09-03-2022, 01:32 PM
फिर एक दिन इत्तेफाक से मैं उसी टाईम वापस लौट रहा था जब वह वापस लौटती थी। वह शायद आधी गली पार कर चुकी थी जब मैं गली में दाखिल हुआ। लाईट हस्बे मामूल गुल थी और नीम अंधेरा छाया हुआ था। इतना तो मैं फिर भी देख सकता था उसके साथ चलता साया, जो पक्का राकेश ही था.. उसके गले में बांह डाले था और दूसरे हाथ से कुहनी मोड़े कुछ कर रहा था। पक्का तो नहीं कह सकता पर अंदाजा था कि वह उसके दूध दबा रहा था।
मेरे एकदम से आग लग गयी और मैं उसे आवाज देने को हुआ पर यह महसूस करके मेरी आवाज गले में ही बैठ गयी कि उसकी हरकत से शायद रुबीना को कोई एतराज ही नहीं था, क्योंकि न उसके कदम थमे थे और न ही वह अवरोध करती लग रही थी।
मुझे सख्त हैरानी हुई। दरवाजे पर पहुंच कर शायद दोनों ने कुछ रगड़ा रगड़ी की थी जो अंधेरे में मैं ठीक से समझ न सका और फिर वह अंदर घुस गयी और राकेश वापस मुड़ लिया।
मेरे पास पहुंचते ही उसने मुझे पहचान लिया और एक पल को सकपकाया तो जरूर लेकिन फौरन चेहरे पर बेशर्मी भरी मुस्कान आ गयी- घर तक छोड़ के आया हूँ बे, अब कोई नहीं छेड़ता। डोंट वरी… एश कर।
वह मेरे कंधे पर हाथ मारता हुआ गुजर गया और मुझसे कुछ बोलते न बना।
घर पहुंच कर मेरा रुबीना से सामना हुआ तो मेरा दिल तो किया कि उससे पूछूं लेकिन हिम्मत न पड़ी और बात आई गयी हो गयी।
अगले हफ्ते रात के करीब दस बजे मैं वापस लौट रहा था कि राकेश ने मेरी गली के पास ही मुझे रोक लिया। जनवरी का महीना था.. लाईट तो आ रही थी पर हर तरफ सन्नाटा हो चुका था। वे एक खाली खोखे में बैठे थे जो था तो धोबी का लेकिन अभी वहां अकेला राकेश ही था और उसका एक चेला, जिसने मुझे रोका था।
“अंदर चल।” चेले ने मुझे कंधे पर दबाव डाल कर खोखे के अंदर ठेलते हुए कहा और बाहर खुद खड़ा हो गया।
मेरे एकदम से आग लग गयी और मैं उसे आवाज देने को हुआ पर यह महसूस करके मेरी आवाज गले में ही बैठ गयी कि उसकी हरकत से शायद रुबीना को कोई एतराज ही नहीं था, क्योंकि न उसके कदम थमे थे और न ही वह अवरोध करती लग रही थी।
मुझे सख्त हैरानी हुई। दरवाजे पर पहुंच कर शायद दोनों ने कुछ रगड़ा रगड़ी की थी जो अंधेरे में मैं ठीक से समझ न सका और फिर वह अंदर घुस गयी और राकेश वापस मुड़ लिया।
मेरे पास पहुंचते ही उसने मुझे पहचान लिया और एक पल को सकपकाया तो जरूर लेकिन फौरन चेहरे पर बेशर्मी भरी मुस्कान आ गयी- घर तक छोड़ के आया हूँ बे, अब कोई नहीं छेड़ता। डोंट वरी… एश कर।
वह मेरे कंधे पर हाथ मारता हुआ गुजर गया और मुझसे कुछ बोलते न बना।
घर पहुंच कर मेरा रुबीना से सामना हुआ तो मेरा दिल तो किया कि उससे पूछूं लेकिन हिम्मत न पड़ी और बात आई गयी हो गयी।
अगले हफ्ते रात के करीब दस बजे मैं वापस लौट रहा था कि राकेश ने मेरी गली के पास ही मुझे रोक लिया। जनवरी का महीना था.. लाईट तो आ रही थी पर हर तरफ सन्नाटा हो चुका था। वे एक खाली खोखे में बैठे थे जो था तो धोबी का लेकिन अभी वहां अकेला राकेश ही था और उसका एक चेला, जिसने मुझे रोका था।
“अंदर चल।” चेले ने मुझे कंधे पर दबाव डाल कर खोखे के अंदर ठेलते हुए कहा और बाहर खुद खड़ा हो गया।
जिंदगी की राहों में रंजो गम के मेले हैं.
भीड़ है क़यामत की फिर भी हम अकेले हैं.