28-03-2022, 05:39 PM
“भाईजान एक काम कर दोगे?” नीचे उतरते-उतरते कानों में आवाज पड़ी तो रुक कर उसे देखने लगा।
वह हिना थी … यह कोई नई बात नहीं थी, वह जब तब मुझसे अपने काम कह लेती थी और मैं चुपचाप उसके काम कर देता था कि लड़की है, कहां जायेगी, कर ही देता हूँ।
मैंने सवालिया नजरों से उसे देखा।
“यहाँ तो पास में कोई दुकान खुली नहीं है, आप चौराहे की तरफ जा रहे हो तो पैड ला दो जरा!” उसने याचना भरे अंदाज में कहा।
“पैड!” मैं कुछ सकपका सा गया।
“हां, व्हिस्पर या नाईन जो भी हो।” कहते वक्त उसके चेहरे पर कोई झिझक नहीं थी।
मुझे कुछ बोलते न बना तो उसने मुट्ठी में दबा पचास का नोट मेरी तरफ बढ़ा दिया।
मैंने गौर से उसके चेहरे को देखा लेकिन वहां कोई ऐसी बात नहीं थी जो उकसाने वाली कही जाती. तो मैंने चुपचाप पैसे ले लिये और घर से बाहर निकल आया।
लॉकडाऊन का पीरियड चल रहा था, ऑफिस बंद ही था और वर्क फ्राम होम का तमाशा चल रहा था। घर पड़े-पड़े बोर हो जाता तो दोस्तों के पास निकल जाता था और रात को ही वापस लौटता था।
ठिकाना अभी भी लखनऊ के निशातगंज में वहीं था जहां पिछले ढाई साल से रह रहा था. लेकिन इस बीच उस घर में एक बदलाव यह हुआ था कि मकान मालिक की बेटी वापस आ गयी थी जो कहीं रहीमाबाद नाम के गांव में अपने ननिहाल में रहती थी।
अपने ठिकाने पर इज्जत बनाये रखने के चक्कर में मैं अपने बनाये नियम के मुताबिक मकान मालिक और उनके परिवार से बस रस्मी बोलचाल का ही रिश्ता रखता था.
लेकिन जब से उनकी वह लड़की हिना वापस आई थी, तब से यह नियम कुछ टूट सा यूं गया था कि वह खुद मेरे पास घुसी रहती थी और अक्सर अपने कामों में मुझसे मदद ले लेती थी या घर से बाहर के काम मुझसे करवा लेती थी।
हालांकि उसे लेकर मेरे मन में कोई गंदे ख्यालात तो नहीं ही आते थे … वह जाहिरी तौर पर बेहद शरीफ और मज़हबी किस्म की लड़की थी जो घर में भी खुद को नेक परवीन बनाये रखती थी. मतलब अच्छे से कवर कर के रखती थी, बाहर निकलती थी तो उसकी एक-एक उंगली तक कवर रहती थी, मुझे नहीं लगता कि किसी को भी उसकी शक्ल दिखने को मिलती होगी।
पांचों वक्त की पाबन्द थी और मुझे हमेशा भाईजान कह कर ही सम्बोधित करती थी। चेहरा बड़ा प्यारा था और जिस्म चूंकि पूरी तरह ढीले कपड़ों से कवर रहता था तो उसका कोई अंदाजा नहीं होता था।
यह पहली बार था कि उसने मुझसे कोई ऐसी चीज मंगाई थी कि जिसके लिये मेरे हिसाब से उसे झिझक होनी चाहिये थी, आखिर माहवारी या पैड जैसे सब्जेक्ट उन शरीफजात लड़कियों के लिये तो शर्म का बायस होते ही हैं जो उसकी तरह धार्मिक और घरेलू हों।
खैर … मैं निकला तो था रोहित और शिवम की तरफ जाने के लिये लेकिन उसके काम की वजह से पैड खरीद कर फिर वापस आना पड़ा।
मुझे संशय था कि उसने यह चीज सबकी जानकारी में मंगाई थी.
क्योंकि फिलहाल जो वक्त चल रहा था … उसके अब्बू भाई घर ही पर थे और इतनी एडवांस सोच के लोग तो वे नहीं थे।
फिर जब उसे देने गया तो उसने आंखों से सीधे ऊपर जाने का इशारा किया और खुद सामने से हट गयी।
मुझे भी समझ में आ गया कि उसने उनकी गैर जानकारी में ही वह चीज मंगाई थी।
मैं सीधा ऊपर आ गया। आधे घंटे बाद वह ऊपर आई तो शिकायती लहजे में बोली- क्या भाईजान, सबके सामने ही देने लग गये?
“मतलब उन्हें नहीं पता कि तुमने मुझसे पैड मंगवाये थे?”
“क्या बात करते हो भाईजान, यह चीज या तो लड़कियां खुद लाती हैं या अपने मियांओं से मंगवाती हैं, किसी गैर से थोड़े मंगवाती हैं।”
“हम्म … मुझे भी थोड़ी हैरानी हुई।”
“मजबूरी थी भाईजान … कास्मेटिक्स तो खुलने नहीं दी जा रही, किराने या मेडिकल से ही लेना पड़ेगा और वहां आदमियों से मांगते शर्म आती है तो सोचा कि आपसे मंगा लूं।”
मैंने कुछ बोलने के बजाय उसे पैकेट थमा दिया और उसकी आंखों में देखने लगा जहां एक किस्म का विचलन नजर आ रहा था।
“कुछ कहना चाहती हो?”
“हां- कई दिनों से सोच रही थी कि आपसे बात करूँ लेकिन डर लग रहा है कि पता नहीं आप कैसे रियेक्ट करेंगे।” वह कुछ झिझकते हुए बोली थी।
“डरने की जरूरत नहीं … जो कहना हो कहो।”
वह थोड़ी देर चेहरा झुका कर पांव के अंगूठे से अपनी चप्पल खोदती रही, फिर चेहरा उठा कर बोली- आपकी इतनी एज हो गयी, शादी नहीं किये?
“की थी लेकिन कामयाब नहीं रही तो उससे निकल कर आगे बढ़ लिया। जबरदस्ती के रिश्तों को निभाने का कोई मतलब नहीं।”
“फिर आपका काम कैसे चलता है … मम…मेरा मतलब है कि …” वह बात पूरी भी न कर पाई और उसका चेहरा एकदम पसीने से भीग गया।
जबकि मेरी एकदम ठंडी सी सांस छूट गयी थी। कोई मुझ पर ध्यान देने वाला जब यह नहीं पूछता है तब ताज्जुब होता है। उसका सवाल मुझे हैरान करने वाला नहीं था बल्कि यह बताने वाला था कि वह मेरे बारे में इस हद तक सोचती है जो उसके कट्टर मजहबी मिजाज से मैच नहीं खाता था।
“चल जाता है … हैं कुछ ऐसी लड़कियां जिनसे मेरी जरूरत पूरी हो जाती है।”
मेरी बात सुन कर उसके चेहरे पर राहत के भाव आये।
उसने निगाहें उठा कर मेरी आंखों में झांका लेकिन न मेरे भावों में उसे नाराजगी मिली और न ऐसी हवस चमकी कि उसकी एक बात से ही मैंने कोई उम्मीद पाल ली हो तो वह रिलैक्स हो गयी।
“मैं डर रही थी कि कहीं आप बुरा न मान जायें। दरअसल मिजाज में आप बेहद शरीफ लगते हैं तो यह तसव्वुर करना भी मुश्किल है कि आप कुछ ऐसा वैसा भी कर सकते हैं जो किसी शरीफजात को जैब न देता हो।”
वह हिना थी … यह कोई नई बात नहीं थी, वह जब तब मुझसे अपने काम कह लेती थी और मैं चुपचाप उसके काम कर देता था कि लड़की है, कहां जायेगी, कर ही देता हूँ।
मैंने सवालिया नजरों से उसे देखा।
“यहाँ तो पास में कोई दुकान खुली नहीं है, आप चौराहे की तरफ जा रहे हो तो पैड ला दो जरा!” उसने याचना भरे अंदाज में कहा।
“पैड!” मैं कुछ सकपका सा गया।
“हां, व्हिस्पर या नाईन जो भी हो।” कहते वक्त उसके चेहरे पर कोई झिझक नहीं थी।
मुझे कुछ बोलते न बना तो उसने मुट्ठी में दबा पचास का नोट मेरी तरफ बढ़ा दिया।
मैंने गौर से उसके चेहरे को देखा लेकिन वहां कोई ऐसी बात नहीं थी जो उकसाने वाली कही जाती. तो मैंने चुपचाप पैसे ले लिये और घर से बाहर निकल आया।
लॉकडाऊन का पीरियड चल रहा था, ऑफिस बंद ही था और वर्क फ्राम होम का तमाशा चल रहा था। घर पड़े-पड़े बोर हो जाता तो दोस्तों के पास निकल जाता था और रात को ही वापस लौटता था।
ठिकाना अभी भी लखनऊ के निशातगंज में वहीं था जहां पिछले ढाई साल से रह रहा था. लेकिन इस बीच उस घर में एक बदलाव यह हुआ था कि मकान मालिक की बेटी वापस आ गयी थी जो कहीं रहीमाबाद नाम के गांव में अपने ननिहाल में रहती थी।
अपने ठिकाने पर इज्जत बनाये रखने के चक्कर में मैं अपने बनाये नियम के मुताबिक मकान मालिक और उनके परिवार से बस रस्मी बोलचाल का ही रिश्ता रखता था.
लेकिन जब से उनकी वह लड़की हिना वापस आई थी, तब से यह नियम कुछ टूट सा यूं गया था कि वह खुद मेरे पास घुसी रहती थी और अक्सर अपने कामों में मुझसे मदद ले लेती थी या घर से बाहर के काम मुझसे करवा लेती थी।
हालांकि उसे लेकर मेरे मन में कोई गंदे ख्यालात तो नहीं ही आते थे … वह जाहिरी तौर पर बेहद शरीफ और मज़हबी किस्म की लड़की थी जो घर में भी खुद को नेक परवीन बनाये रखती थी. मतलब अच्छे से कवर कर के रखती थी, बाहर निकलती थी तो उसकी एक-एक उंगली तक कवर रहती थी, मुझे नहीं लगता कि किसी को भी उसकी शक्ल दिखने को मिलती होगी।
पांचों वक्त की पाबन्द थी और मुझे हमेशा भाईजान कह कर ही सम्बोधित करती थी। चेहरा बड़ा प्यारा था और जिस्म चूंकि पूरी तरह ढीले कपड़ों से कवर रहता था तो उसका कोई अंदाजा नहीं होता था।
यह पहली बार था कि उसने मुझसे कोई ऐसी चीज मंगाई थी कि जिसके लिये मेरे हिसाब से उसे झिझक होनी चाहिये थी, आखिर माहवारी या पैड जैसे सब्जेक्ट उन शरीफजात लड़कियों के लिये तो शर्म का बायस होते ही हैं जो उसकी तरह धार्मिक और घरेलू हों।
खैर … मैं निकला तो था रोहित और शिवम की तरफ जाने के लिये लेकिन उसके काम की वजह से पैड खरीद कर फिर वापस आना पड़ा।
मुझे संशय था कि उसने यह चीज सबकी जानकारी में मंगाई थी.
क्योंकि फिलहाल जो वक्त चल रहा था … उसके अब्बू भाई घर ही पर थे और इतनी एडवांस सोच के लोग तो वे नहीं थे।
फिर जब उसे देने गया तो उसने आंखों से सीधे ऊपर जाने का इशारा किया और खुद सामने से हट गयी।
मुझे भी समझ में आ गया कि उसने उनकी गैर जानकारी में ही वह चीज मंगाई थी।
मैं सीधा ऊपर आ गया। आधे घंटे बाद वह ऊपर आई तो शिकायती लहजे में बोली- क्या भाईजान, सबके सामने ही देने लग गये?
“मतलब उन्हें नहीं पता कि तुमने मुझसे पैड मंगवाये थे?”
“क्या बात करते हो भाईजान, यह चीज या तो लड़कियां खुद लाती हैं या अपने मियांओं से मंगवाती हैं, किसी गैर से थोड़े मंगवाती हैं।”
“हम्म … मुझे भी थोड़ी हैरानी हुई।”
“मजबूरी थी भाईजान … कास्मेटिक्स तो खुलने नहीं दी जा रही, किराने या मेडिकल से ही लेना पड़ेगा और वहां आदमियों से मांगते शर्म आती है तो सोचा कि आपसे मंगा लूं।”
मैंने कुछ बोलने के बजाय उसे पैकेट थमा दिया और उसकी आंखों में देखने लगा जहां एक किस्म का विचलन नजर आ रहा था।
“कुछ कहना चाहती हो?”
“हां- कई दिनों से सोच रही थी कि आपसे बात करूँ लेकिन डर लग रहा है कि पता नहीं आप कैसे रियेक्ट करेंगे।” वह कुछ झिझकते हुए बोली थी।
“डरने की जरूरत नहीं … जो कहना हो कहो।”
वह थोड़ी देर चेहरा झुका कर पांव के अंगूठे से अपनी चप्पल खोदती रही, फिर चेहरा उठा कर बोली- आपकी इतनी एज हो गयी, शादी नहीं किये?
“की थी लेकिन कामयाब नहीं रही तो उससे निकल कर आगे बढ़ लिया। जबरदस्ती के रिश्तों को निभाने का कोई मतलब नहीं।”
“फिर आपका काम कैसे चलता है … मम…मेरा मतलब है कि …” वह बात पूरी भी न कर पाई और उसका चेहरा एकदम पसीने से भीग गया।
जबकि मेरी एकदम ठंडी सी सांस छूट गयी थी। कोई मुझ पर ध्यान देने वाला जब यह नहीं पूछता है तब ताज्जुब होता है। उसका सवाल मुझे हैरान करने वाला नहीं था बल्कि यह बताने वाला था कि वह मेरे बारे में इस हद तक सोचती है जो उसके कट्टर मजहबी मिजाज से मैच नहीं खाता था।
“चल जाता है … हैं कुछ ऐसी लड़कियां जिनसे मेरी जरूरत पूरी हो जाती है।”
मेरी बात सुन कर उसके चेहरे पर राहत के भाव आये।
उसने निगाहें उठा कर मेरी आंखों में झांका लेकिन न मेरे भावों में उसे नाराजगी मिली और न ऐसी हवस चमकी कि उसकी एक बात से ही मैंने कोई उम्मीद पाल ली हो तो वह रिलैक्स हो गयी।
“मैं डर रही थी कि कहीं आप बुरा न मान जायें। दरअसल मिजाज में आप बेहद शरीफ लगते हैं तो यह तसव्वुर करना भी मुश्किल है कि आप कुछ ऐसा वैसा भी कर सकते हैं जो किसी शरीफजात को जैब न देता हो।”
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.