17-03-2022, 01:11 PM
चूंकि दोनों ही पढ़ने में अच्छी थीं और उनके बारहवीं के नंबर भी काफी अच्छे थे तो अगले ही कुछ हफ्तों में उन दोनों ही सहेलियों का एडमिशन उनकी पसंद के कॉलेज में हो गया। कल सुबह उनके कॉलेज का पहला दिन था जिसे सोच कर ही दोनों के ही मन में इतनी गुदगुदी थी कि नींद आना तो मुश्किल ही था और आंखों ही आंखों में पूरी रात कट गई।
" कितनी बार कहा है कि टाइम की कद्र करो, पता नहीं क्या करती रहती हो?? इतने साल हो गए लेकिन भागते दौड़ते पहुंचने की आदत इस लड़की की अब तक नहीं गई है।" कहते हुए भव्या के पिताजी अपनी चाय लिए वहीं बैठ गए जहां भव्या बगल में बैठी मुंह बनाए जबरदस्ती अपनी मां के गुस्से की वजह से पराठे के टुकड़े को पानी की मदद से सरका रही थी।
भव्या (चिढ़ कर)- प्लीज पापा, अब हम कॉलेज में हैं, कॉलेज में नहीं कि बस घंटियों की आवाज पर बस दौड़ती रहें, अब तो थोड़े बहुत लेट होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।
भव्या की मां (थोड़े गुस्से में) - हां, समय पर इस लड़की का कोई काम तब हो ना जब इसे किसी जिम्मेदारी का कोई अहसास हो?? यहां तो बस जो मन आया जैसे मन आया पड़े रहे।
"वाउ, क्या बात है लहसुन मिर्च वाली चटनी...... तब तो जरूर वो खस्ता वाले पराठे ही बन रहे होंगे, क्यों आंटी जी...??" कहती हुई नीतिका प्यार से आ कर बगल में बैठ गई और भव्या को जल्दी करने के इशारे करने लगी।
नीतिका की प्यारी बात पर भव्या की मां भी मुस्कुरा उठीं और नाश्ता करने को कहा लेकिन नीतिका ने पेट बिल्कुल भरा है कह कर टाल दिया और दोनों से मिल कर भव्या के साथ कॉलेज के लिए निकल गई।
कॉलेज का पहला दिन किसी बड़े त्योहार से कम नहीं होता है नए बच्चों के लिए, वही हाल वहां भी था। जहां लड़कियां रंग बिरंगे कपड़ों, पर्स में अपना एक से एक फैशन दिखा रही थीं वहीं लड़के भी किसी मामले में कम नहीं थे। जहां लड़कियां नजरें बचा -बचा कर स्मार्ट लड़कों को निहार रही थीं वहीं लड़के भी अपनी - अपनी सेटिंग बिठाने के फिराक में हर किसी पर नजरें जमा रहे थे।
ऐसे माहौल में थोड़ी बहुत नर्वस तो दोनों ही दोस्तें थीं लेकिन फिर भी जहां भव्या खुद को वहां के माहौल में ढाल लेने में थोड़ी हद तक सफल हो रही थी वहीं नीतिका इसके विपरीत खुद के अंदर की असहजता से परेशान थी। आज का पहला दो क्लास तो यूं ही एक दूसरे को और टीचर्स को जानने और समझने में ही निकल गया और आगे लगभग चालीस मिनट का ब्रेक था तो दोनों ही दोस्त कॉलेज के कैंटीन की ओर ना जा कर वहीं उसके थोड़े पहले एक शांति वाली जगह देख कर बैठ गईं।
भव्या (हंसती हुई)- बाप रे, नीकू ये तो गांव के मेले जैसा नहीं लग रहा, जो रंग खोजो वो मिलेगा.....
नीतिका (थोड़ी परेशान सी)- भावी, यार मेरे से सच में ये सब संभलेगा भी या नहीं। कहीं कॉमर्स ले कर मैंने कोई गलती तो नहीं कर दी।
भव्या (घूरती हुई)- ले..... मैं यहां इतना मजेदार नजारा दिखा रहा हूं और एक तुम, कॉलेज के पहले दिन ही अपने पढ़ाई का रोना ले कर बैठी हो।
नीतिका (रुआंसी सी)- सच कहूं तो यहां कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा भावी, सब कुछ कितना अलग है ना.... (फिर कुछ सोच कर)...... शायद विवेक भैया सही ही कह रहे थे कि ये जगह हमारे लिए नहीं है।
भव्या (थोड़ा चिढ़ कर)- यार नीकू तू भी...... यहां हमें खुल कर जीने को आसमान मिल रहा है और तुझे अब भी अपने रूम में ही रहना है, निकलेंगे नहीं तो फिर जिएंगे कैसे खुल कर।
भव्या (थोड़ा समझाती हुई प्यार से)- अच्छा, अब ये बताओ कि जब जॉब करोगी तब क्या करोगी??
नीतिका (खुद को सामान्य करते हुए)- हां यार, ठीक कह रही है।
" कितनी बार कहा है कि टाइम की कद्र करो, पता नहीं क्या करती रहती हो?? इतने साल हो गए लेकिन भागते दौड़ते पहुंचने की आदत इस लड़की की अब तक नहीं गई है।" कहते हुए भव्या के पिताजी अपनी चाय लिए वहीं बैठ गए जहां भव्या बगल में बैठी मुंह बनाए जबरदस्ती अपनी मां के गुस्से की वजह से पराठे के टुकड़े को पानी की मदद से सरका रही थी।
भव्या (चिढ़ कर)- प्लीज पापा, अब हम कॉलेज में हैं, कॉलेज में नहीं कि बस घंटियों की आवाज पर बस दौड़ती रहें, अब तो थोड़े बहुत लेट होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।
भव्या की मां (थोड़े गुस्से में) - हां, समय पर इस लड़की का कोई काम तब हो ना जब इसे किसी जिम्मेदारी का कोई अहसास हो?? यहां तो बस जो मन आया जैसे मन आया पड़े रहे।
"वाउ, क्या बात है लहसुन मिर्च वाली चटनी...... तब तो जरूर वो खस्ता वाले पराठे ही बन रहे होंगे, क्यों आंटी जी...??" कहती हुई नीतिका प्यार से आ कर बगल में बैठ गई और भव्या को जल्दी करने के इशारे करने लगी।
नीतिका की प्यारी बात पर भव्या की मां भी मुस्कुरा उठीं और नाश्ता करने को कहा लेकिन नीतिका ने पेट बिल्कुल भरा है कह कर टाल दिया और दोनों से मिल कर भव्या के साथ कॉलेज के लिए निकल गई।
कॉलेज का पहला दिन किसी बड़े त्योहार से कम नहीं होता है नए बच्चों के लिए, वही हाल वहां भी था। जहां लड़कियां रंग बिरंगे कपड़ों, पर्स में अपना एक से एक फैशन दिखा रही थीं वहीं लड़के भी किसी मामले में कम नहीं थे। जहां लड़कियां नजरें बचा -बचा कर स्मार्ट लड़कों को निहार रही थीं वहीं लड़के भी अपनी - अपनी सेटिंग बिठाने के फिराक में हर किसी पर नजरें जमा रहे थे।
ऐसे माहौल में थोड़ी बहुत नर्वस तो दोनों ही दोस्तें थीं लेकिन फिर भी जहां भव्या खुद को वहां के माहौल में ढाल लेने में थोड़ी हद तक सफल हो रही थी वहीं नीतिका इसके विपरीत खुद के अंदर की असहजता से परेशान थी। आज का पहला दो क्लास तो यूं ही एक दूसरे को और टीचर्स को जानने और समझने में ही निकल गया और आगे लगभग चालीस मिनट का ब्रेक था तो दोनों ही दोस्त कॉलेज के कैंटीन की ओर ना जा कर वहीं उसके थोड़े पहले एक शांति वाली जगह देख कर बैठ गईं।
भव्या (हंसती हुई)- बाप रे, नीकू ये तो गांव के मेले जैसा नहीं लग रहा, जो रंग खोजो वो मिलेगा.....
नीतिका (थोड़ी परेशान सी)- भावी, यार मेरे से सच में ये सब संभलेगा भी या नहीं। कहीं कॉमर्स ले कर मैंने कोई गलती तो नहीं कर दी।
भव्या (घूरती हुई)- ले..... मैं यहां इतना मजेदार नजारा दिखा रहा हूं और एक तुम, कॉलेज के पहले दिन ही अपने पढ़ाई का रोना ले कर बैठी हो।
नीतिका (रुआंसी सी)- सच कहूं तो यहां कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा भावी, सब कुछ कितना अलग है ना.... (फिर कुछ सोच कर)...... शायद विवेक भैया सही ही कह रहे थे कि ये जगह हमारे लिए नहीं है।
भव्या (थोड़ा चिढ़ कर)- यार नीकू तू भी...... यहां हमें खुल कर जीने को आसमान मिल रहा है और तुझे अब भी अपने रूम में ही रहना है, निकलेंगे नहीं तो फिर जिएंगे कैसे खुल कर।
भव्या (थोड़ा समझाती हुई प्यार से)- अच्छा, अब ये बताओ कि जब जॉब करोगी तब क्या करोगी??
नीतिका (खुद को सामान्य करते हुए)- हां यार, ठीक कह रही है।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.