही लगा था। सुगना के कोमल अंगों को न जाने वह कितनी बार अपने हाथों से नाप चुके थे पर जब जब वह सुगना को देखते उनकी नजरें सुगना के अंगो का नाप लेने लगतीं और उसके अंदर छुपे हुए खजाने की कल्पना कर उनके लण्ड जागृत हो जाता। आज व्रत के भी दिन भी वह अपनी उत्तेजना पर काबू न रख पाए और उनका लण्ड एक बार फिर थिरक उठा।
सरयू सिंह दलबल समेत बनारस दर्शन के लिए निकल चुके थे। सुगना ने लाली को भी अपने साथ ले लिया। महिलाओं का सारा ध्यान बनारस की खूबसूरत बिल्डिंगों को छोड़कर मंदिरों पर था। सबकी अपनी अपनी मनोकामनाएं थी जहां सुगना सिर्फ और सिर्फ सूरज के बारे में सोच रही थी और अपने इष्ट देव से उसकी मुक्ति दाईनी बहन का सृजन करने के लिए अनुरोध कर रही थी वही पदमा अपने सोनू के उज्जवल भविष्य तथा उसके लिए भगवान से नौकरी की मांग कर रही थी।
कजरी भी अपने पुत्र मोह से नहीं बच पाई थी वह भी भगवान से अपने पुत्र रतन की वापसी मांग रही थी। वही उसके बुढ़ापे का एकमात्र सहारा था।
माता का पुत्र के प्रति प्रेम दुनिया का सबसे पवित्र प्रेम है। यह बात इन तीनों महिलाओं पर लागू हो रही थी परंतु सुगना दुधारी तलवार पर चल रही थी यदि उसकी मांग पूरी ना होती तो सुगना को मृत्यु तुल्य कष्ट से गुजरना होता। अपने ही पुत्र के साथ संभोग करने का दंड वह स्वीकार न कर पाती।
अपने अवचेतन मन से उसने अपने इष्ट देव को वह फैसला सुना दिया था। उसने अपने इष्ट देव को यह खुली धमकी दे दी थी यदि उसके गर्भ में पुत्री का सृजन ना हुआ और यदि सूरज को मुक्ति दिलाने के लिए यदि उसे अपने ही पुत्र से संभोग करना पड़ा तो वह यह निकृष्ट कार्य भी करेगी परंतु उसके पश्चात अपनी देह त्याग देगी।
वह मंदिर मंदिर अनुनय विनय करती रही और अपनी एकमात्र इच्छा को पूरा करने के लिए मन्नतें मांगती रही।
उधर सरयू सिंह भगवान के प्रति अपनी कृतज्ञता जाहिर करते रहे । सरयू सिंह मनोरमा को जी भर कर चोदने के बाद आत्मविश्वास से लबरेज थे। उन्होंने डॉक्टर की सलाह को झुठला दिया था और उनके निर्देशों के विपरीत जाकर न सिर्फ शिलाजीत का सेवन किया था अपितु एक नौजवान युवती के साथ जी भर कर संभोग किया था और उसे एक नहीं दो दो बार स्खलित किया था। भगवान ने उन्हें एक बार फिर मर्दाना ताकत से भर दिया था।
सभी के पास मांगने के लिए कुछ ना कुछ था परंतु सोनी जो चाहती थी उसे वह मांगना भी नहीं आता था। विकास उसे पसंद तो आने लगा था परंतु इस कच्ची उम्र में वह विकास से कोई रिश्ता नही जोड़ना चाहती थी। और जो वह विकास से चाहती थी उसे भगवान से मांगने का कोई औचित्य नहीं था। सोनी विकास से लिपटकर पुरुष शरीर का स्पर्श एवं आनंद अनुभव करना चाहती थी। वह अपनी चुचियों पर पुरुष स्पर्श के लिए लालायित थी। अपने दिवास्वप्न में वह कभी-कभी पुरुषों के लण्ड के बारे में भी सोचती और अपनी अस्पष्ट जानकारी के अनुसार उसके आकार की कल्पना करती।
अपने भांजे सूरज की नुन्नी सहलाकर उसने नुन्नी का बढ़ा हुआ आकार देखा था और पुरुष लिंग की कल्पना उसी के अनुरूप कर ली थी। परंतु क्या सभी पुरुषों का लिंग उसी प्रकार होता होगा? सोनी के मन में भविष्य को लेकर कई प्रश्न थे? तुरंत सारे प्रश्नों के उत्तर भविष्य के गर्भ में छुपे हुए थे।
सोनी के ठीक उलट मोनी अभी इस कामवासना की दुनिया से बेहद दूर थी। घर के कामकाज में मन लगाने वाली मुनि धर्म परायण भी थी और एक निहायत ही पारिवारिक लड़की थी अपने संस्कारों से भरी हुई। जब सुगना के कहने पर मोनी ने सूरज के अंगूठे सहलाया था और उसकी बड़ी हुई नुन्नी को अपने होठों से छू कर छोटा किया था वह बेहद शर्मसार थी और फिर कभी सूरज के अंगूठे से ना खेलने का मन ही मन फैसला कर लिया था।
हालांकि यह फैसला कब तक कायम रहता यह तो नियति ही जानती थी। जब जांघों के बीच आग बढ़ेगी कई फैसले उसी आग में दफन हो जाने थे।
इस समय सिर्फ लाली ही की जिसके दोनों हाथों में लड्डू थे उसका पति राजेश उससे बेहद प्यार करता था और अब सोनू के उसके जीवन मे हलचल मचा दी थी। सोनू दो-तीन दिनों से लाली के घर नहीं आया था। लाली की अधीरता भगवान ने समझ ली थी।
मंदिर से बाहर निकलते समय सुगना ने सरयू सिंह के माथे पर तिलक लगाया और उनसे अनुरोध किया…
"बाबूजी कल और कोनो काम मत करब कल हम पूरा दिन आपके साथ रहब । उ वाला होटल ठीक कर लीं जवना में हमनी के पहला बार एक साथ रुकल रहनी जा जब हमार हाथ टूटल रहे।"
सरयू सिह बेहद प्रसन्न हो गए सुगना ने जिस बेबाकी से होटल में रहकर चुदने की इच्छा जाहिर की थी वह उसके कायल हो गए थे।
सरयू सिंह मुस्कुराते हुए बोले
"हां उहे वाला होटल में जवना में तू रात भर तक सपनात रहलु"
सुगना को उस रात की सारी बातें याद आ गई
((("मैं सुगना"
दिन भर की भागदौड़ से मैं थक गई थी। शहर के उस अनजान होटल के कमरे में लेटते ही मैं सो गई। बाबुजी दूसरे बिस्तर पर सो रहे थे.
रात में एक अनजान शख्स मेरी साड़ी और पेटीकोट को ऊपर की तरफ उठा रहा था. पता नहीं क्यों मुझे अच्छा लग रहा था। मैंने अपने घुटने मोड़ लिए। मेरा पेटीकोट मेरी जांघो को तक आ चुका था। पंखे की हवा मेरे जांघों के अंदरूनी भाग को छू रही थी और मुझे शीतलता का एहसास करा रही थी। उस आदमी ने मेरी पेटीकोट को मेरे नितंबों तक ला दिया था। उसे और ऊपर उठाने के मैने स्वयं अपने नितंबों को ऊपर उठा दिया। उस आदमी के सामने मुझे नंगा होने में पता नहीं क्यों शर्म नही आ रही थी। मैं उत्तेजित हो चली थी।
पेटिकोट और साड़ी इकट्ठा होकर मेरी कमर के नीचे आ गए। घुंघराले बालों के नीचे छुपी मेरी बूर उस आदमी की निगाहों के सामने आ गयी।
उस आदमी का चेहरा मुझे दिखाई नहीं पड़ रहा था पर उसकी कद काठी बाबूजी के जैसी ही थी। वह आदमी मेरी जाँघों को छू रहा था। उसकी बड़ी बड़ी खुरदुरी हथेलियां मेरे जाँघों को सहलाते हुए मेरी बुर तक पहुंचती पर उसे छू नही रही थीं।
मैं चाहती थी कि वह उन्हें छुए पर ऐसा नहीं हो रहा था। मेरी बुर के होठों पर चिपचिपा प्रेमरस छलक आया था। अंततः उसकी तर्जनी उंगली ने मेरी बुर से रिस रहे लार को छू लिया। उसकी उंगली जब बुर से दूर हो रही थी तो प्रेमरस एक पतले धागे के रूप में उंगली और बूर के बीच आ गया। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मेरी बुर उस उंगली को अपने पास खींचे रखना चाहती थी।
उंगली के दूर होते ही वह पतली कमजोर लार टूट गयी जिस का आधा भाग वापस मेरी बूर पर आया और आधा उसकी उंगली से सट गया। उस आदमी ने अपनी उंगली को ध्यान से देखा और अपने नाक के करीब लाकर उसकी खुशबू लेने की कोशिश की। और अंततः अपनी जीभ से उसे चाट लिया। मेरी बुर उस जीभ का इंतजार कर रही थी पर उस अभागी का कोई पुछनहार न था। मैं अपनी कमर हिला रही थी मेरी जाघें पूरी तरह फैल चुकी थी ।
अचानक वह व्यक्ति उठकर मेरी चूँचियों के पास आ गया। मेरी ब्लाउज का हुक खुद ब खुद खुलता जा रहा था। तीन चार हुक खुलने के पश्चात चूचियां उछलकर ब्लाउज से बाहर आ गयीं। उस व्यक्ति ने मेरी चूचियों को चूम लिया। एक पल के लिए मुझे उसका चेहरा दिखाई दिया पर फिर अंधेरा हो गया। वह मेरी चुचियों को चूमे जा रहा था। उसकी हथेलियां भी मेरी चुचियों पर घूम रही थी। आज पहली बार किसी पुरुष का हाथ अपनी चुचियों पर महसूस कर मेरी उत्तेजना सातवें आसमान पर पहुंच गई। मेरी बुर फड़फड़ा रही थी। मैंने स्वयं अपनी उंगलियां को अपने बुर के होठों पर ले जाकर सहलाने लगी। मेरी बुर खुश हो रही थी और उसकी खुशी उसके होठों से बह रहे प्रेम रस के रूप में स्पष्ट दिखाई पड़ रही थी।
अचानक मेरी चूचि का निप्पल उस आदमी के मुह में जाता महसूस हुआ। वह मेरे निप्पलों को चुभला रहा था। मैं कापने लगी। मैने इतनी उत्तेजना आज तक महसूस नहीं की थी।
कुछ देर बाद मैंने उस आदमी को अपनी धोती उतारते देखा। उसका लंड मेरी आंखों के ठीक सामने आ गया यह। लंड तो बाबुजी से ठीक मिलता-जुलता था मैं अपने हाथ बढ़ाकर उसे छूना चाह रही थी। वह मेरे पास था पर मैं उसे पकड़ नहीं पा रही थी। मेरी कोमल हथेलियां ठीक उसके पास तक पहुंचती पर उसे छु पाने में नाकाम हो रही थी।
मैं चाह कर भी उस आदमी को अपने पास नहीं बुला पा रही थी पर उसके लंड को देखकर मेरी बुर चुदवाने के लिए बेचैन हो चली थी। मैं अपनी जांघों को कभी फैलाती और कभी सिकोड़ रही थी।
वह आदमी मेरी उत्तेजना समझ रहा था कुछ ही देर में वह बिस्तर पर आ गया और मेरी जांघों के बीच बैठकर अपनी गर्दन झुका दिया वह अपने होठों से मेरी नाभि को चूम रहा था और हथेलियों से चूचियों को सहला रहा था। मैं स्वयं अपनी हथेलियों से उसके सर को धकेल कर अपनी बुर पर लाना चाहती थी पर जाने यह यह क्यों संभव नहीं हो पा रहा था । मेरी हथेलियां उसके सर तक पहुंचती पर मैं उसे छू नहीं पा रही थी।
अचानक मुझे मेरी जाँघे फैलती हुई महसूस हुयीं। लंड का स्पर्श मेरी बुर पर हो रहा था बुर से निकल रहा चिपचिपा रस रिश्ते हुए मेरी कोमल गांड तक जा पहुंचा था। मैं उत्तेजना से हाफ रही थी तभी लंड मेरी बुर में घुसता हुआ महसूस हुआ।
मैं चीख पड़ी
"बाबूजी……"
मेरी नींद खुल गई पर बाबूजी जाग चुके थे। उन्होंने कहा
"का भईल सुगना बेटी"
भगवान का शुक्र था। लाइट गयी हुयी थी। मेरी दोनों जाँघें पूरी तरह फैली हुई थी और कोमल बुर खुली हवा में सांस ले रही थी। वह पूरी तरह चिपचिपी हो चली थी मेरी उंगलियां उस प्रेम रस से सन चुकी थी। मैंने सपने में अपनी बुर को कुछ ज्यादा ही सहला दिया था। मेरी चूचियां भी ब्लाउज से बाहर थी।
मैंने बाबूजी की आवाज सुनकर तुरंत ही अपनी साड़ी नीचे कर दी।
मुझे चुचियों का ध्यान नहीं आया। बाबूजी की टॉर्च जल चुकी थी उसकी रोशनी सीधा मेरी चुचियों पर ही पड़ी। प्रकाश का अहसास होते ही मैंने अपनी साड़ी का पल्लू खींच लिया पर बाबूजी का कैमरा क्लिक हो चुका था। मेरी चुचियों का नग्न दर्शन उन्होंने अवश्य ही कर लिया था। साड़ी के अंदर चुचियां फूलने पिचकने लगीं।
मेरी सांसे अभी भी तेज थीं। बाबू जी ने टॉर्च बंद कर दी शायद वह अपनी बहू की चूँचियों पर टार्च मारकर शर्मा गए थे। उन्होंने फिर पूछा
" सुगना बेटी कोनो सपना देखलू हा का?" उनकी बात सच थी। मैंने सपना ही देखा था पर उसे बता पाने की मेरी हिम्मत नहीं थी। मैंने कहा
"हां बाबू जी"
"चिंता मत कर….नया जगह पर नींद ठीक से ना आवेला"
" हा, आप सूत रहीं"
मैंने करवट लेकर अपनी चुचियों को बाबूजी से दूर कर लिया और मन ही मन मुस्कुराते हुए सोने लगी। डर वश मेरी बुर पर रिस आया प्रेमरस सूख गया था।
उपरोक्त यादें भाग 11 से ली गयी हैं))))
वह शर्म से पानी पानी हो गई।
सरयू सिंह सुगना के अंतर्मन को नहीं जान रहे थे परंतु होटल और एकांत दोनों एक ही बात की तरफ इशारा कर रहे थे जिसे वह बखूबी समझ रहे थे। वह बेहद प्रसन्न हो गए और सुगना को अपने सीने से सटा लिया कजरी और पदमा को आते देख इस आलिंगन का कसाव तुरंत ही ढीला पड़ गया और सुगना के द्वारा दिया प्रसाद सरयू सिंह मुंह में डालकर सभी को जल्दी चलने का निर्देश देने लगे।
शाम हो चली थी बनारस महोत्सव में आज धर्म हावी था हर तरफ पूजा-पाठ की सामग्री बिक रही थी लगभग हर पांडाल से शंख ध्वनि और आरती की गूंज सुनाई पड़ रही थी सभी महिलाएं भाव विभोर होकर अपने-अपने इष्ट देव की आराधना कर रही थीं।
बनारस महोत्सव का चौथा दिन पूजा पाठ की भेंट चढ़ गया।
पंडाल की छत को एकटक निहारती सुगना कल के दिन का बेसब्री से इंतजार कर रही थी। कल का दिन सुगना के लिए बेहद अहम था। कल वह अपने बाबू जी से जी भर कर संभोग करना चाहती थी। और एक नहीं कई बार उनके वीर्य को अपने गर्भाशय में भरकर गर्भवती होना चाहती थी। अपने पुत्र मोह में वो यह बात भूल चुकी थी की डॉक्टर ने सरयू सिंह को संभोग न करने की सलाह दी हुई है।
सुगना की अधीरता को देख नियति भी मर्माहत हो चुकी थी वह सुगना के गर्भधारण को लेकर वह तरह-तरह के प्रयास कर रही थी। सुकुमारी और अपने पूरे परिवार की प्यारी सुगना के गर्भ से सुगना के परिवार की दशा दिशा तय होनी थी..
परंतु नियति निष्ठुर थी सुगना की तड़प को नजरअंदाज कर उसने अपनी चाल चल दी..
शेष अगले भाग में…
मनोरमा अपने मन में सरयू सिंह के छैल छबीले चेहरे और बलिष्ठ शरीर की छवि को बसाये हए अपने गर्भाशय में हो रहे वीर्य पात के अद्वितीय अनुभव को महसूस कर रही थी।
नियति मुस्कुरा रही थी कहानी का एक प्रमुख पात्र सृजित हो रहा था…..
अब आगे
सरयू सिंह द्वारा की गई जबरदस्त चुदाई से मनोरमा तृप्त हो चुकी थी और उसके गर्भ में सरयू सिंह के खानदान का एक अंश आ चुका था। तृप्ति का भाव मनोरमा और सरयू सिंह दोनों में ही था। जिस प्रेम भाव और अद्भुत मिलन से इस गर्भ का सृजन हुआ था उसने स्वतः ही इस मिलन की गुणवत्ता को आत्मसात कर लिया था। मनोरमा जैसी काबिल मां और सरयू सिंह जैसे विशेष व्यक्तित्व वाले पिता की संतान निश्चित ही विलक्षण होती।
मनोरमा, सरयू सिंह के लण्ड निकालने का इंतजार कर रही थी। सरयू सिंह पूरी तरह स्खलित होने के बावजूद उस मखमली एहसास को छोड़ना नहीं चाह रहे थे। वह अभी भी मनोरमा की पीठ को चूमे जा रहे थे और अपनी हथेलियों से उसकी चुचियों को मीस रहे थे।
शिलाजीत के असर से लण्ड में तनाव अभी भी बना हुआ था। परंतु अंडकोशों ने उसका साथ छोड़ दिया था और ढीले पड़ चुके थे।
वैसे भी वह दोनों द्वारपाल की तरह हमेशा इस क्रीडा में बाहर ही छोड़ दिए जाते थे। वह तो काम कला में दक्ष और पारखी सुगना थी जो इस द्वारपालों को भी अपनी कोमल उंगलियों का स्पर्श देकर उनकी उपयोगिता को बनाए रखती थी। परंतु मनोरमा वह तो अभी कामकला के पहले पायदान पर ही थी। उसने तो यह चरम सुख आज शायद पहली बार प्राप्त किया था।
स्खलित हो जाना ही चरमोत्कर्ष नहीं है। जिस सुख की अनुभूति आज मनोरमा ने की थी वह सामान्य स्खलन से कई गुणा बढ़कर था। मनोरमा के शरीर का रोम रोम अंग अंग सरयू सिंह के इस अद्भुत संभोग का कायल था।
सरयू सिंह अपना लण्ड निकालने के बाद अपनी धोती ढूंढने लगे। थोड़ा प्रयास करने पर उन्होंने अपना धोती और कुर्ता ढूंढ लिया परंतु लंगोट को ढूंढ पाना इतना आसान न था। वह बिजली आने से पहले ही कमरे से हट जाना चाहते थे। मनोरमा से आंखें मिला पाने की उनकी हिम्मत अब नहीं थी। यह अलग बात थी की कामवासना के दौरान उन्होंने उसे कस कर चोदा था परंतु उसके कद और अहमियत को वह भली-भांति जानते थे। सरयू सिंह ने आनन-फानन में अपनी धोती को मद्रासी तरीके से पहना और कुर्ता डालकर कमरे से बाहर आ गए।
मनोरमा अभी भी बिस्तर पर निढाल पड़ी हुई थी। उसकी बुर से रिस रहा वीर्य जांघों पर आ चुका था। मनोरमा के सारे कपड़े बिस्तर पर तितर-बितर थे। बिना प्रकाश के उन्हें ढूंढना और धारण करना असंभव था। वह नग्न अवस्था में लेटी हुई बिजली आने का इंतजार करने लगी। नियत ने मनोरमा को निराश ना किया और जब तक मनोरमा की सांसें सामान्य होतीं बनारस महोत्सव की लाइट वापस आ गई।
मनोरमा ने अपनी जांघों पर लगे वीर्य को पोछने की कोशिश नहीं की। वह सरयू सिंह की चुदाई और उनके प्रेम के हर चिन्ह को सजाकर रखना चाहती थी। उसने फटाफट अपने कपड़े पहने और बिस्तर पर पड़े लाल लंगोट को देख कर मुस्कुराने लगी।
सरयू सिंह ने आज नया लंगोट पहना हुआ था परंतु लंगोट में कसे हुए लण्ड की खुशबू समाहित हो चुकी थी। मनोरमा ने उसे अपने हाथों में उठाया और मुस्कुराते हुये उसे मोड़ कर अपने पर्स में रख लिया। उसके लिए यह एक यादगार भेंट बन चुकी थी।
भरपूर चुदाई के बाद स्त्री का शरीर अस्तव्यस्त हो जाता है। वह चाह कर भी तुरंत अपनी पूर्व अवस्था में नहीं आ सकती। मनोरमा का चेहरा और शरीर अलसा चुका था। उसने अपने बाल ठीक किए और कमरे से बाहर आ गयी पर उसकी हालत कतई ठीक नहीं थी। उसे अभी मीटिंग में भी जाना था। वह अनमने मन से मीटिंग हाल की तरफ बढ़ने लगी तभी उसे सुगना दिखाई दे गयी जो उसके कमरे की तरफ ही आ रही थी।
सुगना ने मनोरमा को देखा और अपने दोनों हाथ जोड़कर उसका अभिवादन किया।
"अरे मैडम जी इतनी रात को"
"हां सुगना आज मेरी मीटिंग कुछ ज्यादा ही लंबी चल रही है"
सुगना ने मनोरमा के ऐश्वर्य भरे चेहरे और कसी हुई काया में आया बदलाव महसूस कर लिया उसने मनोरमा से पूछा
"मैडम जी आपकी तबीयत ठीक है ना? आप काफी थकी हुई लग रही है।"
सुगना ने जो कहा था इसका एहसास मनोरमा को भी था उसने बड़ी सफाई से अपने आप को बचाते हुए बोला..
"अरे सुगना होटल का खाना मुझे सूट नहीं किया पेट भी खराब हो गया है इसी लिए कमरे में आना पड़ा"
सुगना ने मन ही मन मनोरमा की स्थिति का आकलन कर लिया और उस कमरे के उपयोग के औचित्य के बारे में भी अपने स्वविवेक से सोच लिया।
सुगना को संशय में देखकर मनोरमा सोच में पड़ गई कहीं सुगना ने उसकी शारीरिक स्थिति देखकर कुछ अंदाज तो नहीं लगा लिया उसने बात बदलने की कोशिश की..
"तुमने बनारस घूम लिया कि नहीं?"
"अभी है ना दो-तीन दिन घूम लूंगी'
"कल मैं अपनी गाड़ी भेज दूंगी अपने बाबू जी के साथ जाकर बनारस घूम लेना"
सुगना बेहद प्रसन्न हो गई। मनोरमा ने कहा
"तुम उस कमरे में जा सकती हो मैं अब वापस जा रही हूँ।"
मनोरमा अपने मीटिंग हॉल की तरफ बढ़ चली और सुगना कमरे की तरफ।
सुगना मन ही मन घबरा रही थी कि निश्चित ही उसके बाबू जी आज उसका इंतजार करते करते थक चुके होंगे.. परंतु वह क्या कर सकती थी. उसकी मां ने कुछ देर तक उसे सूरज के कंगन में उलझाये रखा तभी बत्ती गुल हो गई थी। अंधेरे में वहां से कमरे तक जाना संभव न था।
जवान स्त्री तब भी मनचलों के आकर्षण का केंद्र रहती थी और आज भी।
पद्मा ने सुगना को लाइट आने तक रोक लिया था।
उधर सरयू सिंह कमरे से बाहर निकलने के पश्चात कुछ दूर पर जाकर खड़े हो गए थे। वह मनोरमा के कमरे से चले जाने का इंतजार कर रहे थे। उन्हें अपना लंगोट भी लेना था।
उन्हें पूरा विश्वास था कि सुगना अवश्य आएगी। निश्चित ही वह बिजली गुल हो जाने होने की वजह से समय पर नहीं आ पाई थी।
सुगना को कमरे की तरफ आता देख सरयू सिंह सुगना की तरफ बढ़ चले उन्होंने सुगना पर झूठी नाराजगी दिखाते हुए कहा..
"सुगना बाबू कहां रह गईलू हा..?" अपने झूठे क्रोध में यह प्यार सिर्फ सरयू सिंह ही दिखा सकते थे।
सुगना ने अपना सच स्पष्ट शब्दों में बयान कर दिया. सरयू सिंह ने सुगना से कहा
"लागा ता आज देर हो गईल बा तोहार उपहार के भोग आज ना लाग पायी "
सचमुच देर हो चुकी थी सुगना तो पूरी तरह उत्तेजित थी और चुदना भी चाहती थी परंतु इस क्रिया में लगने वाला समय उन दोनों की हकीकत पूरे परिवार के सामने ला देता। खाने के समय न पहुंचने पर कजरी पदमा को लेकर उसे ढूंढती हुई यहां आ जाती।
सुगना ने अपना मन मसोसकर कहा
ठीक बा बाबू जी "काल एहि बेरा (बेरा मतलब समय)"
सरयू सिंह ने सुगना से चाबी मांगी और दरवाजा खोलकर अपना लंगोट ढूंढने लगे।
सुगना ने दरवाजे पर खड़े खड़े पूछा
" ...का खोजा तानी?".
सरयू सिंह क्या जवाब देते जो वह खोज रहे थे वह मनोरमा ले जा चुकी थी।
सुगना और शरीर सिंह धीरे-धीरे वापस पंडाल की तरफ आ रहे थे।
सूरज के परिवार का एक अभिन्न अंग मनोरमा के गर्भ में आ चुका था काश कि यह बात सुगना जान पाती तो अपने गर्भधारण को लेकर उसकी अधीरता थोड़ा कम हो जाती। हो सकता था की सूरज की जिस बहन की तलाश में वह गर्भधारण करना चाह रही थी वह मनोरमा की कोख में सृजित हो चुकी हो….
बनारस महोत्सव के बिजली विभाग के कर्मचारियों की एक गलती ने नियति को नया मौका दे दिया था।
सुगना से मिलने के बाद मनोरमा मीटिंग में पहुंची तो जरूर परंतु उसका मन मीटिंग में कतई नहीं लग रहा था। बिजली गुल होने की वजह से मीटिंग का तारत्म्य बिगड़ गया था और सभी प्रतिभागी घर जाने को आतुर थे।
अंततः मीटिंग समाप्त कर दी गई और मनोरमा एक बार फिर अपने पांच सितारा होटल की तरफ चल पड़ी।
कमरे में पहुंचकर उसने अपने वस्त्र उतारे और अपनी जाँघों और बूर् के होठों पर लगे श्वेत गाढ़े वीर्य के धब्बे को देख कर मुस्कुराने लगी। उसे अपने शरीर और चरित्र पर लगे दाग से कोई शिकायत न थी। उसने सरयू सिंह के साथ हुए इस अद्भुत संभोग को भगवान का वरदान मान लिया था। उसकी काम पिपासा कई वर्षों के लिए शांत हो चुकी थी। वह अपनी फूली और संवेदनशील हो चुकी बुर को अपनी हथेलियों से सहला रही थी और मन ही मन आनंद का अनुभव कर रही थी।
मनोरमा ने अपने हाथ पैर और चेहरे को धुला परंतु स्नान करने का विचार त्याग दिया। सरयू सिंह के वीर्य को अपने शरीर से वह कतई अलग नहीं करना चाह रही थी। अनजाने में ही सही मनोरमा ने पुरुष का वह दिव्य स्वरूप देख लिया था। वह मन ही मन भगवान के प्रति कृतज्ञ थी और इस संभोग को अपने गर्भधारण का आधार बनाना चाह रही थी।
मनोरमा ने अपने इष्ट देव को याद किया और अपने गर्भधारण की अर्जी लगा दी। सरयू सिंह जैसे बलिष्ठ और स्वस्थ पुरुष की संतान निश्चित ही उनके जैसी ही होगी।
मनोरमा के गर्भ से पुत्र होगा या पुत्री इसका निर्धारण नियति ने नियंता के हाथों छोड़ दिया।
बनारस महोत्सव का चौथा दिन……
बनारस महोत्सव के इन 3 दिनों में कथा के दो पात्रों का सृजन हो चुका था एक लाली के गर्भ में और दूसरा एसडीएम मनोरमा के गर्भ में नियति ने इन दोनों पात्रों का लिंग निर्धारण अपनी योजना के अनुसार कर दिया था। परंतु सुगना अभी भी अपने गर्भधारण का इंतजार कर रही थी। कल का सुनहरा अवसर उसने अनायास ही गवां दिया था और सरयू सिंह के प्यार और अद्भुत चुदाई का आनंद लेते हुए गर्भवती का होने का सुख सुगना की जगह मनोरमा ने उठा लिया था।
बनारस महोत्सव के चौथे दिन महिलाओं का एक विशेष व्रत था घर की सभी महिलाओं ने व्रत रखा हुआ था। सुगना भी उस से अछूती न थी। सुगना ही क्या उसकी दोनों छोटी बहनें भी आज व्रत थी सुगना को आज के व्रत का ध्यान ही नहीं आया था। कल शाम उसने अपने बाबू जी से मिलने के लिए आज का दिन मुकर्रर किया था। परंतु अब यह व्रत... जिसे वह छोड़ नहीं सकती थी।
परंतु व्रत के दौरान संभोग क्या यह उचित होगा? सुगना अपनी अंतरात्मा से एक बार फिर लड़ रही थी।
क्या बनारस महोत्सव का चौथा दिन क्या यूं ही बीत जाएगा?
हे भगवान अब मैं क्या करूं। सुगना ने इससे पहले भी व्रत रखा था परंतु उस दौरान वह संभोग से सर्वथा दूर रही थी। बातों ही बातों में कजरी ने उसे व्रत की अहमियत और व्रत के दौरान पालन किए जाने वाले दिशा निर्देशों की जानकारी बखूबी दी हुई थी। परंतु आज का दिन वह किस प्रकार व्यर्थ जाने दे सकती थी।
यदि वह गर्भवती ना हुई तो?? सुगना की रूह कांप उठी। सूरज को मुक्ति दिलाने के लिए वह हर हाल में गर्भवती होना चाहती थी।
उसकी अंतरात्मा ने आवाज दी
व्रत के पावन दिन यदि तू संभोग कर गर्भवती होना भी चाहेगी तो भगवान तेरा मनोरथ कभी नहीं पूर्ण करेंगे। हो सकता है तेरे गर्भ में आने वाला तेरी मनोकामना की पूर्ति न कर तुझे और मुसीबत में डाल दे।
सुगना एक बार फिर कांप उठी यदि सचमुच उसके गर्भ में पुत्री की जगह पुत्र का सृजन हुआ तो वह आने वाले समय में सूरज को मुक्ति किस प्रकार दिला पाएगी। क्या उसे स्वयं सूरज से …. इस विचार से ही उसके शरीर में कंपन उत्पन्न हो गए।
"मैं भगवान से प्रार्थना करूंगी मेरी मजबूरी और मनोदशा को समझ कर वह मुझे माफ कर देंगे सुगना ने खुद को समझाने की कोशिश की"
"यदि भगवान चाहेंगे तो तेरा यह संभोग कल और परसों भी हो सकता है आज व्रत के दिन तुझे निश्चित ही इस से दूर रहना चाहिए।" अंतरात्मा ने फिर अपनी बात रखी।
सुगना चाह कर भी व्रत के नियम तोड़ पाने में स्वयं को असहज महसूस कर रही थी परंतु जैसे-जैसे समय बीत रहा था उसकी अधीरता बढ़ती जा रही थी।
सरयू सिंह को भी महिलाओं के व्रत का पता चल चुका था उनकी उत्तेजना भी व्रत के नाम पर शांत हो चुकी वैसे भी पिछले शाम उन्होंने अपनी मनोरमा मैडम की जी भर कर चुदाई की थी और उनकी कामोत्तेजना कुछ समय के लिए तृप्त हो गई थी।
सुबह-सुबह मनोरमा मैडम की गाड़ी विद्यानंद के पांडाल के सामने आ गई थी। सुगना ने इसकी सूचना पहले ही अपनी मां पदमा और सास कजरी को दे दी थी। सोनी और मोनी दोनों भी बनारस घूमने के नाम से बेहद उत्साहित थी।
सबको बनारस घूमने के कार्यक्रम के बारे में पता था परंतु यह बात सरयू सिंह को पता न थी कल शाम की मुलाकात में वह यह बात सरयू सिंह को बताना भूल गई थी।
पंडाल के सामने गाड़ी खड़ी देख सरयू सिंह उठ कर गाड़ी की तरफ गए उन्हें लगा जैसे मनोरमा मैडम स्वयं आई हैं। उन्हें देखकर ड्राइवर बाहर आया और अदब से बोला
" मैडम ने यह गाड़ी आप लोगों को बनारस घुमाने के लिए भेजी है शायद सुगना मैडम से उनकी बात हुई है"
सरयू सिंह ने पांडाल की तरफ देखा और अपने परिवार की सजी धजी महिलाओं को देखकर वह बेहद भाव विभोर हो उठे।
सोनी और मोनी युवावस्था की दहलीज लांघने को तैयार थी परंतु सरयू सिंह का सारा ध्यान अपनी जान सुगना पर ही लगा था। सुगना के कोमल अंगों को न जाने वह कितनी बार अपने हाथों से नाप चुके थे पर जब जब वह सुगना को देखते उनकी नजरें सुगना के अंगो का नाप लेने लगतीं और उसके अंदर छुपे हुए खजाने की कल्पना कर उनके लण्ड जागृत हो जाता। आज व्रत के भी दिन भी वह अपनी उत्तेजना पर काबू न रख पाए और उनका लण्ड एक बार फिर थिरक उठा।
सरयू सिंह दलबल समेत बनारस दर्शन के लिए निकल चुके थे। सुगना ने लाली को भी अपने साथ ले लिया। महिलाओं का सारा ध्यान बनारस की खूबसूरत बिल्डिंगों को छोड़कर मंदिरों पर था। सबकी अपनी अपनी मनोकामनाएं थी जहां सुगना सिर्फ और सिर्फ सूरज के बारे में सोच रही थी और अपने इष्ट देव से उसकी मुक्ति दाईनी बहन का सृजन करने के लिए अनुरोध कर रही थी वही पदमा अपने सोनू के उज्जवल भविष्य तथा उसके लिए भगवान से नौकरी की मांग कर रही थी।
कजरी भी अपने पुत्र मोह से नहीं बच पाई थी वह भी भगवान से अपने पुत्र रतन की वापसी मांग रही थी। वही उसके बुढ़ापे का एकमात्र सहारा था।
माता का पुत्र के प्रति प्रेम दुनिया का सबसे पवित्र प्रेम है। यह बात इन तीनों महिलाओं पर लागू हो रही थी परंतु सुगना दुधारी तलवार पर चल रही थी यदि उसकी मांग पूरी ना होती तो सुगना को मृत्यु तुल्य कष्ट से गुजरना होता। अपने ही पुत्र के साथ संभोग करने का दंड वह स्वीकार न कर पाती।
अपने अवचेतन मन से उसने अपने इष्ट देव को वह फैसला सुना दिया था। उसने अपने इष्ट देव को यह खुली धमकी दे दी थी यदि उसके गर्भ में पुत्री का सृजन ना हुआ और यदि सूरज को मुक्ति दिलाने के लिए यदि उसे अपने ही पुत्र से संभोग करना पड़ा तो वह यह निकृष्ट कार्य भी करेगी परंतु उसके पश्चात अपनी देह त्याग देगी।
वह मंदिर मंदिर अनुनय विनय करती रही और अपनी एकमात्र इच्छा को पूरा करने के लिए मन्नतें मांगती रही।
उधर सरयू सिंह भगवान के प्रति अपनी कृतज्ञता जाहिर करते रहे । सरयू सिंह मनोरमा को जी भर कर चोदने के बाद आत्मविश्वास से लबरेज थे। उन्होंने डॉक्टर की सलाह को झुठला दिया था और उनके निर्देशों के विपरीत जाकर न सिर्फ शिलाजीत का सेवन किया था अपितु एक नौजवान युवती के साथ जी भर कर संभोग किया था और उसे एक नहीं दो दो बार स्खलित किया था। भगवान ने उन्हें एक बार फिर मर्दाना ताकत से भर दिया था।
सभी के पास मांगने के लिए कुछ ना कुछ था परंतु सोनी जो चाहती थी उसे वह मांगना भी नहीं आता था। विकास उसे पसंद तो आने लगा था परंतु इस कच्ची उम्र में वह विकास से कोई रिश्ता नही जोड़ना चाहती थी। और जो वह विकास से चाहती थी उसे भगवान से मांगने का कोई औचित्य नहीं था। सोनी विकास से लिपटकर पुरुष शरीर का स्पर्श एवं आनंद अनुभव करना चाहती थी। वह अपनी चुचियों पर पुरुष स्पर्श के लिए लालायित थी। अपने दिवास्वप्न में वह कभी-कभी पुरुषों के लण्ड के बारे में भी सोचती और अपनी अस्पष्ट जानकारी के अनुसार उसके आकार की कल्पना करती।
अपने भांजे सूरज की नुन्नी सहलाकर उसने नुन्नी का बढ़ा हुआ आकार देखा था और पुरुष लिंग की कल्पना उसी के अनुरूप कर ली थी। परंतु क्या सभी पुरुषों का लिंग उसी प्रकार होता होगा? सोनी के मन में भविष्य को लेकर कई प्रश्न थे? तुरंत सारे प्रश्नों के उत्तर भविष्य के गर्भ में छुपे हुए थे।
सोनी के ठीक उलट मोनी अभी इस कामवासना की दुनिया से बेहद दूर थी। घर के कामकाज में मन लगाने वाली मुनि धर्म परायण भी थी और एक निहायत ही पारिवारिक लड़की थी अपने संस्कारों से भरी हुई। जब सुगना के कहने पर मोनी ने सूरज के अंगूठे सहलाया था और उसकी बड़ी हुई नुन्नी को अपने होठों से छू कर छोटा किया था वह बेहद शर्मसार थी और फिर कभी सूरज के अंगूठे से ना खेलने का मन ही मन फैसला कर लिया था।
हालांकि यह फैसला कब तक कायम रहता यह तो नियति ही जानती थी। जब जांघों के बीच आग बढ़ेगी कई फैसले उसी आग में दफन हो जाने थे।
इस समय सिर्फ लाली ही की जिसके दोनों हाथों में लड्डू थे उसका पति राजेश उससे बेहद प्यार करता था और अब सोनू के उसके जीवन मे हलचल मचा दी थी। सोनू दो-तीन दिनों से लाली के घर नहीं आया था। लाली की अधीरता भगवान ने समझ ली थी।
मंदिर से बाहर निकलते समय सुगना ने सरयू सिंह के माथे पर तिलक लगाया और उनसे अनुरोध किया…
"बाबूजी कल और कोनो काम मत करब कल हम पूरा दिन आपके साथ रहब । उ वाला होटल ठीक कर लीं जवना में हमनी के पहला बार एक साथ रुकल रहनी जा जब हमार हाथ टूटल रहे।"
सरयू सिह बेहद प्रसन्न हो गए सुगना ने जिस बेबाकी से होटल में रहकर चुदने की इच्छा जाहिर की थी वह उसके कायल हो गए थे।
सरयू सिंह मुस्कुराते हुए बोले
"हां उहे वाला होटल में जवना में तू रात भर तक सपनात रहलु"
सुगना को उस रात की सारी बातें याद आ गई
((("मैं सुगना"
दिन भर की भागदौड़ से मैं थक गई थी। शहर के उस अनजान होटल के कमरे में लेटते ही मैं सो गई। बाबुजी दूसरे बिस्तर पर सो रहे थे.
रात में एक अनजान शख्स मेरी साड़ी और पेटीकोट को ऊपर की तरफ उठा रहा था. पता नहीं क्यों मुझे अच्छा लग रहा था। मैंने अपने घुटने मोड़ लिए। मेरा पेटीकोट मेरी जांघो को तक आ चुका था। पंखे की हवा मेरे जांघों के अंदरूनी भाग को छू रही थी और मुझे शीतलता का एहसास करा रही थी। उस आदमी ने मेरी पेटीकोट को मेरे नितंबों तक ला दिया था। उसे और ऊपर उठाने के मैने स्वयं अपने नितंबों को ऊपर उठा दिया। उस आदमी के सामने मुझे नंगा होने में पता नहीं क्यों शर्म नही आ रही थी। मैं उत्तेजित हो चली थी।
पेटिकोट और साड़ी इकट्ठा होकर मेरी कमर के नीचे आ गए। घुंघराले बालों के नीचे छुपी मेरी बूर उस आदमी की निगाहों के सामने आ गयी।
उस आदमी का चेहरा मुझे दिखाई नहीं पड़ रहा था पर उसकी कद काठी बाबूजी के जैसी ही थी। वह आदमी मेरी जाँघों को छू रहा था। उसकी बड़ी बड़ी खुरदुरी हथेलियां मेरे जाँघों को सहलाते हुए मेरी बुर तक पहुंचती पर उसे छू नही रही थीं।
मैं चाहती थी कि वह उन्हें छुए पर ऐसा नहीं हो रहा था। मेरी बुर के होठों पर चिपचिपा प्रेमरस छलक आया था। अंततः उसकी तर्जनी उंगली ने मेरी बुर से रिस रहे लार को छू लिया। उसकी उंगली जब बुर से दूर हो रही थी तो प्रेमरस एक पतले धागे के रूप में उंगली और बूर के बीच आ गया। ऐसा प्रतीत हो रहा था जैसे मेरी बुर उस उंगली को अपने पास खींचे रखना चाहती थी।
उंगली के दूर होते ही वह पतली कमजोर लार टूट गयी जिस का आधा भाग वापस मेरी बूर पर आया और आधा उसकी उंगली से सट गया। उस आदमी ने अपनी उंगली को ध्यान से देखा और अपने नाक के करीब लाकर उसकी खुशबू लेने की कोशिश की। और अंततः अपनी जीभ से उसे चाट लिया। मेरी बुर उस जीभ का इंतजार कर रही थी पर उस अभागी का कोई पुछनहार न था। मैं अपनी कमर हिला रही थी मेरी जाघें पूरी तरह फैल चुकी थी ।
अचानक वह व्यक्ति उठकर मेरी चूँचियों के पास आ गया। मेरी ब्लाउज का हुक खुद ब खुद खुलता जा रहा था। तीन चार हुक खुलने के पश्चात चूचियां उछलकर ब्लाउज से बाहर आ गयीं। उस व्यक्ति ने मेरी चूचियों को चूम लिया। एक पल के लिए मुझे उसका चेहरा दिखाई दिया पर फिर अंधेरा हो गया। वह मेरी चुचियों को चूमे जा रहा था। उसकी हथेलियां भी मेरी चुचियों पर घूम रही थी। आज पहली बार किसी पुरुष का हाथ अपनी चुचियों पर महसूस कर मेरी उत्तेजना सातवें आसमान पर पहुंच गई। मेरी बुर फड़फड़ा रही थी। मैंने स्वयं अपनी उंगलियां को अपने बुर के होठों पर ले जाकर सहलाने लगी। मेरी बुर खुश हो रही थी और उसकी खुशी उसके होठों से बह रहे प्रेम रस के रूप में स्पष्ट दिखाई पड़ रही थी।
अचानक मेरी चूचि का निप्पल उस आदमी के मुह में जाता महसूस हुआ। वह मेरे निप्पलों को चुभला रहा था। मैं कापने लगी। मैने इतनी उत्तेजना आज तक महसूस नहीं की थी।
कुछ देर बाद मैंने उस आदमी को अपनी धोती उतारते देखा। उसका लंड मेरी आंखों के ठीक सामने आ गया यह। लंड तो बाबुजी से ठीक मिलता-जुलता था मैं अपने हाथ बढ़ाकर उसे छूना चाह रही थी। वह मेरे पास था पर मैं उसे पकड़ नहीं पा रही थी। मेरी कोमल हथेलियां ठीक उसके पास तक पहुंचती पर उसे छु पाने में नाकाम हो रही थी।
मैं चाह कर भी उस आदमी को अपने पास नहीं बुला पा रही थी पर उसके लंड को देखकर मेरी बुर चुदवाने के लिए बेचैन हो चली थी। मैं अपनी जांघों को कभी फैलाती और कभी सिकोड़ रही थी।
वह आदमी मेरी उत्तेजना समझ रहा था कुछ ही देर में वह बिस्तर पर आ गया और मेरी जांघों के बीच बैठकर अपनी गर्दन झुका दिया वह अपने होठों से मेरी नाभि को चूम रहा था और हथेलियों से चूचियों को सहला रहा था। मैं स्वयं अपनी हथेलियों से उसके सर को धकेल कर अपनी बुर पर लाना चाहती थी पर जाने यह यह क्यों संभव नहीं हो पा रहा था । मेरी हथेलियां उसके सर तक पहुंचती पर मैं उसे छू नहीं पा रही थी।
अचानक मुझे मेरी जाँघे फैलती हुई महसूस हुयीं। लंड का स्पर्श मेरी बुर पर हो रहा था बुर से निकल रहा चिपचिपा रस रिश्ते हुए मेरी कोमल गांड तक जा पहुंचा था। मैं उत्तेजना से हाफ रही थी तभी लंड मेरी बुर में घुसता हुआ महसूस हुआ।
मैं चीख पड़ी
"बाबूजी……"
मेरी नींद खुल गई पर बाबूजी जाग चुके थे। उन्होंने कहा
"का भईल सुगना बेटी"
भगवान का शुक्र था। लाइट गयी हुयी थी। मेरी दोनों जाँघें पूरी तरह फैली हुई थी और कोमल बुर खुली हवा में सांस ले रही थी। वह पूरी तरह चिपचिपी हो चली थी मेरी उंगलियां उस प्रेम रस से सन चुकी थी। मैंने सपने में अपनी बुर को कुछ ज्यादा ही सहला दिया था। मेरी चूचियां भी ब्लाउज से बाहर थी।
मैंने बाबूजी की आवाज सुनकर तुरंत ही अपनी साड़ी नीचे कर दी।
मुझे चुचियों का ध्यान नहीं आया। बाबूजी की टॉर्च जल चुकी थी उसकी रोशनी सीधा मेरी चुचियों पर ही पड़ी। प्रकाश का अहसास होते ही मैंने अपनी साड़ी का पल्लू खींच लिया पर बाबूजी का कैमरा क्लिक हो चुका था। मेरी चुचियों का नग्न दर्शन उन्होंने अवश्य ही कर लिया था। साड़ी के अंदर चुचियां फूलने पिचकने लगीं।
मेरी सांसे अभी भी तेज थीं। बाबू जी ने टॉर्च बंद कर दी शायद वह अपनी बहू की चूँचियों पर टार्च मारकर शर्मा गए थे। उन्होंने फिर पूछा
" सुगना बेटी कोनो सपना देखलू हा का?" उनकी बात सच थी। मैंने सपना ही देखा था पर उसे बता पाने की मेरी हिम्मत नहीं थी। मैंने कहा
"हां बाबू जी"
"चिंता मत कर….नया जगह पर नींद ठीक से ना आवेला"
" हा, आप सूत रहीं"
मैंने करवट लेकर अपनी चुचियों को बाबूजी से दूर कर लिया और मन ही मन मुस्कुराते हुए सोने लगी। डर वश मेरी बुर पर रिस आया प्रेमरस सूख गया था।
उपरोक्त यादें भाग 11 से ली गयी हैं))))
वह शर्म से पानी पानी हो गई।
सरयू सिंह सुगना के अंतर्मन को नहीं जान रहे थे परंतु होटल और एकांत दोनों एक ही बात की तरफ इशारा कर रहे थे जिसे वह बखूबी समझ रहे थे। वह बेहद प्रसन्न हो गए और सुगना को अपने सीने से सटा लिया कजरी और पदमा को आते देख इस आलिंगन का कसाव तुरंत ही ढीला पड़ गया और सुगना के द्वारा दिया प्रसाद सरयू सिंह मुंह में डालकर सभी को जल्दी चलने का निर्देश देने लगे।
शाम हो चली थी बनारस महोत्सव में आज धर्म हावी था हर तरफ पूजा-पाठ की सामग्री बिक रही थी लगभग हर पांडाल से शंख ध्वनि और आरती की गूंज सुनाई पड़ रही थी सभी महिलाएं भाव विभोर होकर अपने-अपने इष्ट देव की आराधना कर रही थीं।
बनारस महोत्सव का चौथा दिन पूजा पाठ की भेंट चढ़ गया।
पंडाल की छत को एकटक निहारती सुगना कल के दिन का बेसब्री से इंतजार कर रही थी। कल का दिन सुगना के लिए बेहद अहम था। कल वह अपने बाबू जी से जी भर कर संभोग करना चाहती थी। और एक नहीं कई बार उनके वीर्य को अपने गर्भाशय में भरकर गर्भवती होना चाहती थी। अपने पुत्र मोह में वो यह बात भूल चुकी थी की डॉक्टर ने सरयू सिंह को संभोग न करने की सलाह दी हुई है।
सुगना की अधीरता को देख नियति भी मर्माहत हो चुकी थी वह सुगना के गर्भधारण को लेकर वह तरह-तरह के प्रयास कर रही थी। सुकुमारी और अपने पूरे परिवार की प्यारी सुगना के गर्भ से सुगना के परिवार की दशा दिशा तय होनी थी..
परंतु नियति निष्ठुर थी सुगना की तड़प को नजरअंदाज कर उसने अपनी चाल चल दी..
शेष अगले भाग में…